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शनिवार, 29 अप्रैल 2023

"कामायनी"- 'आशा'- सर्ग काव्य खंड

"आशा" - सर्ग काव्य खंड 

उषा सुनहले तीर बरसती, 

जय-लक्ष्मी-सी उदित हुई; 

उधर पराजित काल-रात्रि भी, 

जल में अंतर्निहित हुई। 

वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, 

आज लगा हँसने फिर से; 

वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, 

शरद विकास नए सिर से। 

नव कोमल आलोक बिखरता, 

हिम संसृति पर भर अनुराग; 

सित सरोज पर क्रीड़ा करता, 

जैसे मधुमय पिंग पराग। 

धीरे-धीरे हिम-आच्छादन, 

हटने लगा धरातल से; 

जगीं वनस्पतियाँ अलसाई, 

मुख धोती शीतल जल से। 

नेत्र निमीलन करती मानो, 

प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने; 

जलधि लहरियों की अँगड़ाई, 

बार-बार जाती सोने। 

सिंधु सेज पर धरा वधू अब, 

तनिक संकुचित बैठी-सी; 

प्रलय निशा की हलचल स्मृति में, 

मान किए-सी ऐंठी-सी। 

देखा मनु ने वह अति रंजित 

विजन विश्व का नव एकांत; 

जैसे कोलाहल सोया हो, 

हिम शीतल जड़ता-सा श्रांत। 

इंद्रनील मणि महा चषक था, 

सोम रहित उलटा लटका; 

आज पवन मृदु साँस ले रहा, 

जैसे बीत गया खटका। 

वह विराट् था हेम घोलता, 

नया रंग भरने को आज; 

कौन? हुआ यह प्रश्न अचानक, 

और कुतूहल का था राज। 

‘विश्वदेव, सविता या पूषा, 

सोम, मरुत, चंचल पवमान; 

वरुण आदि सब घूम रहे हैं, 

किसके शासन में अम्लान? 

किसका था भ्रू-भंग प्रलय-सा, 

जिसमें ये सब विकल रहे; 

अरे! प्रकृति के शक्ति-चिह्न ये, 

फिर भी कितने निबल रहे! 

विकल हुआ-सा काँप रहा था, 

सकल भूत चेतन समुदाय; 

उनकी कैसी बुरी दशा थी, 

वे थे विवश और निरुपाय। 

देव न थे हम और न ये हैं, 

सब परिवर्तन के पुतले; 

हाँ, कि गर्व-रथ में तुरंग-सा, 

जितना जो चाहे जुत ले। 

“महा नील इस परम व्योम में, 

अंतरिक्ष में ज्योतिर्मान, 

ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण, 

किसका करते-से संधान? 
छिप जाते हैं और निकलते, 

आकर्षण में खिंचे हुए; 

तृण बीरुध लहलहे हो रहे, 

किसके रस से सिंचे हुए? 

सिर नीचा कर किसकी सत्ता, 

सब करते स्वीकार यहाँ; 

सदा मौन हो प्रवचन करते, 

जिसका, वह अस्तित्व कहाँ? 

हे अनंत रमणीय! कौन तुम! 

यह मैं कैसे कह सकता। 

कैसे हो? क्या हो? इसको तो, 

भार विचार न सह सकता। 

हे विराट्! हे विश्वदेव! तुम, 

कुछ हो ऐसा होता भान” 

मंद गंभीर धीर स्वर संयुत, 

यही कर रहा सागर गान।’ 

“यह क्या मधुर-स्वप्न-सी झिलमिल, 

सदन हृदय में अधिक अधीर; 

व्याकुलता-सी व्यक्त हो रही, 

आशा बनकर प्राण समीर! 

यह कितनी स्पृहणीय बन गई, 

मधुर जागरण-सी छविमान; 

स्मिति की लहरों-सी उठती है, 

नाच रही ज्यों मधुमय तान। 

जीवन! जीवन की पुकार है, 

खेल रहा है शीतल दाह; 

किसके चरणों में नत होता, 

नव प्रभात का शुभ उत्साह। 

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों, 

लगा गूँजने कानों में! 

मैं भी कहने लगा, ‘मैं रहूँ’ 

शाश्वत नभ के गानों में। 

यह संकेत कर रही सत्ता, 

किसकी सरल विकास-मयी; 

जीवन की लालसा आज क्यों, 

इतनी प्रखर विलास-मयी? 

तो फिर क्या मैं जिऊँ और भी,— 

जीकर क्या करना होगा? 

देव! बता दो, अमर वेदना, 

लेकर कब मरना होगा?” 

एक यवनिका हटी, पवन से 

प्रेरित माया पट जैसी; 

और आवरण-मुक्त प्रकृति थीं, 

हरी भरी फिर भी वैसी। 

स्वर्ण शालियों की कलमें थीं, 

दूर-दूर तक फैल रही; 

शरद इंदिरा के मंदिर की, 

मानो कोई गैल रही। 

विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह 

सुख शीतल संतोष निदान; 

और डूबती-सी अचला का, 

अवलंबन मणि रत्न निधान। 

अचल हिमालय का शोभनतम, 

लता कलित शुचि सानु शरीर, 

निद्रा में सुख स्वप्न देखता, 

जैसे पुलकित हुआ अधीर। 

उमड़ रही जिसके चरणों में, 

नीरवता की विमल विभूति, 

शीतल झरनों की धाराएँ, 

बिखरातीं जीवन अनुभूति। 

उस असीम नीले अंचल में, 

देख किसी की मृदु मुस्क्यान, 

मानो हँसी हिमालय की है, 

फूट चली करती कल गान। 

शिला-संधियों में टकरा कर, 

पवन भर रहा था गुँजार, 

उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का, 

करता चारण सदृश प्रचार। 

संध्या-घनमाला की सुंदर, 

ओढ़े रंग-बिरंगी छींट, 

गंगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ, 

पहले हुए तुषार किरीट। 

विश्व मौन, गौरव, महत्व की, 

प्रतिनिधियों-सी भरी विभा; 

इस अनंत प्रांगण में मानो, 

जोड़ रही हैं मौन सभा। 

वह अनंत नीलिमा व्योम की, 

जड़ता-सी जो शांत रही, 

दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे, 

निज अभाव में भ्रांत रही। 

उसे दिखाती जगती का सुख, 

हँसी, और उल्लास अजान, 

मानो तुंग तरंग विश्व की, 

हिमगिरि की वह सुढर उठान। 

थी अनंत की गोद सदृश जो, 

विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय; 

उसमें मनु ने स्थान बनाया, 

सुंदर स्वच्छ और वरणीय। 
पहला संचित अग्नि जल रहा, 

पास मलिन द्युति रवि कर से; 

शक्ति और जागरण चिह्न-सा, 

लगा धधकने अब फिर से। 

जलने लगा निरंतर उनका, 

अग्निहोत्र सागर के तीर; 

मनु ने तप में जीवन अपना, 

किया समर्पण होकर धीर। 

सजग हुई फिर से सुर संस्कृति, 

देव यजन की वर माया, 

उन पर लगी डालने अपनी, 

कर्ममयी शीतल छाया। 

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, 

क्षितिज बीच अरुणोदय कांत; 

लगे देखने लुब्ध नयन से, 

प्रकृति विभूति मनोहर शांत। 

पाक यज्ञ करना निश्चित कर, 

लगे शालियों को चुनने; 

उधर वह्नि ज्वाला भी अपना, 

लगी घूम पट थी बुनने। 

शुष्क डालियों से वृक्षों की, 

अग्नि अर्चियाँ हुईं समिद्ध; 

आहुति की नव धूम-गंध से, 

नभ कानन हो गया समृद्ध। 

और सोच कर अपने मन में, 

जैसे हम हैं बचे हुए; 

क्या आश्चर्य और कोई हो, 

जीवन लीला रचे हुए। 

अग्निहोत्र अवशिष्ट अन्न कुछ, 

कहीं दूर रख आते थे; 

होगा इससे तृप्त अपरिचित, 

समझ सहज सुख पाते थे। 

दु:ख का गहन पाठ पढ़ कर अब, 

सहानुभूति समझते थे; 

नीरवता की गहराई में, 

मग्न अकेले रहते थे। 

मनन किया करते ये बैठे, 

ज्वलित अग्नि के पास वहाँ; 

एक सजीव तपस्या जैसे, 

पतझड़ में कर वास रहा। 

फिर भी धड़कन कभी हृदय में, 

होती, चिंता कभी नवीन; 

यों ही लगा बीतने उनका, 

जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन। 

प्रश्न उपस्थित नित्य नए थे, 

अंधकार की माया में; 

रंग बदलते जो पल-पल में, 

उस विराट् की छाया में। 
अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते, 

प्रकृति सकर्मक रही समस्त; 

निज अस्तित्व बना रखने में, 

जीवन आज हुआ था व्यस्त। 

तप में निरत हुए मनु, नियमित— 

कर्म लगे अपना करने; 

विश्व रंग में कर्मजाल के, 

सूत्र लगे घन हो घिरने। 

उस एकांत नियति शासन में, 

चले विवश धीरे-धीरे; 

एक शांत स्पंदन लहरों का, 

होता ज्यों सागर तीरे। 

विजन जगत की तंद्रा में, 

तब चलता था सूना सपना; 

ग्रह पथ के आलोक वृत्त से, 

काल जाल तनता अपना। 

प्रहर दिवस रजती आती थी, 

चल जाती संदेश-विहीन; 

एक विराग-पूर्ण संसृति में 

ज्यों निष्फल आरंभ नवीन। 

धवल मनोहर चंद्र-बिंब से, 

अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ; 

जिसमें शीतल पवन गा रहा, 

पुलकित हो पावन उद्गीथ। 

नीचे दूर-दूर विस्तृत था, 

उर्मिल सागर व्यथित अधीर; 

अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा, 

रहा चंद्रिका-निधि गंभीर। 

खुली उसी रमणीय दृश्य में, 

अलस चेतना की आँखें; 

हृदय कुसुम की खिली अचानक, 

मधु से वे भींगी पाँखें। 

व्यक्त नील में चल प्रकाश का, 

कंपन सुख बन बजता था; 

एक अतींद्रिय स्वप्न लोक का, 

मधुर रहस्य उलझता था। 

नव हो जगी अनादि वासना, 

मधुर प्राकृतिक भूख समान; 

चिर परिचित-सा चाह रहा था, 

द्वंद्व सुखद करके अनुमान। 

दिवा रात्रि या—मित्र वरुण की, 

बाला का अक्षय शृंगार; 

मिलन लगा हँसने जीवन के, 

उर्मिल सागर के उस पार। 

तप से संयम का संचित बल, 

तृषित और व्याकुल था आज; 

अट्टहास कर उठा रिक्त का, 

वह अधीर तम, सूना राज। 

धीर समीर परस से पुलकित, 

विकल हो चला श्रांत शरीर; 

आशा की उलझी अलकों से, 

उठी लहर मधुगंध अधीर। 

मनु का मन था विकल हो उठा, 

संवेदन से खाकर चोट; 

संवेदन! जीवन जगती को, 

जो कटुता से देता घोट। 
“आह! कल्पना का सुंदर यह, 

जगत मधुर कितना होता! 

सुख-स्वप्नों का दल छाया में, 

पुलकित हो जगता-सोता। 

संवेदन का और हृदय का, 

यह संघर्ष न हो सकता; 

फिर अभाव असफलताओं की, 

गाथा कौन कहाँ बकता। 

कब तक और अकेले? कह दो, 

हे मेरे जीवन बोलो? 

किसे सुनाऊँ कथा? कहो मत, 

अपनी निधि न व्यर्थ खोलो!” 

“तम के सुंदरतम रहस्य, हे 

कांति किरण रंजित तारा! 

व्यथित विश्व के सात्विक शीतल, 

बिंदु, भरे नव रस सारा। 

आतप-तापित जीवन-सुख की, 

शांतिमयी छाया के देश, 

हे अनंत की गणना! देते, 

तुम कितना मधुमय संदेश! 

आह शून्यते! चुप होने में, 

तू क्यों इतनी चतुर हुई; 

इंद्रजाल-जननी! रजनी तू, 

क्यों अब इतनी मधुर हुई?” 

“जब कामना सिंधु तट आई, 

ले संध्या का तारा दीप, 

फाड़ सुनहली साड़ी उसकी, 

तू हँसती क्यों भरी प्रतीप? 

इस अनंत काले शासन का, 

वह जब उच्छृंखल इतिहास, 

आँसू औ’ तम घोल लिख रही, 

तू सहसा करती मृदु हास। 

विश्व कमल की मृदुल मधुकरी, 

रजनी तू किस कोने से— 

आती चूम-चूम चल जाती, 

पढ़ी हुई किस टोने से। 

किस दिगंत रेखा में इतनी, 

संचित कर सिसकी-सी साँस, 

यों समीर मिस हाँफ रही-सी, 

चली जा रही किसके पास। 

विकल खिलखिलाती है क्यों तू? 

इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर; 

तुहिन कणों, फेनिल लहरों में, 

मच जावेगी फिर अंधेर। 

घूँघट उठा देख मुसक्याती, 

किसे ठिठकती-सी आती; 

विजन गगन में किसी भूल-सी, 

किसको स्मृति-पथ में लाती। 

रजत कुसुम के नव पराग-सी, 

उड़ा न दे तू इतनी धूल; 

इस ज्योत्स्ना की, अरी बावली! 

तू इसमें जावेगी भूल। 

पगली हाँ सम्हाल ले कैसे, 

छूट पड़ा तेरा अंचल; 

देख, बिखरती है मणिराजी, 

अरी उठा बेसुध चंचल। 

फटा हुआ था नील वसन क्या, 

ओ यौवन की मतवाली! 

देख अकिंचन जगत लूटता, 

तेरी छवि भोली-भाली। 

ऐसे अतुल अनंत विभव में, 

जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग? 

या भूली-सी खोज रही कुछ, 

जीवन की छाती के दाग़!” 

“मैं भी भूल गया हूँ कुछ, 

हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था! 

प्रेम, वेदना, भ्राँति या कि क्या? 

मन जिसमें सुख सोता था! 

मिले कहाँ वह पड़ा अचानक, 

उसको भी न लुटा देना; 

देख तुझे भी दूँगा तेरा, 

भाग, न उसे भुला देना!”

यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

कामायनी (आशा सर्ग की व्याख्या )


आशा सर्ग की व्याख्या

उषा ने स्वर्णिम किरणों रूपी तीरों को बरसाकर प्रलय रात्रि को इतना अधिक विचलित कर दिया कि अंत में उसे पराजय ही स्वीकार करनी पड़ी और वह जल में ही समा गई तथा उषा साक्षात् लक्ष्मी ही जान पड़ने लगी।


प्रलय के कारण प्रकृति का जो मुखड़ा भयातुर और कांतिहीन जान पड़ता था, आज वह पुनः उसी प्रकार मुस्करा उठा जिस प्रकार वर्षा के समाप्त होने पर शरद ऋतु के आते ही संसार में चारों ओर आनंद छा जाता है।


उषा का आगमन होने पर उस बर्फ़ीले प्रदेश पर सूर्य रश्मियों का नवीन प्रकाश प्रेमपूर्वक इस प्रकार फैलने लगा मानो कि सफ़ेद कमल पर मकरंदपूर्ण पीला पराग बिखर गया हो।


पृथ्वी पर जो बर्फ़ की तहें जमी हुई थीं, वे भी अब धीरे-धीरे लुप्त होने लगी और उनके नीचे दबे हुए पेड़-पौधे पुनः स्पष्ट होने लगे तथा कुछ जल से भीगी हुई वनस्पतियों को देखकर यही प्रतीत होता था मानो वे जागने पर अब शीतल जल से अपना मुख धोकर आलस्य दूर कर रही हों।


जिस प्रकार पूर्ण रूप से जागने से पहले कामिनी अपनी सुकुमार पलकें खोलती और बंद करती है, उसी प्रकार प्राकृतिक वस्तुएँ पहले तो धीरे-धीरे उत्पन्न हुई और तत्पश्चात् पूर्णतः विकसित होने लगी। अतएव प्रकृति में भी अब चेतनता-सी आ गई और समुद्र की लहर अब आलस्य पूर्ण अंगड़ाई लेकर सोने लगी अर्थात् सागर की लहरें अब शांत हो गईं।


उस भीषण जल राशि से अब पृथ्वी भी थोड़ी सी बाहर निकल आई थी और वह ऐसी प्रतीत होती थी मानो समुद्र रूपी सेज पर पृथ्वी रूपी नववधू सिकुड़ी हुई बैठी हो। साथ ही जिस प्रकार कोई नवविवाहिता पूर्व रात्रि में प्रियतम द्वारा किए किसी व्यवहार के कारण स्वाभाविक ही लज्जा-वश ऐंठ में आकर मान करने लगती है, उसी प्रकार पृथ्वी रूपी वधू भी प्रलयकालीन रात्रि की हलचलों को स्मरण कर रूठी हुई सी जान पड़ती है।


मनु ने उस जन हीन, नवीन, मनोहर, एकांत स्थान को देखा और वहाँ की नीरवता देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो सारा कोलाहल ही शीतल बर्फ़ से ठिठुर कर जड़ हो गया हो तथा वहीं कहीं थककर सो रहा हो।


प्रातकालीन चंद्रमा-रहित नीला आकाश ऐसा जान पड़ता था। जैसे किसी ने नीलम के किसी बहुत बड़े प्याले को, जिसका कि सोम रस ख़ाली कर दिया गया हो, उल्टा लटका दिया है। प्रलयकालीन भयानक वातावरण के समाप्त हो जाने के कारण पवन भी निश्चिंतता के साथ साँस लेने लगा अर्थात वायु मंथर गति से चारों ओर बहने लगी।


महान शक्ति ने पृथ्वी को नवीन रंग से अनुरंजित करने के लिए उषा के रूप में सुनहरा रंग घोलना प्रारंभ किया। इसका अभिप्राय यह है कि संपूर्ण सृष्टि सूर्य के प्रकाश से जगमगा उठी। मनु ने जब यह दृश्य देखा तो अचानक उनके हृदय में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि प्रकृति में इतनी नवीनता और मादकता लाने वाली यह कौन सी विराट सत्ता है? इस प्रश्न के उठते ही उनके हृदय में कुतूहल की वृद्धि होने लगी।


मनु सोच रहे हैं कि आख़िर वह कौन सी शक्ति है जिसके कभी भंग न होने वाले शासन में विश्वदेव, सूर्य पूषा, पवन, आँधी और वरुण आदि सभी देवता बिना विश्राम किए ही निरंतर चक्कर काट रहे हैं अर्थात् अपना सारा कार्य कर रहे हैं।


आख़िर वह कौन-सी शक्ति है जिसके ज़रा सी भौंह टेढ़ी करने पर प्रलय मच गई और सभी घबरा उठे। अभी तक तो ये देवता प्राकृतिक शक्ति कहे जाते थे, लेकिन अब ये ही उस विराट शक्ति के सामने असहाय और दुर्बल सिद्ध हो चुके हैं।


मनु कह रहे हैं कि इस भयंकर प्रलय के समय क्या जड़ और क्या चेतन—

सभी विकल होकर काँप उठे तथा उनकी दशा अत्यधिक शोचनीय हो गई और वे विवश एवं निरुपाय से हो गए।


न तो ये सूर्य, चंद्र और वरुण आदि प्राकृतिक शक्तियाँ ही देवता थीं और न वे स्वयं और उनके पूर्वज ही देवता थे बल्कि वे सभी परिवर्तन के पुतले थे। रथ में जुते हुए घोड़ो को जिस तरह चाबुक चलाता है, उसी तरह उन सबको भी वह विराट् शक्ति चला रही थी। वास्तव में तो वह महान् शक्ति ही देवता है क्योंकि उसी के इच्छानुसार कार्य करना पड़ता है।


मनु सोच रहे हैं कि वह कौन-सी ऐसी विराट् शक्ति है जिसकी खोज करने के लिए महाकाश और अंतरिक्ष में सूर्य, चंद्र आदि ग्रह और अन्य असंख्य तारे तथा अणु-परमाणु आदि प्रकाश से युक्त होकर घूमते रहते हैं।


मनु कह रहा है कि न जाने वह कौन-सी विराट् शक्ति है जिसके आकर्षण के कारण ये ग्रह और नक्षत्र आदि कभी तो छिप जाते हैं और कभी निकलकर चमकने लगते हैं। वह कौन-सी शक्ति है जिसके रस से सिंचित होकर ये पेड़ पौधे लहलहा रहे हैं और इस प्रकृति को हरी-भरी करने का श्रेय किसे है?


वह कौन-सी विराट् शक्ति है जिसकी आधीनता सभी ने स्वीकार कर ली है और मूक भाव से उसकी महिमा का गुण-गान किया है। मनु कह रहे हैं कि उस सत्ता का अस्तित्व कहाँ है जिसकी महिमा का गुण-गान संसार के सभी पदार्थ हमेशा मौन होकर निरंतर किया करते हैं?


मनु का कहना है कि उनमें स्वयं इतनी शक्ति नहीं है कि वे यह बता सकें कि वास्तव में वह अत्यंत मनोहर शक्ति कौन है और वे यह भी नहीं जानते कि आख़िर उस विराट् शक्ति का स्वरूप कैसा है।


मनु कह रहे हैं कि इस संपूर्ण सृष्टि पर शासन करने वाली हे विराट् शक्ति, तुम कुछ अवश्य हो और इस चराचर जगत में तुम्हारा अस्तित्व अवश्य है क्योंकि सागर भी अपनी धैर्यपूर्ण मंद और गंभीर ध्वनि में तुम्हारे अस्तित्व की सूचना देता हुआ तुम्हारा गुणगान कर रहा है।


मनु अपने आपसे प्रश्न करता है कि उनके कोमल हृदय में सुमधुर स्वप्न के समान मादकता एवं अधीरता उत्पन्न करने वाली यह कौन सी शक्ति है। संभवत यह आशा ही है जो कि प्राणों की पोषिका सी बनकर उनके हृदय में व्याकुलता सी उत्पन्न कर रही है।


जिस प्रकार सुख की रातों में जागना अत्यधिक प्रिय लगता है और सभी यह चाहते हैं कि वह सर्वदा ही हृदय में निवास करती रहे। साथ ही हृदय में आशा का उदय ठीक उसी प्रकार धीरे-धीरे होता है जिस प्रकार अधरों पर मुस्कान की लहरें उठती हैं और जिस तरह कोई सुरीली तान नृत्य करती हुई प्रतीत होती है; ठीक उसी तरह आशा हृदय स्थली में प्रविष्ट होती है।


पहले जहाँ प्रलय और मृत्यु का भयंकर दृश्य उपस्थित था, वहाँ अब चारों ओर से जीवन की पुकार सुनाई पड़ रही है। यह नव प्रभात का शुभ उत्साह किसके चरणों में नत हो रहा है।


मनु में आशा के उदय होते ही जीवित रहने की इच्छा भी बलवती हो उठी उन्हें प्रतीत होने लगा कि अब उनकी भी सत्ता है। जिस प्रकार भक्त के कर्ण कुहरो में आराध्य द्वारा दिए गए वरदान की अनुपम ध्वनि गूँज उठती है उसी प्रकार मनु के हृदय में भी ईश्वर के अस्तित्व की पुकार गूँज रही है और उनके हृदय में इच्छा उत्पन्न हो रही है कि उनका यश भी हमेशा इस सृष्टि के इतिहास में गूँजता रहे।


मनु सोचने लगे कि किसकी सरल विकासमयी सत्ता इस तरह के संकेत कर रही है और क्या कारण है कि आज पुनः उन्हें जीवित रहने की तथा विलासमय जीवन व्यतीत करने की इच्छा हो रही है।


वस्तुत मनु को अभी तक अत्यधिक पीड़ा सहन करनी पड़ी थी अतः वे रह-रह कर यह भी सोचने लगते हैं कि आख़िर उनके जीवित रहने से क्या लाभ है और उन्हें जीवित रहकर क्या करना होगा? इस प्रकार मनु कभी-कभी ईश्वर से यह प्रार्थना भी करने लगते थे कि उन्हें यह बता दिया जाए कि इस अमर वेदना को लिए हुए कब उनकी मृत्यु होगी!


वह अंधकार का पर्दा हटा तो मनु ने देखा कि चारों ओर हरियाली फैली हुई है।


सामने सोने के समान चमकते हुए धान के पौधे फैले हुए थे और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह शारदीय लक्ष्मी का कोई मार्ग हो।


कवि हिमालय का वर्णन करते हुए कहता है कि सृष्टि की रचना की कल्पना जितनी उत्कृष्ट होगी उतना ही ऊँचा हिमालय पर्वत है अर्थात हिमालय विश्व-सृष्टि कल्पना के समान ही ऊँचा व महान है और वह सुख, शीतलता तथा संतोष का कारण भी है। जैसे जल प्रवाह में डूबने वाला व्यक्ति किसी न किसी वस्तु का सहारा लेकर ही डूबने से बच जाता है उसी प्रकार भीषण जल प्रलय में डूबती हुई पृथ्वी के लिए हिमालय ही सहारा देने वाला सिद्ध हुआ और वह उसी का मणि-रत्न-जटित आँचल पकड़कर डूबने से बच गई।


हिमालय पर्वत का शरीर सुदृढ़, पवित्र एवं अत्यधिक सुंदर और उसकी चोटियाँ भी हिमाच्छादित थीं तथा उस पर लताएँ फैली हुई थीं जिन्हें देखकर प्रतीत होता था मानो यह पर्वत निद्रा में मग्न हो और किसी मधुर स्वप्न को देखकर रोमाचिंत हो उठा हो।


हिमालय की तलहटी में नीरवता का निर्मल ऐश्वर्य उमड़ रहा था और शीतल झरनों की जो धाराएँ फूट रही थीं, वे मानो जीवन की अनुभूतियाँ बिखेर रही थीं और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो गिरिराज हिमालय ने अपने जीवन भर के संचित अनुभव को ही दूसरो के लिए बिखेर दिया है।


झरनों की उन शुभ्र धाराओं को बहता हुआ देखकर, कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता था मानो उसी असीम अंचल में किसी को मंद-मंद मुस्कराते हुए देखकर स्वयं हिमालय ही हँस पड़ा हो और वह हँसी ही इन अगणित धाराओं का रूप धारण कर कल-कल ध्वनि करती हुई बह रही हो।


हिमालय पर्वत की चट्टानों के बीच में जो रिक्त स्थान था, उसमें से जब सन-सन करता हुआ पवन बहता था उससे एक अपूर्व मधुर ध्वनि निकलती थी और उस ध्वनि को सुनकर जान पड़ता था कि मानो वह पवन एक प्रशस्ति गायक के रूप में हिमालय रूपी राजा का गुणगान करता हुआ कह रहा है कि इस पर्वत राज को कोई भेद नहीं सकता और यह अडिग है।


हिमालय पर्वत की चोटियाँ आकाश को स्पर्श कर रही थीं और उन पर घिरे हुए संध्याकालीन रंगीन बादल ऐसे जान पड़ते थे मानो उन चोटियों ने रंग-बिरंगी छींट की चादर ओढ़ ली है तथा उनके ऊपर बर्फ़ ऐसी लगती थी मानो हिमालय ने मुकुट पहन लिया हो।


बर्फ़ में ढँकी हिमालय की पर्वत श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे समस्त संसार के मान, गौरव और महत्व की प्रतिमूर्तियाँ हों तथा हिमालय के इस विस्तृत प्रांगण में एक होकर चुपचाप कोई सभा कर रही हो।


अनंत नीलाकाश इतना शांत जान पड़ता था मानो उनमें जड़ता-सी आ गई हो। पृथ्वी से अत्यधिक ऊँचा होने के कारण उसकी व्यापकता की कोई सीमा न थी। उसे देखकर यही आभास होता था कि उसे कोई न कोई अभाव अवश्य खटक रहा है और भ्रांति के कारण वह भटकता हुआ इतनी ऊँचाई पर पहुँच गया है।


हिमालय की सुंदर पर्वत श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे समस्त सृष्टि से व्याप्त आनंद की ऊँची-ऊँची लहरें ही हों जो अभावमय आकाश को यह दिखाना चाहती हों कि इस पृथ्वीतल में कितना सुख, कितनी हँसी कितना उल्लास है, जबकि उसमें (आकाश में) जड़ता और अभाव ही है।


हिमालय पर्वत में पास ही में एक सुंदर और विशाल गुफ़ा थी जो कि उस विशाल पर्वत की गोद के समान जान पड़ती थी। मनु ने उसमें अपने रहने के लिए सुंदर एवं स्वच्छ स्थान बनाया तथा वहीं रहने लगे।


उस गुफ़ा में पहले से एकत्र की गई अग्नि मंद-मंद जल रही थी जिसका प्रकाश सूर्य की धुँधली किरणों के समान था। मनु ने उस अग्नि को पुनः प्रज्वलित किया और अब वह सुलागाई जाने पर बड़ी तेज़ी के साथ धधकने लगी मानो शक्ति और जागृति की सूचक हो।


मनु द्वारा किए यज्ञों से देव संस्कृति पुनः सजग हो उठी अर्थात् मनु के दैवी संस्कार फिर जाग्रत हो उठे तथा ज्यों ही उन्होंने यज्ञ प्रारंभ किया, त्यों ही देव यज्ञों का सात्विक आकर्षण उन पर कर्म की मधुर छाया डालने लगा अर्थात मनु के हृदय में कर्म करने की भावना उत्पन्न हुई।


जिस प्रकार क्षितिज में बाल सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार मनु भी अब स्वस्थ और स्फूर्तियुक्त होकर उठे तथा लालसा पूर्ण दृष्टि से प्रकृति के मनोहर और शांत सौंदर्य को देखने लगे।


मनु ने निश्चय किया कि वे पाक यज्ञ करेंगे और वे धान चुनने लगे। उन्होंने आग को तेज़ किया जिसके फलस्वरूप अग्निकुंड से जो लपटें उठने लगीं उन पर धुएँ की एक सघन तह-सी जम गई।


मनु ने सूखी डालियों को यज्ञकुंड में डालना शुरू किया और इन डालियों के कारण आग की लपटें और भी अधिक तेज़ हो उठीं। इस प्रकार आहुतियाँ देने पर जो धुआँ उठा, उसकी नवीन सुगंध आकाश और वन में चारों ओर व्याप्त हो गई।


मनु ने अपने मन में सोचा कि इस भयंकर जल प्रलय से जिस प्रकार मैं बच गया हूँ, उसी प्रकार कोई आश्चर्य नहीं कि कोई दूसरा प्राणी भी जीवित बच रहा हो।


मनु के मन में यह विचार उत्पन्न होते ही यज्ञ की समाप्ति के पश्चात जो भी अन्न बचता, उसमें से कुछ अंश कहीं दूर रखने लगे। यह सोचकर कि इस अन्न से कोई अपरिचित प्राणी संतुष्ट होगा, मनु को स्वाभाविक ही सुख की अनुभूति होती थी।


मनु को इस बात से अपूर्व संतोष हो रहा था कि वे पाकयज्ञ के पश्चात अन्न का कुछ अंश कहीं दूर रख आते हैं। जो स्वयं भारी दुःख उठाता है उसकी मनोवृत्तियाँ भी कोमल हो जाती हैं और उसमें सहानुभूति की मात्रा भी अधिक रहती है। अतएव किसी अपरिचित के प्रति मनु की सहानुभूति का मूल कारण यही था और वे उस शांतमय वातावरण में अकेले ही प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।


प्रज्ज्वलित यज्ञकुंड के समीप बैठकर मनु विचित्र विचारों में लीन रहते थे। इसी प्रकार उस शून्य स्थान पर बैठे हुए मनु ऐसे प्रतीत होते थे मानो कि स्वयं तप ही शरीर धारण कर उस पतझड़ अर्थात् सूने एवं निर्जीव प्रदेश में निवास कर रहा हो।


परंतु कभी-कभी उनके हृदय में इच्छाएँ जाग उठती और नवीन चिंताओं के उत्पन्न होने पर उनका चित विचलित होने लगता। इस प्रकार मनु का अभावपूर्ण एवं अस्थिर जीवन धीरे-धीरे दिन-प्रतिदिन व्यतीत होने लगे।


मनु का भावी जीवन अनिश्चित एवं अंधकारमय ही था अतः उनके मन में नए-नए प्रश्न उठते रहते थे तथा जब वे हृदय में उन पर विचार करते तो उनका रूप थोड़ी ही देर में कुछ हो जाता। कहने का अभिप्राय यह है कि मनु के सामने समस्याएँ तो कई थीं परंतु वे उन पर ठीक से विचार नहीं पाते थे।


मनु को अपनी समस्याओं को कोई भी स्पष्ट समाधान न दीख पड़ रहा था पर समस्त प्रकृति तो क्रियाशील ही थी अर्थात् प्रत्येक मौसम अपने निश्चित समय पर ही आता था। अतएव ऐसी दशा में मनु के समक्ष केवल यही एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि अपने जीवन की रक्षा किसी न किसी प्रकार की जाए।


मनु तप में लीन हो गए और अपने नियमित कर्म करने लगे। जिस प्रकार आकाश में अनेक बादल एकत्र हो जाते हैं उसी प्रकार सांसारिक रंग में रँगे हुए उनके कर्मजाल के सूत्र घने होकर घिरने लगे अर्थात् अब उन्हें अनेक सांसारिक कर्मों में रत हो जाना पड़ा।


मनु अब अपने नियमित कार्यों में लीन रहते। जिस प्रकार समुद्र के किनारे पवन से प्रेरित होकर लहरें धीरे-धीरे नृत्य किया करती हैं, उसी प्रकार मनु भी उस एकांत नीरव प्रदेश में नियति को ही सब कुछ मानकर अपना जीवन व्यतीत करने लगे।


उस निर्जन में निश्चेशष्ट व्यक्ति की भाँति मनु अपना जीवन व्यतीत करते हुए असफ़ल कल्पनाएँ कर रहे थे। उधर सूर्य, चंद्र आदि नक्षत्र अपने-अपने पथ पर बढ़े चले जा रहे थे। कहने का अभिप्राय यह है कि मनु का समय धीरे-धीरे बीतता जा रहा था।


प्रहर, दिन और रात बीतते चले गए लेकिन उनमें मनु को किसी प्रकार की प्रेरणा न हुई। जैसे मन उत्साहीन हो जाता है तब कोई भी नवीन कार्य करने की इच्छा नहीं होती और चारों ओर निष्क्रियता ही निष्क्रियता दीख पड़ती है, इस प्रकार मनु की यह दशा स्वाभाविक ही थी।


यद्यपि मनु के हृदय में उदासीनता छाई हुई थी पर प्रकृति-सौंदर्य को देखकर उनकी मनोदशा में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। उस समय सुंदर रात्रि स्वच्छ चाँदनी से युक्त होने के कारण बड़ी ही मनोहर जान पड़ती थी और शीतल पवन जब सन-सन ध्वनि करता था तब ऐसा प्रतीत होता था मानो वायु पुलकित होकर पवित्र सामवेद के गीतों को गा रही है।


नीचे की ओर दूर तक लहरों से युक्त व्याकुल और अधीर समुद्र फैला हुआ था। साथ ही ऊपर की ओर आकाश में भी वैसा ही गंभीर अथाह सागर लहरा रहा था।


प्रकृति के इस सुंदर दृश्य को देखकर मनु के मन का आलस्य जाता रहा और उनकी जो चेतना अभी तक सुप्त थी, वह जाग उठी। इस दृश्य को देखते ही मनु के हृदय रूपी कुसुम की कली अचानक खिल उठी और उनके हृदय में विभिन्न प्रकार की सरस भावनाएँ सजीव होने लगी।


विस्तृत नीले आकाश से आने वाली चंद्रमा की सुंदर और चंचल किरणें मनु के शरीर को स्पर्श कर एक प्रकार की सिहरन भी उत्पन्न करती थी तथा उनका मन एक अलौकिक, मधुर एवं रहस्यपूर्ण प्रेम के स्वप्न लोक में पहुँच जाता था।


हृदय में स्थायी रूप में रहने वाली अनादि वासना भी मनु के हृदय में पुनः जाग्रत हो उठी और वे यही सोचने लगे कि यदि कोई दूसरा प्राणी भी उनके साथ इस गुफ़ा में रहता तो निश्चय ही उन्हें अपूर्व सुख मिलता।


मनु दिन में उषा और रात्रि में चंद्रमा के अनंत सौंदर्य को अभिलाषित नेत्रों से देखते और यही सोचने लगते कि जीवन का उर्मिल समुद्र पार करते ही उन्हें मिलन-सुख प्राप्त होगा।


मनु द्वारा अपना जीवन तपस्या से व्यतीत करने के कारण उनमें शारीरिक बल की वृद्धि भी हुई और उनकी प्रेम तृष्णा तथा तज्जन्य व्याकुलता भी बढ़ गई। वस्तुतः उनका मन किसी प्रेमिका के अभाव को अनुभव कर रहा था इसलिए उनकी अधीरता दिन-प्रतिदिन और अधिक बढ़ने लगी।


मनु के स्फूर्तिहीन थके हुए शरीर से ज्यों ही मंद-मंद सुगंध का स्पर्श हुआ तो वह रोमाचिंत सा हो उठा और वे एक प्रकार की व्याकुलता का अनुभव करने लगा। कवि कहता है कि अब मनु के मन में आशा का संचार होने और सुख की लहरें सी उठने लगीं।


मनु इसलिए व्याकुल थे कि उन्हें भी कोई ऐसा साथी मिलता जो कि दुःख में उनसे महानुभूति प्रकट करता। इस प्रकार प्रकृति के सुखद दृश्य को देखकर मनु अपने अभाव को स्मरण कर अत्यंत व्याकुल हो उठे और सहानुभूति प्राप्त करने की यह लालसा उनके हृदय को अत्यधिक व्यथित करने लगी।


मनु सोचने लगे कि यदि उनकी मधुर कल्पना पूर्ण हो जाती तो निस्संदेह उनका संसार सुखमय हो जाता और सुख स्वप्नों के इस साम्राज्य के स्थापित होने पर उनका हृदय प्रसन्नता से फूला न समाता।


मनु सोचते हैं कि यदि उनकी कल्पनाओं का सुखद साम्राज्य वास्तविक ही होता तो फिर संवेदनामय हृदय में इस प्रकार का विरोध न हो पाता ते धरती पर कहीं भी कौन अपने अभावों एवं असफलताओं की कहानियाँ सुनाता!


मनु अत्यधिक व्यथित हो कहने लगे कि हे मेरे जीवन, मुझे अभी कितने दिनों तक अकेले रहना पड़ेगा और मैं अपनी कथा किसे सुनाऊँ या फिर मुझे किसी साथी के न मिलने पर चुप ही रहना पड़ेगा? मनु यह भी कहते हैं कि जब उनकी इस व्यथा को कोई सुनने वाला ही नहीं है तब यही अच्छा होगा कि वे अपने हृदय के रहस्य को किसी के भी सामने न व्यक्त करे?


मनु आकाश में स्थित एक तारे को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे आभा और प्रकाश से युक्त तारे! तुम इस अंधकार के सुंदरतम रहस्य हो। तुम नव रस से पूर्ण उस बूँद के समान हो जो कि इस संतप्त संसार को शांति और शीतलता प्रदान करने में सक्षम हो।


मनु कह रहे हैं कि तारों की शीतल छाया में प्राणी अपने कष्टमय जीवन को भूलकर अपूर्व सुख शांति पाता है। मनु यह भी कहते हैं कि तारे उदय होते ही समस्त प्राणियों को सुखद संदेश प्रदान करते हैं। जिस प्रकार सघन अंधकार में भी वे चमकते रहते हैं उनसे 

शनिवार, 8 अप्रैल 2023

"आंसू" -जयशंकर प्रसाद

              भाग - पांच




सपनों की सोनजुही सब
बिखरें, ये बनकर तारा
सित सरसित से भर जावे
वह स्वर्ग गंगा की धारा

नीलिमा शयन पर बैठी
अपने नभ के आँगन में
विस्मृति की नील नलिन रस
बरसो अपांग के घन से।

चिर दग्ध दुखी यह वसुधा
आलोक माँगती तब भी
तम तुहिन बरस दो कन-कन
यह पगली सोये अब भी।

विस्मृति समाधि पर होगी
वर्षा कल्याण जलद की
सुख सोये थका हुआ-सा
चिन्ता छुट जाय विपद की।

चेतना लहर न उठेगी
जीवन समुद्र थिर होगा
सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की
विच्छेद मिलन फिर होगा।

रजनी की रोई आँखें
आलोक बिन्दु टपकाती
तम की काली छलनाएँ
उनको चुप-चुप पी जाती।

सुख अपमानित करता-सा
जब व्यंग हँसी हँसता है
चुपके से तब मत रो तू
यब कैसी परवशता है।

अपने आँसू की अंजलि
आँखो से भर क्यों पीता
नक्षत्र पतन के क्षण में
उज्जवल होकर है जीता।

वह हँसी और यह आँसू
घुलने दे-मिल जाने दे
बरसात नई होने दे
कलियों को खिल जाने दे।

चुन-चुन ले रे कन-कन से
जगती की सजग व्यथाएँ
रह जायेंगी कहने को
जन-रंजन-करी कथाएँ।

जब नील दिशा अंचल में
हिमकर थक सो जाते हैं
अस्ताचल की घाटी में
दिनकर भी खो जाते हैं।

नक्षत्र डूब जाते हैं
स्वर्गंगा की धारा में
बिजली बन्दी होती जब
कादम्बिनी की कारा में।

मणिदीप विश्व-मन्दिर की
पहने किरणों की माला
तुम अकेली तब भी
जलती हो मेरी ज्वाला।

उत्ताल जलधि वेला में
अपने सिर शैल उठाये
निस्तब्ध गगन के नीचे
छाती में जलन छिपाये

संकेत नियति का पाकर
तम से जीवन उलझाये
जब सोती गहन गुफा में
चंचल लट को छिटकाये।

वह ज्वालामुखी जगत की
वह विश्व वेदना बाला
तब भी तुम सतत अकेली
जलती हो मेरी ज्वाला!

इस व्यथित विश्व पतझड़ की
तुम जलती हो मृदु होली
हे अरुणे! सदा सुहागिनि
मानवता सिर की रोली।

जीवन सागर में पावन
बड़वानल की ज्वाला-सी
यह सारा कलुष जलाकर
तुम जलो अनल बाला-सी।

जगद्वन्द्वों के परिणय की
हे सुरभिमयी जयमाला
किरणों के केसर रज से
भव भर दो मेरी ज्वाला।

तेरे प्रकाश में चेतन-
संसार वेदना वाला,
मेरे समीप होता है
पाकर कुछ करुण उजाला।

उसमें धुँधली छायाएँ
परिचय अपना देती हैं
रोदन का मूल्य चुकाकर
सब कुछ अपना लेती हैं।

निर्मम जगती को तेरा
मंगलमय मिले उजाला
इस जलते हुए हृदय को
कल्याणी शीतल ज्वाला।

जिसके आगे पुलकित हो
जीवन है सिसकी भरता
हाँ मृत्यु नृत्य करती है
मुस्क्याती खड़ी अमरता ।

वह मेरे प्रेम विहँसते
जागो मेरे मधुवन में
फिर मधुर भावनाओं का
कलरव हो इस जीवन में।

मेरी आहों में जागो
सुस्मित में सोनेवाले
अधरों से हँसते-हँसते
आँखों से रोनेवाले।

इस स्वप्नमयी संसृत्ति के
सच्चे जीवन तुम जागो
मंगल किरणों से रंजित
मेरे सुन्दरतम जागो।

अभिलाषा के मानस में
सरसिज-सी आँखे खोलो
मधुपों से मधु गुंजारो
कलरव से फिर कुछ बोलो।
यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

"आंसू" जयशंकर प्रसाद

आंसू जयशंकर प्रसाद
        भाग - चार 

यह पारावार तरल हो
फेनिल हो गरल उगलता
मथ डाला किस तृष्णा से
तल में बड़वानल जलता।
 
निश्वास मलय में मिलकर
छाया पथ छू आयेगा
अन्तिम किरणें बिखराकर
हिमकर भी छिप जायेगा।
 
चमकूँगा धूल कणों में
सौरभ हो उड़ जाऊँगा
पाऊँगा कहीं तुम्हें तो
ग्रहपथ मे टकराऊँगा।
 
इस यान्त्रिक जीवन में क्या
ऐसी थी कोई क्षमता
जगती थी ज्योति भरी-सी।
तेरी सजीवता ममता।
 
हैं चन्द्र हृदय में बैठा
उस शीतल किरण सहारे
सौन्दर्य सुधा बलिहारी
चुगता चकोर अंगारे।
 
बलने का सम्बल लेकर
दीपक पतंग से मिलता
जलने की दीन दशा में
वह फूल सदृश हो खिलता!
 
इस गगन यूथिका वन में
तारे जूही से खिलते
सित शतदल से शशि तुम क्यों
उनमे जाकर हो मिलते?
 
मत कहो कि यही सफलता
कलियों के लघु जीवन की
मकरंद भरी खिल जायें
तोड़ी जाये बेमन की।
 
यदि दो घड़ियों का जीवन
कोमल वृन्तों में बीते
कुछ हानि तुम्हारी है क्या
चुपचाप चू पड़े जीते!
 
सब सुमन मनोरथ अंजलि
बिखरा दी इन चरणों में
कुचलो न कीट-सा, इनके
कुछ हैं मकरन्द कणों में।
 
निर्मोह काल के काले-
पट पर कुछ अस्फुट रेखा
सब लिखी पड़ी रह जाती
सुख-दुख मय जीवन रेखा।
 
दुख-सुख में उठता गिरता
संसार तिरोहित होगा
मुड़कर न कभी देखेगा
किसका हित अनहित होगा।
 
मानस जीवन वेदी पर
परिणय हो विरह मिलन का
दुख-सुख दोनों नाचेंगे
हैं खेल आँख का मन का।
 
इतना सुख ले पल भर में
जीवन के अन्तस्तल से
तुम खिसक गये धीरे-से
रोते अब प्राण विकल से।
 
क्यों छलक रहा दुख मेरा
ऊषा की मृदु पलकों में
हाँ, उलझ रहा सुख मेरा
सन्ध्या की घन अलकों में।
 
लिपटे सोते थे मन में
सुख-दुख दोनों ही ऐसे
चन्द्रिका अँधेरी मिलती
मालती कुंज में जैसे।
 
अवकाश असीम सुखों से
आकाश तरंग बनाता
हँसता-सा छायापथ में
नक्षत्र समाज दिखाता।
 
नीचे विपुला धरणी हैं
दुख भार वहन-सी करती
अपने खारे आँसू से
करुणा सागर को भरती।
 
धरणी दुख माँग रही हैं
आकाश छीनता सुख को
अपने को देकर उनको
हूँ देख रहा उस मुख को।
 
इतना सुख जो न समाता
अन्तरिक्ष में, जल थल में
उनकी मुट्ठी में बन्दी
था आश्वासन के छल में।
 
दुख क्या था उनको, मेरा
जो सुख लेकर यों भागे
सोते में चुम्बन लेकर
जब रोम तनिक-सा जागे।
 
सुख मान लिया करता था
जिसका दुख था जीवन में
जीवन में मृत्यु बसी हैं
जैसे बिजली हो घन में।
 
उनका सुख नाच उठा है
यह दुख द्रुम दल हिलने से
ऋंगार चमकता उनका
मेरी करुणा मिलने से।
 
हो उदासीन दोनों से
दुख-सुख से मेल कराये
ममता की हानि उठाकर
दो रूठे हुए मनाये।
 
चढ़ जाय अनन्त गगन पर
वेदना जलद की माला
रवि तीव्र ताप न जलाये
हिमकर को हो न उजाला।
 
नचती है नियति नटी-सी
कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती
इस व्यथित विश्व आँगन में
अपना अतृप्त मन भरती।
 
सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा
कह चलती कुछ मनमानी
ऊषा की रक्त निराशा
कर देती अन्त कहानी।
 
"विभ्रम मदिरा से उठकर
आओ तम मय अन्तर में
पाओगे कुछ न,टटोलो
अपने बिन सूने घर में।
 
इस शिथिल आह से खिंचकर
तुम आओगे-आओगे
इस बढ़ी व्यथा को मेरी
रोओगे अपनाओगे।"
 
वेदना विकल फिर आई
मेरी चौदहो भुवन में
सुख कहीं न दिया दिखाई
विश्राम कहाँ जीवन में!
 
उच्छ्वास और आँसू में
विश्राम थका सोता है
रोई आँखों में निद्रा
बनकर सपना होता है।
 
निशि, सो जावें जब उर में
ये हृदय व्यथा आभारी
उनका उन्माद सुनहला
सहला देना सुखकारी।
 
तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी
नन्दन तमाल के तल से
जग छा दो श्याम-लता-सी
तन्द्रा पल्लव विह्वल से।


यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

"आंसू" जयशंकर प्रसाद

"आंसू"  जयशंकर प्रसाद 


         भाग -तीन

हीरे-सा हृदय हमारा
कुचला शिरीष कोमल ने
हिमशीतल प्रणय अनल बन
अब लगा विरह से जलने।
 
अलियों से आँख बचा कर
जब कुंज संकुचित होते
धुँधली संध्या प्रत्याशा
हम एक-एक को रोते।
 
जल उठा स्नेह, दीपक-सा,
नवनीत हृदय था मेरा
अब शेष धूमरेखा से
चित्रित कर रहा अँधेरा।
 
नीरव मुरली, कलरव चुप
अलिकुल थे बन्द नलिन में
कालिन्दी वही प्रणय की
इस तममय हृदय पुलिन में।
 
कुसुमाकर रजनी के जो
पिछले पहरों में खिलता
उस मृदुल शिरीष सुमन-सा
मैं प्रात धूल में मिलता।
 
व्याकुल उस मधु सौरभ से
मलयानिल धीरे-धीरे
निश्वास छोड़ जाता हैं
अब विरह तरंगिनि तीरे।
 
चुम्बन अंकित प्राची का
पीला कपोल दिखलाता
मै कोरी आँख निरखता
पथ, प्रात समय सो जाता।
 
श्यामल अंचल धरणी का
भर मुक्ता आँसू कन से
छूँछा बादल बन आया
मैं प्रेम प्रभात गगन से।
 
विष प्याली जो पी ली थी
वह मदिरा बनी नयन में
सौन्दर्य पलक प्याले का
अब प्रेम बना जीवन में।
 
कामना सिन्धु लहराता
छवि पूरनिमा थी छाई
रतनाकर बनी चमकती
मेरे शशि की परछाई।
 
छायानट छवि-परदे में
सम्मोहन वेणु बजाता
सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में
कौतुक अपना कर जाता।
 
मादकता से आये तुम
संज्ञा से चले गये थे
हम व्याकुल पड़े बिलखते
थे, उतरे हुए नशे से।
 
अम्बर असीम अन्तर में
चंचल चपला से आकर
अब इन्द्रधनुष-सी आभा
तुम छोड़ गये हो जाकर।
 
मकरन्द मेघ माला-सी
वह स्मृति मदमाती आती
इस हृदय विपिन की कलिका
जिसके रस से मुसक्याती।
 
हैं हृदय शिशिरकण पूरित
मधु वर्षा से शशि! तेरी
मन मन्दिर पर बरसाता
कोई मुक्ता की ढेरी।
 
शीतल समीर आता हैं
कर पावन परस तुम्हारा
मैं सिहर उठा करता हूँ
बरसा कर आँसू धारा
 
मधु मालतियाँ सोती हैं
कोमल उपधान सहारे
मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर
गिनता अम्बर के तारे।
 
निष्ठुर! यह क्या छिप जाना?
मेरा भी कोई होगा
प्रत्याशा विरह-निशा की
हम होगे औ' दुख होगा।
 
जब शान्त मिलन सन्ध्या को
हम हेम जाल पहनाते
काली चादर के स्तर का
खुलना न देखने पाते।
 
अब छुटता नहीं छुड़ाये
रंग गया हृदय हैं ऐसा
आँसू से धुला निखरता
यह रंग अनोखा कैसा!
 
 
कामना कला की विकसी
कमनीय मूर्ति बन तेरी
खिंचती हैं हृदय पटल पर
अभिलाषा बनकर मेरी।
 
मणि दीप लिये निज कर में
पथ दिखलाने को आये
वह पावक पुंज हुआ अब
किरनों की लट बिखराये।
 
बढ़ गयी और भी ऊँठी
रूठी करुणा की वीणा
दीनता दर्प बन बैठी
साहस से कहती पीड़ा।
 
यह तीव्र हृदय की मदिरा
जी भर कर-छक कर मेरी
अब लाल आँख दिखलाकर
मुझको ही तुमने फेरी।
 
नाविक! इस सूने तट पर
किन लहरों में खे लाया
इस बीहड़ बेला में क्या
अब तक था कोई आया।
 
उम पार कहाँ फिर आऊँ
तम के मलीन अंचल में
जीवन का लोभ नहीं, वह
वेदना छद्ममय छल में।
 
प्रत्यावर्तन के पथ में
पद-चिह्न न शेष रहा है।
डूबा है हृदय मरूस्थल
आँसू नद उमड़ रहा है।
 
अवकाश शून्य फैला है
है शक्ति न और सहारा
अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या
हो भी कुछ कूल किनारा।
 
तिरती थी तिमिर उदधि में
नाविक! यह मेरी तरणी
मुखचन्द्र किरण से खिंचकर
आती समीप हो धरणी।
 
सूखे सिकता सागर में
यह नैया मेरे मन की
आँसू का धार बहाकर
खे चला प्रेम बेगुन की।


यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य