शनिवार, 30 सितंबर 2017

छंद भाग2



Chhand (Metres)(छन्द)


छन्द (Metres) की परिभाषा

वर्णो या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आहाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते है। 
दूसरे शब्दो में-अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रागणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना 'छन्द' कहलाती है।

छंद शब्द 'छद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना।'छंद का दूसरा नाम पिंगल भी है। इसका कारण यह है कि छंद-शास्त्र के आदि प्रणेता पिंगल नाम के ऋषि थे।

'छन्द' की प्रथम चर्चा ऋग्वेद में हुई है। यदि गद्य का नियामक व्याकरण है, तो कविता का छन्दशास्त्र। छन्द पद्य की रचना का मानक है और इसी के अनुसार पद्य की सृष्टि होती है। पद्यरचना का समुचित ज्ञान 'छन्दशास्त्र' का अध्ययन किये बिना नहीं होता। छन्द हृदय की सौन्दर्यभावना जागरित करते है। छन्दोबद्ध कथन में एक विचित्र प्रकार का आह्राद रहता है, जो आप ही जगता है। तुक छन्द का प्राण है- यही हमारी आनन्द-भावना को प्रेरित करती है। गद्य में शुष्कता रहती है और छन्द में भाव की तरलता। यही कारण है कि गद्य की अपेक्षा छन्दोबद्ध पद्य हमें अधिक भाता है।

सौन्दर्यचेतना के अतिरिक्त छन्द का प्रभाव स्थायी होता है। इसमें वह शक्ति है, जो गद्य में नहीं होती। छन्दोबद्ध रचना का हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ता है। गद्य की बातें हवा में उड़ जाती है, लेकिन छन्दों में कही गयी कोई बात हमारे हृदय पर अमिट छाप छोड़ती है। मानवीय भावों को आकृष्ट करने और झंकृत करने की अदभुत क्षमता छन्दों में होती है। छन्दाबद्ध रचना में स्थायित्व अधिक है। अपनी स्मृति में ऐसी रचनाओं को दीर्घकाल तक सँजोकर रखा जा सकता है। इन्हीं कारणों से हिन्दी के कवियों ने छन्दों को इतनी सहृदयता से अपनाया। अतः छन्द अनावश्यक और निराधार नहीं हैं। इनकी भी अपनी उपयोगिता और महत्ता है। हिन्दी में छन्दशास्त्र का जितना विकास हुआ, उतना किसी भी देशी-विदेशी भाषा में नहीं हुआ।

छन्द के अंग

छन्द के निम्नलिखित अंग है-
(1)चरण /पद /पाद 
(2) वर्ण और मात्रा 
(3) संख्या क्रम और गण 
(4)लघु और गुरु 
(5) गति 
(6) यति /विराम
(7) तुक

(1)चरण /पद /पादा

छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं। 
दूसरे शब्दों में- छंद के चतुर्थाश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।


कुछ छंदों में चरण तो चार होते है लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक को 'दल' कहते हैं।


हिन्दी में कुछ छंद छः-छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं। ऐसे छंद दो छंदों के योग से बनते है, जैसे कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला) आदि।


चरण 2 प्रकार के होते है- सम चरण और विषम चरण।
प्रथम व तृतीय चरण को विषम चरण तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं।


(2) वर्ण और मात्रा

वर्ण/अक्षर

एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर हस्व हो या दीर्घ।


जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर- कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता।


वर्ण को ही अक्षर कहते हैं।


वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-


हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण) : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ


मात्रा

किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं।


हस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है।


इस प्रकार मात्रा दो प्रकार के होते है-
हस्व : अ, इ, उ, ऋ 
दीर्घ : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ


वर्ण और मात्रा की गणना

वर्ण की गणना

हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण)- एकवर्णिक- अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ


दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण)- एकवर्णिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ


मात्रा की गणना

हस्व स्वर- एकमात्रिक- अ, इ, उ, ऋ 
दीर्घ स्वर- द्विमात्रिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ


वर्णो और मात्राओं की गिनती में स्थूल भेद यही है कि वर्ण 'सस्वर अक्षर' को और मात्रा 'सिर्फ स्वर' को कहते है।


(3) संख्या क्रम और गण

मात्राओं और वर्णों की गणना को 'संख्या' और लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को 'क्रम' कहते है। मात्राओं और वर्णों की 'संख्या' और 'क्रम' की सुविधा के लिए तीन वर्णों का एक-एक गण मान लिया गया है। इन गणों के अनुसार मात्राओं का क्रम वार्णिक वृतों या छन्दों में होता है, अतः इन्हें 'वार्णिक गण' भी कहते है। इन गणों की संख्या आठ है। इनके ही उलटफेर से छन्दों की रचना होती है। इन गणों के नाम, लक्षण, चिह्न और उदाहरण इस प्रकार है-

गणवर्ण क्रमचिह्नउदाहरणप्रभावयगणआदि लघु, मध्य गुरु, अन्त गुरु।ऽऽबहानाशुभमगनआदि, मध्य, अन्त गुरुऽऽआजादीशुभतगणआदि गुरु, मध्य गुरु, अन्त लघुऽऽ।बाजारअशुभरगणआदि गुरु, मध्य लघु, अन्त गुरुऽ।ऽनीरजाअशुभजगणआदि लघु, मध्य गुरु, अन्त लघु।ऽ।प्रभावअशुभभगणआदि गुरु, मध्य लघु, अन्त लघुऽ।।नीरदशुभनगणआदि, मध्य, अन्त लघु।।।कमलशुभसगनआदि लघु, मध्य लघु, अन्त गुरु।।ऽवसुधाअशुभ

काव्य या छन्द के आदि में 'अगण' अर्थात 'अशुभ गण' नहीं पड़ना चाहिए। शायद उच्चारण कठिन अर्थात उच्चारण या लय में दग्ध होने के कारण ही कुछ गुणों को 'अशुभ' कहा गया है। गणों को सुविधापूर्वक याद रखने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा: । इस सूत्र में प्रथम आठ वर्णों में आठ गणों के नाम आ गये है। अन्तिम दो वर्ण 'ल' और 'ग' छन्दशास्त्र में 'दशाक्षर' कहलाते हैं। जिस गण का स्वरूप जानना हो, उस गण के आद्यक्षर और उससे आगे दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लेना होता है। जैसे- 'तगण' का स्वरूप जानना हो तो इस सूत्र का 'ता' और उससे आगे के दो अक्षर 'रा ज'='ताराज', ( ऽऽ।) लेकर 'तगण' का लघु-गुरु जाना जा सकता है कि 'तगण' में गुरु+गुरु+लघु, इस क्रम से तीन वर्ण होते है। यहाँ यह स्मरणीय है कि 'गण' का विचार केवल वर्णवृत्त में होता है, मात्रिक छन्द इस बन्धन से मुक्त है।

(4) लघु और गुरु

लघु-

(i) अ, इ, उ- इन हस्व स्वरों तथा इनसे युक्त एक व्यंजन या संयुक्त व्यंजन को 'लघु' समझा जाता है। जैसे- कलम; इसमें तीनों वर्ण लघु हैं। इस शब्द का मात्राचिह्न हुआ- ।।।।

(ii) चन्द्रबिन्दुवाले हस्व स्वर भी लघु होते हैं। जैसे- 'हँ' ।

गुरु-

(i) आ, ई, ऊ और ऋ इत्यादि दीर्घ स्वर और इनसे युक्त व्यंजन गुरु होते है। जैसे- राजा, दीदी, दादी इत्यादि। इन तीनों शब्दों का मात्राचिह्न हुआ- ऽऽ।
(ii) ए, ऐ, ओ, औ- ये संयुक्त स्वर और इनसे मिले व्यंजन भी गुरु होते हैं। जैसे- ऐसा ओला, औरत, नौका इत्यादि।
(iii) अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु होता है। जैसे- संसार। लेकिन, चन्द्रबिन्दुवाले वर्ण गुरु नहीं होते।
(iv) विसर्गयुक्त वर्ण भी गुरु होता है। जैसे- स्वतः, दुःख; अर्थात- ।ऽ, ऽ ।।
(v) संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण गुरु होता है। जैसे- सत्य, भक्त, दुष्ट, धर्म इत्यादि, अर्थात- ऽ।।

(5) गति

छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।


गति का महत्व वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों में अधिक है। बात यह है कि वर्णिक छंदों में तो लघु-गुरु का स्थान निश्चित रहता है किन्तु मात्रिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित नहीं रहता, पूरे चरण की मात्राओं का निर्देश मात्र रहता है। 
मात्राओं की संख्या ठीक रहने पर भी चरण की गति (प्रवाह) में बाधा पड़ सकती है।


जैसे- (1) दिवस का अवसान था समीप में गति नहीं है जबकि 'दिवस का अवसान समीप था' में गति है। 
(2) चौपाई, अरिल्ल व पद्धरि- इन तीनों छंदों के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं होती है पर गति भेद से ये छंद परस्पर भिन्न हो जाते हैं।

अतएव, मात्रिक छंदों के निर्दोष प्रयोग के लिए गति का परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।


गति का परिज्ञान भाषा की प्रकृति, नाद के परिज्ञान एवं अभ्यास पर निर्भर करता है।


(6) यति /विराम

छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिए रूकना पड़ता है, इसी रूकने के स्थान को यति या विराम कहते है।

छन्दशास्त्र में 'यति' का अर्थ विराम या विश्राम । छोटे छंदों में साधारणतः यति चरण के अन्त में होती है; पर बड़े छंदों में एक ही चरण में एक से अधिक यति या विराम होते है।
यति का निर्देश प्रायः छंद के लक्षण (परिभाषा) में ही कर दिया जाता है। जैसे मालिनी छंद में पहली यति 8 वर्णों के बाद तथा दूसरी यति 7 वर्णों के बाद पड़ती है।

(7) तुक

छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं। 
जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। 
अतुकान्त छंद को अँग्रेजी में ब्लैंक वर्स (Blank Verse) कहते हैं।

छन्द के भेद

वर्ण और मात्रा के विचार से छन्द के चार भेद है-
(1) वर्णिक छन्द
(2) वर्णिक वृत्त 
(3) मात्रिक छन्द
(4) मुक्तछन्द

(1) वर्णिक छन्द- जिस छंद के सभी चरणों में वर्णो की संख्या समान हो। 

दूसरे शब्दों में- केवल वर्णगणना के आधार पर रचा गया छन्द 'वार्णिक छन्द' कहलाता है।
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णो की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।

'वृतों' की तरह इसमें लघु-गुरु का क्रम निश्र्चित नहीं होता, केवल वर्णसंख्या ही निर्धारित रहती है और इसमें चार चरणों का होना भी अनिवार्य नहीं।

वार्णिक छन्द के भेद

वार्णिक छन्द के दो भेद है- (i) साधारण और (ii) दण्डक

९ से २६ वर्ण तक के चरण या पाद रखनेवाले वार्णिक छन्द 'साधारण' होते है और इससे अधिकवाले दण्डक।

प्रमुख वर्णिक छंद : प्रमाणिका (8 वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी 11 वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयात, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी 12 वर्ण); वसंततिलका (14 वर्ण); मालिनी (15 वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी 16 वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी 17 वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (19 वर्ण), स्त्रग्धरा (21 वर्ण), सवैया (22 से 26 वर्ण), घनाक्षरी (31 वर्ण) रूपघनाक्षरी (32 वर्ण), देवघनाक्षरी (33 वर्ण), कवित्त /मनहरण (31-33 वर्ण)।

दण्डक वार्णिक छन्द 'घनाक्षरी' का उदाहरण-
किसको पुकारे यहाँ रोकर अरण्य बीच । -९६ वर्ण
चाहे जो करो शरण्य शरण तिहारे हैं।। - ९५वर्ण

'देवघनाक्षरी' का उदाहरण- 
झिल्ली झनकारै पिक -८ वर्ण
चातक पुकारैं बन -८ वर्ण
मोरिन गुहारैं उठै -८ वर्ण
जुगनु चमकि चमकि -८ वर्ण
कुल- ३३ वर्ण

'रूपघनाक्षरी' का उदाहरण
ब्रज की कुमारिका वे -८ वर्ण
लीनें सक सारिका ब -८ वर्ण
ढावैं कोक करिकानी -८ वर्ण
केसव सब निबाहि -८ वर्ण
कुल- ३२ वर्ण

साधारण वार्णिक छन्द (२६ वर्ण तक का छन्द) में 'अमिताक्षर' छन्द को उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। अमिताक्षर वस्तुतः घनाक्षरी के एक चरण के उत्तरांश से निर्मित छन्द है, अतः इसमें ९५ वर्ण होते है और ८ वें तथा ७ वें वर्ण पर यति होती है। जैसे-
चाहे जो करो शरण्य -८ वर्ण
शरण तिहारे है -७ वर्ण
कुल-९५ वर्ण

वर्णिक छंद का एक उदाहरण : मालिनी (15 वर्ण)

वर्णो की संख्या-15, यति 8 और 7 पर 
परिभाषा-
न..........न...........म...........य...........य ..... मिले तो मालिनी होवे 
।...........।........... ।...........।........... । 
नगन......नगन......मगन.....यगण........यगण
।।।.......।।।..........ऽऽऽ.......।ऽऽ.......।ऽऽ
3........3............3............3.........3 =15 वर्ण

प्रथम चरण- प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है ?
द्वितीय चरण- दुःख-जलनिधि-डूबी का सहारा कहाँ है ?
तृतीय चरण- लख मुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ,
चतुर्थ चरण- वह हृदय हमारा नैन-तारा कहाँ है ? (हरिऔध)
1.....2.....3.....4.....5......6......7......8.......9........10.....11........12......13.....14.....15
(प्रि).(य).(प)...(ति)...(व)...(ह)....(में)...(रा)...(प्रा).....(ण).....(प्या).....(रा).....(क).....(हाँ).....(है) 
......नगन.................नगन.............. मगन........................यगण........................यगण

(2) वार्णिक वृत्त- वृत्त उस समछन्द को कहते है, जिसमें चार समान चरण होते है और प्रत्येक चरण में आनेवाले वर्णों का लघु-गुरु-क्रम सुनिश्र्चित रहता है। गणों में वर्णों का बँधा होना प्रमुख लक्षण होने के कारण इसे वार्णिक वृत्त, गणबद्ध या गणात्मक छन्द भी कहते हैं। ७ भगण और २ गुरु का 'मत्तगयन्द सवैया' इसके उदाहरणस्वरूप है-

भगण भगण भगण भगण
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।।
या लकुटी अरु कामरि या पर
भगण भगण भगण गग
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽऽ
राज तिहूँ पुर को तजि डारौं : - कुल ७ भगण +२ गुरु=२३ वर्ण
'द्रुतविलम्बित' और 'मालिनी' आदि गणबद्ध छन्द 'वार्णिक वृत्त' है।

(3) मात्रिक छन्द- मात्रा की गणना पर आधृत छन्द 'मात्रिक छन्द' कहलाता है। 
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

इसमें वार्णिक छन्द के विपरीत, वर्णों की संख्या भित्र हो सकती है और वार्णिक वृत्त के अनुसार यह गणबद्ध भी नहीं है, बल्कि यह गणपद्धति या वर्णसंख्या को छोड़कर केवल चरण की कुल मात्रासंख्या के आधार ही पर नियमित है। 'दोहा' और 'चौपाई' आदि छन्द 'मात्रिक छन्द' में गिने जाते है। 'दोहा' के प्रथम-तृतीय चरण में ९३ मात्राएँ और द्वितीय-चतुर्थ में ९९ मात्राएँ होती है। जैसे-

प्रथम चरण- श्री गुरु चरण सरोज रज - ९३ मात्राएँ
द्वितीय चरण- निज मन मुकुर सुधार- ९९ मात्राएँ
तृतीय चरण- बरनौं रघुबर विमल जस- ९३ मात्राएँ
चतुर्थ चरण- जो दायक फल चार- ९९ मात्राएँ

उपयुक्त दोहे के प्रथम चरण में ९९ वर्ण और तृतीय चरण में ९२ वर्ण है जबकि कुल मात्राएँ गिनने पर ९३-९३ मात्राएँ ही दोनों चरणों में होती है। गण देखने पर पहले चरण में भगण, नगन, जगण और दो लघु तथा तीसरे चरण में सगण , नगण, नगण, नगण है। अतः 'मात्रिक छन्द' के चरणों में मात्रा का ही साम्य होता है, न कि वर्णों या गणों का।

प्रमुख मात्रिक छंद

(A) सम मात्रिक छंद : अहीर (11 मात्रा), तोमर (12 मात्रा), मानव (14 मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/पद्धटिका, चौपाई (सभी 16 मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों 19 मात्रा), राधिका (22 मात्रा), रोला,दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा), गीतिका (26 मात्रा), सरसी (27 मात्रा), सार (28 मात्रा), हरिगीतिका (28 मात्रा), ताटंक (30 मात्रा),वीर या आल्हा (31 मात्रा) ।

(B) अर्द्धसम मात्रिक छंद : बरवै (विषम चरण में- 12 मात्रा, सम चरण में- 7 मात्रा), दोहा (विषम- 13, सम- 11), सोरठा (दोहा का उल्टा), उल्लाला (विषम-15, सम-13)।

(C) विषम मात्रिक छंद : कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला)।

(4) मुक्तछन्द-जिस समय छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णो की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है। 
उदाहरण- निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।

चरणों की अनियमित, असमान, स्वच्छन्द गति और भावानुकूल यतिविधान ही मुक्तछन्द की विशेषता है। इसका कोई नियम नहीं है। यह एक प्रकार का लयात्मक काव्य है, जिसमें पद्य का प्रवाह अपेक्षित है। निराला से लेकर 'नयी कविता' तक हिन्दी कविता में इसका अत्यधिक प्रयोग हुआ है।

प्रमुख छन्दों का परिचय

(1) चौपाई- यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में ९६ मात्राएँ होती है। चरण के अन्त में जगण (।ऽ।) और तगण (ऽऽ।) का आना वर्जित है। तुक पहले चरण की दूसरे से और तीसरे की चौथे से मिलती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। उदाहरणार्थ-

नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुनगन गावन लागे ।।

गुरु पद रज मृदु मंजुल मंजन। नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।
तेहि करि विमल विवेक विलोचन। बरनउँ रामचरित भवमोचन ।।

(2) रोला- यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। इसके प्रत्येक चरण में ९९ और ९३ मात्राओं पर यति ही अधिक प्रचलित है। प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है। उदाहरणार्थ-

जो जगहित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोकहित में लग जाता ।।

(3) हरिगीतिका- यह मात्रिक सम छन्द है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं। ९६ और ९२ मात्राओं पर यति तथा अन्त में लघु-गुरु का प्रयोग ही अधिक प्रचलित है। उदाहरणार्थ-

कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।।

(4) बरवै- यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में ९२ और सम चरणों (दूसरे और चौथे) में ७ मात्राएँ होती है। सम चरणों के अन्त में जगण या तगण आने से इस छन्द में मिठास बढ़ती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। जैसे-

वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार।
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ।।

(5) दोहा- यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में ९३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय और चतुर्थ) में ९९ मात्राएँ होती है। यति चरण के अन्त में होती है। विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए। सम चरणों के अन्त में लघु होना चाहिए। तुक सम चरणों में होनी चाहिए। जैसे-

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
बरनौ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चार ।।

(6) सोरठा- यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। यह दोहे का उल्टा, अर्थात दोहे के द्वितीय चरण को प्रथम और प्रथम को द्वितीय तथा तृतीय को चतुर्थ और चतुर्थ को तृतीय कर देने से बन जाता है। इस छन्द के विषम चरणों में ९९ मात्राएँ और सम चरणों में ९३ मात्राएँ होती है। तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होती है। उदाहरणार्थ-

निज मन मुकुर सुधार, श्री गुरु चरण सरोज रज।
जो दायक फल चार, बरनौ रघुबर विमल जस ।।

(7) द्रुतविलम्बित- इस वार्णिक समवृत्त छन्द के प्रत्येक चरण में नगण, भगण, भगण, रगण के क्रम में कुल ९२ वर्ण होते हैं। उदाहरण-

न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ,
सफलता वह पा सकता कहाँ ?

(8) मालिनी- इस वार्णिक समवृत्त छन्द के प्रत्येक चरण में नगण, नगण, भगण, यगण, यगण के क्रम से कुल ९५ वर्ण होते है तथा ७-८ वर्णों पर यति होती है उदाहरणार्थ-

पल-पल जिसके मैं पन्थ को देखती थी, 
निशिदिन जिसके ही ध्यान में थी बिताती।

(9) मन्दाक्रान्ता- इस वार्णिक समवृत्त छन्द के प्रत्येक चरण में मगण, भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु के क्रम से ९७ वर्ण होते है तथा ९०-७ वर्णों पर यति होती है। जैसे-

फूली डालें सुकुसुममयी तीय की देख आँखें। 
आ जाती है मुरलिधर की मोहिनी मूर्ति आगे।

छंद


Chhand (Metres)(छन्द)


छन्द (Metres) की परिभाषा

वर्णो या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आहाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते है। 
दूसरे शब्दो में-अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रागणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना 'छन्द' कहलाती है।

छंद शब्द 'छद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना।'छंद का दूसरा नाम पिंगल भी है। इसका कारण यह है कि छंद-शास्त्र के आदि प्रणेता पिंगल नाम के ऋषि थे।

'छन्द' की प्रथम चर्चा ऋग्वेद में हुई है। यदि गद्य का नियामक व्याकरण है, तो कविता का छन्दशास्त्र। छन्द पद्य की रचना का मानक है और इसी के अनुसार पद्य की सृष्टि होती है। पद्यरचना का समुचित ज्ञान 'छन्दशास्त्र' का अध्ययन किये बिना नहीं होता। छन्द हृदय की सौन्दर्यभावना जागरित करते है। छन्दोबद्ध कथन में एक विचित्र प्रकार का आह्राद रहता है, जो आप ही जगता है। तुक छन्द का प्राण है- यही हमारी आनन्द-भावना को प्रेरित करती है। गद्य में शुष्कता रहती है और छन्द में भाव की तरलता। यही कारण है कि गद्य की अपेक्षा छन्दोबद्ध पद्य हमें अधिक भाता है।

सौन्दर्यचेतना के अतिरिक्त छन्द का प्रभाव स्थायी होता है। इसमें वह शक्ति है, जो गद्य में नहीं होती। छन्दोबद्ध रचना का हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ता है। गद्य की बातें हवा में उड़ जाती है, लेकिन छन्दों में कही गयी कोई बात हमारे हृदय पर अमिट छाप छोड़ती है। मानवीय भावों को आकृष्ट करने और झंकृत करने की अदभुत क्षमता छन्दों में होती है। छन्दाबद्ध रचना में स्थायित्व अधिक है। अपनी स्मृति में ऐसी रचनाओं को दीर्घकाल तक सँजोकर रखा जा सकता है। इन्हीं कारणों से हिन्दी के कवियों ने छन्दों को इतनी सहृदयता से अपनाया। अतः छन्द अनावश्यक और निराधार नहीं हैं। इनकी भी अपनी उपयोगिता और महत्ता है। हिन्दी में छन्दशास्त्र का जितना विकास हुआ, उतना किसी भी देशी-विदेशी भाषा में नहीं हुआ।

छन्द के अंग

छन्द के निम्नलिखित अंग है-
(1)चरण /पद /पाद 
(2) वर्ण और मात्रा 
(3) संख्या क्रम और गण 
(4)लघु और गुरु 
(5) गति 
(6) यति /विराम
(7) तुक

(1)चरण /पद /पादा

छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं। 
दूसरे शब्दों में- छंद के चतुर्थाश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।


कुछ छंदों में चरण तो चार होते है लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक को 'दल' कहते हैं।


हिन्दी में कुछ छंद छः-छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं। ऐसे छंद दो छंदों के योग से बनते है, जैसे कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला) आदि।


चरण 2 प्रकार के होते है- सम चरण और विषम चरण।
प्रथम व तृतीय चरण को विषम चरण तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं।


(2) वर्ण और मात्रा

वर्ण/अक्षर

एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर हस्व हो या दीर्घ।


जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर- कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता।


वर्ण को ही अक्षर कहते हैं।


वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-


हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण) : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ


मात्रा

किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं।


हस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है।


इस प्रकार मात्रा दो प्रकार के होते है-
हस्व : अ, इ, उ, ऋ 
दीर्घ : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ


वर्ण और मात्रा की गणना

वर्ण की गणना

हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण)- एकवर्णिक- अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ


दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण)- एकवर्णिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ


मात्रा की गणना

हस्व स्वर- एकमात्रिक- अ, इ, उ, ऋ 
दीर्घ स्वर- द्विमात्रिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ


वर्णो और मात्राओं की गिनती में स्थूल भेद यही है कि वर्ण 'सस्वर अक्षर' को और मात्रा 'सिर्फ स्वर' को कहते है।


(3) संख्या क्रम और गण

मात्राओं और वर्णों की गणना को 'संख्या' और लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को 'क्रम' कहते है। मात्राओं और वर्णों की 'संख्या' और 'क्रम' की सुविधा के लिए तीन वर्णों का एक-एक गण मान लिया गया है। इन गणों के अनुसार मात्राओं का क्रम वार्णिक वृतों या छन्दों में होता है, अतः इन्हें 'वार्णिक गण' भी कहते है। इन गणों की संख्या आठ है। इनके ही उलटफेर से छन्दों की रचना होती है। इन गणों के नाम, लक्षण, चिह्न और उदाहरण इस प्रकार है-

गणवर्ण क्रमचिह्नउदाहरणप्रभावयगणआदि लघु, मध्य गुरु, अन्त गुरु।ऽऽबहानाशुभमगनआदि, मध्य, अन्त गुरुऽऽआजादीशुभतगणआदि गुरु, मध्य गुरु, अन्त लघुऽऽ।बाजारअशुभरगणआदि गुरु, मध्य लघु, अन्त गुरुऽ।ऽनीरजाअशुभजगणआदि लघु, मध्य गुरु, अन्त लघु।ऽ।प्रभावअशुभभगणआदि गुरु, मध्य लघु, अन्त लघुऽ।।नीरदशुभनगणआदि, मध्य, अन्त लघु।।।कमलशुभसगनआदि लघु, मध्य लघु, अन्त गुरु।।ऽवसुधाअशुभ

काव्य या छन्द के आदि में 'अगण' अर्थात 'अशुभ गण' नहीं पड़ना चाहिए। शायद उच्चारण कठिन अर्थात उच्चारण या लय में दग्ध होने के कारण ही कुछ गुणों को 'अशुभ' कहा गया है। गणों को सुविधापूर्वक याद रखने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा: । इस सूत्र में प्रथम आठ वर्णों में आठ गणों के नाम आ गये है। अन्तिम दो वर्ण 'ल' और 'ग' छन्दशास्त्र में 'दशाक्षर' कहलाते हैं। जिस गण का स्वरूप जानना हो, उस गण के आद्यक्षर और उससे आगे दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लेना होता है। जैसे- 'तगण' का स्वरूप जानना हो तो इस सूत्र का 'ता' और उससे आगे के दो अक्षर 'रा ज'='ताराज', ( ऽऽ।) लेकर 'तगण' का लघु-गुरु जाना जा सकता है कि 'तगण' में गुरु+गुरु+लघु, इस क्रम से तीन वर्ण होते है। यहाँ यह स्मरणीय है कि 'गण' का विचार केवल वर्णवृत्त में होता है, मात्रिक छन्द इस बन्धन से मुक्त है।

(4) लघु और गुरु

लघु-

(i) अ, इ, उ- इन हस्व स्वरों तथा इनसे युक्त एक व्यंजन या संयुक्त व्यंजन को 'लघु' समझा जाता है। जैसे- कलम; इसमें तीनों वर्ण लघु हैं। इस शब्द का मात्राचिह्न हुआ- ।।।।

(ii) चन्द्रबिन्दुवाले हस्व स्वर भी लघु होते हैं। जैसे- 'हँ' ।

गुरु-

(i) आ, ई, ऊ और ऋ इत्यादि दीर्घ स्वर और इनसे युक्त व्यंजन गुरु होते है। जैसे- राजा, दीदी, दादी इत्यादि। इन तीनों शब्दों का मात्राचिह्न हुआ- ऽऽ।
(ii) ए, ऐ, ओ, औ- ये संयुक्त स्वर और इनसे मिले व्यंजन भी गुरु होते हैं। जैसे- ऐसा ओला, औरत, नौका इत्यादि।
(iii) अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु होता है। जैसे- संसार। लेकिन, चन्द्रबिन्दुवाले वर्ण गुरु नहीं होते।
(iv) विसर्गयुक्त वर्ण भी गुरु होता है। जैसे- स्वतः, दुःख; अर्थात- ।ऽ, ऽ ।।
(v) संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण गुरु होता है। जैसे- सत्य, भक्त, दुष्ट, धर्म इत्यादि, अर्थात- ऽ।।

(5) गति

छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।


गति का महत्व वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों में अधिक है। बात यह है कि वर्णिक छंदों में तो लघु-गुरु का स्थान निश्चित रहता है किन्तु मात्रिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित नहीं रहता, पूरे चरण की मात्राओं का निर्देश मात्र रहता है। 
मात्राओं की संख्या ठीक रहने पर भी चरण की गति (प्रवाह) में बाधा पड़ सकती है।


जैसे- (1) दिवस का अवसान था समीप में गति नहीं है जबकि 'दिवस का अवसान समीप था' में गति है। 
(2) चौपाई, अरिल्ल व पद्धरि- इन तीनों छंदों के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं होती है पर गति भेद से ये छंद परस्पर भिन्न हो जाते हैं।

अतएव, मात्रिक छंदों के निर्दोष प्रयोग के लिए गति का परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।


गति का परिज्ञान भाषा की प्रकृति, नाद के परिज्ञान एवं अभ्यास पर निर्भर करता है।


(6) यति /विराम

छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिए रूकना पड़ता है, इसी रूकने के स्थान को यति या विराम कहते है।

छन्दशास्त्र में 'यति' का अर्थ विराम या विश्राम । छोटे छंदों में साधारणतः यति चरण के अन्त में होती है; पर बड़े छंदों में एक ही चरण में एक से अधिक यति या विराम होते है।
यति का निर्देश प्रायः छंद के लक्षण (परिभाषा) में ही कर दिया जाता है। जैसे मालिनी छंद में पहली यति 8 वर्णों के बाद तथा दूसरी यति 7 वर्णों के बाद पड़ती है।

(7) तुक

छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं। 
जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। 
अतुकान्त छंद को अँग्रेजी में ब्लैंक वर्स (Blank Verse) कहते हैं।

रस


Ras (Sentiments)(रस)


रस(Sentiments) की परिभाषा

रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनंद' । काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।

काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का 'स्थायी भाव' ही रस-दशा को प्राप्त होता है। 
पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस रूप में परिणित हो जाता है। 
रस को 'काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व' माना जाता है।

उदाहरण- राम पुष्पवाटिका में घूम रहे हैं। एक ओर से जानकीजी आती हैं। एकान्त है और प्रातःकालीन वायु। पुष्पों की छटा मन में मोह पैदा करती हैं। राम इस दशा में जानकीजी पर मुग्ध होकर उनकी ओर आकृष्ट होते है। राम को जानकीजी की ओर देखने की इच्छा और फिर लज्जा से हर्ष और रोमांच आदि होते हैं। इस सारे वर्णन को सुन-पढ़कर पाठक या श्रोता के मन में 'रति' जागरित होती है। यहाँ जानकीजी 'आलम्बनविभाव', एकान्त तथा प्रातःकालीन वाटिका का दृश्य 'उद्यीपनविभाव', सीता और राम में कटाक्ष-हर्ष-लज्जा-रोमांच आदि 'व्यभिचारी भाव' हैं, जो सब मिलकर 'स्थायी भाव' 'रति' को उत्पत्र कर 'शृंगार रस' का संचार करते हैं। भरत मुनि ने 'रसनिष्पत्ति' के लिए नाना भावों का 'उपगत' होना कहा है, जिसका अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और संचारी भाव यहाँ स्थायी भाव के समीप आकर अनुकूलता ग्रहण करते हैं।

आचार्यों ने अपने-अपने ढंग के 'रस' को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है। सबसे प्रचलित परिभाषा भरत मुनि की है, जिन्होंने सर्वप्रथम 'रस' का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' में ईसा की पहली शताब्दी के आसपास किया था। उनके अनुसार 'रस' की परिभाषा इस प्रकार है-
'विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:'- नाट्यशास्त्र, 
अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

रस के अंग

रस के चार अंग है-
(1) विभाव
(2) अनुभाव
(3) व्यभिचारी भाव
(4) स्थायी भाव।

(1) विभाव :- जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन कारणों को 'विभाव' कहा जाता है। 
दूसरे शब्दों में- स्थायी भावों के उदबोधक कारण को 'विभाव' कहते हैं। 

विभाव के भेद

विभाव के दो भेद हैं- (क) आलंबन विभाव (ख) उद्यीपन विभाव।

(क)आलंबन विभाव- जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते है, आलंबन विभाव कहलाता है। 
जैसे नायक-नायिका।

आलंबन विभाव के दो पक्ष होते है- आश्रयालंबन व विषयालंबन। 
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन कहलाता है। जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। 
उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।

(ख) उद्यीपन विभाव-जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्यीप्त होने लगता है, उद्यीपन विभाव कहलाता है। 
जैसे- चाँदनी, कोकिल, कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।

(2) अनुभाव :- आलम्बन और उद्यीपन विभावों के कारण उत्पत्र भावों को बाहर प्रकाशित करनेवाले कार्य 'अनुभाव' कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- मनोगत भाव को व्यक्त करनेवाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते है।

अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है-
(1) स्तंभ (2) स्वेद (3) रोमांच (4) स्वर-भंग (5 )कम्प (6) विवर्णता (रंगहीनता) (7) अश्रु (8) प्रलय (संज्ञाहीनता/निश्चेष्टता) ।

अनुभाव के भेद

अतः अनुभाव के चार भेद है- 
(क) कायिक (ख) मानसिक, (ग़) वाचिक और (घ) आहार्य। 
यों इसके अन्य भेद भी है।

(3) व्यभिचारी या संचारी भाव :- मन में संचरण करनेवाले (आने-जाने वाले) भावों को 'संचारी' या 'व्यभिचारी' भाव कहते है।

व्यभिचारी या संचारी भाव 'स्थायी भावों' के सहायक है, जो अनुकुल परिस्थितियों में घटते-बढ़ते हैं। 
आचार्य भरत ने इन भावों के वर्गीकरण के चार सिद्धान्त माने हैं- (i) देश, काल और अवस्था (ii) उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृति के लोग, (iii) आश्रय की अपनी प्रकृति या अन्य व्यक्तियों की उत्तेजना के कारण अथवा वातावरण के प्रभाव (iv) स्त्री और पुरुष के अपने स्वभाव के भेद।

जैसे- निर्वेद, शंका और आलस्य आदि स्त्रियों या नीच पुरुषों के संचारी भाव है; गर्व आत्मगत संचारी है; अमर्ष परगत संचारी; आवेग या त्रास कालानुसार संचारी हैं। भरत के अनुसार और अन्य आचार्यों के भी मत से पानी में उठनेवाले और आप-ही-आप विलीन होनेवाले बुदबुदों- जैसे ये संचारी या व्यभिचारी भाव स्थायी भावों के भेदों के अन्दर अलग-अलग भी हो सकते हैं और एक स्थायी भाव के संचारी दूसरे में भी आ सकते हैं। जैसे- गर्व 'शृंगार' (स्थायी भाव 'रति' का रस') में भी हो सकता है और 'वीर' में भी।

संचारी भावों की संख्या

संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-
(1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय/व्यग्रता) (4) लज्जा (ब्रीड़ा) (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता) (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख) (10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) चपलता (15) दीनता (16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना) (19) घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव) (20) मति (21) बिबोध (चैतन्य लाभ) (22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति (28) मद (29) उन्माद (30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना) (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (रोग) (33) मरण

(4) स्थायी भाव :- मन का विकार 'भाव' है। भरत मुनि ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में भावों की संख्या उनचास कही है, जिनमें तैतीस संचारी या व्यभिचारी, आठ सात्विक और शेष आठ 'स्थायी भाव' है। भरत के अनुसार 'स्थायी भाव' ये है- (i) रति, (ii) ह्रास (iii) शोक (iv) क्रोध (v) उत्साह (vi) भय (vii ) जुगुप्सा/घृणा (viii) विस्मय/आश्चर्य (ix)शम/निर्वेद (वैराग्य/वीतराग) (x)वात्सल्य रति (xi)भगवद विषयक रति/अनुराग

भरत ने बाद में शम या निर्वेद या शान्त को भी नवम 'स्थायी भाव' माना। बाद के आचार्यों ने भक्ति और वात्सल्य को भी 'स्थायी भाव' माना है। भाव का स्थायित्व वहीं होता है, जहाँ (i) आस्वाद्यत्व, अर्थात व्यावहारिक जीवन में स्पष्ट अनुरंजकता (ii) उत्कटत्व, अर्थात इतनी तीव्रता कि अन्य किसी सजातीय या विजातीय भावों में न दब या सिमट पाना (iii) सर्वजनसुलभत्व अर्थात संस्कार-रूप में हर मनुष्य में वर्तमान होना (iv) पुरुषार्थोपयोगिता, अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो की सिद्धि की योग्यता और (v) औचित्य, अर्थात भाव के विषय में आलम्बन आदि विषय की अनुकूलता हो। इन पाँच आधारों पर प्रथम नौ भाव ही 'स्थायी भाव' हो सकते है।

अतः मन के विकार को भाव कहते है और जो भाव आस्वाद, उत्कटता, सर्वजन-सुलभता, चार पुरुषार्थो की उपयोगिता और औचित्य के नाते हृदय में बराबर बना रहे, वह 'स्थायी भाव' है। ''वास्तविक 'स्थायी भाव' के उदाहरण तो रस की परिपक्व अवस्था में ही मिल सकते है, अन्यत्र नही। '' ''जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है, जिसे विरुद्ध या अविरुद्ध भाव दबा नहीं सकते और जो विभावादि से सम्बद्ध होने पर रस रूप में व्यक्त होता है, उस आनन्द के मूलभूत भाव को 'स्थायी भाव' कहते है।''

रस के प्रकार

रस के ग्यारह भेद होते है- (1) शृंगार रस (2) हास्य रस (3) करूण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) बीभत्स रस (8) अदभुत रस (9) शान्त रस (10) वत्सल रस (11) भक्ति रस ।

रस के प्रकार

रसस्थायी भावउदाहरण(1) शृंगार रसरति/प्रेम(i) संयोग शृंगार : बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
(संभोग श्रृंगार): सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी)
(ii) वियोग श्रृंगार : निसिदिन बरसत नयन हमारे 
(विप्रलंभ श्रृंगार): सदा रहित पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे।।(सूरदास)हास्य रसहासतंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप,
साज मिले पंद्रह मिनट, घंटा भर आलाप। 
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी)करुण रसशोकसोक बिकल सब रोवहिं रानी। 
रूपु सीलु बलु तेजु बखानी।।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा।।
परिहिं भूमि तल बारहिं बारा।। (तुलसीदास)वीर रसउत्साहवीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। 
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो। 
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं।। (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)रौद्र रसक्रोधश्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। 
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे। 
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। 
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े।। (मैथिली शरण गुप्त)भयानक रसभयउधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। 
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी।। (जयशंकर प्रसाद)बीभत्स रसजुगुप्सा/घृणासिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। 
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।।
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत। 
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।। (भारतेन्दु)अदभुत रसविस्मय/आश्चर्यआखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। 
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु।। (सेनापति)शांत रसशम/निर्वेद 
(वैराग्य/वीतराग)मन रे तन कागद का पुतला। 
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना।। (कबीर)वत्सल रसवात्सल्य रतिकिलकत कान्ह घुटरुवन आवत। 
मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत।। (सूरदास)भक्ति रसभगवद विषयक 
रति/अनुरागराम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। 
घोर भव नीर-निधि, नाम निज नाव रे।। (तुलसीदास)

नोट:

(1) शृंगार रस को 'रसराज/ रसपति' कहा जाता है। 
(2) नाटक में 8 ही रस माने जाते है क्योंकि वहां शांत को रस में नहीं गिना जाता। भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 माना है। 
(3) भरत मुनि ने केवल 8 रसों की चर्चा की है, पर आचार्य अभिन्नगुप्त (950-1020 ई०) ने 'नवमोऽपि शान्तो रसः कहकर 9 रसों को काव्य में स्वीकार किया है। 
(4) श्रृंगार रस के व्यापक दायरे में वत्सल रस व भक्ति रस आ जाते हैं इसलिए रसों की संख्या 9 ही मानना ज्यादा उपयुक्त है।

रस संबंधी विविध तथ्य

भरतमुनि (1 वी सदी) को 'काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य' माना जाता है। सर्वप्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र' में रस का विवेचन किया। उन्हें रस संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है।

भरत मुनि के कुछ प्रमुख सूत्र

(1) 'विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रस निष्पतिः'- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी (संचारी) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

(2) 'नाना भावोपगमाद् रस निष्पतिः। नाना भावोपहिता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्ति।'- नाना (अनेक) भावों के उपागम (निकट आने/ मिलने) से रस की निष्पत्ति होती है। नाना (अनेक) भावों से युक्त स्थायी भाव रसावस्था को प्राप्त होते हैं।

(3) 'विभावानुभाव व्यभिचारि परिवृतः स्थायी भावो रस नाम लभते नरेन्द्रवत्' ।- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी से घिरे रहने वाले स्थायी भाव की स्थिति राजा के समान हैं। दूसरे शब्दों में, विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी (संचारी) भाव को परिधीय स्थिति और स्थायी भाव को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त है।

(4) रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट (11 वी० सदी) ने काव्यानंद को 'ब्रह्मानंद सहोदर' (ब्रह्मानंद- योगी द्वारा अनुभूत आनंद) कहा है। वस्तुतः रस के संबंध में ब्रह्मानंद की कल्पना का मूल स्रोत तैत्तरीय उपनिषद है जिसमें कहा गया है 'रसो वै सः'- आनंद ही ब्रह्म है।

(5)रस-संप्रदाय के एक अन्य आचार्य, आचार्य विश्वनाथ (14 वी० सदी) ने रस को काव्य की कसौटी माना है। उनका कथन है 'वाक्य रसात्मकं काव्यम्'- रसात्मक वाक्य ही काव्य है।

(6) हिन्दी में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल डॉ० नगेन्द्र आदि। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत के रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की स्थिति को 'ह्रदय की मुक्तावस्था' के रूप में मानते हैं। उनके शब्द हैं : 'लोक-हृदय में व्यक्ति-हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस-दशा है'।

समास


Samas(Compound)(समास)

समास(Compound) की परिभाषा-

अनेक शब्दों को संक्षिप्त करके नए शब्द बनाने की प्रक्रिया समास कहलाती है। 
दूसरे अर्थ में- कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ प्रकट करना 'समास' कहलाता है।

अथवा,

दो या अधिक शब्दों (पदों) का परस्पर संबद्ध बतानेवाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का लोप होने पर उन दो या अधिक शब्दों से जो एक स्वतन्त्र शब्द बनता है, उस शब्द को सामासिक शब्द कहते है और उन दो या अधिक शब्दों का जो संयोग होता है, वह समास कहलाता है।

समास में कम-से-कम दो पदों का योग होता है।

वे दो या अधिक पद एक पद हो जाते है: 'एकपदीभावः समासः'।

समास में समस्त होनेवाले पदों का विभक्ति-प्रत्यय लुप्त हो जाता है।

समस्त पदों के बीच सन्धि की स्थिति होने पर सन्धि अवश्य होती है। यह नियम संस्कृत तत्सम में अत्यावश्यक है।

समास की प्रक्रिया से बनने वाले शब्द को समस्तपद कहते हैं; जैसे- देशभक्ति, मुरलीधर, राम-लक्ष्मण, चौराहा, महात्मा तथा रसोईघर आदि।

समस्तपद का विग्रह करके उसे पुनः पहले वाली स्थिति में लाने की प्रक्रिया को समास-विग्रह कहते हैं; जैसे- देश के लिए भक्ति; मुरली को धारण किया है जिसने; राम और लक्ष्मण; चार राहों का समूह; महान है जो आत्मा; रसोई के लिए घर आदि।

समस्तपद में मुख्यतः दो पद होते हैं- पूर्वपद तथा उत्तरपद। 
पहले वाले पद को पूर्वपद कहा जाता है तथा बाद वाले पद को उत्तरपद; जैसे-
पूजाघर(समस्तपद) - पूजा(पूर्वपद) + घर(उत्तरपद) - पूजा के लिए घर (समास-विग्रह)
राजपुत्र(समस्तपद) - राजा(पूर्वपद) + पुत्र(उत्तरपद) - राजा का पुत्र (समास-विग्रह)

समास के भेद

समास के मुख्य सात भेद है:-
(1)तत्पुरुष समास ( Determinative Compound)
(2)कर्मधारय समास (Appositional Compound)
(3)द्विगु समास (Numeral Compound)
(4)बहुव्रीहि समास (Attributive Compound)
(5)द्वन्द समास (Copulative Compound)
(6)अव्ययीभाव समास(Adverbial Compound)
(7)नञ समास

(1)तत्पुरुष समास :- जिस समास में बाद का अथवा उत्तरपद प्रधान होता है तथा दोनों पदों के बीच का कारक-चिह्न लुप्त हो जाता है, उसे तत्पुरुष समास कहते है।
जैसे-

तुलसीकृत= तुलसी से कृत 
शराहत= शर से आहत 
राहखर्च= राह के लिए खर्च
राजा का कुमार= राजकुमार

तत्पुरुष समास में अन्तिम पद प्रधान होता है। इस समास में साधारणतः प्रथम पद विशेषण और द्वितीय पद विशेष्य होता है। द्वितीय पद, अर्थात बादवाले पद के विशेष्य होने के कारण इस समास में उसकी प्रधानता रहती है।

तत्पुरुष समास के भेद

तत्पुरुष समास के छह भेद होते है-
(i)कर्म तत्पुरुष
(ii) करण तत्पुरुष
(iii)सम्प्रदान तत्पुरुष
(iv)अपादान तत्पुरुष
(v)सम्बन्ध तत्पुरुष
(vi)अधिकरण तत्पुरुष

(i)कर्म तत्पुरुष (द्वितीया तत्पुरुष)-इसमें कर्म कारक की विभक्ति 'को' का लोप हो जाता है। जैसे-

समस्त-पदविग्रहस्वर्गप्राप्तस्वर्ग (को) प्राप्तकष्टापत्रकष्ट (को) आपत्र (प्राप्त)आशातीतआशा (को) अतीतगृहागतगृह (को) आगतसिरतोड़सिर (को) तोड़नेवालाचिड़ीमारचिड़ियों (को) मारनेवालासिरतोड़सिर (को) तोड़नेवालागगनचुंबीगगन को चूमने वालायशप्राप्तयश को प्राप्तग्रामगतग्राम को गया हुआरथचालकरथ को चलाने वालाजेबकतराजेब को कतरने वाला

(ii) करण तत्पुरुष (तृतीया तत्पुरुष)-इसमें करण कारक की विभक्ति 'से', 'के द्वारा' का लोप हो जाता है। जैसे-

समस्त-पदविग्रहवाग्युद्धवाक् (से) युद्धआचारकुशलआचार (से) कुशलतुलसीकृततुलसी (से) कृतकपड़छनाकपड़े (से) छना हुआमुँहमाँगामुँह (से) माँगारसभरारस (से) भराकरुणागतकरुणा से पूर्णभयाकुलभय से आकुलरेखांकितरेखा से अंकितशोकग्रस्तशोक से ग्रस्तमदांधमद से अंधामनचाहामन से चाहासूररचितसूर द्वारा रचित

(iii)सम्प्रदान तत्पुरुष (चतुर्थी तत्पुरुष)-इसमें संप्रदान कारक की विभक्ति 'के लिए' लुप्त हो जाती है। जैसे-

समस्त-पदविग्रहदेशभक्तिदेश (के लिए) भक्तिविद्यालयविद्या (के लिए) आलयरसोईघररसोई (के लिए) घरहथकड़ीहाथ (के लिए) कड़ीराहखर्चराह (के लिए) खर्चपुत्रशोकपुत्र (के लिए) शोकस्नानघरस्नान के लिए घरयज्ञशालायज्ञ के लिए शालाडाकगाड़ीडाक के लिए गाड़ीगौशालागौ के लिए शालासभाभवनसभा के लिए भवनलोकहितकारीलोक के लिए हितकारीदेवालयदेव के लिए आलय

(iv)अपादान तत्पुरुष (पंचमी तत्पुरुष)- इसमे अपादान कारक की विभक्ति 'से' (अलग होने का भाव) लुप्त हो जाती है। जैसे-

समस्त-पदविग्रहदूरागतदूर से आगतजन्मान्धजन्म से अन्धरणविमुखरण से विमुखदेशनिकालादेश से निकालाकामचोरकाम से जी चुरानेवालानेत्रहीननेत्र (से) हीनधनहीनधन (से) हीनपापमुक्तपाप से मुक्तजलहीनजल से हीन

(v)सम्बन्ध तत्पुरुष (षष्ठी तत्पुरुष)-इसमें संबंधकारक की विभक्ति 'का', 'के', 'की' लुप्त हो जाती है। जैसे-

समस्त-पदविग्रहविद्याभ्यासविद्या का अभ्याससेनापतिसेना का पतिपराधीनपर के अधीनराजदरबारराजा का दरबारश्रमदानश्रम (का) दानराजभवनराजा (का) भवनराजपुत्रराजा (का) पुत्रदेशरक्षादेश की रक्षाशिवालयशिव का आलयगृहस्वामीगृह का स्वामी

(vi)अधिकरण तत्पुरुष (सप्तमी तत्पुरुष)-इसमें अधिकरण कारक की विभक्ति 'में', 'पर' लुप्त जो जाती है। जैसे-

समस्त-पदविग्रहविद्याभ्यासविद्या का अभ्यासगृहप्रवेशगृह में प्रवेशनरोत्तमनरों (में) उत्तमपुरुषोत्तमपुरुषों (में) उत्तमदानवीरदान (में) वीरशोकमग्नशोक में मग्नलोकप्रियलोक में प्रियकलाश्रेष्ठकला में श्रेष्ठआनंदमग्नआनंद में मग्न)कर्मधारय समास:-जिस समस्त-पद का उत्तरपद प्रधान हो तथा पूर्वपद व उत्तरपद में उपमान-उपमेय अथवा विशेषण-विशेष्य संबंध हो, कर्मधारय समास कहलाता है। 
दूसरे शब्दों में-कर्ता-तत्पुरुष को ही कर्मधारय कहते हैं।

पहचान: विग्रह करने पर दोनों पद के मध्य में 'है जो', 'के समान' आदि आते है।

जिस तत्पुरुष समास के समस्त होनेवाले पद समानाधिकरण हों, अर्थात विशेष्य-विशेषण-भाव को प्राप्त हों, कर्ताकारक के हों और लिंग-वचन में समान हों, वहाँ 'कर्मधारयतत्पुरुष समास होता है।

समस्त-पदविग्रहनवयुवकनव है जो युवकपीतांबरपीत है जो अंबरपरमेश्र्वरपरम है जो ईश्र्वरनीलकमलनील है जो कमलमहात्मामहान है जो आत्माकनकलताकनक की-सी लताप्राणप्रियप्राणों के समान प्रियदेहलतादेह रूपी लतालालमणिलाल है जो मणिनीलकंठनीला है जो कंठमहादेवमहान है जो देवअधमराआधा है जो मरापरमानंदपरम है जो आनंद

कर्मधारय तत्पुरुष के भेद

कर्मधारय तत्पुरुष के चार भेद है-
(i)विशेषणपूर्वपद 
(ii) विशेष्यपूर्वपद 
(iii) विशेषणोभयपद
(iv)विशेष्योभयपद

(i)विशेषणपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेषण होता है। 
जैसे- पीत अम्बर= पीताम्बर
परम ईश्वर= परमेश्वर
नीली गाय= नीलगाय
प्रिय सखा= प्रियसखा

(ii) विशेष्यपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेष्य होता है और इस प्रकार के सामासिक पद अधिकतर संस्कृत में मिलते है।
जैसे- कुमारी (क्वाँरी लड़की)
श्रमणा (संन्यास ग्रहण की हुई )=कुमारश्रमणा।

(iii) विशेषणोभयपद :-इसमें दोनों पद विशेषण होते है।
जैसे- नील-पीत (नीला-पी-ला ); शीतोष्ण (ठण्डा-गरम ); लालपिला; भलाबुरा; दोचार कृताकृत (किया-बेकिया, अर्थात अधूरा छोड़ दिया गया); सुनी-अनसुनी; कहनी-अनकहनी।

(iv)विशेष्योभयपद:- इसमें दोनों पद विशेष्य होते है।
जैसे- आमगाछ या आम्रवृक्ष, वायस-दम्पति।

कर्मधारयतत्पुरुष समास के उपभेद

कर्मधारयतत्पुरुष समास के अन्य उपभेद हैं- (i) उपमानकर्मधारय (ii) उपमितकर्मधारय (iii) रूपककर्मधारय

जिससे किसी की उपमा दी जाये, उसे 'उपमान' और जिसकी उपमा दी जाये, उसे 'उपमेय' कहा जाता है। घन की तरह श्याम =घनश्याम- यहाँ 'घन' उपमान है और 'श्याम' उपमेय।

(i) उपमानकर्मधारय- इसमें उपमानवाचक पद का उपमेयवाचक पद के साथ समास होता हैं। इस समास में दोनों शब्दों के बीच से 'इव' या 'जैसा' अव्यय का लोप हो जाता है और दोनों ही पद, चूँकि एक ही कर्ताविभक्ति, वचन और लिंग के होते है, इसलिए समस्त पद कर्मधारय-लक्षण का होता है।
अन्य उदाहरण- विद्युत्-जैसी चंचला =विद्युच्चंचला।

(ii) उपमितकर्मधारय- यह उपमानकर्मधारय का उल्टा होता है, अर्थात इसमें उपमेय पहला पद होता है और उपमान दूसरा। जैसे- अधरपल्लव के समान = अधर-पल्लव; नर सिंह के समान =नरसिंह।

किन्तु, जहाँ उपमितकर्मधारय- जैसा 'नर सिंह के समान' या 'अधर पल्लव के समान' विग्रह न कर अगर 'नर ही सिंह या 'अधर ही पल्लव'- जैसा विग्रह किया जाये, अर्थात उपमान-उपमेय की तुलना न कर उपमेय को ही उपमान कर दिया जाय-
दूसरे शब्दों में, जहाँ एक का दूसरे पर आरोप कर दिया जाये, वहाँ रूपककर्मधारय होगा। उपमितकर्मधारय और रूपककर्मधारय में विग्रह का यही अन्तर है। रूपककर्मधारय के अन्य उदाहरण- मुख ही है चन्द्र = मुखचन्द्र; विद्या ही है रत्न = विद्यारत्न भाष्य (व्याख्या) ही है अब्धि (समुद्र)= भाष्याब्धि।

(3)द्विगु समास:-जिस समस्त-पद का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो, वह द्विगु कर्मधारय समास कहलाता है।
जैसे-

समस्त-पदविग्रहसप्तसिंधुसात सिंधुओं का समूहदोपहरदो पहरों का समूहत्रिलोकतीनों लोको का समाहारतिरंगातीन रंगों का समूहदुअत्रीदो आनों का समाहारपंचतंत्रपाँच तंत्रों का समूहपंजाबपाँच आबों (नदियों) का समूहपंचरत्नपाँच रत्नों का समूहनवरात्रिनौ रात्रियों का समूहत्रिवेणीतीन वेणियों (नदियों) का समूहसतसईसात सौ दोहों का समूह

द्विगु के भेद

इसके दो भेद होते है- (i)समाहारद्विगु और (ii)उत्तरपदप्रधानद्विगु।

(i)समाहारद्विगु :- समाहार का अर्थ है 'समुदाय' 'इकट्ठा होना' 'समेटना'।
जैसे- तीनों लोकों का समाहार= त्रिलोक
पाँचों वटों का समाहार= पंचवटी
पाँच सेरों का समाहार= पसेरी
तीनो भुवनों का समाहार= त्रिभुवन

(ii)उत्तरपदप्रधानद्विगु:-उत्तरपदप्रधान द्विगु के दो प्रकार है-
(a) बेटा या उत्पत्र के अर्थ में; जैसे- दो माँ का- द्वैमातुर या दुमाता; दो सूतों के मेल का- दुसूती;
(b) जहाँ सचमुच ही उत्तरपद पर जोर हो; जैसे- पाँच प्रमाण (नाम) =पंचप्रमाण; पाँच हत्थड़ (हैण्डिल)= पँचहत्थड़।

द्रष्टव्य- अनेक बहुव्रीहि समासों में भी पूर्वपद संख्यावाचक होता है। ऐसी हालत में विग्रह से ही जाना जा सकता है कि समास बहुव्रीहि है या द्विगु। यदि 'पाँच हत्थड़ है जिसमें वह =पँचहत्थड़' विग्रह करें, तो यह बहुव्रीहि है और 'पाँच हत्थड़' विग्रह करें, तो द्विगु।

तत्पुरुष समास के इन सभी प्रकारों में ये विशेषताएँ पायी जाती हैं-
(i) यह समास दो पदों के बीच होता है। 
(ii) इसके समस्त पद का लिंग उत्तरपद के अनुसार हैं। 
(iii) इस समास में उत्तरपद का ही अर्थ प्रधान होता हैं।

बहुव्रीहि समास:- समास में आये पदों को छोड़कर जब किसी अन्य पदार्थ की प्रधानता हो, तब उसे बहुव्रीहि समास कहते है।

दूसरे शब्दों में- जिस समास में पूर्वपद तथा उत्तरपद- दोनों में से कोई भी पद प्रधान न होकर कोई अन्य पद ही प्रधान हो, वह बहुव्रीहि समास कहलाता है।
जैसे- दशानन- दस मुहवाला- रावण।

जिस समस्त-पद में कोई पद प्रधान नहीं होता, दोनों पद मिल कर किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते है, उसमें बहुव्रीहि समास होता है। 'नीलकंठ', नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव। यहाँ पर दोनों पदों ने मिल कर एक तीसरे पद 'शिव' का संकेत किया, इसलिए यह बहुव्रीहि समास है।

इस समास के समासगत पदों में कोई भी प्रधान नहीं होता, बल्कि पूरा समस्तपद ही किसी अन्य पद का विशेषण होता है।

समस्त-पदविग्रहप्रधानमंत्रीमंत्रियो में प्रधान है जो (प्रधानमंत्री)पंकज(पंक में पैदा हो जो (कमल)अनहोनीन होने वाली घटना (कोई विशेष घटना)निशाचरनिशा में विचरण करने वाला (राक्षस)चौलड़ीचार है लड़ियाँ जिसमे (माला)विषधर(विष को धारण करने वाला (सर्प)मृगनयनीमृग के समान नयन हैं जिसके अर्थात सुंदर स्त्रीत्रिलोचनतीन लोचन हैं जिसके अर्थात शिवमहावीरमहान वीर है जो अर्थात हनुमानसत्यप्रियसत्य प्रिय है जिसे अर्थात विशेष व्यक्ति

तत्पुरुष और बहुव्रीहि में अन्तर- तत्पुरुष और बहुव्रीहि में यह भेद है कि तत्पुरुष में प्रथम पद द्वितीय पद का विशेषण होता है, जबकि बहुव्रीहि में प्रथम और द्वितीय दोनों पद मिलकर अपने से अलग किसी तीसरे के विशेषण होते है।
जैसे- 'पीत अम्बर =पीताम्बर (पीला कपड़ा )' कर्मधारय तत्पुरुष है तो 'पीत है अम्बर जिसका वह- पीताम्बर (विष्णु)' बहुव्रीहि। इस प्रकार, यह विग्रह के अन्तर से ही समझा जा सकता है कि कौन तत्पुरुष है और कौन बहुव्रीहि। विग्रह के अन्तर होने से समास का और उसके साथ ही अर्थ का भी अन्तर हो जाता है। 'पीताम्बर' का तत्पुरुष में विग्रह करने पर 'पीला कपड़ा' और बहुव्रीहि में विग्रह करने पर 'विष्णु' अर्थ होता है।

बहुव्रीहि समास के भेद

बहुव्रीहि समास के चार भेद है-
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि 
(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि 
(iii) तुल्ययोगबहुव्रीहि 
(iv)व्यतिहारबहुव्रीहि

(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि :- इसमें सभी पद प्रथमा, अर्थात कर्ताकारक की विभक्ति के होते है; किन्तु समस्तपद द्वारा जो अन्य उक्त होता है, वह कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण आदि विभक्ति-रूपों में भी उक्त हो सकता है।

जैसे- प्राप्त है उदक जिसको =प्राप्तोदक (कर्म में उक्त); 
जीती गयी इन्द्रियाँ है जिसके द्वारा =जितेन्द्रिय (करण में उक्त);
दत्त है भोजन जिसके लिए =दत्तभोजन (सम्प्रदान में उक्त);
निर्गत है धन जिससे =निर्धन (अपादान में उक्त);
पीत है अम्बर जिसका =पीताम्बर;
मीठी है बोली जिसकी =मिठबोला;
नेक है नाम जिसका =नेकनाम (सम्बन्ध में उक्त);
चार है लड़ियाँ जिसमें =चौलड़ी;
सात है खण्ड जिसमें =सतखण्डा (अधिकरण में उक्त)।

(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि :-समानाधिकरण में जहाँ दोनों पद प्रथमा या कर्ताकारक की विभक्ति के होते है, वहाँ पहला पद तो प्रथमा विभक्ति या कर्ताकारक की विभक्ति के रूप का ही होता है, जबकि बादवाला पद सम्बन्ध या अधिकरण कारक का हुआ करता है। जैसे- शूल है पाणि (हाथ) में जिसके =शूलपाणि; 
वीणा है पाणि में जिसके =वीणापाणि।

(iii) तुल्ययोगबहुव्रीहिु:--जिसमें पहला पद 'सह' हो, वह तुल्ययोगबहुव्रीहि या सहबहुव्रीहि कहलाता है। 
'सह' का अर्थ है 'साथ' और समास होने पर 'सह' की जगह केवल 'स' रह जाता है। इस समास में यह ध्यान देने की बात है कि विग्रह करते समय जो 'सह' (साथ) बादवाला या दूसरा शब्द प्रतीत होता है, वह समास में पहला हो जाता है। 
जैसे- जो बल के साथ है, वह=सबल; जो देह के साथ है, वह सदेह; जो परिवार के साथ है, वह सपरिवार; जो चेत (होश) के साथ है, वह =सचेत।

(iv)व्यतिहारबहुव्रीहि:-जिससे घात-प्रतिघात सूचित हो, उसे व्यतिहारबहुव्रीहि कहा जाता है।
इ समास के विग्रह से यह प्रतीत होता है कि 'इस चीज से और इस या उस चीज से जो लड़ाई हुई'।
जैसे- मुक्के-मुक्के से जो लड़ाई हुई =मुक्का-मुक्की; घूँसे-घूँसे से जो लड़ाई हुई =घूँसाघूँसी; बातों-बातों से जो लड़ाई हुई =बाताबाती। इसी प्रकार, खींचातानी, कहासुनी, मारामारी, डण्डाडण्डी, लाठालाठी आदि।

इन चार प्रमुख जातियों के बहुव्रीहि समास के अतिरिक्त इस समास का एक प्रकार और है। जैसे-

प्रादिबहुव्रीहि- जिस बहुव्रीहि का पूर्वपद उपसर्ग हो, वह प्रादिबहुव्रीहि कहलाता है। जैसे- कुत्सित है रूप जिसका = कुरूप; नहीं है रहम जिसमें = बेरहम; नहीं है जन जहाँ = निर्जन।

तत्पुरुष के भेदों में भी 'प्रादि' एक भेद है, किन्तु उसके दोनों पदों का विग्रह विशेषण-विशेष्य-पदों की तरह होगा, न कि बहुव्रीहि के ढंग पर, अन्य पद की प्रधानता की तरह। जैसे- अति वृष्टि= अतिवृष्टि (प्रादितत्पुरुष) ।

द्रष्टव्य- (i) बहुव्रीहि के समस्त पद में दूसरा पद 'धर्म' या 'धनु' हो, तो वह आकारान्त हो जाता है; जैसे- प्रिय है धर्म जिसका = प्रियधर्मा; सुन्दर है धर्म जिसका = सुधर्मा; आलोक ही है धनु जिसका = आलोकधन्वा।
(ii) सकारान्त में विकल्प से 'आ' और 'क' किन्तु ईकारान्त, उकारान्त और ऋकारान्त समासान्त पदों के अन्त में निश्र्चितरूप से 'क' लग जाता है। जैसे- उदार है मन जिसका = उदारमनस, उदारमना या उदारमनस्क; अन्य में है मन जिसका = अन्यमना या अन्यमनस्क; ईश्र्वर है कर्ता जिसका = ईश्र्वरकर्तृक; साथ है पति जिसके; सप्तीक; बिना है पति के जो = विप्तीक।

बहुव्रीहि समास की विशेषताएँ

बहुव्रीहि समास की निम्नलिखित विशेषताएँ है-

(i) यह दो या दो से अधिक पदों का समास होता है। 
(ii)इसका विग्रह शब्दात्मक या पदात्मक न होकर वाक्यात्मक होता है। 
(iii)इसमें अधिकतर पूर्वपद कर्ता कारक का होता है या विशेषण। 
(iv)इस समास से बने पद विशेषण होते है। अतः उनका लिंग विशेष्य के अनुसार होता है।
(v) इसमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है।

(5)द्वन्द्व समास :- जिस समस्त-पद के दोनों पद प्रधान हो तथा विग्रह करने पर 'और', 'अथवा', 'या', 'एवं' लगता हो वह द्वन्द्व समास कहलाता है।

समस्त-पदविग्रहरात-दिनरात और दिनसुख-दुखसुख और दुखदाल-चावलदाल और चावलभाई-बहनभाई और बहनमाता-पितामाता और पिताऊपर-नीचेऊपर और नीचेगंगा-यमुनागंगा और यमुनादूध-दहीदूध और दहीआयात-निर्यातआयात और निर्यातदेश-विदेशदेश और विदेशआना-जानाआना और जानाराजा-रंकराजा और रंक

पहचान : दोनों पदों के बीच प्रायः योजक चिह्न (Hyphen (-) का प्रयोग होता है।

द्वन्द्व समास में सभी पद प्रधान होते है। द्वन्द्व और तत्पुरुष से बने पदों का लिंग अन्तिम शब्द के अनुसार होता है।

द्वन्द्व समास के भेद

द्वन्द्व समास के तीन भेद है-
(i) इतरेतर द्वन्द्व
(ii) समाहार द्वन्द्व 
(iii) वैकल्पिक द्वन्द्व

(i) इतरेतर द्वन्द्व-: वह द्वन्द्व, जिसमें 'और' से सभी पद जुड़े हुए हो और पृथक् अस्तित्व रखते हों, 'इतरेतर द्वन्द्व' कहलता है।

इस समास से बने पद हमेशा बहुवचन में प्रयुक्त होते है; क्योंकि वे दो या दो से अधिक पदों के मेल से बने होते है।
जैसे- राम और कृष्ण =राम-कृष्ण
ऋषि और मुनि =ऋषि-मुनि
गाय और बैल =गाय-बैल
भाई और बहन =भाई-बहन
माँ और बाप =माँ-बाप
बेटा और बेटी =बेटा-बेटी इत्यादि।

यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि इतरेतर द्वन्द्व में दोनों पद न केवल प्रधान होते है, बल्कि अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रखते है।

(ii) समाहार द्वन्द्व-समाहार का अर्थ है समष्टि या समूह। जब द्वन्द्व समास के दोनों पद और समुच्चयबोधक से जुड़े होने पर भी पृथक-पृथक अस्तित्व न रखें, बल्कि समूह का बोध करायें, तब वह समाहार द्वन्द्व कहलाता है।

समाहार द्वन्द्व में दोनों पदों के अतिरिक्त अन्य पद भी छिपे रहते है और अपने अर्थ का बोध अप्रत्यक्ष रूप से कराते है। 
जैसे- आहारनिद्रा =आहार और निद्रा (केवल आहार और निद्रा ही नहीं, बल्कि इसी तरह की और बातें भी);
दालरोटी=दाल और रोटी (अर्थात भोजन के सभी मुख्य पदार्थ); 
हाथपाँव =हाथ और पाँव (अर्थात हाथ और पाँव तथा शरीर के दूसरे अंग भी ) 
इसी तरह नोन-तेल, कुरता-टोपी, साँप-बिच्छू, खाना-पीना इत्यादि।

कभी-कभी विपरीत अर्थवाले या सदा विरोध रखनेवाले पदों का भी योग हो जाता है। जैसे- चढ़ा-ऊपरी, लेन-देन, आगा-पीछा, चूहा-बिल्ली इत्यादि।

जब दो विशेषण-पदों का संज्ञा के अर्थ में समास हो, तो समाहार द्वन्द्व होता है।
जैसे- लंगड़ा-लूला, भूखा-प्यास, अन्धा-बहरा इत्यादि।
उदाहरण- लँगड़े-लूले यह काम नहीं क्र सकते; भूखे-प्यासे को निराश नहीं करना चाहिए; इस गाँव में बहुत-से अन्धे-बहरे है।

द्रष्टव्य- यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जब दोनों पद विशेषण हों और विशेषण के ही अर्थ में आयें तब वहाँ द्वन्द्व समास नहीं होता, वहाँ कर्मधारय समास हो जाता है। जैसे- लँगड़ा-लूला आदमी यह काम नहीं कर सकता; भूखा-प्यासा लड़का सो गया; इस गाँव में बहुत-से लोग अन्धे-बहरे हैं- इन प्रयोगों में 'लँगड़ा-लूला', 'भूखा-प्यासा' और 'अन्धा-बहरा' द्वन्द्व समास नहीं हैं।