मंगलवार, 12 सितंबर 2017

आदर्शवाद

यथार्थवाद के लिए अंग्रेजी का शब्द ‘रियलिज्म’ है। ‘रियल’ शब्द ग्रीक भाषा के रीस शब्द से बना है जिसका अर्थ है वस्तु। अत: रियल का अर्थ होता है वस्तु सम्बन्ध् ाी। यही कारण है ‘‘रियलिज्म’ (यथार्थवाद) वस्तु के अस्तित्व से सम्बन्धित यह एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु सत्य है और प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष का अनुभव हमें इन्द्रियों से होता है। वास्तव में यथार्थवाद एक भौतिकवादी दर्शन है। वस्तु को वास्तविक अथवा यथार्थ मानने के कारण ही इस विचारधारा को वास्तववाद अथवा यथार्थवाद की संज्ञा दी जाती है। यथार्थवाद जगत को मिथ्या कहने वाली भावना का विरोधी स्वर है।

कार्टर वी0 गुड महोदय के अनुसार - ‘‘वह सिद्धान्त जिसके अनुसार वस्तुगत यथार्थता या भौतिक जगत चेतन मन से स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व रखता है, उसकी प्रकृति और गुण उसके ज्ञान से मालूम होते हैं।’’ रास महोदय के अनुसार - ‘‘यथार्थवाद यह मानता है कि जो कछु हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं, उनके पीछे तथा उनसे मिलता जुलता वस्तुओं का एक यथार्थ जगत है।’’ स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में -’’यथाथर्वाद का अर्थ उस विश्वास अथवा सिद्धान्त से है जो संसार को वैसा ही मानता है जैसा वह हमें दिखार्इ पड़ता है - अर्थात संसार केलव एक प्रपंच मात्र है।’’ नेफ के अनुसार - ‘‘यथार्थ्वाद आत्मगत आदर्शवाद का प्रतिकार है, जो सत्य का निवास मानव मस्तिष्क में मानता है। सब यथार्थवादी इस बात से सहमत हैं कि सत्य और वास्तविकता का अस्तित्व है और रहेगा, भले ही किसी व्यक्ति को उनके अस्तित्व का ज्ञान न हों।’’ ब्राउन के अनुसार-’’यथार्थवाद का मखु य विचार यह है कि सब भौतिक वस्तएु तथा बाह्य जगत के पदार्थ वास्तविक हैं और उनका अस्तित्व देखने वाले से पश्थक है। यदि उनको देखने वाले व्यक्ति न हों, तो भी उनका अस्तित्व होगा और वे वास्तविक होंगे।’’
यथार्थवाद साधारण व्यक्तियों की विचाराधारा माना जाये तो कुछ अनुचित नहीं है। सरल यथार्थवाद वस्तु जगत के प्रति हमारे दैनिक जीवन अनुभव एवं विश्वास ही है। साधारणतया हम यह कह सकते हैं कि भौतिक सत्य को ही यथार्थवादी सब कुछ मानता ह। यथार्थवादी ाौतिक जगत की सत्यता एवं सत्ता दोनों में विश्वास रखता है। यथार्थवाद प्रयोगवाद में विश्वास रखता है। डॉ0 चौबे ने स्पष्ट तौर पर यथार्थवादी दर्शन के विषय में कहा -’’यथार्थवाद अनुभव में भौतिक यथार्थता के जगत को वास्तविक एवं आधारभूत वस्तु मानता है। इसका विचार है कि भौतिक जगत ही वस्तुगत है और तथ्यगत जगत की कोर्इ ऐसी वस्तु है जिसे जैसे वह है उसी तरह सरलता से स्वीकार कर लेता है।’’ 

यथार्थवाद का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यथार्थवाद विचारधारा नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह वाद भी कर्इ शताब्दियों से चला आ रहा है। अरस्तु ने अपनी पुस्तक ‘फिजिक्स’ में लिखा है - ‘‘इस प्रकार की बहुत सी वस्तुयेंहैं जिन्हें हमसे संकेत किया है। जैसे कि पशु, पौघे, हवा, अग्नि और जल और जो अधिक स्पष्ट ढंग से प्रदर्शित करने का प्रयत्न करेगा तो उसे मालूम होगा कि अन्य कम प्रकट वस्तुओं की अपेक्षा उसे ज्ञात होगा कि उसमें विभेद करना कठिन नहीं है कि किनका अस्तित्व है किनका नहीं।’’ इसका अभिप्राय है कि जगत यथार्थ है। अरस्तु के बाद सन्त अक्विनास के विचारों में भी पदार्थ की यथार्थता का आभास मिलता है। सन्त अक्विनास ने माना कि र्इश्वर ने वस्तु जगत का निर्माण किया है। इसके पश्चात दर्शन जगत में कमेनियस नामक शिक्षाशास्त्री ने यथार्थवाद की भावना का प्रचार किया। कमेनियस ने मन को एक वस्तु रूप दिया। उनके अनुसार मनुष्य का मन ‘‘एक गोल आकार का दर्पण है जो कमरे में टंगा है और जिसमें उसके चारों ओर की सभी वस्तुओं की प्रतिच्छाया पड़ती है।’’

कमेनियस के पश्चात यथार्थवाद का विकास वस्तुत: माना जाता है। इसके बाद सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी से यथार्थवाद ने एक नया रूप लेकर आगे की ओर विकसित हुआ। डेकोर्ट ने यथार्थवाद को एक नया रूप दिया और आदर्णवादी विचारों के साथ यथार्थवादी विश्वास को बढ़ावा दिया। डेकोर्ट ने अपने िद्वेतत्ववाद ने यथार्थवाद की स्पष्ट झलक दिया और स्पष्ट किया कि र्इश्वर एवं प्रकृति अलग-अलग तत्व हैं। इसके पश्चात् स्पिनोजा ने भौतिक पदार्थ एवं वस्तुओं के प्रसार में र्इश्वर के गुण को देखकर यथार्थवादी विचारधारा को हवा दी। स्पिनोजा के पश्चात लॉक ने अपने विचार प्रस्तुत किये कि अनुभव से ही ज्ञान प्राप्त होता है और अनुभव प्राप्त करने में प्रकृति सहयोग देती है। प्रथम प्रकार अनुभव बाह्य जगत के प्रभाव से इन्द्रियों के द्वारा मन को ज्ञान मिलता है। लॉक के पश्चात कान्ट के विचारधारा में भी यथार्थवादी झलक मिलती है। कान्ट के अनुसार हमारे इन्द्रियानुभव और प्रत्यक्षीकरण बाह्य जगत की पुन:उपस्थिति हैं। यदि ये हमारी चेतना में उपस्थित हैं तो कांट का यह विचार नवयथार्थवाद से मिलता है। शिक्षाशास्त्री हरबार्ट के विचार में भी यथार्थवादी पुट मिलता है क्योंकि हरबार्ट मन पर बाह्य जगत पर प्रभाव मानते हैं।

बीसवीं शताब्दी से यथार्थवाद की नयी विचारधारा ने जन्म लिया और यह नवयथार्थवाद कहलायी। राल्फ, बाटन, पैरो, एडविन, वी0होल्ट, वाल्टर टी0, मारावन, एडवर्ड, ग्लीसन, स्फालडिंग तथा वाल्टर वी0 पिटकिन आदि नवयथार्थवादी कहलाये। यूरोप में यथार्थवाद का विकास का श्रेय ब्रेटेनो तथा माीरांग तथा जेम्स और मोच को है। बाद में मूर तथा रसेल ने आदर्शवाद के विरोध में यथार्थवाद को बढ़ाया। अमेरिका में इंग्लैण्ड के दार्शनिक नन, रसेल आदि के प्रयासों से आगे बढ़ा। इसके पश्चात् एलेक्जेन्डर, लायड मार्गन, मायड, मूर, केम्प, स्मिथ, जोड आदि अन्य दार्शनिकों ने यथार्थवादी प्रवृत्ति प्रकट की है। इसके पश्चात् आलोचनात्मक यथार्थवाद ने जन्म लिया। इनमें यथार्थवाद ड्यूरट डे्रक, आथर ओ0 लवज्वाय, जेम्स विसेट प्रैट, जार्ज सथ्याना, आर्थर के0 राजर्स तथा सा0ए0 स्ट्रांग आदि प्रमुख हैं। नवयथार्थवाद एवं आलोचनात्मक यथार्थवाद में भेद केवल ज्ञान के सिद्धान्त में से हैं। आलोचनात्मक यथार्थवाद के अनुसार हमारी चेतना में वस्तु की उपस्थित नहीं हो तो बल्कि उसकी पुनरूपस्थिति होती है और चेतना में हम जिस वस्तु का अनुभव करते हैं वह बाह्य वस्तु से अलग होती है। नवयथार्थवादी ऐडमसन तथा एंडू्रसेट नामक नवयथार्थवादी के अनुसार वस्तु हमारे जगत ने यथार्थ होती हैं और प्रत्यक्षीकरण के तीन अंश होते हैं- प्रत्यक्षीकरण का कार्य, प्रत्यक्ष, प्रत्यक्षीकृत वस्तु। बाद में सेलार्स ने भौतिक यथार्थवाद की विचारधारा निकाला जिनके अनुसार संसार की वस्तुओं का स्थान तथा भौतिक गुण होता है और वे भौतिक प्रणाली में अविच्छेद रूप से बंधी हुयी है।

भारतीय दार्शनिक परम्परा में यथार्थवादी विचारधारा भी मिलती है। वेदों में प्रकृति के तत्वों का वर्णन मिलता है, जिन्हें देवरूप स्वीकार किया गया और तत्सम्बन्ध् ाी उपासना हुयी। मानव शरीर को पंचतत्व का मेल माना और शरीर को धर्म का साध् ान माना। साधन को यथार्थ व अस्तित्ववान माना गया।

यथार्थवादी के तत्वमीमांसा के तत्व भारतीय दर्शन में मिलता है जिसमें संसार के पदार्थ भौतिक तथा मानसिक पदार्थ में बंटे माने गये। चरम यथार्थवादी चार्वाकवादी माने गये और इन्होंने संसार को यथार्थ माना। इन चार्वाकवादियों में इन्द्रियसुख को महत्व दिया। सांख्य दर्शन में भी यथार्थवादी तत्व पाये जाते हैं क्योंकि प्रकृति एवं पुरूष दो तत्व माने गये हैं। प्रकृति को सत्य, रजस और तमस् से युक्त माना गया और प्रकृति के परिवर्तन पुरूष के लिए उपभोग का आधार प्रदान करती है।

बौद्ध दर्शन में यथार्थवादी तथ्य प्रकट होते हैं, बौद्ध विषय वादियों की एक प्रणाखा मानता है कि बाह्य जगत है तथा उनका अपरोक्ष तथा साक्षात् प्रत्यक्ष होता है। बौद्ध धर्म का दूसरा सम्प्रदाय यह मानता है कि पदार्थों का उनके प्रत्ययों से अनुमान लगाया जता है जो उनकी प्रतिच्छाया तथा प्रतिरूप है। इस प्रकार से स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं में भी यथार्थवादी भावना पायी जाती है। 

यथार्थवाद के दार्शनिक आधार

• तत्व दर्शन में यथार्थवाद :- यर्थाथवाद यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड गतिणील पदार्थ का बना है? हम अपने अनुभवों के आधार पर जगत के नियमित क्रियाकलापों को पहचान सकते हैं। पदार्थ गतिशील हैं और वह अस्तित्व में हैं इसलिए सत्य है।

• ज्ञान शास्त्र मे यथार्थवाद - यथार्थवादियों का विचार है कि वास्तविक जगत का अस्तित्व है। हम वास्तविक वस्तु को जानते हैं क्योंकि इसका अस्तित्व है। हम यह कह सकते हैं कि वस्तु का वास्तविक जगत में अस्तित्व है तो वह सत्य है। कोर्इ भी कथन विश्लेषण के पश्चात ही स्वीकार्य है। ज्ञान का अस्तित्व मस्तिष्क ही स्वीकार करता है।

• मूल्य मीमांसा मे यथार्थवाद - यथार्थवादी प्राकश्तिक नियमों मे विश्वास करते हैं उनका कहना है कि मनुष्य इन नियमों का पालन करके सद्जीवन व्यतीत कर सकता है। प्रकृति सौन्दर्य से परिपूर्ण है। सौन्दर्य पूर्ण कला-कार्य, ब्रह्माण या प्रकृति की व्यवस्था तथा तर्क की प्रतिछाया है। कला की सराहना की जानी चाहिए।

यथार्थवाद के सिद्धान्त - यथार्थवाद प्रत्यक्ष जगत में ही विश्वास करते हैं उनके अनुसार अस्तित्व प्रत्यक्ष में हैं। उनके कुछ निश्चित सिद्धान्त हैं जिस पर नीचे विचार किया जा रहा है।

• दृश्य जगत ही सत्य- यथार्थवादी यह मानते है कि जो कुछ हम दखेते सुनते व अनुभव करते हैं वही सत्य है। प्रत्यक्ष ही सत्य है। इस जगत का सत्यता विचारों के कारण नहीं है अस्तित्व स्वयं में हैं।

• इन्द्रियाँ अनुभव व ज्ञान का आधार - सच्चे ज्ञान की पा्र प्ति ने हमारी बाह्य इन्द्रियां सहायक होती हैं क्योंकि यह हमें अनुभव प्रदान कर पूर्ण एवं वास्तविक ज्ञान लेने का आधार बनाती हैं। रसेल व हाइटहैड ने संवेदना को ज्ञान का आधार माना। रसेल के अनुसार - ‘‘पदार्थ के अन्तिम निर्णायक तत्व अणु नहीं है, वरन संवेदन हैं’। मेरा विश्वास है कि हमारे मानसिक जीवन के रचनात्मक तत्व संवेदना तत्व संवेदनाओं औति प्रतिभाओं में निहित होते हैं।’’

• वस्तु जगत की निरन्तरता - यथार्थवादी वस्तु जगत मे नियमितता को स्वीकार करते हैं। वे मन को भी यांत्रिक ढंग से क्रियाशील मानते हैं। यथार्थवादियों का विचार है कि अनुभव और ज्ञान के लिए नियमिता का होना आवश्यक है।

• यथार्थवाद पारलौकिकता को अस्वीकार करता है - यथार्थवाद प्रत्यक्ष को ही मानता है क्योंकि उसका अस्तित्व है और यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आधार है।

• वर्तमान व व्यावहारिक जीवन को महत्व - यथार्थवादी उन आदर्शों, नियमों एवं मूल्यों का कोर्इ महत्व नहीं देते हैं। जिनका सम्बन्ध वर्तमान एवं व्यवहारिकता से नहीं है। बौद्धिकता व आदर्शवादिता जीवन को सुखी नहीं कर सकते उनका मानना है कि-

जीवन का लक्ष्य समाज का कल्याण होना चाहिए। समाज के लोगों का दृष्टि कोण वैज्ञानिक हो। सामाजिक सक्रियता पर बल दिया जाना चाहिए। जीवन में वे क्रियायें अपनायी जायें जो लाभप्रद हों। वर्तमान जीवन ही विश्वसनीय हैं और भौतिकता से परिपूर्ण होना चाहिए।
आदर्शवाद का आधार विचार- आदर्शवाद का शुद्ध नाम विचारवाद होना चाहिये क्योंकि इसका मुख्य आधार विचार है। जगत की वास्तविकता विचारों पर आश्रित है। प्रक§ति एवं भौतिक पदार्थ की सत्ता विचारों का कारण है। आदर्शवाद का आधार भौतिक जगत न होकर मानसिक या आध्यात्मिक जगत है। विचार अन्तिम एवं सार्वभौमिक महत्व वाले होते हैं। वे सार अथवा भौतिक प्रतिरूप है जो जगत को आकार देते हैं, ये मानदण्ड है जिनसे इन्द्रिय अनुभव योग्य वस्तुओं की जॉच होती है।

आदर्शवाद का आधार आत्मा- एक दसू रा आधार आन्तरिक जगत है जिसे आत्मा या मन कहते हैं। इसी के कारण विचार प्राप्त होते और उन विचारों को वास्तविकता मिलती है जगत का आधार मनस है। यह यांत्रिक नहीं है, जीवन हम जटिल भौतिक रासायनिक शक्तियों में ही नहीं घटा सकते। यह मनस पर आध् ाारित है। पदार्थ को मनस का प्रक§ति क§त बाह्य रूप माना जाता है। आदर्शवाद का आधार तर्क व बुद्धि - आदर्शवाद का त§तीय आधार तर्क एवं बुद्धि कहा जा सकता है। इस सम्बंध में प्लेटो और सुकरात के विचार एक प्रकार से मिलते है कि मनुष्य में ही तर्क की शक्ति है और तर्क द्वारा ही विचार प्राप्त होते हैं।

आदर्शवाद का आधार मानव - आदर्शवाद का चौथा आधार मानव माना जा सकता है। आत्मा उच्चाशय एवं विचार, तर्क और बुद्धि से युक्ति हेाती है। मानव वह प्राणधारी है जिसमें अनुभव करने उनहें धारण करने और उन्हें उपयोग में लाने की विलक्षण शक्ति होती है। मानव सभी प्राणियों व पणुओं में सर्वश्रेण्ठ इसी कारण गिना जाता है क्योंकि महान अनुभव कर्ता है और उसे गौरव एवं आधार दिया जाता है, और र्इश्वर के अन्य सभी कार्यों पर उसका आधिपत्य होता है। मनुष्य में जो आत्मा होती है वास्तव में विभिन्न उच्च शक्तियों उसमें निहित होती है, उसी में तर्क, बुद्धि, मूलय नैतिक धार्मिक और आध्यात्मिक सत्तायें होती है।

आदर्शवाद का आधार राज्य - आदर्शवाद का पॉचवा आधार हगेले ने राज्य को माना है। इस सम्बंध में कर्निघम का विचार है कि हेगेल के लिये राज्य महान आत्मा का संसार में सर्वोच्च प्रकाशन है जिसका समय के द्वारा विकास सबसे बड़ा आदर्श है। राज्य दैवी विचार है इस प§थ्वी पर जिसका अस्तित्व है। इससे यह ज्ञात होता है कि राज्य की संकल्पना आदर्शवादी आधार के कारण ही है।

आदर्शवादी दर्शन के प्रमुख तत्व

तत्व मीमासां- सभी आदर्शवाददियों की मान्यता है कि यह जगत भौतिक नहीं अपितु मानसिक या आध्यात्मिक है। जगत विचारों की एक व्यवस्था, तर्कना का अग्रभाग है। प्रक§ति मन की क्रिया या प्रतीति है। भौतिक स§ष्टि का आधार मानसिक जगत है, जो उसे समझता है तथा मूल्य प्रदान करता है। मानसिक जगत के अभाव में भौतिक जगत अर्थहीन हो जायेगा। आदर्शवाद के अनुसार यह जगत सोद्देश्य है।

स्व अथवा आत्मा- आदर्शवादी स्व की प्रक§ति आध्यातिमक मानता है तथा तत्व मीमांसा में ‘‘स्व’’ को सर्वोपरि रखता है। यदि अनुभव का जगत ब्रह्म स§ष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है, तो अनुभवकर्ता मनुष्य तो और भी अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिये। आदर्शवाद के अनुसार ‘‘स्व’’ की प्रक§ति स्वतंत्र है उनमें संकल्प शक्ति है, अत: वह भौतिक स§ष्टि में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। क्रम विकास की प्रक्रिया में मनुष्य सर्वश्रेण्ठ इकार्इ है।

ज्ञान मीमांसा में आदर्शवाद- आदर्शवादी ज्ञान एव सत्य की विवचे ना विवेकपूर्ण विधि से करते हैं। वे ब्रह्माण्ड में उन सामान्य सिद्धान्तों की खोज करने का प्रयास करते है, जिनको सार्वभौमिक सत्य का रूप प्रदान किया जा सके। इस द§ष्टि कोण से उनकी धारणा है कि सत्य का अस्तित्व है, परन्तु इसलिये नहीं है कि वह व्यक्ति या समाज द्वारा निर्मित किया गया है। सत्य को खोजा जा सकता है। जब उसकी खोज कर ली जायेगी तब वह निरपेक्ष सत्य होगा आदर्शवादियों की मान्यता है कि र्इश्वर या निरपेक्ष मन या आत्मा सत्य है।

मूल्य आदर्शवाद- शिव क्या है? इसके विषय में आदर्शवाददियों का कहना है कि सद्जीवन को ब्रह्माण्ड से सामंजस्य स्थापित करके ही व्यतीत किया जा सकता है। निरपेक्ष सत्ता का अनुकरण करके ही शिव या अच्छार्इ की प्राप्ति की जा सकती है। आदर्शवादियों का मत है कि जब मनुष्य का आचरण, सावैभौमिक नैतिक नियम के अनुसार होता है तो वह स्वीकार्य होता है सुन्दर क्या है? आदर्शवादियों के अनुसार यह निरपेक्ष सत्ता सुन्दरम है। इस जगत में जो कुछ भी सुन्दर है, यह केवल उसका अंशमात्र है, अर्थात् उसकी प्रतिछाया है। जब हम कला के किसी कार्य को सौन्दर्यनुभूति करते हैं, तब हम ऐस इसलिये करते हैं, क्येांकि वह निरपेक्ष सत्ता का सच्चा प्रतिनिधि है। आदर्शवादी संगीत को सर्वोत्तम प्रकार की सौन्दर्यात्मक रचना मानते हैं।

आदर्शवाद की प्रशाखायें

आदर्शवादी दर्शन की अनेक णाखाये-प्रणाखायें है, परन्तु उनमें प्रमुख पॉच है-
1. प्लेटो का वस्तुनिष्ठ आदर्शवाद।
2. बर्कले का व्यक्तिनिष्ठ आदर्शवाद।
3. कान्ट का प्रपंचात्मक आदर्शवाद।
4. हेगले का द्वन्द्ववाद।
5. आधुनिक ब्रिटिश अमरीकी आदर्शवाद।

प्लेटा का वस्तुनिष्ठ आदर्शवाद-इस शाखा को यथाथर्वादी आदर्शवाद भी कहा जाता है। प्लेटो के अनुसार विचार सनातन, सर्वव्यापी तथा सार्वकालिक होते है। उनका अस्तित्व अपने आप में होता है। वे न तो र्इश्वर, न जगत पर आश्रित रहते हैं। इसका पूर्व भी अस्तित्व था, तथा हमारे अन्त के पण्चात् भी वे रहेंगे। विचार इस जगत की वस्तुओं का सार है। इन सनातन विचारेां की अपूर्ण प्रतिक§ति हम अनुभव द्वारा मालूम करते है। प्लेटो के अनुसार इन पूर्ण विचारेां की प्रतीति ऐन्द्रिक ज्ञान की अपेक्षा विवेक ज्ञान से होती है। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान अपूर्ण तथा असंगत होता है, जबकि विवेक ज्ञान से सिद्धान्तों की पकड़ आती है, जो हमेशा सत्य हेाते हैं।

बर्कले का व्यक्तिवादी आदर्शवाद- जॉन लॉक ने न्यूटन के सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जगत का आधार पुदगल है, जिसमें संवेदनीय लम्बार्इ, चौड़ार्इ, मोटार्इ, रंग ध्वनि, दूरी,दबाव आदि संवेदन अन्तनिर्हित है। बर्कले ने पुदग्ल की सत्ता को अस्वीकार किया तथा गुणों के द्वैत को भी। उसके अनुसार हम केवल गुणों को देखते हैं, गुणी जैसी किसी चीज को नहीं देखते। वस्तु गुणों का वह समूह मात्र है, और गुण मनोगत (आत्मगत) है, अत: केवल मनस् या आत्मा का अस्तित्व है, वस्तु का नहीं। इसी आधार पर उसने यह निष्कर्ण निकाला कि न केवल गौण गुण अपितु प्रधान गुण भी मानसिक है, न कि भौतिक। बर्कले के अनुसार स्व का सम्बंध हमारा ज्ञान परोक्ष तथा अनुमानित ज्ञान है, जिनका इन्द्रियों से अनुभव किया जा सके।

कान्ट का प्रपचांत्मक आदर्शवाद - प्लेटो तथा बकर्ले की भाित काटं भी पदार्थ को सत्य नहीं मानता। वह तर्कनाबुद्धि को हमारे सभी अनुभवों का समन्वयकारी केन्द्र मानता है। उसके अनुसार जागतिक पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से न होकर परोक्ष रूप से होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये कांट दिक और काल देा तत्वों को प्रमुख मानता है। इन्ही दो गुणों के फलस्वरूप हम बाह्य जगत का ज्ञान प्राप्त करते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान भी विश्रश्खलित होता है, उसे समन्वित रूप में ग्रहण करने के लिये कांट तर्कना को आवण्यक मानता है। आत्मीकरण की इस प्रक्रिया को कांट की अवधारणा नाम से जाना जाता है, ज्ञेय प्रत्ययों को कांट ने 12 भागों में विभक्त किया है।

कांट ने मानव आत्मा अथवा ‘‘स्व’’ को सर्वोपरि माना। सभी आदर्शवादियों के समान वह भी स्व को मनस युक्त मानता है भौतिक नहीं। कांट के अनुसार मनस दिक् और काल का सर्जक है, तथा आवधारणा से उपर्युक्त वर्गीकरण का धारक है मनुष्यात्मा सर्वोपरि है। 

हगेल का द्वन्द्वावाद- हगेल के अनुसार सत्ता तथा उससे सम्बधं का हमारा ज्ञान समरूप है एवं हमारा ज्ञान तर्क बुद्धि परक होता है और स्वयं सत्ता कि इस तर्कबुद्धि परक व्यवस्था के कारण मनुष्य का ज्ञान सत्ता को उसी सीमा तक ग्रहण कर पाता है, जिस सीमा तक हमारे ज्ञान तथा सत्ता के बीच समरूपता हो। हेगल की मान्यता है कि विश्व निर्बाध गति से सक्रिय विकास की ओर बढ़ रहा है इस क्रम विकास की प्रक्रिया द्वारा विश्व अपने आप में अन्तर्निहित उद्देश्य की ओर बढ़ रहा है। इस क्रम विकास का प्रयोजन अपने आप में निहित लक्ष्य तथा नियति के बारे में सचेत होना है। हेगल इसी क्रम विकास के विचार को आगे बढ़ाते हुये कहता है कि ‘‘सत्ता’’ परम-तत्व के मन में विचार का विकास है। ब्रह्माण्ड चेतना (परमेण्वर) सत्ता के रूप में तीन स्थितियों में विकसित होती है यथा, स्थापना, प्रतिस्थापना तथा संस्थापना। हेगल इसे अधिकाधिक पूर्णता की ओर बढ़ने की प्रक्रिया मानता है।
नैतिकता का सिद्धान्त - इस द्वन्द्वात्मक चिन्तन शैली को हगेल नैतिकता के क्षेत्र में भी प्रयुक्त करता है। समूह की नैतिकता जो कि सामाजिक संस्थाओं में परिलक्षित होती है, वैयक्तिक नैतिकता का सही मार्ग दर्शन कर सकती है। 

आधुनिक आदर्शवाद - यूरापे में आदर्शवाद का जो आरम्भ जमर्नी में हुआ था, वह हेगल के साथ समाप्त हुआ। माक्र्स ने हेगल के द्वन्द्वावद को अपनाया परन्तु तत्व मीमांसा में भौतिकवाद को ग्रहण किया। इंग्लैण्ड, स्काटलैण्ड, इटली तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में आदर्शवादी विचारधारा ने नया रूप ग्रहण किया। ब्रिटेन में सेम्युअल,, कालरिज, जेम्स, हचिसन, स्टलिंगि, जान केअर्ड, बर्नाड, बोसाके बे्रडले नन आदि का नाम लिया जाता है।

आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त

थामस और लैंग ने आदर्शवाद के निम्नलिखित सिद्धान्त बताये हैं-
वास्तविक जगत मानसिक एवं आध्यात्मिक है। सच्ची वास्तविकता आध्यात्मिकता है। आदर्शवाद का मनुष्य में विश्वास है क्योंकि वह चिन्तन तर्क एवं बुद्धि के विशेष गुणों से परिपूर्ण है। जो कुछ मन संसार को देता है, केवल वही वास्तविकता है।ज्ञान का सर्वोच्च रूप अन्तद§ष्टि है एवं आत्मा का ज्ञान सर्वोच्च है। सत्यं शिवं सुन्दरं के तीनों शाश्वत मूल्य हैं और जीवन में इनकी प्राप्ति करना अत्यान्तावश्यक है। इन्द्रियों की सच्ची वास्तविकता को नहीं जाना जा सकता है। प्रक§ति की दिखायी देने वाली आत्म निर्भरता भ्रमपूर्ण है। र्इश्वर मन से सम्बंध रखता है।भौतिक और प्राक§तिक संसार- जिसे विज्ञान जानता है, वास्तविकता की अपूर्ण अभिव्यक्ति है। परम मन में जो कुछ विद्यमान है वही सत्य है और आध्यात्मिक तत्व है। विचार, ज्ञान, कला, नैतिकता और धर्म जीवन के महत्वपूर्ण पहलू है। हमारा विवेक और मानसिक एवं आध्यात्मिक द§ष्टि ही सत्य ज्ञान प्राप्त करने का सच्चा साधन है। मनुष्य का विकास उसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों पर निर्भर करता है।