अन्तरात्मा की पुकार

 मुक्तक काव्य संग्रह

रचयिता - राम बरन त्रिपाठी 

               नमन

मरीचि माला - माला के प्रसाद से,

आतिव आलोकित मार्ग

हो गया ।

अपूर्व आभा जिनसे मिली मुझे

नमामि ऐसे गुरूदेव को सदा।।

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            वाणी वन्दना

मातु शारदे ! वरदे

वीणा को कुछ समय के लिए एक ओर धर दे ,

मातु शारदे! वरदे!

कृषकों के कुदाल खुरपी पर ,

अम्ब फेर अपने सशक्त कर ,

श्रमिक वर्ग में नवल तेज भर ,

फिर सुसिप्त उनकी अम्बे हर।।

रग-रग में जन -जन में मात अनुपम 

स्वर भर दें । मातु शारदे! वरदे!...

चपल अंगुलियां फेर तार पर ।

तन्तुवाय में नवल शक्ति भर दें,

नव शिशुओं में नव विकास कर ,

ध्वनि अम्ब कर चक्र सुघर घर।।

वीणा नवल बजे भारत में कुछ ऐसा कर दें।।

मातु शारदे! वरदे!...

भारत के वीरों में जाकर मां सास्त्तास्तों में 

प्रलयंकर भर दें ओज अपूर्व प्रखर तर ,

जिससे कांपे अरि दल थर-थर,

दिग्विजयी निज पुत्रों को पावन वर दें ,

मातु शारदे! वरदे!    


                            मुक्तक 

                               (2)

                 अंधेरा धरा से मिट न पाया 

जलाएं सहस्त्रों विविध दीप हमने ,

अंधेरा धरा से मिटा पर न पायें 

रही साध ऐसी कि जग जगमगायें ।

नहीं किन्तु दीपक तलें देख पाये।।१

यान हमने बनाये सफर के लिए ,

शस्त्र हमने बनाये समर के लिए,

शौख्य सुविधा जुटाए असर के लिए ,

अन्त कुछ न पाए डगर के लिए।।२

तुम मुझको यार कहते हैं,

तुम मुझको प्यार करते हो ।

मगर वह फासला जो है ,

उसे कब पार करते हो ।।३

तन-मन -धन जो अपना है , 

लगा दे दिया करता है,

भला जो है नहीं अपना ।

वृथा विश्वास क्यों करता।।४

सुन्दर और असुन्दर जग में 

कुछ भी कहीं नहीं है।

जिसकी रूचि जिस पर मनमानी,

उसके लिए वही है।।५

सबको अपनी अपनी धुन है अपनी अपनी राहें 

कोई वैभव में इठलाता कोई भरता निसा दिन आहें।

भरत- भूमि के एक घास अग्र भाग में वह पानी ।

जो छूने से प्रलय सिन्धु उमड़ पड़ेगा ।

काश्मीर की शस्य श्यामल भूमि के लिए ।

अरे दश्युओ कैसे तुमने कदम बढ़ाया।

मिलती है यदि कभी सांत्वना 

चिंता में तो अपने मन से अन्य भले समझाएं 

दिन -दिन दूर न होता पर दुख मन से।

जो कुछ है सीमा उसकी ही,

जो कुछ नहीं असीम वहीं।।९



           सत्य की खोज

                   (३)


सत्य की खोज करता रहा रात दिन,

विश्व की बीथियों में भटकता रहा।

मंदिरो में गया, मस्जिदों में गया,

तीर्थ गुरूद्वार में सिर पटकता रहा।।

मूर्तिया ें ने कहा मुस्कुरा व्यंग्य से,

है अधूरी तुम्हारी अभी साधना।

मस्जिदों से मिली मूक अवहेलना,

मृत्तिका से मिली पूर्व की भावना।।

फिर चला रूप के देश उद्यान में,

पुष्प सौदर्य सारा बिखरता रहा।

गन्धवा दान हिस्से अनिल के े पड़ा,

मन मधुकर मुखर हो सिंहरता रहा।।

देख मुझको सुमन - वाटिका भी हंसी,

मैं मुड़ा जैसे हारा जुआरी जगा।

भृंग ने गुनगुना कुछ इसी ढंग से,

आ कहा कान में वाण जैसा लगा।।

किन्तु माना नहीं मन पुनः मैं चला,

साधु सन्यासियों के े सुआश्रम गया।

उन सभी ने कहा विश्व निस्सार है,

सत्य संसार से दूर देखा गया।।

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