शनिवार, 29 अप्रैल 2023

"कामायनी"- 'आशा'- सर्ग काव्य खंड

"आशा" - सर्ग काव्य खंड 

उषा सुनहले तीर बरसती, 

जय-लक्ष्मी-सी उदित हुई; 

उधर पराजित काल-रात्रि भी, 

जल में अंतर्निहित हुई। 

वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, 

आज लगा हँसने फिर से; 

वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, 

शरद विकास नए सिर से। 

नव कोमल आलोक बिखरता, 

हिम संसृति पर भर अनुराग; 

सित सरोज पर क्रीड़ा करता, 

जैसे मधुमय पिंग पराग। 

धीरे-धीरे हिम-आच्छादन, 

हटने लगा धरातल से; 

जगीं वनस्पतियाँ अलसाई, 

मुख धोती शीतल जल से। 

नेत्र निमीलन करती मानो, 

प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने; 

जलधि लहरियों की अँगड़ाई, 

बार-बार जाती सोने। 

सिंधु सेज पर धरा वधू अब, 

तनिक संकुचित बैठी-सी; 

प्रलय निशा की हलचल स्मृति में, 

मान किए-सी ऐंठी-सी। 

देखा मनु ने वह अति रंजित 

विजन विश्व का नव एकांत; 

जैसे कोलाहल सोया हो, 

हिम शीतल जड़ता-सा श्रांत। 

इंद्रनील मणि महा चषक था, 

सोम रहित उलटा लटका; 

आज पवन मृदु साँस ले रहा, 

जैसे बीत गया खटका। 

वह विराट् था हेम घोलता, 

नया रंग भरने को आज; 

कौन? हुआ यह प्रश्न अचानक, 

और कुतूहल का था राज। 

‘विश्वदेव, सविता या पूषा, 

सोम, मरुत, चंचल पवमान; 

वरुण आदि सब घूम रहे हैं, 

किसके शासन में अम्लान? 

किसका था भ्रू-भंग प्रलय-सा, 

जिसमें ये सब विकल रहे; 

अरे! प्रकृति के शक्ति-चिह्न ये, 

फिर भी कितने निबल रहे! 

विकल हुआ-सा काँप रहा था, 

सकल भूत चेतन समुदाय; 

उनकी कैसी बुरी दशा थी, 

वे थे विवश और निरुपाय। 

देव न थे हम और न ये हैं, 

सब परिवर्तन के पुतले; 

हाँ, कि गर्व-रथ में तुरंग-सा, 

जितना जो चाहे जुत ले। 

“महा नील इस परम व्योम में, 

अंतरिक्ष में ज्योतिर्मान, 

ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण, 

किसका करते-से संधान? 
छिप जाते हैं और निकलते, 

आकर्षण में खिंचे हुए; 

तृण बीरुध लहलहे हो रहे, 

किसके रस से सिंचे हुए? 

सिर नीचा कर किसकी सत्ता, 

सब करते स्वीकार यहाँ; 

सदा मौन हो प्रवचन करते, 

जिसका, वह अस्तित्व कहाँ? 

हे अनंत रमणीय! कौन तुम! 

यह मैं कैसे कह सकता। 

कैसे हो? क्या हो? इसको तो, 

भार विचार न सह सकता। 

हे विराट्! हे विश्वदेव! तुम, 

कुछ हो ऐसा होता भान” 

मंद गंभीर धीर स्वर संयुत, 

यही कर रहा सागर गान।’ 

“यह क्या मधुर-स्वप्न-सी झिलमिल, 

सदन हृदय में अधिक अधीर; 

व्याकुलता-सी व्यक्त हो रही, 

आशा बनकर प्राण समीर! 

यह कितनी स्पृहणीय बन गई, 

मधुर जागरण-सी छविमान; 

स्मिति की लहरों-सी उठती है, 

नाच रही ज्यों मधुमय तान। 

जीवन! जीवन की पुकार है, 

खेल रहा है शीतल दाह; 

किसके चरणों में नत होता, 

नव प्रभात का शुभ उत्साह। 

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों, 

लगा गूँजने कानों में! 

मैं भी कहने लगा, ‘मैं रहूँ’ 

शाश्वत नभ के गानों में। 

यह संकेत कर रही सत्ता, 

किसकी सरल विकास-मयी; 

जीवन की लालसा आज क्यों, 

इतनी प्रखर विलास-मयी? 

तो फिर क्या मैं जिऊँ और भी,— 

जीकर क्या करना होगा? 

देव! बता दो, अमर वेदना, 

लेकर कब मरना होगा?” 

एक यवनिका हटी, पवन से 

प्रेरित माया पट जैसी; 

और आवरण-मुक्त प्रकृति थीं, 

हरी भरी फिर भी वैसी। 

स्वर्ण शालियों की कलमें थीं, 

दूर-दूर तक फैल रही; 

शरद इंदिरा के मंदिर की, 

मानो कोई गैल रही। 

विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह 

सुख शीतल संतोष निदान; 

और डूबती-सी अचला का, 

अवलंबन मणि रत्न निधान। 

अचल हिमालय का शोभनतम, 

लता कलित शुचि सानु शरीर, 

निद्रा में सुख स्वप्न देखता, 

जैसे पुलकित हुआ अधीर। 

उमड़ रही जिसके चरणों में, 

नीरवता की विमल विभूति, 

शीतल झरनों की धाराएँ, 

बिखरातीं जीवन अनुभूति। 

उस असीम नीले अंचल में, 

देख किसी की मृदु मुस्क्यान, 

मानो हँसी हिमालय की है, 

फूट चली करती कल गान। 

शिला-संधियों में टकरा कर, 

पवन भर रहा था गुँजार, 

उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का, 

करता चारण सदृश प्रचार। 

संध्या-घनमाला की सुंदर, 

ओढ़े रंग-बिरंगी छींट, 

गंगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ, 

पहले हुए तुषार किरीट। 

विश्व मौन, गौरव, महत्व की, 

प्रतिनिधियों-सी भरी विभा; 

इस अनंत प्रांगण में मानो, 

जोड़ रही हैं मौन सभा। 

वह अनंत नीलिमा व्योम की, 

जड़ता-सी जो शांत रही, 

दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे, 

निज अभाव में भ्रांत रही। 

उसे दिखाती जगती का सुख, 

हँसी, और उल्लास अजान, 

मानो तुंग तरंग विश्व की, 

हिमगिरि की वह सुढर उठान। 

थी अनंत की गोद सदृश जो, 

विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय; 

उसमें मनु ने स्थान बनाया, 

सुंदर स्वच्छ और वरणीय। 
पहला संचित अग्नि जल रहा, 

पास मलिन द्युति रवि कर से; 

शक्ति और जागरण चिह्न-सा, 

लगा धधकने अब फिर से। 

जलने लगा निरंतर उनका, 

अग्निहोत्र सागर के तीर; 

मनु ने तप में जीवन अपना, 

किया समर्पण होकर धीर। 

सजग हुई फिर से सुर संस्कृति, 

देव यजन की वर माया, 

उन पर लगी डालने अपनी, 

कर्ममयी शीतल छाया। 

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है, 

क्षितिज बीच अरुणोदय कांत; 

लगे देखने लुब्ध नयन से, 

प्रकृति विभूति मनोहर शांत। 

पाक यज्ञ करना निश्चित कर, 

लगे शालियों को चुनने; 

उधर वह्नि ज्वाला भी अपना, 

लगी घूम पट थी बुनने। 

शुष्क डालियों से वृक्षों की, 

अग्नि अर्चियाँ हुईं समिद्ध; 

आहुति की नव धूम-गंध से, 

नभ कानन हो गया समृद्ध। 

और सोच कर अपने मन में, 

जैसे हम हैं बचे हुए; 

क्या आश्चर्य और कोई हो, 

जीवन लीला रचे हुए। 

अग्निहोत्र अवशिष्ट अन्न कुछ, 

कहीं दूर रख आते थे; 

होगा इससे तृप्त अपरिचित, 

समझ सहज सुख पाते थे। 

दु:ख का गहन पाठ पढ़ कर अब, 

सहानुभूति समझते थे; 

नीरवता की गहराई में, 

मग्न अकेले रहते थे। 

मनन किया करते ये बैठे, 

ज्वलित अग्नि के पास वहाँ; 

एक सजीव तपस्या जैसे, 

पतझड़ में कर वास रहा। 

फिर भी धड़कन कभी हृदय में, 

होती, चिंता कभी नवीन; 

यों ही लगा बीतने उनका, 

जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन। 

प्रश्न उपस्थित नित्य नए थे, 

अंधकार की माया में; 

रंग बदलते जो पल-पल में, 

उस विराट् की छाया में। 
अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते, 

प्रकृति सकर्मक रही समस्त; 

निज अस्तित्व बना रखने में, 

जीवन आज हुआ था व्यस्त। 

तप में निरत हुए मनु, नियमित— 

कर्म लगे अपना करने; 

विश्व रंग में कर्मजाल के, 

सूत्र लगे घन हो घिरने। 

उस एकांत नियति शासन में, 

चले विवश धीरे-धीरे; 

एक शांत स्पंदन लहरों का, 

होता ज्यों सागर तीरे। 

विजन जगत की तंद्रा में, 

तब चलता था सूना सपना; 

ग्रह पथ के आलोक वृत्त से, 

काल जाल तनता अपना। 

प्रहर दिवस रजती आती थी, 

चल जाती संदेश-विहीन; 

एक विराग-पूर्ण संसृति में 

ज्यों निष्फल आरंभ नवीन। 

धवल मनोहर चंद्र-बिंब से, 

अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ; 

जिसमें शीतल पवन गा रहा, 

पुलकित हो पावन उद्गीथ। 

नीचे दूर-दूर विस्तृत था, 

उर्मिल सागर व्यथित अधीर; 

अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा, 

रहा चंद्रिका-निधि गंभीर। 

खुली उसी रमणीय दृश्य में, 

अलस चेतना की आँखें; 

हृदय कुसुम की खिली अचानक, 

मधु से वे भींगी पाँखें। 

व्यक्त नील में चल प्रकाश का, 

कंपन सुख बन बजता था; 

एक अतींद्रिय स्वप्न लोक का, 

मधुर रहस्य उलझता था। 

नव हो जगी अनादि वासना, 

मधुर प्राकृतिक भूख समान; 

चिर परिचित-सा चाह रहा था, 

द्वंद्व सुखद करके अनुमान। 

दिवा रात्रि या—मित्र वरुण की, 

बाला का अक्षय शृंगार; 

मिलन लगा हँसने जीवन के, 

उर्मिल सागर के उस पार। 

तप से संयम का संचित बल, 

तृषित और व्याकुल था आज; 

अट्टहास कर उठा रिक्त का, 

वह अधीर तम, सूना राज। 

धीर समीर परस से पुलकित, 

विकल हो चला श्रांत शरीर; 

आशा की उलझी अलकों से, 

उठी लहर मधुगंध अधीर। 

मनु का मन था विकल हो उठा, 

संवेदन से खाकर चोट; 

संवेदन! जीवन जगती को, 

जो कटुता से देता घोट। 
“आह! कल्पना का सुंदर यह, 

जगत मधुर कितना होता! 

सुख-स्वप्नों का दल छाया में, 

पुलकित हो जगता-सोता। 

संवेदन का और हृदय का, 

यह संघर्ष न हो सकता; 

फिर अभाव असफलताओं की, 

गाथा कौन कहाँ बकता। 

कब तक और अकेले? कह दो, 

हे मेरे जीवन बोलो? 

किसे सुनाऊँ कथा? कहो मत, 

अपनी निधि न व्यर्थ खोलो!” 

“तम के सुंदरतम रहस्य, हे 

कांति किरण रंजित तारा! 

व्यथित विश्व के सात्विक शीतल, 

बिंदु, भरे नव रस सारा। 

आतप-तापित जीवन-सुख की, 

शांतिमयी छाया के देश, 

हे अनंत की गणना! देते, 

तुम कितना मधुमय संदेश! 

आह शून्यते! चुप होने में, 

तू क्यों इतनी चतुर हुई; 

इंद्रजाल-जननी! रजनी तू, 

क्यों अब इतनी मधुर हुई?” 

“जब कामना सिंधु तट आई, 

ले संध्या का तारा दीप, 

फाड़ सुनहली साड़ी उसकी, 

तू हँसती क्यों भरी प्रतीप? 

इस अनंत काले शासन का, 

वह जब उच्छृंखल इतिहास, 

आँसू औ’ तम घोल लिख रही, 

तू सहसा करती मृदु हास। 

विश्व कमल की मृदुल मधुकरी, 

रजनी तू किस कोने से— 

आती चूम-चूम चल जाती, 

पढ़ी हुई किस टोने से। 

किस दिगंत रेखा में इतनी, 

संचित कर सिसकी-सी साँस, 

यों समीर मिस हाँफ रही-सी, 

चली जा रही किसके पास। 

विकल खिलखिलाती है क्यों तू? 

इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर; 

तुहिन कणों, फेनिल लहरों में, 

मच जावेगी फिर अंधेर। 

घूँघट उठा देख मुसक्याती, 

किसे ठिठकती-सी आती; 

विजन गगन में किसी भूल-सी, 

किसको स्मृति-पथ में लाती। 

रजत कुसुम के नव पराग-सी, 

उड़ा न दे तू इतनी धूल; 

इस ज्योत्स्ना की, अरी बावली! 

तू इसमें जावेगी भूल। 

पगली हाँ सम्हाल ले कैसे, 

छूट पड़ा तेरा अंचल; 

देख, बिखरती है मणिराजी, 

अरी उठा बेसुध चंचल। 

फटा हुआ था नील वसन क्या, 

ओ यौवन की मतवाली! 

देख अकिंचन जगत लूटता, 

तेरी छवि भोली-भाली। 

ऐसे अतुल अनंत विभव में, 

जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग? 

या भूली-सी खोज रही कुछ, 

जीवन की छाती के दाग़!” 

“मैं भी भूल गया हूँ कुछ, 

हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था! 

प्रेम, वेदना, भ्राँति या कि क्या? 

मन जिसमें सुख सोता था! 

मिले कहाँ वह पड़ा अचानक, 

उसको भी न लुटा देना; 

देख तुझे भी दूँगा तेरा, 

भाग, न उसे भुला देना!”

यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

कामायनी (आशा सर्ग की व्याख्या )


आशा सर्ग की व्याख्या

उषा ने स्वर्णिम किरणों रूपी तीरों को बरसाकर प्रलय रात्रि को इतना अधिक विचलित कर दिया कि अंत में उसे पराजय ही स्वीकार करनी पड़ी और वह जल में ही समा गई तथा उषा साक्षात् लक्ष्मी ही जान पड़ने लगी।


प्रलय के कारण प्रकृति का जो मुखड़ा भयातुर और कांतिहीन जान पड़ता था, आज वह पुनः उसी प्रकार मुस्करा उठा जिस प्रकार वर्षा के समाप्त होने पर शरद ऋतु के आते ही संसार में चारों ओर आनंद छा जाता है।


उषा का आगमन होने पर उस बर्फ़ीले प्रदेश पर सूर्य रश्मियों का नवीन प्रकाश प्रेमपूर्वक इस प्रकार फैलने लगा मानो कि सफ़ेद कमल पर मकरंदपूर्ण पीला पराग बिखर गया हो।


पृथ्वी पर जो बर्फ़ की तहें जमी हुई थीं, वे भी अब धीरे-धीरे लुप्त होने लगी और उनके नीचे दबे हुए पेड़-पौधे पुनः स्पष्ट होने लगे तथा कुछ जल से भीगी हुई वनस्पतियों को देखकर यही प्रतीत होता था मानो वे जागने पर अब शीतल जल से अपना मुख धोकर आलस्य दूर कर रही हों।


जिस प्रकार पूर्ण रूप से जागने से पहले कामिनी अपनी सुकुमार पलकें खोलती और बंद करती है, उसी प्रकार प्राकृतिक वस्तुएँ पहले तो धीरे-धीरे उत्पन्न हुई और तत्पश्चात् पूर्णतः विकसित होने लगी। अतएव प्रकृति में भी अब चेतनता-सी आ गई और समुद्र की लहर अब आलस्य पूर्ण अंगड़ाई लेकर सोने लगी अर्थात् सागर की लहरें अब शांत हो गईं।


उस भीषण जल राशि से अब पृथ्वी भी थोड़ी सी बाहर निकल आई थी और वह ऐसी प्रतीत होती थी मानो समुद्र रूपी सेज पर पृथ्वी रूपी नववधू सिकुड़ी हुई बैठी हो। साथ ही जिस प्रकार कोई नवविवाहिता पूर्व रात्रि में प्रियतम द्वारा किए किसी व्यवहार के कारण स्वाभाविक ही लज्जा-वश ऐंठ में आकर मान करने लगती है, उसी प्रकार पृथ्वी रूपी वधू भी प्रलयकालीन रात्रि की हलचलों को स्मरण कर रूठी हुई सी जान पड़ती है।


मनु ने उस जन हीन, नवीन, मनोहर, एकांत स्थान को देखा और वहाँ की नीरवता देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो सारा कोलाहल ही शीतल बर्फ़ से ठिठुर कर जड़ हो गया हो तथा वहीं कहीं थककर सो रहा हो।


प्रातकालीन चंद्रमा-रहित नीला आकाश ऐसा जान पड़ता था। जैसे किसी ने नीलम के किसी बहुत बड़े प्याले को, जिसका कि सोम रस ख़ाली कर दिया गया हो, उल्टा लटका दिया है। प्रलयकालीन भयानक वातावरण के समाप्त हो जाने के कारण पवन भी निश्चिंतता के साथ साँस लेने लगा अर्थात वायु मंथर गति से चारों ओर बहने लगी।


महान शक्ति ने पृथ्वी को नवीन रंग से अनुरंजित करने के लिए उषा के रूप में सुनहरा रंग घोलना प्रारंभ किया। इसका अभिप्राय यह है कि संपूर्ण सृष्टि सूर्य के प्रकाश से जगमगा उठी। मनु ने जब यह दृश्य देखा तो अचानक उनके हृदय में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि प्रकृति में इतनी नवीनता और मादकता लाने वाली यह कौन सी विराट सत्ता है? इस प्रश्न के उठते ही उनके हृदय में कुतूहल की वृद्धि होने लगी।


मनु सोच रहे हैं कि आख़िर वह कौन सी शक्ति है जिसके कभी भंग न होने वाले शासन में विश्वदेव, सूर्य पूषा, पवन, आँधी और वरुण आदि सभी देवता बिना विश्राम किए ही निरंतर चक्कर काट रहे हैं अर्थात् अपना सारा कार्य कर रहे हैं।


आख़िर वह कौन-सी शक्ति है जिसके ज़रा सी भौंह टेढ़ी करने पर प्रलय मच गई और सभी घबरा उठे। अभी तक तो ये देवता प्राकृतिक शक्ति कहे जाते थे, लेकिन अब ये ही उस विराट शक्ति के सामने असहाय और दुर्बल सिद्ध हो चुके हैं।


मनु कह रहे हैं कि इस भयंकर प्रलय के समय क्या जड़ और क्या चेतन—

सभी विकल होकर काँप उठे तथा उनकी दशा अत्यधिक शोचनीय हो गई और वे विवश एवं निरुपाय से हो गए।


न तो ये सूर्य, चंद्र और वरुण आदि प्राकृतिक शक्तियाँ ही देवता थीं और न वे स्वयं और उनके पूर्वज ही देवता थे बल्कि वे सभी परिवर्तन के पुतले थे। रथ में जुते हुए घोड़ो को जिस तरह चाबुक चलाता है, उसी तरह उन सबको भी वह विराट् शक्ति चला रही थी। वास्तव में तो वह महान् शक्ति ही देवता है क्योंकि उसी के इच्छानुसार कार्य करना पड़ता है।


मनु सोच रहे हैं कि वह कौन-सी ऐसी विराट् शक्ति है जिसकी खोज करने के लिए महाकाश और अंतरिक्ष में सूर्य, चंद्र आदि ग्रह और अन्य असंख्य तारे तथा अणु-परमाणु आदि प्रकाश से युक्त होकर घूमते रहते हैं।


मनु कह रहा है कि न जाने वह कौन-सी विराट् शक्ति है जिसके आकर्षण के कारण ये ग्रह और नक्षत्र आदि कभी तो छिप जाते हैं और कभी निकलकर चमकने लगते हैं। वह कौन-सी शक्ति है जिसके रस से सिंचित होकर ये पेड़ पौधे लहलहा रहे हैं और इस प्रकृति को हरी-भरी करने का श्रेय किसे है?


वह कौन-सी विराट् शक्ति है जिसकी आधीनता सभी ने स्वीकार कर ली है और मूक भाव से उसकी महिमा का गुण-गान किया है। मनु कह रहे हैं कि उस सत्ता का अस्तित्व कहाँ है जिसकी महिमा का गुण-गान संसार के सभी पदार्थ हमेशा मौन होकर निरंतर किया करते हैं?


मनु का कहना है कि उनमें स्वयं इतनी शक्ति नहीं है कि वे यह बता सकें कि वास्तव में वह अत्यंत मनोहर शक्ति कौन है और वे यह भी नहीं जानते कि आख़िर उस विराट् शक्ति का स्वरूप कैसा है।


मनु कह रहे हैं कि इस संपूर्ण सृष्टि पर शासन करने वाली हे विराट् शक्ति, तुम कुछ अवश्य हो और इस चराचर जगत में तुम्हारा अस्तित्व अवश्य है क्योंकि सागर भी अपनी धैर्यपूर्ण मंद और गंभीर ध्वनि में तुम्हारे अस्तित्व की सूचना देता हुआ तुम्हारा गुणगान कर रहा है।


मनु अपने आपसे प्रश्न करता है कि उनके कोमल हृदय में सुमधुर स्वप्न के समान मादकता एवं अधीरता उत्पन्न करने वाली यह कौन सी शक्ति है। संभवत यह आशा ही है जो कि प्राणों की पोषिका सी बनकर उनके हृदय में व्याकुलता सी उत्पन्न कर रही है।


जिस प्रकार सुख की रातों में जागना अत्यधिक प्रिय लगता है और सभी यह चाहते हैं कि वह सर्वदा ही हृदय में निवास करती रहे। साथ ही हृदय में आशा का उदय ठीक उसी प्रकार धीरे-धीरे होता है जिस प्रकार अधरों पर मुस्कान की लहरें उठती हैं और जिस तरह कोई सुरीली तान नृत्य करती हुई प्रतीत होती है; ठीक उसी तरह आशा हृदय स्थली में प्रविष्ट होती है।


पहले जहाँ प्रलय और मृत्यु का भयंकर दृश्य उपस्थित था, वहाँ अब चारों ओर से जीवन की पुकार सुनाई पड़ रही है। यह नव प्रभात का शुभ उत्साह किसके चरणों में नत हो रहा है।


मनु में आशा के उदय होते ही जीवित रहने की इच्छा भी बलवती हो उठी उन्हें प्रतीत होने लगा कि अब उनकी भी सत्ता है। जिस प्रकार भक्त के कर्ण कुहरो में आराध्य द्वारा दिए गए वरदान की अनुपम ध्वनि गूँज उठती है उसी प्रकार मनु के हृदय में भी ईश्वर के अस्तित्व की पुकार गूँज रही है और उनके हृदय में इच्छा उत्पन्न हो रही है कि उनका यश भी हमेशा इस सृष्टि के इतिहास में गूँजता रहे।


मनु सोचने लगे कि किसकी सरल विकासमयी सत्ता इस तरह के संकेत कर रही है और क्या कारण है कि आज पुनः उन्हें जीवित रहने की तथा विलासमय जीवन व्यतीत करने की इच्छा हो रही है।


वस्तुत मनु को अभी तक अत्यधिक पीड़ा सहन करनी पड़ी थी अतः वे रह-रह कर यह भी सोचने लगते हैं कि आख़िर उनके जीवित रहने से क्या लाभ है और उन्हें जीवित रहकर क्या करना होगा? इस प्रकार मनु कभी-कभी ईश्वर से यह प्रार्थना भी करने लगते थे कि उन्हें यह बता दिया जाए कि इस अमर वेदना को लिए हुए कब उनकी मृत्यु होगी!


वह अंधकार का पर्दा हटा तो मनु ने देखा कि चारों ओर हरियाली फैली हुई है।


सामने सोने के समान चमकते हुए धान के पौधे फैले हुए थे और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह शारदीय लक्ष्मी का कोई मार्ग हो।


कवि हिमालय का वर्णन करते हुए कहता है कि सृष्टि की रचना की कल्पना जितनी उत्कृष्ट होगी उतना ही ऊँचा हिमालय पर्वत है अर्थात हिमालय विश्व-सृष्टि कल्पना के समान ही ऊँचा व महान है और वह सुख, शीतलता तथा संतोष का कारण भी है। जैसे जल प्रवाह में डूबने वाला व्यक्ति किसी न किसी वस्तु का सहारा लेकर ही डूबने से बच जाता है उसी प्रकार भीषण जल प्रलय में डूबती हुई पृथ्वी के लिए हिमालय ही सहारा देने वाला सिद्ध हुआ और वह उसी का मणि-रत्न-जटित आँचल पकड़कर डूबने से बच गई।


हिमालय पर्वत का शरीर सुदृढ़, पवित्र एवं अत्यधिक सुंदर और उसकी चोटियाँ भी हिमाच्छादित थीं तथा उस पर लताएँ फैली हुई थीं जिन्हें देखकर प्रतीत होता था मानो यह पर्वत निद्रा में मग्न हो और किसी मधुर स्वप्न को देखकर रोमाचिंत हो उठा हो।


हिमालय की तलहटी में नीरवता का निर्मल ऐश्वर्य उमड़ रहा था और शीतल झरनों की जो धाराएँ फूट रही थीं, वे मानो जीवन की अनुभूतियाँ बिखेर रही थीं और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो गिरिराज हिमालय ने अपने जीवन भर के संचित अनुभव को ही दूसरो के लिए बिखेर दिया है।


झरनों की उन शुभ्र धाराओं को बहता हुआ देखकर, कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता था मानो उसी असीम अंचल में किसी को मंद-मंद मुस्कराते हुए देखकर स्वयं हिमालय ही हँस पड़ा हो और वह हँसी ही इन अगणित धाराओं का रूप धारण कर कल-कल ध्वनि करती हुई बह रही हो।


हिमालय पर्वत की चट्टानों के बीच में जो रिक्त स्थान था, उसमें से जब सन-सन करता हुआ पवन बहता था उससे एक अपूर्व मधुर ध्वनि निकलती थी और उस ध्वनि को सुनकर जान पड़ता था कि मानो वह पवन एक प्रशस्ति गायक के रूप में हिमालय रूपी राजा का गुणगान करता हुआ कह रहा है कि इस पर्वत राज को कोई भेद नहीं सकता और यह अडिग है।


हिमालय पर्वत की चोटियाँ आकाश को स्पर्श कर रही थीं और उन पर घिरे हुए संध्याकालीन रंगीन बादल ऐसे जान पड़ते थे मानो उन चोटियों ने रंग-बिरंगी छींट की चादर ओढ़ ली है तथा उनके ऊपर बर्फ़ ऐसी लगती थी मानो हिमालय ने मुकुट पहन लिया हो।


बर्फ़ में ढँकी हिमालय की पर्वत श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे समस्त संसार के मान, गौरव और महत्व की प्रतिमूर्तियाँ हों तथा हिमालय के इस विस्तृत प्रांगण में एक होकर चुपचाप कोई सभा कर रही हो।


अनंत नीलाकाश इतना शांत जान पड़ता था मानो उनमें जड़ता-सी आ गई हो। पृथ्वी से अत्यधिक ऊँचा होने के कारण उसकी व्यापकता की कोई सीमा न थी। उसे देखकर यही आभास होता था कि उसे कोई न कोई अभाव अवश्य खटक रहा है और भ्रांति के कारण वह भटकता हुआ इतनी ऊँचाई पर पहुँच गया है।


हिमालय की सुंदर पर्वत श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे समस्त सृष्टि से व्याप्त आनंद की ऊँची-ऊँची लहरें ही हों जो अभावमय आकाश को यह दिखाना चाहती हों कि इस पृथ्वीतल में कितना सुख, कितनी हँसी कितना उल्लास है, जबकि उसमें (आकाश में) जड़ता और अभाव ही है।


हिमालय पर्वत में पास ही में एक सुंदर और विशाल गुफ़ा थी जो कि उस विशाल पर्वत की गोद के समान जान पड़ती थी। मनु ने उसमें अपने रहने के लिए सुंदर एवं स्वच्छ स्थान बनाया तथा वहीं रहने लगे।


उस गुफ़ा में पहले से एकत्र की गई अग्नि मंद-मंद जल रही थी जिसका प्रकाश सूर्य की धुँधली किरणों के समान था। मनु ने उस अग्नि को पुनः प्रज्वलित किया और अब वह सुलागाई जाने पर बड़ी तेज़ी के साथ धधकने लगी मानो शक्ति और जागृति की सूचक हो।


मनु द्वारा किए यज्ञों से देव संस्कृति पुनः सजग हो उठी अर्थात् मनु के दैवी संस्कार फिर जाग्रत हो उठे तथा ज्यों ही उन्होंने यज्ञ प्रारंभ किया, त्यों ही देव यज्ञों का सात्विक आकर्षण उन पर कर्म की मधुर छाया डालने लगा अर्थात मनु के हृदय में कर्म करने की भावना उत्पन्न हुई।


जिस प्रकार क्षितिज में बाल सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार मनु भी अब स्वस्थ और स्फूर्तियुक्त होकर उठे तथा लालसा पूर्ण दृष्टि से प्रकृति के मनोहर और शांत सौंदर्य को देखने लगे।


मनु ने निश्चय किया कि वे पाक यज्ञ करेंगे और वे धान चुनने लगे। उन्होंने आग को तेज़ किया जिसके फलस्वरूप अग्निकुंड से जो लपटें उठने लगीं उन पर धुएँ की एक सघन तह-सी जम गई।


मनु ने सूखी डालियों को यज्ञकुंड में डालना शुरू किया और इन डालियों के कारण आग की लपटें और भी अधिक तेज़ हो उठीं। इस प्रकार आहुतियाँ देने पर जो धुआँ उठा, उसकी नवीन सुगंध आकाश और वन में चारों ओर व्याप्त हो गई।


मनु ने अपने मन में सोचा कि इस भयंकर जल प्रलय से जिस प्रकार मैं बच गया हूँ, उसी प्रकार कोई आश्चर्य नहीं कि कोई दूसरा प्राणी भी जीवित बच रहा हो।


मनु के मन में यह विचार उत्पन्न होते ही यज्ञ की समाप्ति के पश्चात जो भी अन्न बचता, उसमें से कुछ अंश कहीं दूर रखने लगे। यह सोचकर कि इस अन्न से कोई अपरिचित प्राणी संतुष्ट होगा, मनु को स्वाभाविक ही सुख की अनुभूति होती थी।


मनु को इस बात से अपूर्व संतोष हो रहा था कि वे पाकयज्ञ के पश्चात अन्न का कुछ अंश कहीं दूर रख आते हैं। जो स्वयं भारी दुःख उठाता है उसकी मनोवृत्तियाँ भी कोमल हो जाती हैं और उसमें सहानुभूति की मात्रा भी अधिक रहती है। अतएव किसी अपरिचित के प्रति मनु की सहानुभूति का मूल कारण यही था और वे उस शांतमय वातावरण में अकेले ही प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।


प्रज्ज्वलित यज्ञकुंड के समीप बैठकर मनु विचित्र विचारों में लीन रहते थे। इसी प्रकार उस शून्य स्थान पर बैठे हुए मनु ऐसे प्रतीत होते थे मानो कि स्वयं तप ही शरीर धारण कर उस पतझड़ अर्थात् सूने एवं निर्जीव प्रदेश में निवास कर रहा हो।


परंतु कभी-कभी उनके हृदय में इच्छाएँ जाग उठती और नवीन चिंताओं के उत्पन्न होने पर उनका चित विचलित होने लगता। इस प्रकार मनु का अभावपूर्ण एवं अस्थिर जीवन धीरे-धीरे दिन-प्रतिदिन व्यतीत होने लगे।


मनु का भावी जीवन अनिश्चित एवं अंधकारमय ही था अतः उनके मन में नए-नए प्रश्न उठते रहते थे तथा जब वे हृदय में उन पर विचार करते तो उनका रूप थोड़ी ही देर में कुछ हो जाता। कहने का अभिप्राय यह है कि मनु के सामने समस्याएँ तो कई थीं परंतु वे उन पर ठीक से विचार नहीं पाते थे।


मनु को अपनी समस्याओं को कोई भी स्पष्ट समाधान न दीख पड़ रहा था पर समस्त प्रकृति तो क्रियाशील ही थी अर्थात् प्रत्येक मौसम अपने निश्चित समय पर ही आता था। अतएव ऐसी दशा में मनु के समक्ष केवल यही एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि अपने जीवन की रक्षा किसी न किसी प्रकार की जाए।


मनु तप में लीन हो गए और अपने नियमित कर्म करने लगे। जिस प्रकार आकाश में अनेक बादल एकत्र हो जाते हैं उसी प्रकार सांसारिक रंग में रँगे हुए उनके कर्मजाल के सूत्र घने होकर घिरने लगे अर्थात् अब उन्हें अनेक सांसारिक कर्मों में रत हो जाना पड़ा।


मनु अब अपने नियमित कार्यों में लीन रहते। जिस प्रकार समुद्र के किनारे पवन से प्रेरित होकर लहरें धीरे-धीरे नृत्य किया करती हैं, उसी प्रकार मनु भी उस एकांत नीरव प्रदेश में नियति को ही सब कुछ मानकर अपना जीवन व्यतीत करने लगे।


उस निर्जन में निश्चेशष्ट व्यक्ति की भाँति मनु अपना जीवन व्यतीत करते हुए असफ़ल कल्पनाएँ कर रहे थे। उधर सूर्य, चंद्र आदि नक्षत्र अपने-अपने पथ पर बढ़े चले जा रहे थे। कहने का अभिप्राय यह है कि मनु का समय धीरे-धीरे बीतता जा रहा था।


प्रहर, दिन और रात बीतते चले गए लेकिन उनमें मनु को किसी प्रकार की प्रेरणा न हुई। जैसे मन उत्साहीन हो जाता है तब कोई भी नवीन कार्य करने की इच्छा नहीं होती और चारों ओर निष्क्रियता ही निष्क्रियता दीख पड़ती है, इस प्रकार मनु की यह दशा स्वाभाविक ही थी।


यद्यपि मनु के हृदय में उदासीनता छाई हुई थी पर प्रकृति-सौंदर्य को देखकर उनकी मनोदशा में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। उस समय सुंदर रात्रि स्वच्छ चाँदनी से युक्त होने के कारण बड़ी ही मनोहर जान पड़ती थी और शीतल पवन जब सन-सन ध्वनि करता था तब ऐसा प्रतीत होता था मानो वायु पुलकित होकर पवित्र सामवेद के गीतों को गा रही है।


नीचे की ओर दूर तक लहरों से युक्त व्याकुल और अधीर समुद्र फैला हुआ था। साथ ही ऊपर की ओर आकाश में भी वैसा ही गंभीर अथाह सागर लहरा रहा था।


प्रकृति के इस सुंदर दृश्य को देखकर मनु के मन का आलस्य जाता रहा और उनकी जो चेतना अभी तक सुप्त थी, वह जाग उठी। इस दृश्य को देखते ही मनु के हृदय रूपी कुसुम की कली अचानक खिल उठी और उनके हृदय में विभिन्न प्रकार की सरस भावनाएँ सजीव होने लगी।


विस्तृत नीले आकाश से आने वाली चंद्रमा की सुंदर और चंचल किरणें मनु के शरीर को स्पर्श कर एक प्रकार की सिहरन भी उत्पन्न करती थी तथा उनका मन एक अलौकिक, मधुर एवं रहस्यपूर्ण प्रेम के स्वप्न लोक में पहुँच जाता था।


हृदय में स्थायी रूप में रहने वाली अनादि वासना भी मनु के हृदय में पुनः जाग्रत हो उठी और वे यही सोचने लगे कि यदि कोई दूसरा प्राणी भी उनके साथ इस गुफ़ा में रहता तो निश्चय ही उन्हें अपूर्व सुख मिलता।


मनु दिन में उषा और रात्रि में चंद्रमा के अनंत सौंदर्य को अभिलाषित नेत्रों से देखते और यही सोचने लगते कि जीवन का उर्मिल समुद्र पार करते ही उन्हें मिलन-सुख प्राप्त होगा।


मनु द्वारा अपना जीवन तपस्या से व्यतीत करने के कारण उनमें शारीरिक बल की वृद्धि भी हुई और उनकी प्रेम तृष्णा तथा तज्जन्य व्याकुलता भी बढ़ गई। वस्तुतः उनका मन किसी प्रेमिका के अभाव को अनुभव कर रहा था इसलिए उनकी अधीरता दिन-प्रतिदिन और अधिक बढ़ने लगी।


मनु के स्फूर्तिहीन थके हुए शरीर से ज्यों ही मंद-मंद सुगंध का स्पर्श हुआ तो वह रोमाचिंत सा हो उठा और वे एक प्रकार की व्याकुलता का अनुभव करने लगा। कवि कहता है कि अब मनु के मन में आशा का संचार होने और सुख की लहरें सी उठने लगीं।


मनु इसलिए व्याकुल थे कि उन्हें भी कोई ऐसा साथी मिलता जो कि दुःख में उनसे महानुभूति प्रकट करता। इस प्रकार प्रकृति के सुखद दृश्य को देखकर मनु अपने अभाव को स्मरण कर अत्यंत व्याकुल हो उठे और सहानुभूति प्राप्त करने की यह लालसा उनके हृदय को अत्यधिक व्यथित करने लगी।


मनु सोचने लगे कि यदि उनकी मधुर कल्पना पूर्ण हो जाती तो निस्संदेह उनका संसार सुखमय हो जाता और सुख स्वप्नों के इस साम्राज्य के स्थापित होने पर उनका हृदय प्रसन्नता से फूला न समाता।


मनु सोचते हैं कि यदि उनकी कल्पनाओं का सुखद साम्राज्य वास्तविक ही होता तो फिर संवेदनामय हृदय में इस प्रकार का विरोध न हो पाता ते धरती पर कहीं भी कौन अपने अभावों एवं असफलताओं की कहानियाँ सुनाता!


मनु अत्यधिक व्यथित हो कहने लगे कि हे मेरे जीवन, मुझे अभी कितने दिनों तक अकेले रहना पड़ेगा और मैं अपनी कथा किसे सुनाऊँ या फिर मुझे किसी साथी के न मिलने पर चुप ही रहना पड़ेगा? मनु यह भी कहते हैं कि जब उनकी इस व्यथा को कोई सुनने वाला ही नहीं है तब यही अच्छा होगा कि वे अपने हृदय के रहस्य को किसी के भी सामने न व्यक्त करे?


मनु आकाश में स्थित एक तारे को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे आभा और प्रकाश से युक्त तारे! तुम इस अंधकार के सुंदरतम रहस्य हो। तुम नव रस से पूर्ण उस बूँद के समान हो जो कि इस संतप्त संसार को शांति और शीतलता प्रदान करने में सक्षम हो।


मनु कह रहे हैं कि तारों की शीतल छाया में प्राणी अपने कष्टमय जीवन को भूलकर अपूर्व सुख शांति पाता है। मनु यह भी कहते हैं कि तारे उदय होते ही समस्त प्राणियों को सुखद संदेश प्रदान करते हैं। जिस प्रकार सघन अंधकार में भी वे चमकते रहते हैं उनसे 

कामायनी (जयशंकर प्रसाद)

                  चिंता सर्ग की व्याख्या 


हिमालय पर्वत की ऊँची चोटी पर एक शिला की शीतल छाया में बैठा हुआ एक पुरुष अश्रु पूर्ण नेत्रों से जल प्रलय के फलस्वरूप उत्पन्न हुई अपार जलराशि को देख रहा था।
वह पुरुष अपने चारों ओर जल तत्व की ही प्रधानता देखता था। शिला-खंड के पास से प्रवाहित होने वाला जल द्रव रूप में था, और बर्फ़ के रूप में ठोस था लेकिन जल या बर्फ़ वास्तव जल तत्व के ही दो रूप हैं। कवि का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जल तत्व एक होते हुए भी तरल और सघन रूपों में विद्यमान है, उसी प्रकार ईश्वर की सत्ता एक होने पर भी सृष्टि में विविध रूपों में प्रतिभासित होती है।


जिस प्रकार दूर-दूर तक फैली हुई बर्फ़ बिल्कुल जड़ जान पड़ती थी, उसी प्रकार उस व्यक्ति का हृदय भी स्पंदनहीन जान पड़ता था। जैसे पवन की नीरव चोटों से शिला की स्थिरता नहीं टूटती, वैसे ही मनु का हृदय चट्टान के ही सदृश्य था और उनकी शांति किसी भी प्रकार भंग नहीं हो रही थी।


वह तरुण पुरुष तपस्वी की भांति दैवीय शक्ति की साधना में लीन जान पड़ता था। इस प्रलय कालीन सागर की लहरें रह-रह शिलाखंड से आकर टकराती थीं और अत्यंत करुणा पूर्ण ध्वनि उत्पन्न कर वहीं समाप्त सी हो जाती थी।


पास में ही उस तरुण तपस्वी के सदृश्य लंबे-लंबे कुछ देवदारु के वृक्ष थे, जो कि हिमाच्छादित हो जाने के कारण न केवल बिल्कुल सफ़ेद जान पड़ते थे अपितु ऐसा प्रतीत होता था मानो शीत से ठिठुर जाने के कारण वे पत्थर के समान अड़कर रह गए हों।


उस व्यक्ति के शरीर का प्रत्येक अवयव सृदृढ़ था और मुख की कांति भी अपूर्व ओजमयी थी तथा वह स्वस्थ रक्त के संचार से परिपूर्ण नसों के कारण अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत होता था।


उसके शरीर से अनुपम पौरुष झलक रहा था; पर साथ ही वह चिंता के कारण कुछ-कुछ व्याकुल भी जान पडता था। इसी प्रकार उस व्यक्ति की हृदय-स्थली में यौवनकालीन अनेक मधुर स्मृतियाँ भी विद्यमान थीं। प्रलय के शोक के सामने उसकी प्रेम भावनाएँ उपेक्षित जान पड़ती थी।


जिस नाव का सहारे मनु ने जल प्रलय में अपने प्राणों की रक्षा की थी, वह नाव सूखी ज़मीन पर एक विशाल बरगद के वृक्ष से बँधी हुई थी। क्षण-प्रतिक्षण जल की बाढ़ भी कम होती जा रही थी और पृथ्वी भी दिखाई पड़ने लगी थी।


उस व्यक्ति का हृदय वेदनापूर्ण था और अब वह अपनी करुण कहानी का वर्णन कर रहा था। उसकी इस दर्द भरी कहानी को श्रवण करने वाली और उसकी व्यथाओं की अनुभूति करने वाली मात्र प्रकृति ही उस कहानी को मुस्कराती हुई सुन रही थी और ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह पहले से ही उसकी कहानी से परिचित है।


मनु चिंता को संबोधित कर कहता है कि आज पहली बार उसके हृदय में चिंता प्रवेश कर सकी है। जिस प्रकार संसार रूपी उपवन में विचरण करने वाले प्राणियों को सर्पिणी पग-पग कर सशंकित कर देती है उसी प्रकार जिस मनुष्य का हृदय चिंताग्रस्त हो जाता है वह कुछ भी नहीं कर पाता। जिस प्रकार ज्वालामुखी पर्वत का प्रथम विस्फोट ही भीषण प्रभावकारी होता है तथा वह अपने समीपवर्ती सभी पर्दाथों को प्रभावित कर उन्हें नष्ट कर देता है उसी प्रकार चिंता का आगमन होते ही मन के अन्य समस्त क्रिया-व्यापार नष्ट हो जाते हैं।


चिंता अभाव की चंचल बालिका है क्योंकि वह अभाव से ही उत्पन्न होती है। चिंता मनुष्य के ललाट की वह रेखा है, जो उसकी नियति निर्धारित करती है। ज्यों ही मनुष्य के हृदय में चिंता उत्पन्न होती है, वह अस्थिर हो जाता है। वह उससे मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न करने लगता है। जिस तरह जल में अनेकानेक लहरें उठती रहती हैं उसी प्रकार चिंता भी इस माया-जगत में उठने वाली एक हलचल के समान है।


चिंता समस्त संसार में हलचल उत्पन्न करने वाली है जिस प्रकार विष की हल्की लहर मनुष्य के शरीर में व्याप्त होते ही उसे व्याकुल अवश्य कर देती है पर उसके जीवन का पूर्ण रूप से अंत नहीं कर देती, उसी प्रकार चिंता भी मनुष्य को केवल व्यथा ही पहुँचा पाती है। वह अपने जीवन को अमर समझने वाले देवताओं को भी वृद्ध बना देती है। चिंता इतनी स्वच्छंद और निष्ठुर है कि जब वह किसी मानव मन में प्रविष्ट होती है तब उसका रुदन (रोना) नहीं सुन सकती और बहरी बनकर स्वच्छंदता के साथ उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लेती है।


चिंता मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की व्यथाओं को उत्पन्न करने वाली है। चिंता के कारण मन हमेशा व्याकुल रहता है, वह शाप तो है ही, पर इसे एक मधुर अभिशाप ही समझना चाहिए क्योंकि यदि जीवन में चिंता न हो तो मनुष्य सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न ही नहीं करेगा और जीवन की मधुरता से वंचित रह जाएगा। चिंता का उदय ठीक उसी प्रकार विध्वंस का द्योतक है जिस प्रकार आकाश में पुच्छल नक्षत्र के उदय होने पर सृष्टि में बाह्य विनाश की आशंका होने लगती है।


हे चिंता! यद्यपि तू आज इतना अधिक सोच विचार करवाकर मुझे व्यथित कर रही है, पर मुझे इसकी तनिक भी परवाह नहीं है क्योंकि अमर जीवात्मा को नष्ट करने की शक्ति किसी में नहीं है। चिंता के कारण मुझे चाहे कितना दुख क्यों न हो परंतु इससे मेरे जीवन का अंत किसी भी प्रकार नहीं हो सकता।


जिस प्रकार ओलों से परिपूर्ण बादल हरी-भरी खेती को नष्ट कर देने की आशंका पैदा करते हैं, उसी प्रकार हृदय में चिंता के उदय होते ही मानव मन आशंकित हो उठता है। जिस प्रकार पृथ्वी मे छुपे हुए धन का पता उसी व्यक्ति को रहता है जो कि उसे वहाँ छिपाता है, चिंता भी मनुष्य के अंत करण में छिपी रहती है और उसका पता वही जान पाता है जो चिंताक्रांत होता है।


चिंता के न जाने कितने नाम हैं! चिंतन द्वारा ही मनुष्य सत-असत् का निर्णय कर पाता है, इसीलिए वह बुद्धि कहलाती है; वह हृदय में ज्ञान उत्पन्न करती है अतः उसे मनीषा भी कहा जाता है। चिंता ही मति भी कहलाती है क्योंकि मनुष्य उसी की सहायता से किसी विवाद ग्रस्त विषय के संबंध में अपनी कोई निश्चित धारणा बना सकता है और मनुष्य की शोकावस्था में चिंता ही आशा के रूप में सांत्वना प्रदान करती है। चिंता के इतने रूप होते हुए भी वह जिस रूप में मनु के हृदय में उदय हुई है, वह अत्यंत अशुभ है इसलिए मनु चिंता को संबोधित करते हुए कहता है कि उसका यहाँ पर कुछ भी काम नहीं है।


चिंतातुर मनु की चाहत है कि विस्मृति उसे घेर ले ताकि अतीत की स्मृति उसे पीड़ा न दे सके। मनु अपने शरीर में शिथिलता चाहता है ताकि उनमें तनिक भी सोचने-विचारने का उत्साह न रहे। इसी प्रकार मनु अपने हृदय में उठने वाली समस्त हलचलों को शांत करना चाहते हैं और अपनी समस्त चेतना को विलुप्त होती हुई भी देखना चाहते हैं जिससे कि उन्हें किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक व्यथा की अनुभूति न हो सके।


चिंता की अवसन्न स्थिति से मनु का ध्यान देवताओं के विलासी जीवन की ओर गया। अब मनु कहते हैं कि विगत दिनों की उन मनोहर स्मृतियों के संबंध में वे जितना ही अधिक सोचते हैं, उतना ही अधिक दुःख उन्हें होता है।


मनु कह रहे हैं कि जिन देवताओं का जन्म इस धरती पर सबसे पहले हुआ था और जिन्हें इस सृष्टि का अग्रदूत कहा जाता था, उन्हीं का आज अस्तित्व ही समाप्त हो गया और वे इस अपार जलराशि में विलीन हो गए। जिस प्रकार मछलियाँ अपनी जाति का विकास करती हैं, उसी प्रकार जिन देवताओं ने अपनी जाति का उत्थान किया था उन्होंने अब आठों पहर विलास में ही लीन रहकर स्वयं ही अपने आपको नष्ट कर डाला।


मनु कह रहे हैं कि जल प्रलय के पूर्व दिन-रात आँधियों और बिजलियों का भयंकर नृत्य होता रहा परंतु देवतागण भोग-विलास में ही लीन रहे। जब वे सचेत न हुए तब प्रकृति ने अपना भीषणतम रूप धारण कर उन्हें सर्वथा नष्ट कर दिया।


जिस देव जाति को अपनी तक इस बात का अहंकार था कि उसका विनाश कोई भी नहीं कर सकता वही अब इस जल प्रलय के कारण नष्ट हो गई। जिस प्रकार घोर अंधकार में रखा हुआ मणि का एक दीपक केवल अपने आसपास ही थोड़ा सा प्रकाश कर पाता है और अपने चारों और व्याप्त तिमिर-राशि को सर्वथा नष्ट कर देने की शक्ति उसमें नहीं रहती उसी प्रकार आज वह स्वयं भी अपने भविष्य के विषय में कुछ भी सोचने-विचारने में असमर्थ है।


आज तक जिन देवताओं का जयघोष चारों ओर गूँजा करता था, अब देव जाति का पतन हो जाने पर वे ही जय-ध्वनियाँ दीनता और दुःखपूर्ण स्वरों में प्रतिध्वनित हो रही है।


मनु कह रहे हैं कि अंत में प्रकृति की ही विजय हुई और घमंड में फूले देवताओं को पराजय स्वीकार करनी पड़ी। देवता यह भूल गए थे कि विलासिता की अधिकता से उनका नाश हो जाएगा। अज्ञानतावश वे हमेशा भोग-विलास की नदी में ही डूबे रहे।


मनु का कहना है कि न केवल वे सभी देवगण जो कि हमेशा भोग-विलास में ही लीन रहते थे, सब डूब गए। जल-प्लावन के कारण जो उमड़ता हुआ समुद्र ऐसा प्रतीत होता है मानो देवताओं का वैभव ही पानी बनकर इस अगाध सागर के रूप में चारों ओर फैला हुआ है और वह उनके समस्त सुखों को अपने में लीन कर दुःख को ध्वनित कर रहा है।


आख़िर देवताओं का वह निर्बाध, उच्छृंखल भोग विलास आज कहाँ चला गया? क्या यह सब केवल स्वप्न मात्र या भ्रम ही था? मनु का कहना है कि देवताओं के संसार की वह सुख-रात्रि ताराओं से परिपूर्ण थी और जिस प्रकार तारागणों की कोई गिनती ही नहीं ही पाती उसी प्रकार देवताओं के भोग-विलास की भी कोई सीमा न थी।


स्त्रियों के सुगंधित आँचलों की छाया से देवगण मादक साँसे लिया करते थे और विलास एवं वैभव के वातावरण में सुख तथा स्वच्छंदता के साथ अपना जीवन व्यतीत करना ही उनका लक्ष्य था।


वास्तव में देवताओं के जीवन का एकमात्र लक्ष्य सुखोपभोग ही था और उन्होंने विविध सुखों को अपने पास उसी प्रकार एकत्र कर लिया था जिस प्रकार नवीन बर्फ़ कणों की भाँति चमकने वाले अनेकानेक तारे आकाश गंगा में गुँथे हुए जान पड़ते है।


मनु कह रहे हैं कि संसार के समस्त बल-वैभव के स्वामी देवता थे इसी कारण उनका जीवन अपूर्व सुखमय और समृद्धिशाली हो गया था। जिस प्रकार आज समुद्र की लहरें उमड़-घुमड़ कर अपनी सत्त एवं व्यापकता का परिचय दे रही है उसी प्रकार देवता भी अपनी समृद्धि का परिचय देते थे।


मनु का कहना है कि देवताओं का यश, तेज़ और शोभा प्रातः कालीन सूर्य की किरणों के समान चारों ओर व्याप्त थी। इतना ही नहीं देवता सप्त सिंधु के तरल कणों और वृक्षों के झुंड में आनंद मग्न होकर घूमा करते थे।


मनु का कहना है कि देवताओं में अपूर्व शक्ति विद्यमान थी और प्रकृति भी पराजित होकर नम्रता के साथ उनके चरणों से झुक गई थी तथा धरती उनके चरणों से पद दलित होकर प्रतिदिन काँपती रहती थी।


मनु कह रहे हैं कि देवताओं ने यह समझ लिया कि अब वे स्वयं ही अपने कर्मों के नियामक है तथा जो कुछ चाहें करने को स्वतंत्र हैं तब स्वाभाविक ही उनकी संयमहीनता के कारण संसार की व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न होने लगी और उन्हें अनेक विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं।


मनु का कहना है कि देवताओं का समस्त ऐश्वर्य और आनंद विहार नष्ट हो गया तथा देवबालाओं का शृंगार और उषा-सा उनका यौवन, चाँदनी सी उनकी मुस्कानें तथा मतवाले भँवरे के समान उनका निश्चिंत भोग विलास आदि नष्ट हो गया।


देवताओं के जीवन में उमड़ती हुई वासना रूपी नदी तीव्र वेग के साथ प्रवाहित हुई और अंत में यह नदी विनाश के समुद्र में ही विलीन हो गई। उनके इस अंत से अब मनु का हृदय कराह उठता है।


जीवन के वे मधुर दिन जब युवावस्था की ही अनुभूति रहती थी, नित्य भोग-विलास और वासना में मग्न रहने के अवसर उपलब्ध थे तथा जीवन में हमेशा वसंत ऋतु रहती थी, न जाने कहाँ चले गए?


फूलों से लदे हुए लतामंडपों में होने वाले आलिंगनों के दृश्य भी अब कहीं नहीं दीख पड़ते और सुंदर सुरीली स्वर लहरी भी कहीं नहीं सुन पड़ती तथा वीणा भी अब शांत है।


अब इस जल प्रलय के कारण देवताओं और देवबालाओं को न तो चुंबन सुरा ही प्राप्त हो पाती है और न वे प्रमालिंगन ही कर पाते हैं। जब देवता रूपवती नारियों के कपोलों का चुंबन लेते थे तब उन्हें उनके शरीर से निकलने वाली फूलों की-सी मधुर सुगंध का आनंद प्राप्त होता था। साथ ही वासना के आवेग में जब देवबालाएँ उनका आलिंगन करती थीं तब उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त होकर बिखर जाते थे परंतु अब ये सभी दृश्य समाप्त हो चुके हैं।


मनु का कहना है कि देवबालाएँ जब देवताओं का आलिंगन करती थी तब उनके कंगन मधुर ध्वनि करते, घुँघरू बज उठते और उनके वक्षस्थल पर हार हिलने लगते तथा चारों और संगीत की मधुर ध्वनि गूँजने लगती जिसमें स्वर और लय परस्पर मिले रहते थे।


उन दिनों सभी दिशाएँ सुगंध से परिपूर्ण रहती थीं और आकाश में चारों और अपूर्व प्रकाश व्याप्त रहता था। साथ ही देवताओं में एक ऐसी गति विद्यमान थी जिसके समक्ष वायु का वेग भी तुच्छ जान पड़ता था। इस प्रकार वे प्रतिदिन अत्यंत तीव्र गति के साथ उत्कर्ष प्राप्त कर रहे थे और उनकी यह गति पवन से भी तेज़ थी।


विलासिनी देवबालाएँ जब अपने विविध अंगों को मोड़कर भाँति-भाँति के हाव-भाव प्रदर्शित करती थी तब यह स्पष्ट हो जाता था कि उन्हें काम पीड़ा की अनुभूति हो रही है और उनकी इन चेष्टाओं को देखकर देवता भँवरों के समान उनके यौवन रस का पान करने में रत हो जाते।


देवबालाओं के मुख से हमेशा शराब की सुगंध निकला करती थी और रात में अधिक देर तक जागने के कारण आलस्य और अनुराग से पूर्ण उनके नेत्र हमेशा लाल रहते थे। उनकी आलस्यपूर्ण पलकों से वासना छलकती प्रतीत होती थी। यद्यपि देवबालाओं के कपोलों की पीली आभा के सामने कल्पवृक्ष के फूलों का पीला पराग भी रंगहीन जान पड़ता था।


अतृप्त वासना के प्रतीक देवताओं का आज नाश हो गया है। वे अपनी ही लगाई आग में जल गए।


देवताओं ने यह समझकर कि वे अमर हैं अपने जीवन में सभी की उपेक्षा की और भोगविलास को ही जीवन का साध्य समझा परंतु उनकी तृष्णा शांत नहीं हुई। उन्हें किसी भी बात की चिंता न थी और काम-क्रीड़ा के अतिरिक्त उन्हें अन्य कोई कार्य भी न था। इस प्रकार वे हमेशा प्रेम की प्यास लिए वासना पूरित नेत्रों से देव बालाओं क दर्शनों की लिए उत्सुक रहते।


देवबालाओं का आलिंगन करते समय जो रोमांच उनके शरीर में हो जाता था वह अब समाप्त हो गया। देवबालाओं के अधरों का मधुर चुंबन लेने की छटपटाहट और कातरता अब देवताओं को नहीं सता रही।


जिन रत्न-जटित भवनों के झरोखों में से सदा सुगंधित पवन बहा करता था, आज उन्हीं में से तिमिंगल नामक अनेक समुद्री मछलियाँ टकरा रही होंगी।


उन सुंदर देवबालाओं के नेत्र नीले कमल के समान थे। वे जिस ओर भी दृष्टि फेरती थी, उधर अब उन नील कमलों के स्थान पर भीषण प्रलयकारी वर्षा हो रही है।


खिले हुए सुगंधित फूलों और मणियों की जो मनोहर मालाएँ अभी तक देवबालाओं के शरीर पर शृंगार सज्जा का काम देती थी वे ही आज शृंखलाओं के समान प्रतीत हो रही हैं और ऐसा जान पड़ता है कि उन पुष्पमालाओं में वे वे जकड़ दी गई हो।


जिस प्रकार यज्ञ की समाप्ति पर पशुओं की आहुति से यज्ञ की ज्वाला भभक उठती थी, उसी प्रकार अब ये सागर की भीषण लहरें ही आग की लपटों के समान जान पड़ती है।


उनकी यह दशा देख कर अंतरिक्ष में यह कौन रोया कि आसमान से आँसू बरसने लगे!


मनु कह रहे हैं कि जलप्लावन होते ही चारों और भयंकर हाहाकार मच गया और बिजलियों के टकराने से इतनी अधिक भीषण आवाज़ें होने लगीं कि अब प्रतिक्षण केवल कोलाहल ही सुनाई पड़ता है और इसके कारण सभी दिशाएँ भी बहरी सी हो गई हैं।


मनु कह रहे हैं कि दिशाओं में आग लग जान के कारण चारों ओर धुआँ ही धुआँ दिखाई पड़ता और कभी-कभी तो यह प्रतीत होता कि मानो आकाश में बादल ही घिर आए हैं। साथ ही तेज़ आँधी के भयंकर झोंकों से सारा आकाश ही रह-रहकर डोलने लगता।


सूर्य का प्रकाश पहले तो धुँधला-सा दीख पड़ने लगा पर कुछ ही क्षण पश्चात सूर्य उस अंधकार में ही अदृश्य सा हो गया और अब चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा गया। साथ ही जल देवता वरुण भी क्रुद्ध होकर भयंकर वर्षा करने लगे और चारों ओर धुँए से उत्पन्न कालिमा की एक मोटी तह सी जम गई।


जिन पंचभूतों (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि) के मिश्रण से यह संपूर्ण सृष्टि बनी है, आज उन्हीं का मिश्रण भयंकर प्रलयकारी दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। बिजलियाँ टूट-टूटकर गिर रही थीं और विद्युत खंड ऐसे प्रतीत होते थे मानो वास्तविक अमर शक्तियाँ अंधकार में छिपे हुए प्रातः काल को मशाल लेकर ढूँढ रही है।


लगातार होने वाले भयंकर कोलाहल के कारण धरती अब भी काँप उठती थी और चारों ओर जो नीला अंधकार दृष्टिगोचर होता था, उसे देखकर यही जान पड़ता था मानो काँपती हुई धरती को देखकर उसे छाती से लगा धीरज बँधाने के लिए नीला आकाश ही नीचे उतर आया हो।


उधर मृत्यु पाश के समान दिखाई देने वाली सागर की भीषण लहरें गरजती हुई इस प्रकार आगे बढ़ती थी मानो कि अपने-अपने फन फैलाकर अनेक ज़हरीले सर्प बढ़े चले आ रहे हों। लहरों की उपमा सर्प से देते हुए यहाँ यह कल्पना की गई है कि लहरों से उठने वाला फेन ऐसा प्रतीत होता था मानो कि वह उन सर्पों के मुख से निकला हुआ ज़हर हो।


धीरे-धीरे धरती नीचे की ओर धँसने लगी और उनके अंतर की आग ऊपर प्रकट हुई जो ज्वालामुखी पर्वत से स्फुटित होने वाली आग की भीषण लपटों के समान जान पड़ती थी। इस प्रकार पृथ्वी का भाग क्रमशः संकुचित होने लगा।


समुद्र की शक्तिशाली तरंगों के भीषण थपेड़ों के कारण पृथ्वी अत्यधिक विचलित जान पड़ने लगी तथा ऐसा प्रतीत हुआ मानो कि दीर्घकाय कछुए के समान धरती लहरों के थपेड़ों से घबराकर ऊपर की ओर सरक आई हो।


जिस तरह देवताओं की वासना अत्यंत तीव्र गति से बढ़ती चली गई थी, उसी प्रकार अब जलप्रलय भी अत्यंत वेगपूर्वक बढ़ने लगा और चारों ओर भयंकर जलराशि एकत्र होने लगी। चारों ओर फैले हुए अंधकार की सघन परतों पर भयंकर पवन बार-बार आकर टकराता था और ऐसा प्रतीत होता था कि उन दोनों में भीषण घात-प्रतिघात चल रहा है।


धीरे-धीरे सागर का किनारा क्षण-प्रतिक्षण समीप जाने लगा और सुदूर क्षितिज के पास की पृथ्वी के भी जलमग्न हो जाने के कारण अब जल और आकाश मिले हुए दीख पड़ने लगे। समुद्र की यह मर्यादा है कि वह अपने तट को नहीं डुबाता परंतु प्रलयकालीन सागर ने अपनी मर्यादा का परित्याग कर समस्त धरती को डुबो दिया और वह सीमाहीन हो गया।


चारों ओर से भयंकर आवाज़ें करते हुए शोले बरसने लगे और उनके नीचे सब कुछ दबने लगा तथा पंचभूतों का यह भीषण तांडव न जाने कब तक चलता रहा।


मनु अपने जीवित बच जाने की कथा सुनाते हुए कह रहे हैं कि जल प्लावन में सारे ऐश्वर्य समाप्त हो गए और मनु को एक ऐसी नौका मिली जिसमें बाढ़ के समय डाँट और पतवार भी नहीं लगा सकते थे, वह नौका पगली की भाँति इधर-उधर चक्कर काटती हुई आगे की ओर बढ़ रही थी।


उस नाव पर रह-रहकर बार-बार लहरें भीषण आघात करती थीं और समुद्र के धूमिल तट का कहीं पता भी न चलता था। मनु का कहना है कि मेरे हृदय में घोर निराशा सी व्याप्त होने लगी और मुख से व्याकुलता भी झलकने लगी परंतु यह सोचकर कि अब तो मैं भाग्य के ही अधीन हूँ, शांत बैठा रहा और विश्व की वह नियामिका शक्ति ही पथ-प्रदर्शिका बनी।


समुद्र में ऊँची-ऊँची





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कामायनी (जयशंकर प्रसाद)

चिंता सर्ग


हिम गिरि के उत्तुंग शिखर पर, 

बैठ शिला की शीतल छाँह। 

एक पुरुष, भीगे नयनों से, 

देख रहा था प्रलय प्रवाह। 

नीचे जल था, ऊपर हिम था, 

एक तरल था, एक सघन। 

एक तत्व की ही प्रधानता 

कहो उसे जड़ या चेतन। 

दूर-दूर तक विस्तृत था हिम, 

स्तब्ध उसी के हृदय समान। 

नीरवता-सी शिला-चरण से 

टकराता फिरता पवमान। 

तरुण तपस्वी-सा वह बैठा, 

साधन करता सुर-श्मशान। 

नीचे प्रलय सिंधु लहरों का 

होता था सकरुण अवसान। 

उसी तपस्वी-से लंबे, थे 

देवदारु दो चार खड़े। 

हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर 

बनकर ठिठुरे रहे अड़े। 

अवयव की दृढ़ मांस-पेशियाँ, 

ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार। 

स्फीत शिराएँ, स्वस्थ रक्त का, 

होता था जिनमें संचार। 

चिंता-कातर बदन हो रहा, 

पौरुष जिसमें ओत-प्रोत। 

उधर उपेक्षामय यौवन का 

बहता भीतर मधुमय स्रोत। 

बँधी महा-बट से नौका थी, 

सूखे में अब पड़ी रही। 

उतर चला था वह जल-प्लावन, 

और निकलने लगी मही। 

निकल रही थी मर्म वेदना, 

करुणा विकल कहानी-सी। 

वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, 

हँसती-सी पहचानी-सी। 

ओ चिंता की पहली रेखा, 

अरी विश्व-वन की व्याली; 

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, 

प्रथम कंप-सी मतवाली! 

हे अभाव की चपल बालिके, 

री ललाट की खल लेखा! 

हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ 

जल-माया की चल-रेखा! 

इस ग्रहकक्षा की हलचल! री 

तरल गरल की लघु-लहरी; 

जरा अमर-जीवन की, और न 

कुछ सुनने वाली, बहरी! 

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी! 

अरी आधि, मधुमय अभिशाप! 

हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, 

पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप। 

मनन करावेगी तू कितना! 

उस निश्चित जाति का जीव; 

अमर मरेगा क्या? तू कितनी 

गहरी डाल रही है नींव। 

आह! घिरेगी हृदय-लहलहे 

खेतों पर करका-घन-सी; 

छिपी रहेगी अंतरतम में, 

सब के तू निगूढ़ धन-सी! 

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता 

तेरे हैं कितने नाम! 

अरी पाप है तू, जा, चल, जा, 

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, 

नीरवते! बस चुप कर दे; 

चेतनता चल जा, जड़ता से 

आज शून्य मेरा भर दे। 

चिंता करता हूँ मैं जितनी, 

उस अतीत की, उस सुख की; 

उतनी ही अनंत में बनतीं 

जाती रेखाएँ दु:ख की। 

आह सर्ग के अग्रदूत! तुम 

असफल हुए, विलीन हुए; 

भक्षक या रक्षक, जो समझो, 

केवल अपने मीन हुए। 

अरी आँधियो! ओ बिजली की 

दिवा-रात्रि तेरा नत्तर्न, 

उसी वासना की उपासना, 

वह तेरा प्रत्यावत्तर्न। 

मणि-दीपों के अंधकारमय 

अरे निराशा पूर्ण भविष्य! 

देव-दंभ के महा मेघ में 

सब कुछ ही बन गया हविष्य। 

अरे अमरता के चमकीले 

पुतलो! तेरे ये जय नाद; 

काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि 

बन कर मानो दीन विषाद। 

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित 

हम सब थे भूले मद में; 

भोले थे, हाँ तिरते केवल, 

सब विलासिता के नद में। 

वे सब डूबे; डूबा उनका 

विभव, बन गया पारावार; 

उमड़ रहा था देव-सुखों पर 

दु:ख-जलधि का नाद अपार। 

वह उन्मत्त विलास हुआ क्या? 

स्वप्न रहा या छलना थी! 

देव सृष्टि की सुख-विभावरी 

ताराओं की कलना थी। 

चलते थे सुरभित अंचल से, 

जीवन के मधुमय निश्वास; 

कोलाहल में मुखरित होता, 

देव जाति का सुख-विश्वास। 

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, 

केंद्रीभूत हुआ इतना; 

छाया पथ में नव तुषार का, 

सघन मिलन होता जितना। 

सब कुछ थे स्वायत्त, विश्व के 

बल, वैभव, आनंद अपार; 

उद्वेलित लहरों-सा होता, उस 

समृद्धि का सुख-संचार। 

कीर्ति, दीप्ति, शोभा थी नचती, 

अरुण किरण-सी चारों ओर, 

सप्त सिंधु के तरल कणों में, 

द्रुम-दल में, आनंद-विभोर। 

शक्ति रही हाँ शक्ति; प्रकृति थी 

पद-तल में विनम्र विश्रांत; 

कँपती धरणी उन चरणों से 

होकर प्रतिदिन ही आक्रांत! 

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर, 

क्यों न विशृंखल होती सृष्टि; 

अरे अचानक हुई इसी से, 

कड़ी आपदाओं की वृष्टि। 

गया, सभी कुछ गया, मधुर तम 

सुर बालाओं का शृंगार; 

उषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, 

मधुप-सदृश निश्चिंत विहार। 

भरी वासना-सरिता का वह 

कैसा था मदमत्त प्रवाह, 

प्रलय-जलधि में संगम जिसका 

देख हृदय था उठा कराह। 

चिर किशोर-वय, नित्य विलासी, 

सुरभित जिससे रहा दिगंत; 

आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, 

मधु से पूर्ण अनंत वसंत? 

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित 

प्रेमालिंगन हुए विलीन; 

मौन हुई हैं मूर्छित तानें, 

और न सुन पड़ती अब बीन। 

अब न कपोलों पर छाया-सी, 

पड़ती मुख की सुरभित भाप; 

भुज-मूलों में, शिथिल वसन की, 

व्यस्त न होती है अब माप। 

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, 

हिलते थे छाती पर हार; 

मुखरित था कलरव, गीतों में, 

स्वर लय का होता अभिसार। 

सौरभ से दिगंत पूरित था, 

अंतरिक्ष आलोक-अधीर; 

सब में एक अचेतन गति थी, 

जिससे पिछड़ा रहे समीर! 

वह अनंग पीड़ा अनुभव-सा 

अंग भंगियों का नर्त्तन, 

मधुकर के मकरंद उत्सव-सा, 

मदिर भाव से आवर्त्तन। 

सुरा सुरभिमय बदन अरुण वे, 

नयन भरे आलस अनुराग; 

कल कपोल था जहाँ बिछलता, 

कल्पवृक्ष का पीत पराग। 

विकल वासना के प्रतिनिधि वे, 

सब मुरझाए चले गए; 

आह! जले अपनी ज्वाला से, 

फिर वे जल में गले, गए!” 

अरी उपेक्षा भरी अमरते! 

री अतृप्ति! निबार्ध विलास! 

द्विधा-रहित अपलक नयनों की, 

भूख-भरी दर्शन की प्यास! 

बिछुड़े तेरे सब आलिंगन, 

पुलक स्पर्श का पता नहीं; 

मधुमय चुंबन कातरताएँ 

आज न मुख को सता रहीं। 

रत्न-सौध के वातायन, जिनमें 

आता मधु-मदिर समीर; 

टकराती होगी अब उनमें, 

तिमिंगिलों की भीड़ अधीर। 


यहाँ नहीं कुछ तेरा काम! 

चिर किशोर-वय, नित्य विलासी, 

सुरभित जिससे रहा दिगंत; 

आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, 

मधु से पूर्ण अनंत वसंत? 

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित 

प्रेमालिंगन हुए विलीन; 

मौन हुई हैं मूर्छित तानें, 

और न सुन पड़ती अब बीन। 

अब न कपोलों पर छाया-सी, 

पड़ती मुख की सुरभित भाप; 

भुज-मूलों में, शिथिल वसन की, 

व्यस्त न होती है अब माप। 

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, 

हिलते थे छाती पर हार; 

मुखरित था कलरव, गीतों में, 

स्वर लय का होता अभिसार। 

सौरभ से दिगंत पूरित था, 

अंतरिक्ष आलोक-अधीर; 

सब में एक अचेतन गति थी, 

जिससे पिछड़ा रहे समीर! 

वह अनंग पीड़ा अनुभव-सा 

अंग भंगियों का नर्त्तन, 

मधुकर के मकरंद उत्सव-सा, 

मदिर भाव से आवर्त्तन। 

सुरा सुरभिमय बदन अरुण वे, 

नयन भरे आलस अनुराग; 

कल कपोल था जहाँ बिछलता, 

कल्पवृक्ष का पीत पराग। 

विकल वासना के प्रतिनिधि वे, 

सब मुरझाए चले गए; 

आह! जले अपनी ज्वाला से, 

फिर वे जल में गले, गए!” 

अरी उपेक्षा भरी अमरते! 

री अतृप्ति! निबार्ध विलास! 

द्विधा-रहित अपलक नयनों की, 

भूख-भरी दर्शन की प्यास! 

बिछुड़े तेरे सब आलिंगन, 

पुलक स्पर्श का पता नहीं; 

मधुमय चुंबन कातरताएँ 

आज न मुख को सता रहीं। 

रत्न-सौध के वातायन, जिनमें 

आता मधु-मदिर समीर; 

टकराती होगी अब उनमें, 

तिमिंगिलों की भीड़ अधीर। 

उधर गरजतीं सिंधु लहरियाँ, 

कुटिल काल के जालों-सी; 

चली आ रहीं फेन उगलती, 

फन फैलाए व्यालों-सी। 

धसँती धरा, धधकती ज्वाला, 

ज्वाला-मुखियों के निश्वास; 

और संकुचित क्रमश: उसके, 

अवयव का होता था ह्रास। 

सबल तरंगाघातों से उस, 

क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी। 

व्यस्त महा कच्छप सी धरणी, 

ऊभ-चूम थी विकलित-सी। 

बढ़ने लगा विलास वेग-सा, 

वह अति भैरव जल संघात; 

तरल तिमिर से प्रलय-पवन का, 

होता आलिंगन प्रतिघात। 

बेला क्षण-क्षण निकट आ रही, 

क्षितिज क्षीण फिर लीन हुआ; 

उदधि डुबाकर अखिल धरा को, 

बस मर्यादा-हीन हुआ। 

करका क्रंदन करती गिरती, 

और कुचलना था सब का; 

पंचभूत का यह तांडवमय, 

नृत्य हो रहा था कब का। 

एक नाव थी, और न उसमें, 

डाँड़े लगते, या पतवार; 

तरल तरंगों में उठ गिर कर, 

बहती पगली बारंबार! 

लगते प्रबल थपेडे़, धुँधले, 

तट का था कुछ पता नहीं; 

कातरता से भरी निराशा, 

देख नियति पथ बनी वहीं। 

लहरें व्योम चूमती उठतीं, 

चपलाएँ असंख्य नचतीं; 

गरल जलद की खड़ी झड़ी में 

बूँदें निज संसृति रचतीं। 

चपलाएँ उस जलधि, विश्व में, 

स्वयं चमत्कृत होती थीं, 

ज्यों विराट बाड़व ज्वालाएँ, 

खंड-खंड हो रोती थीं। 

जलनिधि के तल वासी जलचर, 

विकल निकलते उतराते, 

हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी, 

कौन! कहाँ! कब! सुख पाते? 

घनीभूत हो उठे पवन, फिर 

श्वासों की गति होती रूद्ध; 

और चेतना थी बिलखाती, 

दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध। 

उस विराट आलोड़न में, ग्रह 

तारा बुद-बुद-से लगते। 

प्रखर प्रलय पावस में जगमग, 

ज्योतिरिंगणों से जगते। 

प्रहर दिवस कितने बीते, अब 

इसको कौन बता सकता! 

इनके सूचक उपकरणों का, 

चिह्न न कोई पा सकता। 

काला शासन-चक्र मृत्यु का, 

कब तक चला, न स्मरण रहा। 

महामत्स्य का एक चपेटा, 

दीन पोत का मरण रहा। 

किंतु उसी ने ला टकराया, 

इस उत्तर-गिरि के शिर से। 

देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक, 

श्वास लगा लेने फिर से। 

आज अमरता का जीवित हूँ मैं, 

वह भीषण जर्जर दंभ, 

आह सर्ग के प्रथम अंक का, 

अधम-पात्रमय-सा विष्कंभ! 

ओ जीवन की मरु-मरीचिका, 

कायरता के अलस विषाद! 

अरे! पुरातन अमृत! अगतिमय 

मोहमुग्ध जर्जर अवसाद! 

मौन! नाश! विध्वंस! अँधेरा! 

शून्य बना जो प्रकट अभाव, 

वही सत्य है, अरी अमरते! 

तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव। 

मृत्यु, अरी चिर-निद्रे! तेरा, 

अंक हिमानी-सा शीतल। 

तू अनंत में लहर बनाती, 

काल-जलधि की-सी हलचल। 

महा नृत्य का विषम सम, अरी, 

अखिल स्पंदनों की तू माप। 

तेरी ही विभूति बनती है, 

सृष्टि सदा होकर अभिशाप। 
अंधकार के अट्टहास-सी, 

मुखरित सतत् चिरंतन सत्य। 

छिपी सृष्टि के कण-कण में तू, 

यह सुंदर रहस्य है नित्य। 

जीवन तेरा क्षुद्र अंश है, 

व्यक्त नील घन-माला में। 

सौदामिनी-संधि-सा सुंदर, 

क्षण भर रहा उजाला में। 

पवन पी रहा था शब्दों को, 

निर्जनता की उखड़ी साँस। 

टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि, 

बनी हिम-शिलाओं के पास। 

धू-धू करता नाच रहा था, 

अनस्तित्व का तांडव नृत्य। 

आकर्षण-विहीन विद्युत्कण, 

बने भारवाही थे भृत्य। 

मृत्यु सदृश शीतल निराश ही, 

आलिंगन पाती थी दृष्टि। 

परम व्योम से भौतिक कण-सी, 

घने कुहासों की थी वृष्टि। 

वाष्प बना उड़ता जाता था, 

या वह भीषण जल-संघात। 

सौर चक्र में आवर्तन था, 

प्रलय निशा का होता प्रात!


यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य