गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

सठोत्तरी कविता

 सन् साठ के बाद भारतीय जनता में निराशा की भावना बढ़ने लगी थी । समाज एवं राजनीति में चारों और हाहाकार मचा हुआ था । आम आदमी गरीबी, महंगाई आदि अनेक कारणों से शोषण की चक्की में पिसा जा रहा था । जिसके कारण जनमानस विचलित हो गया था । राजनीति के मूल्य विघटन ने भाई-भतीजावाद एवं कुर्सीवाद को प्रोत्साहन दिया । देश एवं आम आदमी के प्रगति करने की जगह राजनेता, सत्ताधारी अपनी तिजोरियाँ भरने लगे। सन् १९४७ में स्वतंत्रता के समय भारत-पाक बटवारा, शरणार्थियों की समस्या, सन् १९६२ में चीन से युद्ध, १९६५ और १९७१ में पाकिस्तान से हुए युद्धों के कारण भारत की आर्थिक स्थिति और दयनीय बनती गई । इन तीनों युद्धों ने भारत को एक महत्त्वपूर्ण सबक सिखलाया और हमारी अनेक कमजोरियों हमें अवगत कराया । वही दूसरी ओर राजनीतिक भ्रष्टाचार, सामाजिक कुरीतियाँ, पाखण्ड अंधश्रद्धा, उँच-नीच आदि के कारण देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी । चुनाव जीतने के समस्त नारे कुर्सी हथियाने के बाद खोखले साबीत हुए । इन परिस्थितियों ने युवा पीढ़ी में कुंठा, निराशा, विद्रोह और आक्रोश को भर दिया । जिसके साक्षात्कार हमें साठोत्तरी काव्य में होते हैं । ‘‘नई कविता में युगीन पीड़ा तो थी किन्तु विद्रोह और आक्रोश की बहुलता नहीं थी । उसमें आशा-आकांक्षा की किरण थी, जबकि साठोत्तरी कविता में सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों के साथ-साथ विद्रोह और आक्रोश का स्वर ही प्रमुख है । मोहभंग की स्थिति ने इन युवा कवियों को विद्रोह की ओर उन्मुख किया जिसके परिणामस्वरूप उनके काव्य में सपाटबयानी, अस्वीकृति, कुंठा, हताशा, निराशा, अनास्था और व्यंग्य का स्वर व्यंजित होने लगा ।’’
    आजादी के बाद राजनीतिक, सामाजिक आदि मूल्यों का नाश हुआ । आम आदमी ने सब स्थितियों को झेला था, इसीलिए वह इन स्थितियों में परिवर्तन चाहता था । किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ । परिणामस्वरूप आम आदमी के मन में इन सब स्थितियों के खिलाफ विद्रोह पनपने लगा जिसकी प्रखर अभिव्यक्ति साठोत्तरी काव्य में नजर आती है । 
    धूमिल शोषकों के विरोधी और शोषितों के पक्षधर थे । इसीलिए धूमिल अपनी हर दूसरी कविता में विद्रोही स्वर में क्रान्ति का राग अलापते नजर आते हैं । 
    ‘‘इसीलिए मैं फिर कहता हूँ कि हर हाल में
    गीली मिट्टी की तरह हाँ-हाँ मत करों
    तनो/अकड़ों
    अमरबेली की तरह मत जीयों
    यह दुनिया बदल रही है / जड़ पकड़ों ।’’४
    धूमिल इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ क्रान्ति कर समाज में समानता प्रस्थापित करना चाहते थे । धूमिल के क्रान्तिकारी विचारों पर प्रकाश डालने के पश्चात डॉ. काले लिखते हैं - ‘‘क्रांति के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों को उनकी दुरावस्था से परिचित करवाया जाए लोगों को कुव्यवस्था के विरूद्ध खड़ा किया जाए । क्रान्ति के लिए मानसिक तैयारी और संगठन परमावश्यक है । कवि अपनी कविता के माध्यम से वैचारिक परिवर्तन की भूमिका तैयार करता है ।
    साठोत्तरी कवियों में सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक सांस्कृतिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में व्याप्त अन्याय अत्याचार के खिलाफ विद्रोह का स्वर बुलंद करनेवाले धूमिल प्रमुख कवि रहे हैं । धूमिल ने अपने काव्य में शोषकों को बेनकाब कर उनके शोषण वृत्ति का विरोध किया । आम आदमी में एकता प्रस्थापित कर भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की प्रेरणा दी । धूमिल के काव्य में आम आदमी की दयनीय स्थिति को देख डॉ. मिश्र लिखते हैं - ‘‘प्रजातंत्रीय माहौल में आए परिवर्तन ने जैसे जिन्दगी के स्वत्व को ही निगल लिया है। जिसके अभाव में बेहतर परिवर्तन का कोई भी आव्हान विफल होता है । दरअसल धूमिल के काव्य की प्रतिबद्धता जनता को उसकी अपनी शक्ति का परिचय कराने में हैं । साथ ही वह यह भी बताता है कि कैसे प्रजातंत्र की मूल शक्ति होने के बावजूद जनता निस्सहाय एवं विवश शोषण की पीड़ा झेलती है... यथार्थ का भयावह बोध उसे निराश भी करता है, जिसके सबब प्रजातंत्र को वह षड़यंत्र एवं कारागार कहने के लिए विवश होता है ।’’६  धूमिल इसी जनतंत्र को खोखला साबित करते हुए उस पर व्यंग्य कसते हैं । 
    ‘‘हवा में चमकदार गोल शब्द 
    फेंक दिया है - जनतंत्र 
    जिसकी रोज सैकड़ों बार हत्या होती है 
    और हर बार 
    वह भेड़ियों की जुबान पर जिन्दा है ।’’७
    देश की प्रगति या अधोगति से शोषकों को कुछ मतलब नहीं, मतलब है तो सिर्फ अपनी तिजोरियाँ भरने से । स्वार्थी राजनेताओं के हाथों देश को लूटता देख धूमिल लिखते हैं - 
    ‘‘देश डूबता है तो डूबे
    लोग उबते हैं तो उबे’’८
    आम आदमी के साथ हो रहे विश्वासघात को देखकर धूमिल को दुःख होता है । आदमी के प्रति धूमिल की संवेदना को देखकर डॉ. मीनाक्षी जोशी लिखती है - ‘‘वे यथार्थ के संवेदनकार भी थे और शिल्प की सृष्टा भी । उनमें आवेश, आक्रोश, अनुभवजन्य सोच एवं उर्जापुर्ण अदम्य साहस था । इसलिए राजनीतिक विचार हो या सामाजिक विसंगति हो सबको उन्होंने इस प्रकार रचा कि विद्रोह में पीड़ा के स्वर सुनाई दे, क्रांति में करूणा प्रकट हो, विसंगति में क्षोभ दिखाई दे तथा जन एवं जनतंत्र में पूरे राष्ट्र की अस्मिता का भाव-राग अभिव्यक्ति हो । धूमिल उसी भाव-राग के तेजस्वी कवि थे ।’’९
    आम आदमी के प्रगति की जगह स्वार्थी सत्ताधारी अपना ही विकास करते नजर आते हैं। जिसके कारण राजनीति समाज सेवा का क्षेत्र न रहकर पैसे कमाने का क्षेत्र बन गया है । ऐसी गन्धी राजनीति को देखकर धूमिल को राजनेता और राजनीति से घृणा होती है । धूमिल के काव्य पर दृष्टिक्षेप करने के बाद डॉ. मंजुल उपाध्याय लिखते हैं - ‘‘राजनीति की वर्तमान की वर्तमान स्थितियों से उन्हें घृणा हो चुकी थी क्योंकि कोई भी बुद्धिजीवी वर्तमान स्थितियों से सहमत नहीं हो सकता । फलतः वह क्रांति की बात करने लगता है । संसद से सड़क तक की लड़ाई वह स्वयं लड़ने की चुनौती देता है । प्रांतीय एवं केंद्रीय स्तर पर राजनीतिक स्थिति पर असन्तोष हर स्तर पर है । पूँजीवाद से घृणा, साम्यवाद के प्रति आस्था, क्रान्ति का समर्थन...। परिवेश के प्रति उनके मन में जो स्थायी घृणा थी, वह उनकी कविता को महत्त्वपूर्ण बनाती है ।’’१० धूमिल राजनीति के गिरते स्तर को देखकर राजनीति को संसार की सबसे सुन्दर वेश्या तक कहते हैं । धूमिल के यह शब्द उनके अन्दर छिपे विद्रोह को ही व्यक्त करते हैं । 
    धूमिल के काव्य में राजनीतिक विद्रोह के साथ-साथ सामाजिक विद्रोह भी नजर आता है। धूमिल समाज में फैली स्वार्थ वृत्ति का विरोध करते हैं । समाज में हर कोई अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का गला काटने के लिए तैयार है । समाज में वह स्वार्थ वृत्ति इतनी बढ़ चुकी है कि पड़ोस में ये रास्ते पर कोई मर रहा हो तब भी कोई उसकी सहायता करने के लिए आगे नहीं आता । एक समय ऐसा भी था कि अगर कोई दुःख में है तो पूरा समाज उसकी मदद करता था किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं उसी की ओर संकेत करते हुए धूमिल कहते हैं - 
    ‘‘वह बहुत पहले की बात है 
    जब कही, किसी निर्जन में 
    आदिम पशुता चीखती थी और
    सारा नगर चौक पड़ता था मगर अब ।’’११
    धूमिल के मन में समाज के प्रति आत्मीयभाव रहा है । समाज में फैली पशुवृत्ति पर धूमिल अपनी लेखनी के माध्यम से प्रहार करते हैं - ‘‘एक जिम्मेदार रचनाकार की तरह वह समाज की पशुप्रवृत्तियों पर सांघिक चोट करता है और कविता की भाषा में अपनी सजग आत्मीयता से इन छदमवेशी पशु आचरणों के पीछे छिपे सामाजिक तथ्यों का उद्घाटन करता है ।’’१२ कवि धूमिल समाज में फैली अनैतिकता एवं दृष्ट प्रवृत्तियों पर प्रहार कर समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं । धूमिल ने समाज एवं राजनीति में व्याप्त ऐसे अनेक चेहरों को बेनकाब किया जो ईमानदारी का चोला पहने हुए थे । धूमिल के काव्य में समाज के हर एक पहलू पर विचार किया गया है । धूमिल के काव्य को खासकर पटकथा को देखकर नेमिचन्द्र जैन लिखते हैं - ‘‘देश की और अपनी ऐसी बेरहम तस्वीर इतनी बेबाकी से उतार सकना एक सार्थक सर्जनात्मक प्रतिभा द्वारा ही सम्भव है और उचित ही यह कविता धूमिल को समकालीन कवियों में एक अलग खाँस और उँचा दर्जा देती है ।... उसमें एक ऐसे कवि का आत्मसाक्षात्कार है जो समाज में बहुत से सूत्रों से जुड़ा है और उसकी हलचल, कशमकश और यातना का सहभागी है ।’’१३ आम आदमी इन दयनीय सामाजिक स्थितियों से बहुत ज्यादा परेशान एवं निराश हो चुका था । इन स्थितियों के जिम्मेदार शोषक वर्ग के खिलाफ वह विद्रोह करना चाहता है किन्तु अन्दर ही अन्दर शोषकों के आतंक से डरता भी है । आम आदमी के इसी विद्रोह को धूमिल कुछ इस तरह वाणी देते हैं - 
    ‘‘यद्यपि यह सही है कि मैं 
    कोई ठण्डा आदमी नहीं हूँ...
    मुझमें भी आग है - मगर वह
    भभककर बाहर नहीं आती 
    क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ 
    एक पूँजीवादी दिमाग है ।’’१४
    धूमिल के काव्य में राजनैतिक, सामाजिक विद्रोह के साथ-साथ धार्मिक विद्रोह नजर आता है । धर्म के नाम पर हो रहे पाखण्ड, दंगा फसाद, मार-काट आदि का धूमिल ने विरोध किया है। धर्म के नाम पर लूट-पाट आज आम बात हो गई है । शोषक वर्ग अपने फायदे के लिए विभिन्न समुदायों की धार्मिक भावना को भडकाकर अपनी स्वार्थ की रोटी सेंकते हैं । धर्म शोषकों के हाथों का खिलौना बन चुका है । मन्दिर-मस्जिदों में धर्म के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है । जिसके कारण आज तक हजारों निरापराधों की जाने गई है । ऐसे धार्मिक स्थलों का भण्डाफोड करते हुए धूमिल कहते हैं - 
    ‘‘मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का 
    सबसे बड़ा बौद्ध मठ
    बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है ।’’१५
    आम आदमी ऐसे धार्मिक स्थलों को देखकर शर्मिंदगी महसूस करता है और इन सब बातों से उसका धर्म एवं ईश्वर पर से विश्वास उठने लगा है । धूमिल का धार्मिक विद्रोह स्पष्ट करने के लिए हम यहां धूमिल के अनुज कन्हैया पांडेय का एक वक्तव्य हम यहां प्रस्तुत करेंगे - ‘‘वे धर्म के ढोंग में विश्वास नहीं करते थे । चोटी तथा जनेऊ धारण करना वे पसन्द नहीं करते थे । हर बात में स्वतंत्र बुद्धि का इस्तेमाल करते थे । छुआछूत को वे नहीं मानते थे । मुसलमानों के घर खाना खाने के लिए ईद के दिन घर पर खाना नहीं खाते थे । ईसाईयों के घर भी खाना-खाने के लिए वे हिचकिचाते नहीं थे । चमार तथा ब्राह्मण उनके लिए बराबर थे, बल्कि ईमानदार तथा मेहनतकश उनके लिए बेईमान तथा दूसरों की कमाई पर जीने वाले ब्राह्मण से कई लाख गुना अच्छे थे ।’’१६ कन्हैया की इन बातों से यह साफ हो जाता है कि धूमिल किसी भी प्रकार की विषमता, भेदा-भेद, उँच-नीचता, जातिभेद, छुआछूत आदि को नहीं मानते थे । धूमिल समाज में फैली स्वार्थ वृत्ति का विरोध करते थे ।
    संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इस तरह धूमिल ने राजनीति, समाज धर्म आदि में व्याप्त अन्याय-अत्याचार का पुरजोर विरोध अपने काव्य में कर समाज एवं आम आदमी में जागृति पैदा करने का महत्त्वपूर्ण काम किया है ।

बुधवार, 4 अक्टूबर 2017

शब्द की परिभाषा

शब्द-विचार और शब्द भेद

शब्द की परिभाषा- एक या अधिक वर्णों से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक ध्वनि शब्द कहलाता है। जैसे- एक वर्ण से निर्मित शब्द-न (नहीं) व (और) अनेक वर्णों से निर्मित शब्द-कुत्ता, शेर,कमल, नयन, प्रासाद, सर्वव्यापी, परमात्मा। 


शब्द-भेद 

व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द-भेद- 

व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द के निम्नलिखित तीन भेद हैं-

1. रूढ़ 
2. यौगिक 
3. योगरूढ़ 



1.रूढ़- 
जो शब्द किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं। जैसे-कल, पर। इनमें क, ल, प, र का टुकड़े करने पर कुछ अर्थ नहीं हैं। अतः यह निरर्थक हैं। 

2.यौगिक- 
जो शब्द कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों,वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत आदि। ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं। 



3.योगरूढ़- 
वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़ में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया है। अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है। इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में प्रसिद्ध है। 



उत्पत्ति के आधार पर शब्द-भेद- 

उत्पत्ति के आधार पर शब्द के निम्नलिखित चार भेद हैं-

1. तत्सम- जो शब्द संस्कृत भाषा से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के ले लिए गए हैं वे तत्सम कहलाते हैं। जैसे-अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य आदि।

2. तद्भव- जो शब्द रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं वे तद्भव कहलाते हैं। जैसे-आग (अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि।



3. देशज- जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं। जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि।

4. विदेशी या विदेशज- विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं। ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं। जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची,अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि। ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।



अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल आदि।

फारसी- अनार,चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।

अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर, रिश्वत, औरत, कैदी, मालिक, गरीब आदि।



तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर आदि।

पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि।

फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि।

चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।



यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।

जापानी- रिक्शा आदि। 

प्रयोग के आधार पर शब्द-भेद 

प्रयोग के आधार पर शब्द के निम्नलिखित आठ भेद है-
1. संज्ञा
2. सर्वनाम


3. विशेषण
4. क्रिया
5. क्रिया-विशेषण
6. संबंधबोधक
7. समुच्चयबोधक
8. विस्मयादिबोधक 

इन उपर्युक्त आठ प्रकार के शब्दों को भी विकार की दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है- 

1. विकारी 


2. अविकारी 

1.विकारी शब्द- 
जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे,हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं। इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं। 

2.अविकारी शब्द- 


जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य, और, हे अरे आदि। इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं।

अर्थ की दृष्टि से शब्द-भेद 

अर्थ की दृष्टि से शब्द के दो भेद हैं-


1. सार्थक
2. निरर्थक 

1.सार्थक शब्द- 

जिन शब्दों का कुछ-न-कुछ अर्थ हो वे शब्द सार्थक शब्द कहलाते हैं। जैसे-रोटी, पानी, ममता, डंडा आदि। 

2.निरर्थक शब्द- 

जिन शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता है वे शब्द निरर्थक कहलाते हैं। जैसे-रोटी-वोटी, पानी-वानी, डंडा-वंडा इनमें वोटी, वानी, वंडा आदि निरर्थक शब्द हैं।



विशेष- निरर्थक शब्दों पर व्याकरण में कोई विचार नहीं किया जाता है। 

पद-विचार 
सार्थक वर्ण-समूह शब्द कहलाता है, पर जब इसका प्रयोग वाक्य में होता है तो वह स्वतंत्र नहीं रहता बल्कि व्याकरण के नियमों में बँध जाता है और प्रायः इसका रूप भी बदल जाता है। जब कोई शब्द वाक्य में प्रयुक्त होता है तो उसे शब्द न कहकर पद कहा जाता है।



हिन्दी में पद पाँच प्रकार के होते हैं- 
1. संज्ञा 
2. सर्वनाम
3. विशेषण
4. क्रिया
5. अव्यय 

1.संज्ञा- 
किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु आदि तथा नाम के गुण, धर्म, स्वभाव का बोध कराने वाले शब्द संज्ञा कहलाते हैं। जैसे-श्याम, आम, मिठास, हाथी आदि।



संज्ञा के प्रकार- 

संज्ञा के तीन भेद हैं- 

1. व्यक्तिवाचक संज्ञा।
2. जातिवाचक संज्ञा।
3. भाववाचक संज्ञा। 

1.व्यक्तिवाचक संज्ञा- 

जिस संज्ञा शब्द से किसी विशेष, व्यक्ति, प्राणी, वस्तु अथवा स्थान का बोध हो उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-जयप्रकाश नारायण, श्रीकृष्ण, रामायण, ताजमहल, कुतुबमीनार, लालकिला हिमालय आदि। 



2.जातिवाचक संज्ञा- 

जिस संज्ञा शब्द से उसकी संपूर्ण जाति का बोध हो उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-मनुष्य, नदी, नगर, पर्वत, पशु, पक्षी, लड़का, कुत्ता, गाय, घोड़ा, भैंस, बकरी, नारी, गाँव आदि। 

3.भाववाचक संज्ञा- 
जिस संज्ञा शब्द से पदार्थों की अवस्था, गुण-दोष, धर्म आदि का बोध हो उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-बुढ़ापा, मिठास, बचपन, मोटापा, चढ़ाई, थकावट आदि।



विशेष- कुछ विद्वान अंग्रेजी व्याकरण के प्रभाव के कारण संज्ञा शब्द के दो भेद और बतलाते हैं- 

1. समुदायवाचक संज्ञा।
2. द्रव्यवाचक संज्ञा। 

1.समुदायवाचक संज्ञा- 
जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों, वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो उन्हें समुदायवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-सभा, कक्षा, सेना, भीड़, पुस्तकालय, दल आदि। 



2.द्रव्यवाचक संज्ञा- 
जिन संज्ञा-शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थों का बोध हो उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-घी, तेल, सोना, चाँदी,पीतल, चावल, गेहूँ, कोयला, लोहा आदि। इस प्रकार संज्ञा के पाँच भेद हो गए, किन्तु अनेक विद्वान समुदायवाचक और द्रव्यवाचक संज्ञाओं को जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत ही मानते हैं, और यही उचित भी प्रतीत होता है।



भाववाचक संज्ञा - 

भाववाचक संज्ञाएँ चार प्रकार के शब्दों से बनती हैं। जैसे- 
1.जातिवाचक संज्ञाओं से- 

दास दासता
पंडित पांडित्य
बंधु बंधुत्व 
क्षत्रिय क्षत्रियत्व
पुरुष पुरुषत्व


प्रभु प्रभुता
पशु पशुता,पशुत्व
ब्राह्मण ब्राह्मणत्व
मित्र मित्रता
बालक बालकपन
बच्चा बचपन
नारी नारीत्व 

2.सर्वनाम से- 

अपना अपनापन, अपनत्व निज निजत्व,निजता


पराया परायापन
स्व स्वत्व
सर्व सर्वस्व
अहं अहंकार
मम ममत्व,ममता 

3.विशेषण से- 

मीठा मिठास
चतुर चातुर्य, चतुराई
मधुर माधुर्य
सुंदर सौंदर्य, सुंदरता


निर्बल निर्बलता सफेद सफेदी
हरा हरियाली
सफल सफलता
प्रवीण प्रवीणता
मैला मैल
निपुण निपुणता
खट्टा खटास 

4.क्रिया से- 
खेलना खेल
थकना थकावट
लिखना लेख, लिखाई


हँसना हँसी
लेना-देना लेन-देन
पढ़ना पढ़ाई
मिलना मेल
चढ़ना चढ़ाई
मुसकाना मुसकान
कमाना कमाई
उतरना उतराई
उड़ना उड़ान
रहना-सहना रहन-सहन
देखना-भालना देख-भाल


वर्णों का उच्चारण स्थान

वर्णों का उच्चारण स्थान


– किसी भी वर्ण का उच्चारण मुख द्वारा होता है | जीह्वा (जीभ) मुख के जिस भाग को स्पर्श करती है , उन्हीं स्थानों को वर्णों का उच्चारण स्थान कहते है |


वर्णों के उच्चारण स्थान का परिचय –


क्र.उच्चारण स्थानसंस्कृत सूत्रउच्चारित वर्ण1कण्ठअकुह विसर्जनीयानं कण्ठ: |अ,क,ख,ग,घ,ड.,: (विसर्ग)2तालुइचुयशानां तालु: |इ,च,छ,ज,झ, ञ , य,श3मूर्धाऋटुरषाणां मूर्धा |ऋ, ट,ठ,ड,ढ,ण,र,ष4दंतलृतुलसानां दंता: |लृ,त,थ,द,ध,न,ल,स5ओष्ठउपूपध्मानीयानां ओष्ठौ |उ,प,फ,ब,भ,म6नासिका´मड.णनानां नासिका च |ड., ञ ,ण,न,म7कण्ठ तालुएदैतो कण्ठतालु: |ए,ऐ8कण्ठ ओष्ठओदौतो कण्ठोष्ठम् |ओ,औ9ओष्ठ दंतवकारस्य दंतोष्ठम् |व10नासिकानसिका अनुस्वारस्य |[ ं](अनुस्वार

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

विराम चिन्ह

विराम चिह(Punctuation Mark) की परिभाषा


भित्र-भित्र प्रकार के भावों और विचारों को स्पष्ट करने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग वाक्य के बीच या अंत में किया जाता है, उन्हें 'विराम चिह्न' कहते है। 
दूसरे शब्दों में- विराम का अर्थ है - 'रुकना' या 'ठहरना' । वाक्य को लिखते अथवा बोलते समय बीच में कहीं थोड़ा-बहुत रुकना पड़ता है जिससे भाषा स्पष्ट, अर्थवान एवं भावपूर्ण हो जाती है। लिखित भाषा में इस ठहराव को दिखाने के लिए कुछ विशेष प्रकार के चिह्नों का प्रयोग करते हैं। इन्हें ही विराम-चिह्न कहा जाता है।


सरल शब्दों में- अपने भावों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए या एक विचार और उसके प्रसंगों को प्रकट करने के लिए हम रुकते हैं। इसी को विराम कहते है।
इन्हीं विरामों को प्रकट करने के लिए हम जिन चिह्नों का प्रयोग करते है, उन्हें 'विराम चिह्न' कहते है।


यदि विराम-चिह्न का प्रयोग न किया जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। 
जैसे- (1)रोको मत जाने दो। 
(2)रोको, मत जाने दो।
(3)रोको मत, जाने दो।


उपर्युक्त उदाहरणों में पहले वाक्य में अर्थ स्पष्ट नहीं होता, जबकि दूसरे और तीसरे वाक्य में अर्थ तो स्पष्ट हो जाता है लेकिन एक-दूसरे का उल्टा अर्थ मिलता है जबकि तीनो वाक्यों में वही शब्द है। दूसरे वाक्य में 'रोको' के बाद अल्पविराम लगाने से रोकने के लिए कहा गया है जबकि तीसरे वाक्य में 'रोको मत' के बाद अल्पविराम लगाने से किसी को न रोक कर जाने के लिए कहा गया हैं।

इस प्रकार विराम-चिह्न लगाने से दूसरे और तीसरे वाक्य को पढ़ने में तथा अर्थ स्पष्ट करने में जितनी सुविधा होती है उतनी पहले वाक्य में नहीं होती। 
अतएव विराम-चिह्नों के विषय में पूरा ज्ञान होना आवश्यक है।


विराम चिह्न की आवश्यकता-


'विराम' का शाब्दिक अर्थ होता है, ठहराव। जीवन की दौड़ में मनुष्य को कहीं-न-कहीं रुकना या ठहरना भी पड़ता है। विराम की आवश्यकता हर व्यक्ति को होती है। जब हम करते-करते थक जाते है, तब मन आराम करना चाहता है। यह आराम विराम का ही दूसरा नाम है। पहले विराम होता है, फिर आराम। स्पष्ट है कि साधारण जीवन में भी विराम की आवश्यकता है।


लेखन मनुष्य के जीवन की एक विशेष मानसिक अवस्था है। लिखते समय लेखक यों ही नहीं दौड़ता, बल्कि कहीं थोड़ी देर के लिए रुकता है, ठहरता है और पूरा (पूर्ण) विराम लेता है। ऐसा इसलिए होता है कि हमारी मानसिक दशा की गति सदा एक-जैसी नहीं होती। यही कारण है कि लेखनकार्य में भी विरामचिह्नों का प्रयोग करना पड़ता है। 
यदि इन चिन्हों का उपयोग न किया जाय, तो भाव अथवा विचार की स्पष्टता में बाधा पड़ेगी और वाक्य एक-दूसरे से उलझ जायेंगे और तब पाठक को व्यर्थ ही माथापच्ची करनी पड़ेगी।


पाठक के भाव-बोध को सरल और सुबोध बनाने के लिए विरामचिन्हों का प्रयोग होता है। सारांश यह कि वाक्य के सुन्दर गठन और भावाभिव्यक्ति की स्पष्टता के लिए इन विरामचिह्नों की आवश्यकता और उपयोगिता मानी गयी है। 
हिन्दी में प्रयुक्त विराम चिह्न- हिन्दी में निम्नलिखित विरामचिह्नों का प्रयोग अधिक होता है-


हिंदी में प्रचलित प्रमुख विराम चिह्न निम्नलिखित है- 
(1) अल्प विराम (Comma)( , ) 
(2) अर्द्ध विराम (Semi colon) ( ; ) 
(3) पूर्ण विराम(Full-Stop) ( । ) 
(4) उप विराम (Colon) [ : ] 
(5) विस्मयादिबोधक चिह्न (Sign of Interjection)( ! )
(6) प्रश्नवाचक चिह्न (Question mark) ( ? ) 
(7) कोष्ठक (Bracket) ( () ) 
(8) योजक चिह्न (Hyphen) ( - ) 
(9) अवतरण चिह्न या उद्धरणचिह्न (Inverted Comma) ( ''... '' ) 
(10) लाघव चिह्न (Abbreviation sign) ( o ) 
(11) आदेश चिह्न (Sign of following) ( :- ) 
(12) रेखांकन चिह्न (Underline) (_) 
(13) लोप चिह्न (Mark of Omission)(...)


(1)अल्प विराम (Comma)(,) वाक्य में जहाँ थोड़ा रुकना हो या अधिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि को अलग करना हो वहाँ अल्प विराम ( , ) चिह्न का प्रयोग किया जाता है।


अल्प का अर्थ होता है- थोड़ा। अल्पविराम का अर्थ हुआ- थोड़ा विश्राम अथवा थोड़ा रुकना। बातचीत करते समय अथवा लिखते समय जब हम बहुत-सी वस्तुओं का वर्णन एक साथ करते हैं, तो उनके बीच-बीच में अल्पविराम का प्रयोग करते है; जैसे-


(a)भारत में गेहूँ, चना, बाजरा, मक्का आदि बहुत-सी फसलें उगाई जाती हैं।


(b) जब हम संवाद-लेखन करते हैं तब भी अल्पविराम-चिह्न का प्रयोग किया जाता है; 
जैसे- नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा, ''तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।''


(c) संवाद के दौरान 'हाँ' अथवा 'नहीं' के पश्चात भी इस चिह्न का प्रयोग होता है; जैसे-
रमेश : केशव, क्या तुम कल जा रहे हो ?
केशव : नहीं, मैं परसों जा रहा हूँ।


हिंदी में इस विरामचिह्न का प्रयोग सबसे अधिक होता है। इसके प्रयोग की अनेक स्थितियाँ हैं। 
इसके कुछ मुख्य नियम इस प्रकार हैं-

(i) वाक्य में जब दो से अधिक समान पदों और वाक्यों में संयोजक अव्यय 'और' आये, वहाँ अल्पविराम का प्रयोग होता है। जैसे-
पदों में- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न राजमहल में पधारे। 
वाक्यों में- वह जो रोज आता है, काम करता है और चला जाता है।


(ii) जहाँ शब्दों को दो या तीन बार दुहराया जाय, वहाँ अल्पविराम का प्रयोग होता है। 
जैसे- वह दूर से, बहुत दूर से आ रहा है। 
सुनो, सुनो, वह क्या कह रही है। 
नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता।


(iii) जहाँ किसी व्यक्ति को संबोधित किया जाय, वहाँ अल्पविराम का चिह्न लगता है। 
जैसे- भाइयो, समय आ गया है, सावधान हो जायँ। 
प्रिय महराज, मैं आपका आभारी हूँ। 
सुरेश, कल तुम कहाँ गये थे ?
देवियो, आप हमारे देश की आशाएँ है।


(iv)जिस वाक्य में 'वह', 'तो', 'या', 'अब', इत्यादि लुप्त हों, वहाँ अल्पविराम का प्रयोग होता है।
जैसे- मैं जो कहता हूँ, कान लगाकर सुनो। ('वह' लुप्त है।)
वह कब लौटेगा, कह नहीं सकता। ('यह' लुप्त है। )
वह जहाँ जाता है, बैठ जाता है। ('वहाँ' लुप्त है। )
कहना था सो कह दिया, तुम जानो। ('अब' लुप्त है।)


(v)यदि वाक्य में प्रयुक्त किसी व्यक्ति या वस्तु की विशिष्टता किसी सम्बन्धवाचक सर्वनाम के माध्यम से बतानी हो, तो वहाँ अल्पविराम का प्रयोग निम्रलिखित रीति से किया जा सकता है- 
मेरा भाई, जो एक इंजीनियर है, इंगलैण्ड गया है 
दो यात्री, जो रेल-दुर्घटना के शिकार हुए थे, अब अच्छे है। 
यह कहानी, जो किसी मजदूर के जीवन से सम्बद्ध है, बड़ी मार्मिक है। 


(vi) अँगरेजी में दो समान वैकल्पिक वस्तुओं तथा स्थानों की 'अथवा', 'या' आदि से सम्बद्ध करने पर उनके पहले अल्पविराम लगाया जाता है। 
जैसे- Constantinople, or Istanbul, was the former capital of Turkey. 
Nitre,or salt petre,is dug from the earth.


(vii)इसके ठीक विपरीत, दो भित्र वैकल्पिक वस्तुओं तथा स्थानों को 'अथवा', 'या' आदि से जोड़ने की स्थिति में 'अथवा', 'या' आदि के पहले अल्पविराम नहीं लगाया जाता है। 
जैसे- I should like to live in Devon or Cornwall . 
He came from kent or sussex.


(viii)हिन्दी में उक्त नियमों का पालन, खेद है, कड़ाई से नहीं होता। हिन्दी भाषा में सामान्यतः 'अथवा', 'या' आदि के पहले अल्पविराम का चिह्न नहीं लगता। 
जैसे - पाटलिपुत्र या कुसुमपुर भारत की पुरानी राजधानी था। 
कल मोहन अथवा हरि कलकत्ता जायेगा।


(ix) किसी व्यक्ति की उक्ति के पहले अल्पविराम का प्रयोग होता है। 
जैसे- मोहन ने कहा, ''मैं कल पटना जाऊँगा। ''
इस वाक्य को इस प्रकार भी लिखा जा सकता है- 'मोहन ने कहा कि मैं कल पटना जाऊँगा।' कुछ लोग 'कि' के बाद अल्पविराम लगाते है, लेकिन ऐसा करना ठीक नहीं है। यथा-
राम ने कहा कि, मैं कल पटना जाऊँगा। 
ऐसा लिखना भद्दा है। 'कि' स्वयं अल्पविराम है; अतः इसके बाद एक और अल्पविराम लगाना कोई अर्थ नहीं रखता। इसलिए उचित तो यह होगा कि चाहे तो हम लिखें- 'राम ने कहा, 'मैं कल पटना जाऊँगा', अथवा लिखें- 'राम ने कहा कि मैं कल पटना जाऊँगा' ।दोनों शुद्ध होंगे।


(x) बस, हाँ, नहीं, सचमुच, अतः, वस्तुतः, अच्छा-जैसे शब्दों से आरम्भ होनेवाले वाक्यों में इन शब्दों के बाद अल्पविराम लगता है। 
जैसे- बस, हो गया, रहने दीजिए। 
हाँ, तुम ऐसा कह सकते हो।
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। 
सचमुच, तुम बड़े नादान हो। 
अतः, तुम्हे ऐसा नहीं कहना चाहिए। 
वस्तुतः, वह पागल है। 
अच्छा, तो लीजिए, चलिए।


(xi) शब्द युग्मों में अलगाव दिखाने के लिए; जैसे- पाप और पुण्य, सच और झूठ, कल और आज। पत्र में संबोधन के बाद; 
जैसे- पूज्य पिताजी, मान्यवर, महोदय आदि। ध्यान रहे कि पत्र के अंत में भवदीय, आज्ञाकारी आदि के बाद अल्पविराम नहीं लगता।


(xii) क्रियाविशेषण वाक्यांशों के बाद भी अल्पविराम आता है। जैसे- महात्मा बुद्ध ने, मायावी जगत के दुःख को देख कर, तप प्रारंभ किया।


(xiii) किन्तु, परन्तु, क्योंकि, इसलिए आदि समुच्च्यबोधक शब्दों से पूर्व भी अल्पविराम लगाया जाता है; 
जैसे- आज मैं बहुत थका हूँ, इसलिए विश्राम करना चाहता हूँ। 
मैंने बहुत परिश्रम किया, परंतु फल कुछ नहीं मिला।


(xiv) तारीख के साथ महीने का नाम लिखने के बाद तथा सन्, संवत् के पहले अल्पविराम का प्रयोग किया जाता है। 
जैसे- 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को गाँधीजी का जन्म हुआ।


(xv) उद्धरण से पूर्व 'कि' के बदले में अल्पविराम का प्रयोग किया जाता है। जैसे- नेता जी ने कहा, ''दिल्ली चलो''। ('कि' लगने पर- नेताजी ने कहा कि ''दिल्ली चलो'' ।)


(xvi) अंको को लिखते समय भी अल्पविराम का प्रयोग किया जाता है। जैसे- 5, 6, 7, 8, 9, 10, 15, 20, 60, 70, 100 आदि।


(2)अर्द्ध विराम (Semi colon) ( ; ) जहाँ अल्प विराम से कुछ अधिक ठहरते है तथा पूर्ण विराम से कम ठहरते है, वहाँ अर्द्ध विराम का चिह्न ( ; ) लगाया जाता है। 
यदि एक वाक्य या वाक्यांश के साथ दूसरे वाक्य या वाक्यांश का संबंध बताना हो तो वहाँ अर्द्धविराम का प्रयोग होता है। इस प्रकार के वाक्यों में वाक्यांश दूसरे से अलग होते हुए भी दोनों का कुछ-न कुछ संबंध रहता है।


कुछ उदाहरण इस प्रकार है-


(a)आम तौर पर अर्द्धविराम दो उपवाक्यों को जोड़ता है जो थोड़े से असंबद्ध होते है एवं जिन्हें 'और' से नहीं जोड़ा जा सकता है। जैसे- 
फलों में आम को सर्वश्रेष्ठ फल मन गया है; किन्तु श्रीनगर में और ही किस्म के फल विशेष रूप से पैदा होते है।


(b) दो या दो से अधिक उपाधियों के बीच अर्द्धविराम का प्रयोग होता है; जैसे- एम. ए.; बी, एड. । एम. ए.; पी. एच. डी. । एम. एस-सी.; डी. एस-सी. ।


वह एक धूर्त आदमी है; ऐसा उसके मित्र भी मानते हैं। 
यह घड़ी ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी; यह बहुत सस्ती है। 
हमारी चिट्ठी उड़ा ले गये; बोले तक नहीं।
काम बंद है; कारोबार ठप है; बेकारी फैली है; चारों ओर हाहाकार है। 
कल रविवार है; छुट्टी का दिन है; आराम मिलेगा।


(3) पूर्ण विराम (Full-Stop)( । ) जहाँ एक बात पूरी हो जाये या वाक्य समाप्त हो जाये वहाँ पूर्ण विराम ( । ) चिह्न लगाया जाता है। 
जैसे- पढ़ रहा हूँ। 
हिन्दी में पूर्ण विराम चिह्न का प्रयोग सबसे अधिक होता है। यह चिह्न हिन्दी का प्राचीनतम विराम चिह्न है।


(i)पूर्णविराम का अर्थ है, पूरी तरह रुकना या ठहरना। सामान्यतः जहाँ वाक्य की गतिअन्तिम रूप ले ले, विचार के तार एकदम टूट जायें, वहाँ पूर्णविराम का प्रयोग होता है। 
जैसे-
यह हाथी है। वह लड़का है। मैं आदमी हूँ। तुम जा रहे हो। 
इन वाक्यों में सभी एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं। सबके विचार अपने में पूर्ण है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक वाक्य के अंत में पूर्णविराम लगना चाहिए। संक्षेप में, प्रत्येक वाक्य की समाप्ति पर पूर्णविराम का प्रयोग होता है।


(ii) कभी कभी किसी व्यक्ति या वस्तु का सजीव वर्णन करते समय वाक्यांशों के अन्त में पूर्णविराम का प्रयोग होता है। 
जैसे- गोरा रंग।
(a) गालों पर कश्मीरी सेब की झलक। नाक की सीध में ऊपर के अोठ पर मक्खी की तरह कुछ काले बाल। सिर के बाल न अधिक बड़े, न अधिक छोटे। 
(b) कानों के पास बालों में कुछ सफेदी। पानीदार बड़ी-बड़ी आँखें। चौड़ा माथा। बाहर बन्द गले का लम्बा कोट। 
यहाँ व्यक्ति की मुखमुद्रा का बड़ा ही सजीव चित्र कुछ चुने हुए शब्दों तथा वाक्यांशों में खींचा गया है। प्रत्येक वाक्यांश अपने में पूर्ण और स्वतंत्र है। ऐसी स्थिति में पूर्णविराम का प्रयोग उचित ही है।


(iii) इस चिह्न का प्रयोग प्रश्नवाचक और विस्मयादिबोधक वाक्यों को छोड़कर अन्य सभी प्रकार के वाक्यों के अंत में किया जाता है।


जैसे- राम स्कूल से आ रहा है। वह उसकी सौंदर्यता पर मुग्ध हो गया। वह छत से गिर गया।


(iv) दोहा, श्लोक, चौपाई आदि की पहली पंक्ति के अंत में एक पूर्ण विराम (।) तथा दूसरी पंक्ति के अंत में दो पूर्ण विराम (।।) लगाने की प्रथा है।


जैसे- रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून। 
पानी गए न ऊबरे मोती, मानुस, चून।।


पूर्णविराम का दुष्प्रयोग- पूर्णविराम के प्रयोग में सावधानी न रखने के कारण निम्रलिखित उदाहरण में अल्पविराम लगाया गया है- 
आप मुझे नहीं जानते, महीने में दो ही दिन व्यस्त रहा हूँ। 
यहाँ 'जानते' के बाद अल्पविराम के स्थान पर पूर्णविराम का चिह्न लगाना चाहिए, क्योंकि यहाँ वाक्य पूरा हो गया है। दूसरा वाक्य पहले से बिलकुल स्वतंत्र है।


(4) उप विराम (Colon) ( : )- जहाँ वाक्य पूरा नहीं होता, बल्कि किसी वस्तु अथवा विषय के बारे में बताया जाता है, वहाँ अपूर्णविराम-चिह्न का प्रयोग किया जाता है।


जैसे- कृष्ण के अनेक नाम है : मोहन, गोपाल, गिरिधर आदि।


(5) विस्मयादिबोधक चिह्न (Sign of Interjection) ( ! )इसका प्रयोग हर्ष, विवाद, विस्मय, घृणा, आश्रर्य, करुणा, भय इत्यादि का बोध कराने के लिए इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है।


जैसे- वाह ! आप यहाँ कैसे पधारे ? 
हाय ! बेचारा व्यर्थ में मारा गया।


(i) आह्रादसूचक शब्दों, पदों और वाक्यों के अन्त में इसका प्रयोग होता है। जैसे- वाह! तुम्हारे क्या कहने!


(ii)अपने से बड़े को सादर सम्बोधित करने में इस चिह्न का प्रयोग होता है। जैसे- हे राम! तुम मेरा दुःख दूर करो। हे ईश्र्वर ! सबका कल्याण हो।


(iii) जहाँ अपने से छोटों के प्रति शुभकामनाएँ और सदभावनाएँ प्रकट की जाये। जैसे- भगवान तुम्हारा भला करे ! यशस्वी होअो !उसका पुत्र चिरंजीवी हो ! प्रिय किशोर, स्त्रेहाशीर्वाद !


(iv) जहाँ मन की हँसी-खुशी व्यक्त की जाय।
जैसे- कैसा निखरा रूप है ! तुम्हारी जीत होकर रही, शाबाश ! वाह ! वाह ! कितना अच्छा गीत गाया तुमने !
(विस्मयादिबोधक चिह्न में प्रश्रकर्ता उत्तर की अपेक्षा नहीं करता।


(v) संबोधनसूचक शब्द के बाद; जैसे-
मित्रो ! अभी मैं जो कहने जा रहा हूँ। 
साथियो ! आज देश के लिए कुछ करने का समय आ गया है।


(vi) अतिशयता को प्रकट करने के लिए कभी-कभी दो-तीन विस्मयादिबोधक चिह्नों का प्रयोग किया जाता है। जैसे-
अरे, वह मर गया ! शोक !! महाशोक !!!


(6)प्रश्नवाचक चिह्न (Question mark)( ? ) बातचीत के दौरान जब किसी से कोई बात पूछी जाती है अथवा कोई प्रश्न पूछा जाता है, तब वाक्य के अंत में प्रश्नसूचक-चिह्न का प्रयोग किया जाता है।

जैसे- तुम कहाँ जा रहे हो ?
वहाँ क्या रखा है ? 
इतनी सुबह-सुबह तुम कहाँ चल दिए ?

इसका प्रयोग निम्रलिखित अवस्थाओं में होता है-

(i) जहाँ प्रश्र करने या पूछे जाने का बोध हो।
जैसे- क्या आप गया से आ रहे है ?

(ii) जहाँ स्थिति निश्रित न हो।
जैसे- आप शायद पटना के रहनेवाले है ?

(iii) जहाँ व्यंग्य किया जाय। 
जैसे- भ्रष्टाचार इस युग का सबसे बड़ा शिष्टाचार है, है न ?
जहाँ घूसखोरी का बाजार गर्म है, वहाँ ईमानदारी कैसे टिक सकती है ?

(iv) इस चिह्न का प्रयोग संदेह प्रकट करने के लिए भी उपयोग किया जाता है; जैसे- क्या कहा, वह निष्ठावान (?) है।

(7) कोष्ठक (Bracket)( () ) वाक्य के बीच में आए शब्दों अथवा पदों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कोष्ठक का प्रयोग किया जाता है।

जैसे- उच्चारण (बोलना) जीभ एवं कण्ठ से होता है। 
लता मंगेशकर भारत की कोकिला (मीठा गाने वाली) हैं। 
सब कुछ जानते हुए भी तुम मूक (मौन/चुप) क्यों हो?

(8) योजक चिह्न (Hyphen) ( - ) हिंदी में अल्पविराम के बाद योजक चिह्न का प्रयोग अधिक होता है। दो शब्दों में परस्पर संबंध स्पष्ट करने के लिए तथा उन्हें जोड़कर लिखने के लिए योजक-चिह्न का प्रयोग किया जाता है। इसे 'विभाजक-चिह्न' भी कहते है।

जैसे- जीवन में सुख-दुःख तो चलता ही रहता है। 
रात-दिन परिश्रम करने पर ही सफलता मिलती है।

भाषाविज्ञान की दृष्टि से हिन्दी भाषा की प्रकृति विश्लेषणात्मक है, संस्कृत की तरह संश्लेषणात्मक नहीं। संस्कृत में योजक चिह्न का प्रयोग नहीं होता।
एक उदाहरण इस प्रकार है- गायन्ति रमनामानि सततं ये जना भुवि। 
नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्योपुनः पुनः।।

हिन्दी में इसका अनुवाद इस प्रकार होगा- पृथ्वी पर जो सदा राम-नाम गाते है, मै उन्हें बार-बार प्रणाम करता हूँ। 
यहाँ संस्कृत में 'रमनामानि' लिखा गया और हिन्दी में 'राम-नाम', संस्कृत में 'पुनः पुनः' लिखा गया और हिन्दी में 'बार-बार' । अतः, संस्कृत और हिन्दी का अन्तर स्पष्ट है।

योजक चिह्न की आवश्यकता

अब प्रश्र आता है कि योजक चिह्न लगाने की आवश्यकता क्यों होता है-
योजक चिह्न लगाने की आवश्यकता इसलिए होता है क्योंकि वाक्य में प्रयुक्त शब्द और उनके अर्थ को योजक चिह्न चमका देता है। यह किसी शब्द के उच्चारण अथवा वर्तनी को भी स्पष्ट करता है।

श्रीयुत रामचन्द्र वर्मा का ठीक ही कहना है कि यदि योजक चिह्न का ठीक-ठीक ध्यान न रखा जाय, तो अर्थ और उच्चारण से सम्बद्ध अनेक प्रकार के भ्रम हो सकते हैं।
इस सम्बन्ध में वर्माजी ने 'भ्रम' के कुछ उदाहरण इस प्रकार दिये हैं-

(क) 'उपमाता' का अर्थ 'उपमा देनेवाला' भी है और 'सौतेली माँ' भी। यदि लेखक को दूसरा अर्थ अभीष्ट है, तो 'उप' और 'माता' के बीच योजक चिह्न लगाना आवश्यक है, नहीं तो अर्थ स्पष्ट नहीं होगा और पाठक को व्यर्थ ही मुसीबत मोल लेनी होगी।

(ख) 'भू-तत्व' का अर्थ होगा- भूमि या पृथ्वी से सम्बद्ध तत्व ; पर यदि 'भूतत्तव' लिखा जाय, तो 'भूत' शब्द का भाववाचक संज्ञारूप ही माना और समझा जायेगा।

(ग) इसी तरह, 'कुशासन' का अर्थ 'बुरा शासन' भी होगा और 'कुश से बना हुआ आसन' भी। यदि पहला अर्थ अभीष्ट है, तो 'कु' के बाद योजक चिह्न लगाना आवश्यक है।

उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि योजक चिह्न की अपनी उपयोगिता है और शब्दों के निर्माण में इसका बड़ा महत्त्व है। किन्तु, हिन्दी में इसके प्रयोग के नियम निर्धारित नहीं है, इसलिए हिन्दी के लेखक इस ओर पूरे स्वच्छन्द हैं।

योजक चिह्न का प्रयोग निम्नलिखित अवस्था में होता है-

(i) योजक चिह्न प्रायः दो शब्दों को जोड़ता है और दोनों को मिलाकर एक समस्त पद बनाता है, किंतु दोनों का स्वतंत्र रूप बना रहता है। इस संबंध में नियम यह है कि जिन शब्दों या पदों के दोनों खंड प्रधान हों और जिनमें और अनुक़्त या लुप्त हो, वहाँ योजक चिह्न का प्रयोग होता है। 
जैसे- दाल-रोटी, दही-बड़ा, सीता-राम, फल-फूल ।

(ii) दो विपरीत अर्थवाले शब्दों के बीच योजक चिह्न लगता है। 
जैसे- ऊपर-नीचे, राजा-रानी, रात-दिन, पाप-पुण्य, आकाश-पाताल, स्त्री-पुरुष, माता-पिता, स्वर्ग-नरक।

(iii) एक अर्थवाले सहचर शब्दों के बीच भी योजक चिह्न का व्यवहार होता है। 
जैसे- दीन-दुःखी, हाट-बाजार, रुपया-पैसा, मान-मर्यादा, कपड़ा-लत्ता, हिसाब-किताब, भूत-प्रेत।

(iv) जब दो विशेषणों का प्रयोग संज्ञा के अर्थ में हो, वहाँ भी योजक चिह्न का व्यवहार होता है।
जैसे- अंधा-बहरा, भूखा-प्यासा, लूला-लँगड़ा।

(v) जब दो शब्दों में एक सार्थक और दूसरा निरर्थक हो तो वहाँ भी योजक चिह्न लगता है। 
जैसे- परमात्मा-वरमात्मा, उलटा -पुलटा, अनाप-शनाप, खाना-वाना, पानी-वानी ।

(vi) जब एक ही संज्ञा दो बार लिखी जाय तो दोनों संज्ञाओं के बीच योजक चिह्न लगता है।
जैसे- नगर-नगर, गली-गली, घर-घर, चम्पा-चम्पा, वन-वन, बच्चा-बच्चा, रोम-रोम ।

(vii) निश्रित संख्यावाचक विशेषण के दो पद जब एक साथ प्रयोग में आयें तो दोनों के बीच योजक चिह्न लगेगा। 
जैसे- एक-दो, दस-बारह, नहला-दहला, छह-पाँच, नौ-दो, दो-दो, चार-चार।

(viii) जब दो शुद्ध संयुक्त क्रियाएँ एक साथ प्रयुक्त हों,तब दोनों के बीच योजक चिह्न लगता है। 
जैसे- पढ़ना-लिखना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, मारना-पीटना, खाना-पीना, आना-जाना, करना-धरना, दौड़ना-धूपना, मरना-जीना, कहना-सुनना, समझना-बुझना, उठना-गिरना, रहना-सहना, सोना-जगना।

(ix) क्रिया की मूलधातु के साथ आयी प्रेरणार्थक क्रियाओं के बीच भी योजक चिह्न का प्रयोग होता है। 
जैसे- उड़ना-उड़ाना, चलना-चलाना, गिरना-गिराना, फैलना-फैलाना, पीना-पिलाना, ओढ़ना-उढ़ाना, सोना-सुलाना, सीखना-सिखाना, लेटना-लिटाना।

(x) दो प्रेरणार्थक क्रियाओं के बीच भी योजक चिह्न लगाया जाता है। 
जैसे- डराना-डरवाना, भिंगाना-भिंगवाना, जिताना-जितवाना, चलाना-चलवाना, कटाना-कटवाना, कराना-करवाना।

(xi) परिमाणवाचक और रीतिवाचक क्रियाविशेषण में प्रयुक्त दो अव्ययों तथा 'ही', 'से', 'का', 'न', आदि के बीच योजक चिह्न का व्यवहार होता है। 
जैसे- बहुत-बहुत, थोड़ा-थोड़ा, थोड़ा-बहुत, कम-कम, कम-बेश, धीरे-धीरे, जैसे-तैसे, आप-ही आप, बाहर-भीतर, आगे-पीछे, यहाँ-वहाँ, अभी-अभी, जहाँ-तहाँ, आप-से-आप, ज्यों-का-त्यों, कुछ-न-कुछ, ऐंसा-वैसा, जब-तब, तब-तब, किसी-न-किसी, साथ-साथ।

(xii ) गुणवाचक विशेषण में भी 'सा' जोड़कर योजक चिह्न लगाया जाता है। 
जैसे- बड़ा-सा पेड़, बड़े-से-बड़े लोग, ठिंगना-सा आदमी।

(xiii ) जब किसी पद का विशेषण नहीं बनता, तब उस पद के साथ 'सम्बन्धी' पद जोड़कर दोनों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है। 
जैसे- भाषा-सम्बन्धी चर्चा, पृथ्वी-सम्बन्धी तत्व, विद्यालय-सम्बन्धी बातें, सीता-सम्बन्धी वार्त्ता।

यहाँ ध्यान देने की बात है कि जिन शब्दों के विशेषणपद बन चुके हैं या बन सकते है, वैसे शब्दों के साथ 'सम्बन्धी' जोड़ना उचित नहीं। यहाँ 'भाषा-सम्बन्धी' के स्थान पर 'भाषागत' या 'भाषिक' या 'भाषाई' विशेषण लिखा जाना चाहिए। 
इसी तरह, 'पृथ्वी-सम्बन्धी' के लिए 'पार्थिव' विशेषण लिखा जाना चाहिए। हाँ, 'विद्यालय' और 'सीता' के साथ 'सम्बन्धी' का प्रयोग किया जा सकता है, क्योंकि इन दो शब्दों के विशेषणरूप प्रचलित नहीं हैं। आशय यह कि सभी प्रकार के शब्दों के साथ 'सम्बन्धी' जोड़ना ठीक नहीं।

(xiv ) जब दो शब्दों के बीच सम्बन्धकारक के चिह्न- का, के और की- लुप्त या अनुक्त हों, तब दोनों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है। ऐसे शब्दों को हम सन्धि या समास के नियमों से अनुशासित नहीं कर सकते। इनके दोनों पद स्वतंत्र होते हैं।
जैसे-शब्द-सागर, लेखन-कला, शब्द-भेद, सन्त-मत, मानव-जीवन, मानव-शरीर, लीला-भूमि, कृष्ण-लीला, विचार-श्रृंखला, रावण-वध, राम-नाम, प्रकाश-स्तम्भ।

(xv ) लिखते समय यदि कोई शब्द पंक्ति के अन्त में पूरा न लिखा जा सके, तो उसके पहले आधे खण्ड को पंक्ति के अन्त में रखकर उसके बाद योजक चिह्न लगाया जाता है। ऐसी हालत में शब्द को 'शब्दखण्ड' या 'सिलेबुल' या पूरे 'पद' पर तोड़ना चाहिए। जिन शब्दों के योग में योजक चिह्न आवश्यक है, उन शब्दों को पंक्ति में तोड़ना हो तो शब्द के प्रथम अंश के बाद योजक चिह्न देकर दूसरी पंक्ति दूसरे अंश के पहले योजक देकर जारी करनी चाहिए।

(xvi)अनिश्रित संख्यावाचकविशेषण में जब 'सा', 'से' आदि जोड़े जायें, तब दोनों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है।
जैसे- बहुत-सी बातें, कम-से-कम, बहुत-से लोग, बहुत-सा रुपया, अधिक-से-अधिक, थोड़ा-सा काम।

(9) अवतरण चिह्न या उद्धरणचिह्न (Inverted Comma)(''... '') किसी की कही हुई बात को उसी तरह प्रकट करने के लिए अवतरण चिह्न ( ''... '' ) का प्रयोग होता है।

जैसे- राम ने कहा, ''सत्य बोलना सबसे बड़ा धर्म है।''
उद्धरणचिह्न के दो रूप है- इकहरा ( ' ' ) और दुहरा ( '' '' )।

(i) जहाँ किसी पुस्तक से कोई वाक्य या अवतरण ज्यों-का-त्यों उद्धृत किया जाए, वहाँ दुहरे उद्धरण चिह्न का प्रयोग होता है और जहाँ कोई विशेष शब्द, पद, वाक्य-खण्ड इत्यादि उद्धृत किये जायें वहाँ इकहरे उद्धरण लगते हैं। जैसे-

''जीवन विश्र्व की सम्पत्ति है। ''- जयशंकर प्रसाद 
''कामायनी' की कथा संक्षेप में लिखिए।

(ii) पुस्तक, समाचारपत्र, लेखक का उपनाम, लेख का शीर्षक इत्यादि उद्धृतकरते समय इकहरे उद्धरणचिह्न का प्रयोग होता है। 
जैसे- 'निराला' पागल नहीं थे। 
'किशोर-भारती' का प्रकाशन हर महीने होता है। 
'जुही की कली' का सारांश अपनी भाषा में लिखो। 
सिद्धराज 'पागल' एक अच्छे कवि हैं। 
'प्रदीप' एक हिन्दी दैनिक पत्र है।

(iii) महत्त्वपूर्ण कथन, कहावत, सन्धि आदि को उद्धत करने में दुहरे उद्धरणचिह्न का प्रयोग होता है। 
जैसे- भारतेन्दु ने कहा था- ''देश को राष्ट्रीय साहित्य चाहिए।''

(10) लाघव चिह्न (Abbreviation sign)( o ) किसी बड़े तथा प्रसिद्ध शब्द को संक्षेप में लिखने के लिए उस शब्द का पहला अक्षर लिखकर उसके आगे शून्य (०) लगा देते हैं। यह शून्य ही लाघव-चिह्न कहलाता है।

जैसे- पंडित का लाघव-चिह्न पंo, 
डॉंक़्टर का लाघव-चिह् डॉंo
प्रोफेसर का लाघव-चिह्न प्रो०

(11) आदेश चिह्न (Sign of following)(:-) किसी विषय को क्रम से लिखना हो तो विषय-क्रम व्यक्त करने से पूर्व आदेश चिह्न ( :- ) का प्रयोग किया जाता है। 
जैसे- वचन के दो भेद है :- 1. एकवचन, 2. बहुवचन।

(12) रेखांकन चिह्न (Underline) (_) - वाक्य में महत्त्वपूर्ण शब्द, पद, वाक्य रेखांकित कर दिया जाता है।

जैसे- गोदान उपन्यास, प्रेमचंद द्वारा लिखित सर्वश्रेष्ठ कृति है।

(13) लोप चिह्न (Mark of Omission)(...) - जब वाक्य या अनुच्छेद में कुछ अंश छोड़ कर लिखना हो तो लोप चिह्न का प्रयोग किया जाता है।

जैसे- गाँधीजी ने कहा, ''परीक्षा की घड़ी आ गई है .... हम करेंगे या मरेंगे'' ।