शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2023

"अन्तरात्मा की पुकार ''और कवि

अन्तरात्मा की पुकार ''और कवि
डॉ  सुरेश कुमार शुक्ला
         प्रवक्ता संस्कृत
राजकीय विद्यालय झारखंड

"नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा। शीलं च दुर्लभं तत्र, विनयस्तत्र सुदुर्लभः॥" हिन्दी साहित्य परम्परा में सतत् तत्पर रहते वाले भावभीनी प्रतिभा से विभूषित सहृदयों के हृदय को हिलोर देने वाले भाषा विलासिनी भुजंगम् आचार्य पंडित श्री राम बरन त्रिपाठी द्वारा रचित मुक्तक काव्य "अंतरात्मा की पुकार" को पाठक जितनी बार पढ़ते हैं उतना ही आनंद बढ़ता चला जाता है विगत वर्षों में यद्यपि बहुत सारे गद्य काव्य, कथा संग्रह,पद्य काव्य, चम्पू काव्य आदि विधाएं प्रकाशित हुई इस तरह का प्रत्येक छंद अपने आप में पूर्ण आनंद प्रदान करने वाला काव्य तैयार करने की कला तो केवल पंडित जी में ही दिखाई देती है। इनकी लेखनी जिस भी विधा में चल जाती है वहां अमित छाप छोड़ जाती है।
आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में एक और कड़ी को मुखरित और पल्लवित कर त्रिपाठी जी का एक - एक मुक्तक सहद में डूबा हुआ प्रतीत होता है।
श्री त्रिपाठी जी की लेखनी में अद्भुत क्षमता है जो वाणी से समेटना उनके साथ अन्याय होगा लेखन लेखक के अन्तर्जगत का प्रतिबिम्ब होता है। प्रत्येक लेखकके लेखन में उसके व्यक्तित्व की झलक दिखता है। यही कारण है कि त्रिपाठी जी के मुक्तक काव्य में सोद्देश्य उपादेयता नैतिकता, देश प्रेम, राजनीति, प्रपंच आदि का सांगोपांग चित्रण करने में जरा भी कोर - कसर नहीं छोड़ा है।

स्वनामधन्य, विप्रवंश, शिरोमणि श्री त्रिपाठी जी के विषय में कुछ कह पाना अपनी एक दृष्टता ही होगी , परन्तु हृदय में जो उफान है वह रुक भी नहीं रहा है। किसी भी कार्य को करने का कुछ न कुछ प्रयोजन अवश्य ही  होता है -
“प्रयोजनं विना तु मन्दोऽपि न प्रवर्तते |”
इसलिए कहा भी गया है कि- कस्यचिदपि कार्यस्य कर्मणो वापि कस्याचित्। यावत्प्रयोजनं नोक्तं तावत्केन गृहते।।
सात्विक श्रोत से आयी हुई सम्पत्तियां  हमेशा सुखकारी होती है पाप कर्मों से आयी हुई सम्पत्तियां सदा कलुषता को ही उत्पन्न करती है त्रिपाठी जी का सात्विक विचार निश्चित ही रूप से उनके काव्य में झलक रहा है। वास्तव में यह हिन्दी साहित्यकार हिन्दी साहित्य समाज में व्याप्त सामाजिक जटिलता को दूर करने में, कठिनता को सरल करने में, आर्थिक , राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, जातिवाद, राष्ट्रवाद , भ्रष्टाचार आदि जैसी विसंगतियों को दूर करने के उद्देश्य से अपने इस प्रयास के माध्यम से मुक्तक काव्य की रचना करने में सार्थक सिद्ध हुए हैं।


यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

संवेदना की अखंड ज्योति : अन्तरात्मा की पुकार


संवेदना की अखंड ज्योति : अन्तरात्मा की पुकार 

राम बरन त्रिपाठी जी के काव्य संग्रह 'अन्तरात्मा की पुकार ' की  कविताओं को पढ़कर कविता के सम्प्रेषण शक्ति पर विश्वास जमता है। आज के इस जटिल जीवन शैली में हमारे जीवन दृश्यों को इतने सहज -सरल व आकर्षक ढंग से उभार कर हमारे समक्ष रख देते हैं  कि हमारा जीवन हमारे समक्ष एक नये दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत हो जाता है।
समय के साथ प्रत्येक युग अपनी अर्थवत्ता खो देता है या जिस युग की जड़ें अपने परिवेश से जुड़ी नहीं होती वह युग हमारे लिए या समाज के लिए सार्थक नहीं हो सकता । इसी के चलते वर्तमान काल में पहुंच कर ढेर सारी काव्य प्रवृत्तियां बेहद कम समय में अपने निर्धारित उद्देश्य से विमुख होकर काल के गाल में समाती जाती है। वहीं नवगीत परम्परा अपनी गीतात्मकता के कारण आदिकाल से लेकर आज तक अपनी सार्थकता बनाएं हुए हैं । इन नवगीतकारों में जिन गीतकारों ने अपने गीतों की विषय वस्तु लोक से उठाया है,  या लोक से जुड़कर गीत प्रस्तुत किया  उनके गीत चिरस्थायी हो गये है ।ऐसे लोक गायक रामबरन त्रिपाठी जी लोक के जुड़ाव के साथ अपने 'अन्तरात्मा की पुकार ' में  जो। मुक्त छंद वाटिका प्रस्तुत की है वह एक तरह से उनके 'अन्तरात्मा की पुकार 'का 'उत्तर काण्ड' है। वर्तमान कालीन प्रत्येक  मानवीय मनोभावों को त्रिपाठी जी ने अपने सूक्ष्म पर्यवेक्षण के साथ प्रस्तुत किया है ।
इस काव्य संग्रह से -
"पनघट पर भीड़ लगीं हैं
 आती न हमारी बारी
 यह हृदय पात्र खाली है
 रोती बेबस लाचारी।।"
वर्तमान कालीन मानवीय संवेदना को पूरी तरह उभार कर प्रस्तुत कर देते है। जहां समूचे प्रदेश से कटा मानव  एकाकी जीवन दृष्टि के साथ उपस्थित हैं। वेदना जब संवेद्य होती है तभी हमारे हृदय तल को स्पर्श कर सकती है और जब संवेद्य होकर हमारे अंतर्मन तक पहुंच जाती है तो सामने वाले के दुःख , पीड़ा , वेदना से हमारा अंतर्मन चित्कार कर उठता है।यह सब सहज आंतरिक प्रक्रिया है जो हमारे जीवन के साथ सहजात हैं । हम जितना ही परदुख कातर होते हैं उतने ही संवेदनशील भी होते हैं। मानव के इसी एकाकीपन व अदृष्ट वेदना से छुटकारा दिलाने के लिए कवि की बेचैनी इस काव्य संग्रह के मंगलाचरण में देखी जा सकती है -
"मातु शारदे!वर दे!
कृषकों के कुदाल, खुरपी पर ,
अम्ब फेर अपना सशक्त कर।।"
***             *****         *****
भारत के वीरों में जाकर
मां शस्त्रास्त्रों में प्रलयंकर
भर दे ओज अपूर्व प्रखरतर।।"
यहां कवि का लोक-मंगलकारी भावना देखने को मिलता है , कवि दृष्टि मजदूर, कृषक और सैनिक समाज के हर वर्ग तक जाती है और कवि सब के मंगल की कामना करता है ।
                       लोक सम्पृक्ति और मानवीय दृष्टिकोण के साथ ही कवि अपनी दार्शनिक दृष्टि बड़े सहज रूप से हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर देता है। काव्य रस से भीगा हमारा मन बड़े सहज ढंग से काव्यमयता में डूबी दार्शनिकता को ग्रहण कर लेता है।

"माया की डोर अनूठी , आनंद सिंधु को खींचे।
ज्यों नभ के मेघ निराले, ऊपर से भू को सींचे।।"२७५

""कण कण में बास तुम्हारा, पर देते नहीं दिखाई,
आंखों का दोष हमारा, अथवा प्रभु की प्रभुताई।।"२७६

अस्तु काव्य रस से सिक्त मन को लगाम खींचकर रोकना होगा नहीं तो काव्य के इस गतिशील प्रवाह में मन सहज ही प्रवाहमान रहेगा। ऐसी सरस और सहज काव्य कृतियां काव्य समय में उपस्थित होकर काव्य सामर्थ्य को प्रस्तुत करती है।
                                                    संजय प्रताप सिंह
प्रवक्ता हिन्दी
राजकीय विद्यालय 
अमेठी उत्तर प्रदेश



यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

।। नान्नदीवाक्।।

।।नान्दीवाक्।। 
यमदग्नि की कर्मस्थली, आलम की केलिन से गुंजित, जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी की चकाचक धरती, गिरिजा दत्त शुक्ल 'गिरीश' जैसे विद्वद् वरेण की शैली से ओतप्रोत तथा प्रो0 गंगा नारायण त्रिपाठी की जन्मस्थली सुजानों की धरती सुजानगंज को आलोकित करने वाले पूज्यपाद कविभूषण श्रद्धेय श्री रामबरन त्रिपाठी द्वारा रचित अन्तरात्मा की पुकार नामक यह मुक्तावली कोमल पदावली युक्त तथा सह्र्दयों के मन को मुग्ध करती है। 
जिस प्रकार वृक्ष के जीवन चक्र में मूल से स्कंध, स्कंध से शाखाएं ,शाखाओं से वृत्त, वृत्त से पल्लव, पल्लवों से पुष्प, तथा पुष्पों से फलों का उद्भव होता है और फलों के अमृतोपम रस से ही समूचे वृक्ष के जीवन चक्र की सार्थकता सिद्ध होती है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य अपने कर्मेंद्रिय तथा ज्ञानेंद्रिय के माध्यम से शरीर, मन, प्राण, इंद्रिय, जन्म, मरण, सृष्टि, प्रलय, आदि गहन विषयों का हस्तामलकवत् ज्ञान प्राप्त कर अपनी अन्तरात्मा के द्वारा प्राप्त तत्त्वों को समाज हेतु प्रस्तुत करता है। तो उसके जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। इसी लोकहित की भावना से प्रेरित होकर कवि के द्वारा संकल्पित अंतरात्मा की पुकार नामक या मुक्तक काव्य सभी सुधीजनों के लिए प्रस्तुत है। 
कवि ने समाज  में फैली बुराइयों को न दूर कर पाने  पर बड़ा ही मार्मिक मुक्तक प्रस्तुत करते हुए कहा कि-

 जलाए सहस्त्रों विविध दीप हमने
 अंधेरा धरा से मिटा पर न पाए। 
रही साध ऐसी की जग जगमगाये
 नहीं किंतु दीपक तले देख पाए।।

गोपाल दास नीरज की पंक्ति जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना की आदर्शवादिता को दूर कर कवि ने अपने मुक्तक की माध्यम से वास्तविकता का भान कराया। 

इस विलक्षण सारस्वत अवदानार्थ मेैं पूज्य पितामह कवि हृदय आपका हार्दिक अभिनंदन करता हूंँ तथा आपकी इन पंक्तियों के साथ आशीर्वाद का आकांक्षी हूंँ। 

यह उद्द्घोष कृष्ण का युग युग
 जन-जन में उल्लास भरेगा। 
क्या चिंतन क्या उक्ति हमारी 
यह निर्णय इतिहास करेगा।। 

विनयावनत् 
डॉ0 विनय कुमार त्रिपाठी
 प्राचार्य
 श्री गौरीशंकर संस्कृत महाविद्यालय सुजानगंज जौनपुर