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शनिवार, 26 मई 2018

धूमिल दर्पण किंचित धूमिल दर्पण में सिसक-सिसक कर रोता हुआ एक सुंदर बालक प्रतिविम्बित हुआ | बालक की आयु लगभग बारह वर्ष की थी | उसी के निकट पाण्डुर वस्त्र धारिणी किसी ममतामयी माँ ने बैठ कर पूछा, “बेटे: क्यों रोते हो ?,, कोई उत्तर नहीं | माँ ने पुन: पूछा, बेटे; क्यों रोते हो ?,, बालक रोता ही रहा | माँ ने पुन: प्रश्न किया, “बोलो बेटे ! क्यों रोते हो ? क्या बात है ? बताते क्यों नहीं ?,, इस बार बालक ने किसी तरह बगल में शिथिल पड़े हुए पंचवर्षीय शिशु की ओर देख कर कहा, “यह भूखा है|,, माँ ने उस शिशु की ओर देख कर कहा, “अभी दूध माँगती हूँ |,, एक दिन मधुसूदन ने अपनी पत्नी से परिहास करते हुए कहा, “सुनीते ! यदि मैं तुझे तलाक दे दूँ तो .............. || सुनीता ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, मैं सरकार से आप के घिनौने कर्म का निवेदन करूँ और विजय पताका फहराती घर लौट आऊँ |,, “बड़ी भोली हो सुनीते ! सरकार ने तो पहले ही इसे मान्यता दे दी है | तलाक देना ही मेरी विजय है | इसमें तुम्हारी विजय का तो प्रश्न ही नही उठता | अब बताओ |,, “जिस समय आप मुझे घर से निकालना चाहेंगे, मै अपना और आपका पैर एक साथ बाँध कर बैठ जाऊँगी | अब बोलिये |,, स्नेहिल मुस्कान के साथ मधुसूदन ने कहा, “मेरी रानी तू जीती, मैं हारा |’’ हास – परिहास के बाद मधुसूदन ने कहा, “ आठ दिनों का अवकाश समाप्त हो गया | कला ही प्रात: मुक्ते जाना है | समय कितनी द्रुट गति से भागता है ? जाने की इच्छा नहीं होती किन्तु जाना ही है | इसी समय मनबोध आ जाता है | वह हाँक रहा था और उसकी आँखों से आँसू गिर रहे थे | आते ही वह मधुसूदन के पैरों पर गिर पड़ा | उसे उठाते हुए मधुसूदन ने कारण पूछा | “भैया...............|” “बोलो क्या बात है ?” “भैया: बहुत बड़ी आफत आ गयी है क्या बता .....|’’ “बताओं, मैं तुम्हें वचन देता हूँ, मुझसे जो बन पड़ेगा वह अवश्य करूंगा | किन्तु एक बात है मनबोध सही बातें बताना, यदि झूठ बोलो तो तुम जानो तुम्हारा काम जाने |” मनबोध ने कहा, “भैया ! बहुत बड़ी आशा ले कर आया हूँ, भला आप से झूठ बोलूँगा | बात ऐसी है भैया ! कि जगेस्सर की लड़की रजनी मेरे दरवाजे पर बैठी है | उसे सात माह का हमल है | वह चिल्ला – चिल्ला कर कह रही है कि गुलाल ने मेरी इज्जत लूटी है | अब मैं कही की न रही | कहाँ जाऊँ ? उसकी बिरादरी के लोग और मेरी बिरादरी वाले इकट्ठा हो कर गालियाँ दे रहे हैं और मारने की धमकी दे रहें हैं | घर में किसी तरह बाहर से ताला लगा कर आप की शरण में आया हूँ | अब आप का ही भरोसा है भैया ! किसी तरह मामला सुलझाइये |” मधुसूदन ने पूछा, यह गुलाल कौन है ? “गुलाल मेरी बड़ा लड़का है सरकार :’’ अच्छा, चलो मैं थोड़ी देर में आया |” “नहीं भैया ! अब अकेले मेरा वहाँ जाना खतरे से खाली नहीं हैं | भीड़ ने उग्र रूप धारण कर लिया है | कोई न कोई मुझे अवश्य मार देगा | इस लिए आप के साथ ही जाना ठीक हो गा |” “अच्छा, दस मिनट रूको मैं तैयार हो लेता हूँ |” दस – पन्द्रह मिनट के बाद मधुसूदन मनबोध के साथ ले कर प्रस्थान करते हैं | रास्ते में मधुसूदन ने मनबोध से पूछा, “एक बात बताओ मनबोध ! गुलाल का व्याह हुआ है या नहीं ?” “भैया ! विवाह तो हुआ था, लेकिन वह लड़की बद्सूरत थी, इस लिए मेरे सपूत ने उसे छोड़ दिया | इस वर्ष दूसरा विवाह करने वाला था, तब तक यह आफत आ गयी | अब बिरादरी ताना देगी | कौन विवाह करने को तैयार होगा ?” मधुसूदन ने कहा “ एक बात बताओ, यदि रजनी से ही गुलाल विवाह कर ले तो क्या हर्ज है ? वह खूबसूरत होगी क्यों ?” “बहुत अच्छी तो नहीं है, फिर भी उसकी पहली से तो अच्छी ही है | उसका विवाह तो हो चुका है | सब से बड़ी समस्या तो यह है कि वह धोबी की लड़की है | उसे घर में कैसे रखूँगा ? और उसका छुआ पानी कैसे पिया जाएगा | भैया मान लीजिए सारे सामाजिक बन्धनों को तोड़ कर ऐसा कर भी लेता हूँ तो आने वाला समय बहुत बुरा होगा | रजनी से जो सन्तानें होंगी उनका विवाह कैसे होगा ? किस जाति का व्यक्ति विवाह के लिए तैयार होगा ? वैसे आप जो कुछ कहेंगे मैं वैसा करने को तैयार हूँ |” अब मनबोध का घर लगभग सौ मीटर दूर रह गया था | वहाँ से मनबोध के घर पर इकट्ठी भीड़ के शब्द सुनाई पड़ने लगें थे | कोई कहता, “किवाड़ चीड़ कर गुललवा साले को बाहर खींच लाओ और पंचलती बोल दो |” कोई कहता, “ मनबोधवा ससुरा की चालाकी देखो, ताला भर कर फरार हो गया है | किला में दामाद को बंद कर के भगे हैं बच्चू | आग लगा दीजिए उसी में भस्म हो जाय साला किसी की इज्जत मिट्टी में मिलाना खिलवाड़ समझ लिया है |” मधुसूदन ने भीड़ के निकट पहुँच कर कहा, “भाई ! आप लोगों ने क्यों उपद्रव खड़ा कर दिया है ? आप लोग एक जगह बैठ कर इस विषय में गंभीरता से विचार कर के कोई निष्कर्ष निकालें | इस ढंग से उत्तेजित हो कर किसी समस्या का हल नहीं निकाला जाता | आप सब बैठ जायँ |” मधुसूदन के स्वर्गीय पिता पण्डित पुरूषोत्तम पाण्डेय ग्राम प्रधान थे, इस लिए लोगों ने मधुसूदन का सम्मान किया और सभी एक जगह बैठ गये | सब को हाथ के इशारे से शांत करते हुए मधुसूदन ने कहना आरम्भ किया, “भाइयो ! इस भीड़ में तीन ढंग के लोग हैं | एक तो वे जो मनबोध की बिरादरी से सम्बन्ध रखते हैं दूसरे वे जो जगेस्सर की बिरादरी के हैं और तीसरे वे जो अन्य जाति के हैं | इस लिए आप लोग अलग – अलग तीन पंक्तियों वे बैठें तो अधिक अच्छा हो |” सब ने मधुसूदन की यह बात भी मान ली | सबके अलग – अलग बैठ जाने के बाद मधुसूदन ने कहना आरम्भ किया, “सब से पहले जगेस्सर की पंक्ति का वह व्यक्ति जिसको सब लोग अपना अगुआ मानते हों, खड़ा हो और अपनी बात कहे |” रामदीन खड़ा हुआ | भैया ! हम गरीब मनई | हमरे घरे क बिटिया – बहिनि घरे से घास छोलई अउर भलमनई के खेते में काम करइ जाबइ करs थी | अकेलि पाइ केरु ओनकहि जबरजस्ती बेअज्जति कइ देइ त बेचारिन का करइँ | हमरे जगेस्सर थी बिटिया के साथे मनबोध क बेटवा गुलाल गलत काम कइ बैठा | अब ओकरे हमल रहिगा | त बतावs सरकार ! हम ओका का करी | अब त मनबोध ओके आपनि पतोहु बनवइँ, नाही त एकर फल ओनका भोगइ के परे |” राम दीन की बातें सुन लेते के बाद मधुसूदन ने मनबोध थी जाति के अगुआ को अपनी बातें कहने के लिए कहा | सुरजीत खड़ा हुआ | उसने कहा, साहब ! हम तो समझते हैं, गुलाल को बुला कर इस विषय में उससे पूछा जाय | उसका भी विचार समझ लिया जाय वह क्या चाहता है | यद्यपि उसने गलत काम तो किया ही है; फिर भी मैं चाहता हूँ कि उसे अन्य कोई भी दण्ड न दिया जाय बल्कि वह रजनी को साथ लेकर यहाँ से कहीं अन्यत्र चला जाय और वहीं कमाये खाये | यहाँ पुर- पवस्त में अपना कलकी मुंह दिखाने कभी भी न आये|” फिर मधुसूदन ने अन्य जाति के लोगों की राय जानने के लिए तीसरी पंक्ति के अगुआ को खड़ा होने के लिए कहा | अलख निरंजन शास्त्री खड़े हुए और उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा, “देखिये भाई ! इज्जत सब की समान है | कोई किसी जाति का हो, उसकी अपनी इज्जत है | जो कार्य गुलाल ने कर डाला है | वह क्षमा करने योग्य नहीं है | मैं सोचता हूँ मनबोध दो हजार रुपये जगेस्सर को दण्ड के रूप में दें और जगेस्सर रजनी का विवाह अपनी ही बिरादरी में कहीं कर दें | अपनी बिरादरी वालों को वे भी दण्ड स्वरूप कुछ प्रदान करें | यदि आप लोग मेरे विचारों से सहमत हों तो यही व्यवस्था कि जाय |” शास्त्री जी की बातों का अधिकांश लोगो ने तालियाँ बजा कर समर्थन किया | मधुसूदन -– यदि गुलाल रजनी को पत्नी-रूप में ग्रहण कर ले तो .... | अलख – यदि पत्नी –रूप में ग्रहण करे गा तो बिरादरी वाले मनबोध की पूजा करेंगे ? अरे पानी तक नहीं पियें गे, मनबोध दो कौड़ी के हो जायँ गे | मधुसूदन ने कहा, “ शास्त्री जी ! आप युग के प्रवाह की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं | जमाना कितनी तेज़ी से बदल रहा है | किसी समय जो उचित समझा जा रहा था, आज उसी को लोग अनुचित बता रहे हैं | आज हम जिसे उचित की संज्ञा दे रहे हैं, बहुत कुछ सम्भव है कालांतर में वही अनुचित कहा जानें लगे | आज युग की पुकार है , सभी मानव मानव हैं | यह ठीक भी है क्योंकि हर व्यक्ति में गुण और दोष दोनों हैं | कौन ऐसा है ? जिसमें कोई न कोई दोष नहो | समाज की निगाह बचा कर लोग अनेक दुष्कर्म करते हैं | महाभारत काल में युधिष्ठिर से यक्ष के प्रश्न करने पर कि “सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? (किमाश्चर्यय?) युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था, “प्रति दिन जीव यमराज के घर चलें जा रहे हैं, फिर भी बचे हुए लोग स्थिर (अमर) रहने की इच्छा करते है | इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है ? (अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यम मंदिर, शेषा स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमंतोपरम् ? ) किन्तु मैं कहता हूँ , “ऐसे लोग जो समाज से छिपा अनेक बार दुष्कर्म करना चाहते हैं और करते भी हैं, वही लोग दूसरे के तनिक से दोष को देख कर नीच, कुल कलंक, व्यमिचारी, भ्रष्टाचारी आदि कह कर स्वयं परम पवित्र बनना चाहते हैं | इस लिए कि हैं, उसका कोई अपराध सामने आ गया है | इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है ? यही गुलाल जब तक समाज की निगाहों से बचा हुआ था, तब तक परम साधु था और किसी की थोड़ी भी बुराई प्रकट होने पर न जाने क्या-क्या कहता रहा हो गा |” बीच में ही शास्त्री जी बोल पड़े, “पण्डित जी ! इसका मतलब कि गुलाल ने जो दुष्कर्म किया है, वही यहाँ उपस्थित सब लोग कर के आये हैं ? केवल समाज के द्वारा पकड़े नहीं गये हैं | क्यों ?” “नहीं, भाई ! मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि वही काम सब करके आये हैं, मेरे कहने का अभिप्राय यह कि कुछ एक को छोड़ कर किसी न किसी बुराई के शिकार सभी हैं | मैं तो यही कहूँ गा कि मनबोध रजनी को पुत्र वधू के रूप में ग्रहण करें और सब लोग विवाहोत्सव में खुशी मनायें | सब लोग हार्दिक समर्थन दे कर वर – वधू को आशीर्वाद दें | इस समय अन्तर जातीय विवाह होने भी लगे हैं | प्राचीन काल में जिस समय ऋषियों ने मनुष्यों का चार वर्णों में वर्गीकरण किया था, उस समय भी अन्तरजातीय विवाह को मान्यता प्राप्त थी | इस प्रकार हम अपनी प्राचीन परम्परा की पुनरावृत्ति ही कर रहे हैं | यदि हम अपनी रूढ़ परम्पराओं का मोह नहीं व्यागते तो निश्चित ही विकास की दौड़ में विश्व के अन्य देशों से बहुत ही पीछे छूट जायें गे और बीच की उस दूरी को सदियों तक पूरी नहीं कर पायेँ गे | इस समय हमें जाति-उपजाति की विविधता का मोह त्याग कर सम्पूर्ण मानव समाज को राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय दो जातियों में बाँटना हो गा |” इसी बीच किसी ने कहा, “अब तक तो कुछ चिंतकों ने मानव समाज को गरीब और अमीर इन दो वर्गो में विभक्त किया है | आप इससे भी आगे निकल कर बातें कर रहे हैं | गरीब – अमीर वाली बात तो समझ में आती है किन्तु राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय वाली बात समझ में नहीं आती |” मधुसूदन – जो बात आप की समझ में आती है, उसमें ईर्ष्या, घृणा, संघर्ष और रक्तपात की संभावनाएँ बनी रहती है किन्तु मै जो कहता हूँ, उसमें विकास और उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त है | फिर किसी ने कहा, “यदि आप राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय को स्पष्ट कर दें तो अधिक अच्छा हो |” मधुसूदन – आप से कोई पूछता है, आप की क्या जाति है ? तो आपका उत्तर होगा, ‘भारतीय |, इसी प्रकार चीन के किसी व्यक्ति से पूछा जाय कि आप की क्या जाति है ? तो उसका उत्तर हो गा ‘चीनी |, इस प्रकार जाति बताने में न आप में हीन भाव हो गा और न ही चीनी भाई में | बल्कि आप दोनों ही को अपनी जाति बताने में गर्व का अनुभव हो गा | रही बात अमीर और गरीब की | अमीर जाति बताने पर | गरीब में ईर्ष्या का भाव जगे गा और गरीब जाति बताने पर अमीर में अंहकार एवं घृणा का भाव उभरे गा | इस लिए आप लोगों से मेरा अनुरोध है कि जाति-उपजाति के तुच्छ जाल से मुक्त हो कर गुलाल और रजनी के विवाह की तैयार करें | इसी में उन दोनों और समाज का हित है | मधुसूदन की बातों का प्राय: लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ समर्थन किया | मधुसूदन ने अपनी आंशिक सफलता के पश्चात् कहा, “यह कार्य बहुत शीघ्र हो जाना चाहिए |” सभा विसर्जित होने पर एक ओर से आवाज आयी, “शीघ्र होगा तो पता चले गा | यह कार्य भाषण नहीं है कि भावा वेश में तालियाँ बजें गी | यह कार्य होने का अर्थ होगा “बादलों से तेल की वर्षा होना, आग से प्यास बुझाना, बबूल से आम के फल तोड़ना और सागर के जल से मलाई तैयार करना | बच्चू ! देखें गे कि बैल के साथ कुतिया का व्याह कैसे होता है ? मनबोध का यहाँ रहना दूभर न कर दिया तो अहीर की औलाद नहीं | ये बिरादरी के सामने कौन सा मुह दिखायें गे | गाँव छोड़ कर बच्चू को भाग जाना पड़े गा |” महेश की बातें सुन कर मखोधर ने कहा, “महेश ! तुम चुप रहो यह बहुमत का जमाना है | सन का एक रेसा रस्सी नहीं बन सकता | जब नब्बे प्रतिशत लोग समर्थन में हैं तो चार छ: लोग इसका विरोध कर के क्या कर लें गे ? युग के अनुसार ही सामाजिक नियम बनते हैं | एक समय था स्त्रियाँ अपने पति की मृत्यु के पश्चात् स्वयं चिन्ता में कूद कर सती हो जाया करती थी | कालान्तर में विधवाओं की जलने की इच्छा न रहते हुए भी उसी नियम का पालन करने के लिए उन्हे बलपूर्वक चिंता में फेंक दिया जाने लगा किन्तु लोगों ने इसका विरोध किया और इस प्रथा का उन्मूलन कर के ही छोड़ा | इसके बाद तो तुमने सुना ही होगा कि विधवाओं को आजीवन कितनी कठिन तपस्या करनी पड़ती थी, साथ ही यातनाओं के पहाड़ के नीचे दब कर जीवन निर्वाह करना पड़ता था | आज इस कठोर विपत्ति से उनकी मुक्ति का प्रयास किया जा रहा है | आज विधवा विवाह के समाचार से लोग प्रसन्न ही होते हैं | इसका विरोध करने वाला बिरला ही होगा | इस लिए मैं कहता हूँ कि व्यर्थ परेशान होने की आवश्यकता नहीं है |शांति पूर्वक जो कुछ हो रहा है, होने दो | समाज के सामने विवाह होना अच्छा है अपेक्षा इसके कि छिप कर व्याभिचार हो |” “बात आप ठीक कह रहे हैं किन्तु अन्य जाति वाले व्यंग्य बोलें गे और हमारी समूची जाति को कलंक लगायें गे, कैसे सहन हो गा ?” मखोधर मे पुन: कहा, “महीने, दो महीने या अधिक से अधिक एक वर्ष तक लोगों का ध्यान इस ओर रहें गा क्यों कि झूठा प्रचार अधिक समय तक चलता है, सच्ची घटनाएँ लोगों को शीघ्र भूल जाती हैं | तुम जानते हो ? मनमोहन का परिवार कैसा है ?” “नहीं दादा मैं तो नहीं जानता |” बम भोला को जानते हो ?” “नहीं, यह भी नहीं जानता | इतना ही जानता हूँ कि वे उच्च कुल के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं |” “ वे भूमिहार से सुकून बने हुए हैं | आज केवल बुड्ढे उनकी कहानी को बता सकते हैं | बुड्ढो के परलोक वासी हो जाने के बाद सुकून जी पर की काली छाया समाप्त हो जाये गी | इसी लिए कहता हूँ जनता भेंड है | सही को गलत और गलत को सही कर के छोड़ती हैं | किसी ने कुछ कह दिया, बस, आँख मूँद कर बिना तथ्य का पता लगाये लोग वही मान बैठते हैं | अब सुनो, मेरा बचपन था, मनमोहन के पितामह रन्तिदेव सिंह बहुत बढ़े – चढ़े प्रतिष्ठित् व्यक्ति थे | अपने सामने किसी को कुछ गिनते नही थे | बड़ी – बड़ी हस्तियाँ उनके सामने नत मस्तक थीं | लक्ष्मी और सरस्वती साथ – साथ उनकी सेवा में उपस्थित रहती थीं | गाँव तथा पड़ोसी गाँव के लोग उनसे परेशान थे | जब किसी भी उपाय से रन्तिदेव का कोई कुछ भी बिगाड़ न सका तो किसी बुद्धिमान ने एक सरल उपाय खोज निकाला | वह यह कि हम लोग जहाँ तक पहुंचें रन्तिदेवी को संकर वर्णी घोषित करें जिससे इसका अपमान हो और धीरे – धीरे इसका वंश समाप्त हो जाय | वह झूठा प्रचार था किन्तु आँधी की भाँति एक कोने से दूसरे कोने तक जा पहुँचा और आज तक बेचारे का परिवार कलंकी बना हुआ है | इसके विपरीत इस घटना के दो – चार वर्ष वाद मनमोहन के पितामह श्यामधर ने गाँव की ही विधवा धीवर कन्या को पली रूप में ग्रहण कर लिया | दो – चार वर्ष तक तो बड़ा हो हल्ला रहा | यहाँ तक कि श्यामधर कहीं घूमने के लिए भी घर से बाहर नहीं निकलते थे | फिर सब शान्त | इसके बाद उन्होंने एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया और बड़े – बड़े लोगों को आमन्त्रित किया | तब से उनकी गणना सम्भ्रान्तों में होने लगी | आज उनका संकर वर्णी परिवार बहुत शुद्ध माना जाता हैं |” “अरे दादा ! मैं इसे नहीं जानता था इसे तो मैं आज पहली बार सुन रहा हूँ |” “अब तो बात समझ में आ गयी हो गी बेटा ! कुछ समझ के बाद गुलाल का परिवार भी शुद्ध समझा जाने लगे गा | जा कर ज़ोरदार शब्दों में गुलाल और रजनी के विवाह का समर्थन करो और जल्द से जल्द विवाह सम्पन्न कराओ |” मखोधर की बातें महेश को तर्क संगत लगी | उसने अपने अन्य समर्थकों को समझा – बुझा कर गुलाल और रजनी के विवाह को मान्यता दी | दूसरे दिन विवाह का मुहूर्त निश्चित करने के लिए वर और कन्या – पक्ष के लोगों की एक बैठक हुई | पण्डित मधुसूदन आज ड्यूटी पर जाने वाले थे किन्तु मनबोध ने अनुनय विनय कर के उन्हें रोक लिया और अलख निरंजन मनबोध के पुरोहित थे इस लिए दोनों को ससम्मान बैठक में बुलाया गया | गोष्ठी की कार्यवाही आरम्भ हुई | मधुसूदन ने अलख निरंजन से पंचांग देख कर शुभ मुहूर्त बताने को कहा | अलख निरंजन ने झल्ला कर कहा, “देखिये मधुसूदन जी ! मैं इस दूषित कर्म के पक्ष में नहीं हूँ और नही मैं अपने पत्रे एवं वाणी को दूषित करूँ गा |” मधुसूदन – शास्त्री जी ! मेरे विवाह से तो आप अच्छा नहीं कर रहे हैं | यहाँ सवर्ण और असवर्ण लगभग बीस लोग इकट्ठे हैं, कोई भी इस विवाह का विरोध नहीं कर रहा है | केवल आप ही इसका विरोध कर रहे हैं | आप जानते हैं, बहुमत के जमाने में एक व्यक्ति का कोई भी महत्व नहीं है | इस लिए आप अपनी इच्छा के विरूद्ध भी लोक भावनाओं का आदर करें | अलख निरंजन ----- देखिये, भाई ! एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति, न च तारा गणोsपि च |, मैं इसमें विश्वास करता हूँ | इस विवाह में मैं कदापि सहयोग नहीं कर सकता | मधुसूदन --- शास्त्री जी ! आप जन भावनाओं को समझें | पाप वही है जो समाज की इच्छा के प्रतिकूल हो और छिपा कर किया जाता हो | आप समाज के समझ मनबोध और जगेस्सर के हित वाला कार्य रहे हैं | अत: आप पाप नहीं पुण्य कर रहे हैं | अलख निरंजन – कुछ भी हो, मैं ऐसे धर्म विरोधी कार्य नहीं कर सकता | मधुसूदन – क्या आपने प्रतिज्ञा कर ली है ? अलख निरंजन – जी, हाँ मैंने प्रतिज्ञा ही नहीं, दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली है | मधुसूदन – अच्छा, ठीक है | कला तो मैं ड्यूटी पर जाऊँ गा | शनिवार को आऊँ गा | विवाह का मुहूर्त मैं निश्चित करता हूँ | रविवार सूर्य का दिन है | विवाह मैं कराऊँ गा, नयी रीति से | उसमें वैदिक मंत्रों की आवश्यकता नहीं हो गा | अब इस विषय में सोचने की आवश्यता नहीं है | मुझे आज्ञा दीजिए | रविवार का दिन चमकता हुआ सूर्य | जगेस्सर की बेटी रजनी के विवाह की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं | अब प्रतीक्षा थी बारात आने की | सूर्य अस्ताचल की ओर में जाने ही वाला था कि बाजे कि आवाज सुनायी पड़ी | गाँव के लड़के दौड़ पड़े | धीरे – धीरे बारात जगेस्सर के दरवाजे पर पहुंची | द्वार पूजा के समाप्त होते ही रजनी के ससुराल वालों का एक दल आ धमका | कोलाहल से सारा गाँव भयभीत हो गया | ललकर भरे शब्दों का उच्चरण होने लगा | घेर लो सालों को जाने न पावें | एक को भी जिन्दा मत छोड़ो | इन उत्तेजना भरे शब्दों को सुन कर जगेस्सर के लोग तो घरों में घुस गये | बचे बाराती | वे लोग भी कमर कस कर ललकार ने लगे, “आ जाओ हरामियो ! देख लेंगे एक को भी जीवित नहीं छोड़े गे |” दोनों ओर से वार पर वार होने लगे | दोनों ही पक्ष वालों में से कुछ लोग घायल हुए | किन्तु मधुसूदन ने धैर्य और बुद्धि से काम लिया | उन्हो ने ध्वनि विस्तार का सहारा लिया और दोनो ही दल वालों को शान्त हो जाने के लिए निवेदन किया | धीरे – धीरे लोग शान्त हुए | अब मधुसूदन ने प्रश्न किया, “ आप लोग क्यों इतने उत्तेजित हो रहे हैं ? क्या हम लोग आपस में बातचीत कर के समस्या का हल नही ढूढ़ सकते ? आप अपनी समस्या को हमारे सामने रखिये, हम उस पर विचार करेंगे | आप क्या हल करेंगे | आप को अगर समस्या को सुलझाना होता तो कोई मधुसूदन है – सुनने में आया कि उसी ने यह अनर्थ किया है – उसे आप रोक नहीं सकते थे ? भला, बताइये ऐसा कभी हुआ है कि एक जाति का ब्याह दूसरी जाति से हो | हम उस कलमुँही को तो अपने घर तो नहीं ले जा सकते लेकिन दूसरी जाति में नहीं जाने देंगे | दूसरी बात यह कि रजनी के ससुर नथई ने जो गहने दिये हैं, जगेस्सर ने उसे लौटाया ? यदि गहने लौटा दिये होता तो उस वेश्या का ब्याह सुअर से कर देता, हमारा क्या नुकसान था | देखो भाई मधुसूदन ने जो कुछ भी किया हैं, वह तुम्हारे और जगेस्सर के हित में किया है क्योंकि यदि उस लड़की का विवाह और किसी से होता तो शायद उस लड़के का जीवन सुखी न हो पाता और न इस लड़की का ही | रही बात गहने कि उसके विषय में जगेस्सर ने बारात आने के पहले ही मुक्त से पूछा था कि नथई भैया की रकम कैसे उनके सुपुर्द की जाय ? मैंने उनसे कहा था, “विवाह के बाद इसकी व्यवस्था कर दी जाये गी | हमे यह मालूम हो गया था कि आप लोग रजनी को अपने यहाँ अब नही ले जायें गे | इसी लिए ऐसी व्यवस्था की गयी | आप की रकम तथा कुछ और आप के पास पहुँच जाय गा | अब आप प्रसन्न मन अपने घर जायँ | उन लोगों ने आपस में विचार -विमर्श करने के लिए समय माँगा | मधुसूदन ने प्रसन्नता पूर्वक दस मिनट में विचार करने के लिए कहा | जगेस्सर ने नथई के गहने कपड़े तथा कुछ अन्य सामग्री ला कर उसके सुपुर्द किये | नथई अपने सहयोगियों के साथ वहाँ से विदा हुआ | विवाह की व्यवस्था की गयी | मण्डप में कुछ देवताओं के चित्र रखे गये और एक कलश में जल, थाली में अगरबत्ती, फूल, तुलसी दल, दूर्वा दल, पान, मधु, दही, हल्दी, गुड़, एवं सिंदूर आदि | मधुसूदन ने अपना कार्य आरम्भ किया | देवताओं की पूजा के पश्चात् रजनी के हाथ को गुलाल के हाथ में पकड़ाया | और कहा, "गुलाल तुम कहो - मैं अग्नि तथा अन्य देवताओं को साक्षी दे कर कहता हूँ कि आजीवन रजनी के सुख - दु:ख का भागीदार रहूँ गा |" गुलाल ने दुहराया | फिर रजनी से कहा -- तुम भी कहो, " मैं जीवन भर अपने परिवार के सुख सुविधा का ध्यान रखूँ गी | रजनी ने भी दुहराया | अब मधुसूदन ने रजनी के हाथ में एक माला दी और गुलाल के गले में डालने के लिए कहा | रजनी ने गुलाल को माला पहनायी | मण्डप में बैठे लोगों ने हर्ष ध्वनि के साथ तालियाँ बजायीं | वर - वधू की जय के साथ विवाह सम्पन्न हुआ | एक दिन गुलाल ने रजनी से एक साथ कई प्रश्न किये, " प्रिये आज मैं तुमसे यह जानना चाहता हूँ कि तुम्हें अपने प्रथम पति से इतनी घृणा क्यों हुई ? और मेरे पीछे क्यों पड़ी ? और मेरे घर वाले तुम्हें न स्वीकार करते तो तुम क्या करती ?" जिस दिन मैं वहाँ गयी, वे घर में आ कर कहने लगें, हट जा हरामजादी ! तुमको किसने बुलाया मेरे घर में | इतना सुनते ही मेरा कलेजा काँप उठा | मैं थर – थर काँपने लगी | फिर मेरी ओर बढ़ कर मेरी पीठ में चार लात मारा | फिर मैंने धीरे से घर के बाहर जा कर दीवाल के सहारे बैठ कर रात बितायी | दूसरे दिन आ कर "तुम मेरी माता हो, मैं प्रति दिन तुम्हारी पूजा करूँ गा | तुम खाट पर सोओ मै भूमि पर रहूँ गा | यह रात इस तरह बीती | तीसरी रात आ कर कहा, "क्यों डाइन ! तुम किसके कहने पर मेरे घर में आ कर मुझे खा जाना चाहती है | निकलो मेरे घर से, नहीं तो घर में आग लगा दूँ गा | फिर मेरे बालों को पकड़ कर घसीटते हुए बाहर निकाल दिये | तीसरी रात भी किसी प्रकार रो - धो कर बीती | चौथे दिन मेरे पिता चौथी ले कर आ गये | हम लोगों के यहाँ चौथी पर ही विदाई की रीति है | विदाई हुई और पागल से जान बची |" जिस समय पानी में डूब रही थी, आप ही ने मेरे प्राण बचाये थे | तभी से मेरे मन में हुआ कि इन्हीं के साथ मेरा ब्याह होता तो मै सुखी जीवन जीती | तभी से आप के पीछे पड़ी | यदि आप के घर वाले मुझे न स्वीकार करते तो मै आत्म हत्या कर लेती |" गुलाल -- हमारे घर के लोग तुम्हारी सेवा तथा व्यवहार से बहुत खुश हैं | तुम हमेशा इसी प्रकार सब को खुश रखने का प्रयास करना | रजनी --- मैं तो यही कोशिश करती हूँ | जैसा भगवान की इच्छा हो | दो--- संध्या का समय था, अलख निरंजन अपने दरवाजे पर बैठ कर कुछ सोच रहे थे | इसी समय दूर से आता, हुआ राघव दिखायी दिया | अलख निरंजन ने सोचा चलो कुछ समय मन बहले गा | निकट आ कर राघव ने शास्त्री जी से प्रणाम किया | आशीर्वाद देते हुए शास्त्री जी ने बड़े प्रेम से कहा, " आइए रघु नन्दन जी ! राघव आ कर अलख निरंजन के पास बैठ गया | अलख निरंजन – कहिये राघव जी ! हाल - चाल ठीक तो है ? राघव-- सब समाचार तो ठीक हैं लेकिन........... | "लेकिन क्या ?" " क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाता ?" "फिर भी ?" "क्या कहूँ शास्त्री जी ! आज - कल राधा के साथ आप के बलात्कार की चर्चा कुछ लोगों द्वारा सुनी जा रही है | कलमुंहे अनाप-सनाप बक रहे हैं | दो - चार व्यक्तियों के साथ तो मुझसे मार - पीट की नौबत आ गयी | किसी प्रकार अनर्थ टला | जगरूप कह रहा था कि गुलाल और रजनी के विवाह के समय बच्चू की पोथी और वाणी अपवित्र हो रही थी | आज ढोंगी, भ्रष्टाचारी की कलई खुल गयी | अब देखते हैं, समाज के सामने कैसे मुँह दिखाता है |" अलख निरंजन -- यही तो बात है राघव ! यदि मैंने गुलाल और रजनी के विवाह का समर्थन कर दिया होता तो मुझ निष्कलंक के ऊपर ऐसा कलंक न लगाया जाता | यह धर्म विरोधियों का षडयत्र है | खैर, ठीक है, कोई किसी के बदनाम करने से बदनाम नहीं होता | सत्य की विजय हमेशा हुई है और होती रहेगी | कोई पागल कह दे कि गुलाब के फल से दुर्गन्ध आ रही है तो क्या उसकी सुगंध समाप्त हो जाये गी ? राघव ! वे लोग लाख उपाय करे किन्तु मैं उनके गलत कार्यों का समर्थन कदापि नहीं कर सकता | राघव -- यही तो मैं भी सोचता हूँ शास्त्री जी ! पागलों के बकने से किसी का बाल बाँका नहीं हो सकता | हाथी अपनी राह चलता जाता है, कुत्ते भूँकते रहते हैं | अलख -- नहीं राघव ! ऐसा न कहो | कहना चाहिए | सोने को पीतल कहने से सोना पीतल नहीं हो जाता | “हाँ, हाँ यही बात पण्डित जी !” कुछ समय तक बात – चीत करने के बाद राघव अपने घर गया | शास्त्री जी जब राघव को विदा करके लौटे तो चारपाई पर ऐसे लुढ़के जैसे विजली का तार छू गया हो | विचारों में मग्न मानो किसी दूसरे लोक में विचर रहे हों | जब ध्यान भंग हुआ तो काफी रात बीत चुकी थी | भीतर से भोजन के लिए बुलावा आया | शास्त्री जी झटके के साथ उठे, मानो स्वप्न लोक से लौटे हों | नित्य क्रिया से निवृत्त होने के बाद पेट मे पीड़ा होने का बहाना कर के थोड़ा भोजन कर के उठ गये | जिस समय सभी सुख की नीद सो रहे थे, अलख करवटें बदल – बदल कर रात बिता रहे थे | आधी रात होते – होते राधा आ पहुंची | राधा को देख कर शास्त्री उठ कर बैठ गये और कहने लगे, “क्यो राधे | इतनी रात बीते आने की क्या आवश्यकता थी ? राधा – अब बताइये क्या किया जाय ? जिस समय आप ने प्रणय निवेदन किया था, मैं बार – बार आप से विनती करती रही कि किसी अबला की इज्जत लेना आप जैसे बुद्धिमानों को शोभा नहीं देता किन्तु आपने मुझे अकेली पा कर बल का प्रयोग करना चाहा | इस पर भी मैंने यही कहा था कि आप तो पुरूष हैं आप की उतनी हानि नहीं होगी जितनी हम अबलाओं की | मामला सामने आ गया है, आप तो अपना काला मुँह घर के भीत छिपा लें गे किन्तु मैं तो घर में भी नहीं रहने पाऊँ गी | अब क्या किया जाय ? मुझे चार माह का गर्भ है | अलख निरंजन – क्या कहा ? चार माह का गर्भ ? “हाँ चार माह का गर्भ है और अधिक से अधिक मैं आठ दिन और उस घर में रहने पाऊँगी क्यों कि आठ दिन के भीतर ही वे कलकत्ता से आ जायें गे | मेरे विषय में जो कुछ सुनें गे उसे सहन नहीं कर पायेंगे, क्रोध में आ कर मुझे घर से अवश्य निकाल दें गे | तब मैं कहाँ जाऊँ गी |” “अच्छा राधे ! आज तुम आओ | कल या परसों उपाय बताऊँगा |” दो दिन के बाद लगभग दो बजे राधा पुन: आयी | आज भी वह अपनी करनी पर पश्चाताप कर रहा था | जिससे उसे नीद नही आ रही थी | राधा को देखने ही मानो उसके ऊपर पहाड़ टूट पड़ा हो | धीरे से उसने राधा से कहा, क्यों राधे | तुम जान नहीं छोड़ो गी? तुमने तो मुझे कहीं का नहीं किया | स्त्रियाँ जिसे चाहें नरक में झोंक दें | हे प्रभों ! अब क्या करूँ ? राधा ने तड़क कर कहा, “ढोंगी कहीं का | अपना अपराध दूसरे पर थोप रहा है, निर्लज्ज नीच | उस समय मेरे बार बार प्रार्थना करने तथा पैर पर गिर कर रोने पर भी एक न सुना | मैंने लज्जा वश इस घटना को किसी के कान तक नहीं जाने दिया | जब तुम बलात्कार पर उतर आये उस समय मैं असहाय हो गयी | गाँव से दूर घर होने के कारण मेरा चिल्लाना भी कोई नहीं सुन सका | घर पर कोई नहीं था | ससुर जी घर के लड़कों का इलाज कराने के लिए अस्पताल चले गये थे | तब तुम्हारे – भीतर के राक्षस ने एकांत और मेरी निर्बलता का लाभ उठाया | अब मैं तुम्हारे नाश कर रही हूँ | चिल्लू भर पानी में नाक रगड़ कर मर जाओ | मेरे देवता अब तक मुझे सती समझते थे | तुम राक्षस ने मुझे मेरे देवता से अलग कर दिया | अब मैं लाख सफाई दूँ कि मैंने स्वेच्छा से यह अपराध नहीं किया बल्कि मेरे साथ बलात्कार किया गया है, इसमें मेरा कोई अपराध नहीं हैं | हर सपथ ग्रहण करूँ | कौन विश्वास करेगा ? अब मैं अपराधिनी सिद्ध हो चुकी हूँ | किसी प्रकार भी अब मैं देवता के मंदिर में रहने योग्य नहीं हूँ | अब तो भरे समाज में तुम्हारे कुकृत्यों का भण्डाफोड़ करने के अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं बचा हैं | मुझे पूर्ण विश्वास है कि अब मेरा शेष जीवन दु:ख में ही बीत गा |” अलख निरंजन – नहीं, राधे ! अब तक मैंने जो कुछ कहा परिहास में कहा | तुम चिन्ता मत करो | वास्तव मे तुम चाहती क्या हो ? राधा – मैं क्या चाहूँ गी ? तब भी मैं पराधीन थी और अब भी | आप ही बताएँ मैं.............. | “ऐसा करो, कल इसी समय मेरे मकान के पीछे आ जाना, वहाँ मैं रिक्सा तैयार रक्खूँ गा | रिक्सेवान को मेरे पास भेज देना मैं आ जाऊँ गा |,, “फिर क्या हो गा ?,, “फिर दो ही कि. मी. तो है, अस्पताल चल कर मामला साफ करा दूँ गा | इसमें कोई परेशानी नहीं हो गी क्यों कि सरकार ने गर्भपात को वैध घोशित कर दिया है |” “गर्भपात तो मैं किसी भी हालत में नहीं करा सकती चाहे जीवन भर भीख ही माँग कर जीवन यापन करना पड़े | पता नहीं पूर्व जन्म में कौन सा पाप किया था कि स्वर्ग से नर्क में ढकेली गयी | पुन: इस जन्म में थी दुष्कर्म कर के अगला जन्म भी नष्ट कर दूँ | अलख वास्तव में तुम में मनुष्यता नाम की कोई वस्तु नहीं रह गयी है | वास्तविकता तो यह है कि तुम अपने मुँह से पवित्र पण्डिर हो किन्तु तुम सा बड़ा पापी विरले ही हों गे |” “मैं इस लिए कह रहा था कि ऐसा हो जाने पर मेरी और तुम्हारी इज्जत बच जाती,, “एक अपराध को छिपाने के लिए अनेक अपराध करने वाला मनुष्य नहीं राक्षस है | मैं तुम जैसे निम्नकोटि के माया जाल में फँसने वाली नहीं हूँ, इसमें तुम बल का प्रयोग भी नहीं कर सकते |,, “अच्छा मैं कल से परदेश जाने का बहाना बनाता हूँ | जिस दिन तुम्हारे घर वाले तुम्हारे घर से निकालें, तुम दिन भर कहीं रहो किन्तु लगभग बारह बजे रात यहीं चली आना, तुम्हें ले कर कहीं चल दूँ गा |” राधा बिना कुछ कहे वहाँ से चली | अलख निरंजन ने मन में सोचा ‘मौन स्वीकार लक्षणम |’ राधा को मेरी सलाह स्वीकार है | वह दूसरे दिन से अपने मकान में छिप कर रहने लगा और घर वालों से बम्बई जाने का प्रचार करवाने लगा | धीरे – धीरे पूरे क्षेत्र में बात फैल गयी कि अलख निरंजन बम्बई भाग गया | कल्पू सिंह राधा को व्यमिचारिणी समझ कर बहुत खिन्न हुए और अपने पुत्र अरविन्द को पत्र लिख कर शीघ्र आने के लिए कहा पत्र पाते ही अरविन्द सन्न हो गया | उसके शरीर में बिजली दौड़ गयी | और पसीने से तर हो गया | वह अपने आप ही प्रलाप करने लगा, “आह ! राधे तूने क्या किया ? क्या गुवरैले ने कमल कोष में गन्दगी ख दी है | जिससे सुगन्धि के स्थान पर दुगन्धि आने लगी है ? ऐसी दुर्गन्धि जो धोने से दूर नहीं हो सकती | जिसका हाथ अपने हाथ में ले कर आजीवन रक्षा का व्रत लिया था, हाय ! उसी को अपने ही हाथों अनाथिनी बना कर घर से निकालना पड़े गा | हे प्रभो ! मेरी राह में कण्टक दो या फूल सब स्वीकार है |” कह कर लगभग आधे घंटे तक धरती को आँसुओं से भिगोता रहा | दूसरे दिन अरविन्द ने अवकाश के लिए कम्पनी को प्रार्थना पत्र दे कर घर के लिए प्रस्थान किया | गाड़ी के जिस डिब्बे में अरविन्द बैठा था, उसी में एक जटिल सन्यासी भी बैठा था | सन्यासी पर दृष्टि पड़ते ही अरविन्द उठ कर महात्मा के चरणों को पकड़ कर रोने लगा | सन्यासी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “उठो बेटे ! इस प्रकार क्यों अधीर होते हो ? हाथ पकड़ कर महात्मा ने उसे उठाया और पुन: प्रश्न किया – बेटा ! तुम्हारे कष्ट का क्या कारण है ?” “क्या बताऊँ गुरुदेव ! बताने की बात भी तो हो |” “अच्छा, मैं देखता हूँ |” आँखें बन्द कर सन्यासी ने ध्यान किया | कुछ ही क्षण में आँखें खोल कर कहा, “बेटा ! तेरी देवी का कोई दोष नहीं है | यदि देखा जाय तो इसमें तुम्हारा और तुम्हारे घर वालों की ही लापरवाही है | यह तो बताओ तुम्हारा घर गाँव से कुछ दूर और एकान्त में हैं न ?” “हाँ, महाराज ! बात सत्य है |” “तुम्हारे घर में तुम्हारी पत्नी के अतिरिक्त कोई स्त्री नहीं हैं ?” “यह भी सत्य है |” “घर में एक स्त्री को अकेली छोड़ कर जब सभी बाहर चले जाये गे तो एकान्त पा कर कोई भी नर पिशाच उसके साथ बलात्कार कर सकता है | ऐसी स्थिति में अबला कर ही क्या सकती है ? बेटे ! इतना तो जान ही लो कि उसके साथ जो कुछ भी हुआ है, उसकी इच्छा के विरूद्ध ही हुआ है | वह उस गलती से बच ही नही सकती थी |” “गुरु देव बतावे, मैं क्या करूँ ? “तुम कुछ भी नहीं कर सकते | केवल अपनी आँखों के सामने अपना एक अंग कटते हुए देखते ही रह जाओ गे | तुम्हारे पास रह जायें गी एक सम्भावना | बेटा ! इसी स्टेशन पर मुझे उतरना है |” महात्मा जी गाड़ी से उतर गये | अरविन्द कुछ समय तक आँसू पोछता रहा | अरविन्द के घर पहुँचते ही पिता कल्पू सिंह ने आँखों में आँसू भर कर कहा, बेटा ! तुम्हारी राधा रानी ने तो नाक काट ली | पुस्त दर पुस्त की शुद्धता पर पानी फेर दिया | मैं इसको सहन नहीं कर सकता | अब तक तो मै उसे कब का घर से निकाल दिया होता | किन्तु तुम्हारी प्रतीक्षा में दस – बारह दिन बिता दिया | अब आ गये हो तुम्हारी जो इच्छा हो करो | इस विषय में जब से जानकारी हुई है, उसी समय से मैं उसके हाथ का पानी नही पी रहा हूँ | कुछ जल पान करने के बाद समान रखने के लिए अरविन्द भीतर गया | इसके पहले जो राधा मुस्कानों के साथ अरविन्द के सामने खड़ी हो जाती | वही राधा आज आँगन के एक कोने में सिर नीचा किये बैठी है | उसकी आँखों से अविरल अश्रुपात हो रहा था | समान रखने के पश्चात् अरविन्द आँगन में बिछी चारपाई पर बैठ गया | कुछ समय तक रो लेने के बाद राधा धीरे से उठ कर अरविन्द के पास आयी और उसके पैरों को पकड़ कर पुन: रोने लगी | वाष्पा वरूद्ध कण्ठ से राधा को उठाते हुए अरविन्द ने कहा, “ राधे ! उठो | यह कार्य लोक है | मनुष्य कर्म करता है और चाहते हुए या न चाहते हुए भी कर्म का फल पाता है | कर्म और कर्म का फलाफल पूर्व निर्धारित है | जो कार्य जिस समय, जिसके द्वारा, और जिस स्थान पर होना होगा, हो कर रहे गा | इसको कोई अन्यथा नहीं कर सकता | तुमसे जान या अनजान में जो कुछ हो गया है उसे होना ही था | अब पिता जी की जो इच्छा होगी वह भी पूरी हो गी | अपने विषय में जो कुछ कहना हो कहो | शायद मेरी औ..र तुम्हा...री यह अन्तिम बात....ची..त हो | रा...धा...रा...नी ! कल....से….य...ह...घ...र.....सू.....सूना.....हो.....जा.....य.....गा | रह....जाये....गी.....तु...म्हा...री कहानी | मे....री....रानी.....मेरा.....उ....प....वन उ....उज...ड़....जा...य...गा | जो कभी ह...रा.... भरा न...ही ...होगा | बोलो राधे ! कुछ तो बो...लो | अपनी अंतिम इच्छा प्रकट करो | कल...से...बोलने ... के लि...ये...न...ही...कहूँ..गा प्रि...य...त...मे !” “मेरे दे..बता ! अ...ब...मैं...आप के...सा...मने...मुँ...ह दि...खा...ने...लायक..न..ही र..ह..ग..ई..ई..दूँ | मैं...इनते...दिनो...तक...अ...पने...दे...व..ता..के...चरणों...की धूल...लेने...के...लि...ए...ही...प...ड़ी...रही, अन्यथा.....| राधा फूट – फूट कर रोने लगी | “रोओ नहीं रा....धे !” “मेरे...स्वा...मी ! आप....के प्र...ति मेरे द्वारा ... जो ... अ...पराध और विश्वा...स घात हु...आ...है उससे कई जन्मो त...क मे…रा उद्धार...न...ही...हो...स...कता | आप परमात्मा से य...ही...प्रार्थ...ना कीजिए कि अगले ज...न्म मे मुझ जैसी पा...पिनी औ...र विश्वास घातिनी पत्नी आप को न मि...ले | आप मुझे दण्ड दीजिए | क्यों कि मुझसे अपराध हुआ है | मेरी अंतिम इच्छा है कि मेरे दुष्कर्मो का फल मेरे देवता दें |” “देवि !” “देवी शब्द को दूषित न करें, मेरे स्वामी ! दानवी शब्द से सम्बोधित करें |” “मैं जानता हूँ देवि ! तुम क्या हो ? जो कुछ हुआ है तुम्हारी इच्छा के विपरीत यह मै जानता हूँ | इस...लि...ए...|” “मेरे देवता ! उस विषय में मै कोई भी सफाई नहीं देना चाहती | मेरी सफाई पर किसे विश्वास हो गा ? होना भी नहीं चाहिए | मेरी एक प्रार्थना है किन्तु भय वश .... |” “कहो, कहो क्या कहना चाहती हो ? मै तुम्हारी हर इच्छा कि पूरी कर सकता हूँ किन्तु पिता जी की इच्छा की अवहेलना नहीं कर सकता |” “पिता जी की इच्छा तो पूरी हो कर रहे गी किन्तु.....|” “किन्तु क्या देवि ! अब तुम नि:संकोच बोलो मैं तुम्हारी अन्तिम इच्छा अवश्य पूरी करूँ गा | इसके बाद तो कोई इच्छा पूरी करने का प्रश्न ही नही रह जाय गा |” “मेरे स्वामी मैं चाहती हूँ ... |” “बोलो, रूक क्यों गयी ?” “कहने का साहस नहीं जुटा पा रही हूँ नाथ !” “अन्तिम आदेश दे रहा हूँ, कहो |” “स्वामी ! आज अन्तिम बार आप के चरणों को धो कर चरणोदक लेना चाहती हूँ |” “नही देवि ! मुझे जीवन भर रुलाने के लिए ऐसा न करो |” “आप वचन दे चुके हैं नाथ ! इससे मुझे वंचित न करें |” “मेरी राधे ! हठ न करो, हमेशा की ही तरह आज भी मेरी बातें मानो |” “यदि मैं इससे वंचित रह जाती हूँ तो जीवन भर घुट – घुट कर मरूँगी |” अरविन्द आगे कुछ भी बोल सका | उसने आँखों में आँसू भर कर मौन स्वीकृति दी | राधा एक थाली में पानी ला कर अरविन्द के पैरों को धोने लगी | दोनों के नेत्रों से आँसू की बूंदें टपक रही थीं | राधा को रात भर नीद नहीं आयी | सूर्य निकलने से पहले ही उसने उठ कर घर आँगन में झाड़ू लगाया, बर्तन साफ किया और विस्तर आदि यथा स्थान रक्खा | सूर्योदय हुआ, कल्पू सिंह ने अरविन्द से कहा, “बेटा अरविन्द ! तुमने क्या निर्णय लिया ?” अरविन्द---- पिता जी ! आप का निर्णय ही अन्तिम निर्णय है | मुझे कोई निर्णय नहीं लेना है | कल्पू सिंह --- यदि मेरा निर्णय अन्तिम निर्णय है तो राधा का हाथ पकड़ कर घर से बाहर करो, वह जहाँ जाना चाहती हो जाय | “हाथ पकड़ कर नहीं निकालना हो गा पिता जी ! आप आदेश दीजिए वह स्वयं चली जाय गी |” “कह तो रहा हूँ, क्यों नहीं चली जाती ?” कडक कर कल्पू सिंह ने कहा | अपने ससुर कल्पू सिंह के आदेश को सुन कर धीरे-धीरे राधा घर के बाहर आ गयी | कुछ पग चलने के बाद उसने घूम कर घर की ओर देखा | ब्रह्माण्ड घूमने लगा | आँखों के सामने चिनगारियाँ छिटकने लगीं | पैर लड़खड़ाने और मूर्छित हो कर गिर पड़ी | उसे गिरती देख सब लोग दौड़ पड़े | मुँह पर पानी का छींटा और पंखी से हवा करने लगे | दस – पन्द्रह मिनट बाद चेतना लौटी | राधा उठ कर बैठी और अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों को ठीक किया | फिर चलने के लिए खड़ी हुई | अरविन्द का छोटा भाई, जो पाँच वर्षो का था, दौड़ कर राधा से चिपक गया और कहने लगा, ‘भाभी कहाँ जा रही हो मत जाओ |” उसके सिर पर हाथ फेरते हुए राधा ने कहा, “मुन्ना ! मुझे रोक कर क्या करो गे ? तुम्हारे लिए मुझसे अच्छी भाभी आयेगी | मुझे छोड़ दो लल्ला !” इसी समय कल्पू सिंह के मुँह से निकला, “राधा ! यदि तेरी इच्छा जाने की न हो तो मत जाओ, देखा जाय गा |” विरक्त सी राधा बोली, “बाबू जी ! अब मेरी कोई इच्छा नहीं हैं |” बच्चे को अलग कर के चल पड़ी | अलख निरंजन ने निकट के शहर में जा कर एक विधुर रिक्सा-चालक के हाथो राधा को एक हजार रुपये में बेच दिया था और उसे समझा दिया था कि तुम उसे लेकर चल देना | चलो मै अपना घर दिखा देता हूँ | जिस दिन राधा घर से निकाली गयी, यह समाचार पूरे क्षेत्र में बिजली की तरह फैल गया | अलख ने रिक्सेवान को सूचित किया | वह बारह बजे हो अलख के मकान के पीछे आ गया | प्रतीक्षा करते – करते रात बीत गयी | रिक्सा चालक हारे जुआरी की भाँति वापस गया | तीन--- जिस कार्यालय में मधुसूदन काम कर रहे थे, उसी में कुमारी मंजुला भी कार्य रत थी | मधुसूदन का कार्य बहुत ही संतोष जनक था | उसे कार्यालय के सभी कामों की पूर्ण जानकारी थी | आये दिन प्राय: कर्मचारी उससे अपने कामों में सहायता लिया करते थे | मंजुला प्राय: किसी न किसी समस्या में उलझ ही जया करती थी इस लिए मधुसूदन को कई बार उसकी मदद करनी पड़ी थी | इस सहानुभूति के कारण मंजुला के हृदय ने मधुसूदन को अपने में इस प्रकार बसाया कि एक क्षण के लिए भी उसे बाहर नहीं जाने देना चाहता था | कुछ समय बीतते – बीतते मधुसूदन का भी हृदय मंजुला की ओर आकर्षित हुआ | यहाँ तक कि एक क्षण की भी उसकी अनुपस्थिति उसे खलने लगी | स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि एक दूसरे का वियोग दोनो के लिए असहाय हो जाता | दोनों की रात किसी तरह बितती | दिन में प्राय: एक दूसरे को स्नेहिता दृष्टि से देख कर सुख और शांति का अनुभव करते | मंजुला अपने घर वालो से अक्सर मधुसूदन की प्रशंसा किया करती थी | वह कहा करती, “ इस सहृदय सा तो मुझे आज तक कोई मिला ही नहीं, जब मै किसी समस्या में उलझ जाती हूँ तो मधुसूदन झट मुझे सँभाल लेते हैं | मुझे तो ऐसा लगता है जैसे वे दूसरे घर के हैं ही नहीं |” एक दिन मंजुला ने मधुसूदन को अपने घर आने का निमंत्रण दिया मंजुला का स्नेह निमंत्रण मधुसूदन ने सहर्ष स्वीकार किया | मंजुला तथा उसके घर वालों ने मधुसूदन का सच्चे हृदय से आगत – स्वागत किया और दूसरे दिन पुन: आने के लिए कहा | मधुसूदन संकोच के साथ अपनी स्वीकृति दी | दूसरे दिन मंजुला के कार्यालय चली जाने के बाद मंजुला के पिता मयंक मणि ने अपनी पत्नी से कहा, “मंजुला मधुसूदन की बड़ी प्रशंसा करती है, उसकी अवस्था भी कोई अधिक नहीं है | समझ लिया जाय यदि वह चाहता हो तो मंजुला का विवाह उसी के साथ कर दिया जाय |” मंजुला कि माँ ने कहा, “ठीक तो हो गा | सयानी लड़की है कहीं अनुचित कार्य हो गया तो अनर्थ हो जाय गा | मंजुला की बातों से लगता है कि वह मधुसूदन को हृदय से चाहती है | व्याह हो जाय तो अच्छा ही होगा |” मयंक मणि मंजुला से मधुसूदन को निमंत्र की याद दिलाने को कहा | मंजुला फूली न समायी | संध्या – समय कार्यालय बंद होने के बाद मधुसूदन अपने आवास पर न जा कर मयंक मणि के मकान की ओर वैसे चला जैसे पानी ढलान की ओर सरकता है | मंजुला मधूसूदन को निमंत्रण की याद दिलाकर पहले ही चली गयी थी।मधूसूदन को दूर से ही आता देखकर मंजुला ने दौड़ कर अगवानी की।प्रेम विह्वल मधूसूदन ने कहा,’’ मंजुले! आज मै कार्यालय से ही चला आया आवास पर नहीं गया।जैसे आज मै वहाँ जाना ही भूल गया।,, ‘’ मुझे भी ऐसा लगा जैसे आप मेरे पीछे आ रहे हैं।घर आने के बाद मै आप की ही वाट देख रही थी। कल मेरे भीतर ऐसी व्यग्रता नही थीं,जैसी आज।,, मयंक मणि बेटी के साथ मधुसूदन को देखकर बहुत प्रसन्न हुये और मन ही मन सोचने लगे।,’’ स्यात् भगवान मेरी इच्छा पूर करने वाले हैं।मंजुला-योग्य वर तो मधुसूदन से अच्छा शायद ही मिले।दोनों को भगवान नें मानो एक ही साँचे में ढाला है।,, मधुसूदन और मंजुला दोनो दरवाजे पर पहुँचे।मयंक ने हर्षोल्लास के साथ कहा,’’ आओ बेटा बैठो,, मंजुला घर में चली गयी और थोड़ी ही देर में जल पान की व्यवस्था कर के आ गयी।जलपान के बाद मयंक ने मंजुला को बुलाकर कहा,’’मंजू ‘अपनी माँ को भेज दो,, ‘’ हाँ,हाँ अभी तक माता जी नही आयीं क्या मुझसे नाराज है?,, मधुसूदन ने कहा! मयंक ने हँस कर कहाँ,’’ हाँ,हाँ माँ बेटे से रुष्ट नहीं होगी तो किससे होगी? अरे भोले! अभी यही तो थीं,तुमको आते देख कर जलपान की व्यवस्था करने भीतर चली गयीं थीं।लो यह आ गयीं।मधुसूदन ने उठ कर चरण स्पर्श किया। माँ आशीर्वाद देकर बैठ गयी।मयंक मणि ने कहा,बेटा मधुसूदन! इस वर्ष मंजुला का विवाह कअरना है।बड़ी परेशानी है।जहाँ भी वर देखने जाता हूँ,वर पक्ष वाले कमर तोड़ देना चाहते हैं।इतनी निर्दयता से बातें करते हैं कि उनके सामने अपनी विवशता की कहानी सुनाने की भी हिम्मत नहीं होती ।क्या किया जाय? कुछ समझ में नहीं आता। मधुसूदन-पिता जी!मंजुला का विवाह तो होना ही है।इस शुभ कार्य में मेरा जो अंशदान अपेक्षित हो आदेश दीजिए/मैं सदैव तैयार हूँ। मयंक-बेटे!तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता तो है ही।मंजुला के विवाह में यदि तुम सहयोग के लिये वचन बद्ध हो तब तो मेरा बोझ हल्का हो ही गया। मधुसूदन-मेरे योग्य जो कार्य हो आप नि:संकोच कहें!मै आप का सहयोग कर के अपने को धन्य समझूँगा।पिता जी! जो भी कार्य सौंपना चाहें शीघ्र सौपें। मयंक-बेटे!तुम्हारे ऊपर तो मंजुला के विवाह का सारा भार सौंपना चाहता हूँ। किन्तु उस भार को तुम वहन कर पाओगे,मुझे विश्वास नहीं होता। मधुसूदन-विश्वास न हो तब भी आज्ञा देकर परीक्षा करें।सम्भव हैं मै अपने कर्तब्य पालन में खरा उतरुँ। मयंक-बेटा! खरा उतरोगे यह तो ठीक है किन्तु बोझ तब तक सामने न हो तब तक वह उठ सकेगा या नही,कैसे कहा जा सकता है? मधुसूदन-पिता जी! एक ओर तो आप मेरा सहयोग आवश्यक बताते हैं और दूसरी ओर आदेश देने में हिचक रहे हैं।भला दो विरोधी बातें कैसे हो सकती है? मैंने कह दिया कि आप बिना हिचक के आज्ञा दीजिए। मयंक-यदि ऐसी बात है तो सुनो । मेरा विचार है कि मंजुला का विवाह तुम्हारे ही साथ कर दूँ।बेटा!यही भार तुम्हें वहन करना है। यही मेरा आदेश है। मधुसूदन ने असमर्थता प्रकट करते हुये कहा,’’ पिता जी! यह भार तो गुरु या गुरुतर ही नहीं गुरुतम है। मै इस योग्य नही हूँ।,, मयंक मणि ने कहा,’’ जिस भार को मै बहुत ही हल्का समझ रहा हूँ उसी को तुम गुरुतम बता रहे हो। इसी लिये मैं कह नही पा रहा था क्यों कि प्राय: लोगो की कथनी और करनी मे अन्तर होता है। अभी कुछ क्षण पहले तुम्हीं ने कहा था कि मंजुला के विवाह में मेरा जो भी सहयोग हो,आदेश दीजिए।मैं सदैव तैयार हूँ। अब क्या हो गया तुम्हें?,, ‘’ पिता जी! मेरा विवाह हो चुका है। तीन चार वर्ष का एक लड़का भी है।बस केवल यही अड़चन मेरे सामने है।अन्यथा आप की इस आज्ञा का पालन प्रसन्नता के साथ करता और अपने को बहुत ही भाग्यशाली समझता।,, दोनों की बातें रोहणी चुपचाप सुन रही थी। मयंक मणि ने रोहिणी से कहा,’’ मंजुला की माँ! तुम कुछ नहीं बोल रही हो? मधुसूदन को समझाओ, इसे क्या करना है? रोहिणी ने मुस्कुराते हुए कहा,’’ जब आप की बातें नहीं मानी जा रही हैं तो मेरा क्या अस्तित्व है? कैसे मैं आशा करुँ कि बेटा मेरी बातें मान लेगा। मधुसूदन बीच में ही बोल पड़ा, माता जी आप की आज्ञा पिता जी से बढ़कर है और पिता जी की आज्ञा आप की आज्ञा से बढ़ कर किन्तु एक पली के रहते दूसरा विवाह अपराध है। भला,अपनी पली सुनीता को कौन सा मुँह दिखाऊँगा। वह मेरे विषय में क्या सोचेगी?,, रोहिणी-देखो बेटा ! यदि तुम मेरी आज्ञा का पालन करते हो तो तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि मेरी मंजू तुम्हारी पूर्व पली की सेवा में हर समय तैयार रहेगी और उसके पुत्र को औरस से बढ़कर मानेगी। यदि ऐसा नही करती हैं तो तुम उसे जो भी दण्ड देना चाहो दे सकते हो। मधुसूदन-मंजुला के साथ विवाह की बात को आत्मा स्वीकार नहीं कर रही है।एक पली के रहते दूसरा विवाह?नहीं,माँ! यह नही हो सकेगा। ‘’ बेटा! दो विवाह तो कोई अनुचित नहीं है, हमारा इतिहास बहु विवाह के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करता है।राजा दशरथ को कौन नही जानता? वे एक नही अनेक रानियों के पति थे।,, मधुसूदन ने मुस्कुरा कर कहा ,’’ इसी का परिणाम तो था ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे पुत्र को चौदह वर्षो तक वनवासी जीवन बिताना पड़ा। यदि कौशल्या के अतिरिक्त अन्य रानियाँ न होतीं तो इतना बड़ा अनर्थ न होता।,, ‘’ यह सब किसी के करने से नही हुआ, ऐसा होना था इसीलिये हुआ।यदि राम बन न गये होते तो दुर्वृत्ति का विनाश न हो पाता ।बेटा! तुम मंजुला का पाणिग्रहण करो, तुम्हारी सुनीता तनिक भी रुष्ट नहीं होगी। उसे एक सहयोगिनी मिल जायेगी। मेरे विचार से तो वह प्रसन्न ही होगी।,, ‘’ ठीक है, मै दो चार दिन में इस पर विचार करके बताऊँगा। आज मै कोई भी निर्णय नहीं ले सकता।,, ‘’ हाँ, बेटा! तुम्हारी यह बात उचित है। विचार करने के लिये तुम पूर्ण स्वतंत्र हो,, मयंक मणि के घर से विदा हो कर मधुसूदन अपने आवास की ओर रवाना हुई । आज उनके पैरो में मानो गति ही नही रह गयी है।उनके पैर बहुत धीरे-धीरे उठ रहे थे, जैसे पैरो में चक्की बँध गयी हो। दिमाग मे रह-रह एक ही बात आ रही है-मंजुला का परिग्रहण। आवास पर पहुँच कर एक पुस्तक उठायी किन्तु मन नहीं लगा । पुस्तक रख कर चारपाई पर लेट गये। कुछ खाने की इच्छा नही हुई। इसलिये सोने का उपक्रम करने लगे किन्तु निद्रा का कही नाम नहीं। सोचते-सोचते न जाने कब नींद आ गयी।स्वप्न में देखा सुनीता आकर सामने खड़ी है। उसे देखते ही मधुसूदन का मुख लज्जा से मलिन हो गया।फिर भी साहस जुटा कर बोले,’’ देवि अपराध क्षमा हो, मैं तुम्हारे सामने मुँह दिखाने लायक नही हूँ।,, सुनीता ने कहा,’’ आप की हिम्मत है,अपराध न करने की।जिसे आप अपराध समझ रहे हैं, वह पूर्व नियोजित है और हो कर रहेगा।,, दृश्य बदला, मधुसूदन किसी स्थान की यात्रा पर है,ऊबड़-खाबड़ मार्ग,झरवेरी की झाड़ियाँ और रंग-बिरंगे पशु-पक्षियों के झुण्ड दिखायी दे रहे हैं। एक हाथी उन्हें अपनी सूँड में पकड़ने के लिये दौड़ा। मधुसूदन भय वश काँपने लगे और प्राण बचाने के लिये एक टीले पर चढ़ना चाहे किन्तु चढ़ न सके और फिसल कर गिर पड़े।आँखे खुली और स्वयं को चारपाई के नीचे पाया।कुछ समय तक ह्रदय धड़कता रहा ।फिर मंजुला के साथ विवाह की बातें मस्तिष्क में गूजने लगीं। ऊहा-पोह में पड़े बहुत समय तक जागते रहे।पुन: आँखे झँपी और स्वप्न लोक में विचरने लगे।दिखाई पड़ा एक नदी बह रही है।तीव्र गति से हवा चल रही है।मधुसूदन किनारे पर खड़े नाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं।एक नाविक बहाव की ओर तेजी से चला जा रहा है।मधुसूदन हाथ उठाकर तेजी से चिल्लाया,’’ ओ माझी!मुझे उस पार पहुँचा दें।मुँह माँगी उतराई दूँगा।,, देखते ही देखते आकाश काले बादलो से ढक गया।घोर वृष्टि होने लगी।जल की बूँदे झंझानिल का साथ पा कर मधुसूदन पर प्रहार करने लगी।इसी समय मंजुला ने आकर अपना आँचल मधुसूदन के सिर पर फैला कर कहा ,’’ लौट चलिये बड़ा कुदिन है।,, ‘’ लौटना तो मेरे लिये बड़ा कठिन है।क्योंकि सुनीता से मिलना आवश्यक है।,, दूसरा दृश्य सामने आया।प्रखर धूप है,मधुसूदन का शरीर पसीने से सरा-बोर है।वह लम्बी यात्रा पर है।मार्ग की थकान और गर्मी की विहल एक वृक्ष की छाया में बैठ गये।जिस वृक्ष की छाया में वे बैठें है।उसी के निकट दूसरे वृक्ष के नीचे एक बन्दर और दो बन्दरियाँ दिखाई दीं।अपनी भाषा में वे तीनों बातें कर रहें हैं।क्रोध में आग बबूला बन्दर ने एक बन्दरी को पूछ पकड़ कर फेक दिया और उसके पास जाकर कई चपत जमाया।जब वह चोट खाकर बेहोश हो गयी। बन्दर बड़े प्यार से उसका सिर खुजलाने लगा।कुछ समय के बाद बन्दर पेड़ पर चढ़ गया और गोद में बैठी बंदरी वहाँ से भाग कर दूसरे बन्दर के पास जा बैठी।बन्दर ने पेड़ से उतर कर देखा, वहाँ पर किसी भी बन्दरी का पता नहीं। आहें भरता,मलिन मुख बन्दर एक दिशा में चल पड़ा। मधुसूदन ने कहा,’’ बन्दर को अपनी करनी का फल मिल गया।मैं भी चलूँ।चलूँ।,, उठना ही चाहता है कि वृक्ष अररा कर उसके ऊपर गिर पड़ा। पसीने से तर मधुसूदन अकचका कर उठ कर बैठ गया। कमरे से बाहर आकर देखा कि पीपल का विशाल वृक्ष गिरा हुआ है।प्राची दिशा अरुणाय हो चुकी थी। मधुसूदन नित्य क्रिया से निवृत होकर ड्यूटी पर जाने की तैयारी करने लगा। आज की रात दु:स्वप्नों में बीती थी। इसलिये उसे खाने-पीने की इच्छा कम थी।फिर भी औपचारिकता निभाकर कार्यालय पहुँचकर एक साथी से मंजुला ने सम्बन्धित सारी बातें बता कर कहा,’’ बड़े भाई!अब आप ही बताइये मैं क्या करुँ? मैं नही जानता था कि मयंक जी मंजुला का विवाह मेरे ही साथ करने के लिये मुझे वचन वद्ध करा रहे हैं।मैने उनसें कह दिया था कि पिता जी! मै आप की हर बात मानने के लिये वचन बद्ध हूँ।जब मैं किंकर्तब्यविमूढ़ हूँ,समझ में नही आ रहा है कि क्या करुँ?,, साथी ने हँस कर कहा ,’’ मित्र!ऐसे अवसर भाग्य से मिलते हैं।यदि मंजुला आप को ह्रदय से चाहती है तो विवाह कर लीजिए। इसमें आप कौन सा पाप कर रहें हैं? एक स्त्री के लिये लोग तरसते रहते हैं, किन्तु आप के ऊपर ये लड़कियाँ न जाने क्यों मोहित हो जाती हैं? हम अभागों को भी कोई पूछने वाली हैं?,, ‘’ भाई! तुम तो मजाक कर रहे हो, मुझे तो नींद आ रही हैं।मैं कोई निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या करुँ?,, ‘’ क्या करना है यार! आँख मूद कर मंजुला के साथ विवाह करो।इस सुनहले अवसर को हाथ से मत जाने दो।दो पत्नियों के रहने से लाभ ही लाभ है।एक आप के साथ रहकर पैसा कमाएगी और दूसरी उन पैसों से परिवार को सुचारुतया चलाएगी।लखपती हो जाओगे,लखपती।भूल न करो।मुझे कलूटे और कुरुप को तो कोई पूछने वाली ही नहीं है अन्यथा मैं तो इस मौके को हाथ से भी कभी न जाने देता।,, ‘’ जितनी खिल्लियाँ उड़ानी हों,उड़ा लो मित्र ! मेरी तो,’’ भइ गति साँप छँछूदर फेरी,, भगवान ही मेरी रक्षा करें। मैं तो रातभर ऐसे सपने देखता हूँ कि आत्मा काँप जाती है।,, ‘’ क्या सपने देखते हो? उसे भी सुनाओ। उनके फलाफल भी विचार कर लिया जाय।,, मधुसूदन ने पहले स्वप्न को बताया।साथी ने कहा इसका फल तो बहुत ही अच्छा है।बहुत बड़ी विपत्ति से आप का उद्दार होने वाला है।,, ‘’ अच्छा मान लिया, इस स्वप्न का फल बहुत उत्तम है।अब दूसरा स्वप्न बता रहा हूँ उसका फलाफल बताइए।,,’’ हाँ,हाँ उसका फल भी बताऊँगा।दूसरे स्वप्न में क्या देखा आप ने ? मधुसूदन ने अन्दर वाले स्वप्न को बताया। साथी ने इस स्वप्न को बहुत देर तक विचार करके कहा,’’ इसका फल तो उससे भी उत्तम है। पहली बात तो स्वप्न में बन्दर का दिखाई देना शुभ सूचक है।दूसरी बात यह कि जिस बंदरी को बन्दर ने मारा है,वह राक्षसी का प्रतीक है।दूसरी साध्वी का प्रतीक है।बन्दर ने राक्षसी से साध्वी की रक्षा की है।अत: आप द्वारा किसी साध्वी की रक्षा होनी है हो सकता है आप का व्याह मंजुला के साथ होने पर किसी राक्षसी सास से उसकी रक्षा हो जाय । इसलिये तुम मंजुला का उपकार करने जा रहे हो।,, मधुसूदन को मित्र स्वप्न का फलाफल इतने स्वाभाविक ढंग से बता रहा था मानो ज्योतिष विद्या का प्रकाण्ड पण्डित हो। मित्र की बातें सुन लेने के बाद आज मधुसूदन के विचारों में कुछ परिवर्तन हुआ।उसने मित्र से कहा ,’’ तो आप भी चाह रहे हैं कि मैं मंजुला के साथ विवाह कर लूँ। ‘’ हाँ, मै चाह रहा हूँ कि बिना हिचक के मंजुला के साथ विवाह कर लो। आज ही मयंक मणि को अपनी स्वीकृति दे दो।,, ‘’ और मेरे ऊपर जो पेड़ गिरा था,उसका क्या फल है?,, ‘’उसका फल तो स्पष्ट है। पेड़ गिरने पर तुम तुरन्त जग गये। मतलब यह कि किसी विपत्ति के आने पर सावधान हो गये। अब क्या चाहते हो?,, मित्रवर! आपने इतनी शीघ्रता से स्वप्नों के फल को निकाल लिया ,यह आश्चर्य की बात है।आपने इस विद्या को कब पढ़ लिया?,, ‘’ यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो चल कर किसी विशेषज्ञ से समझ लिया जाय।,, ‘’ ऐसी कोई बात नही है मित्रवर ।आप की बातो पर मुझे पूर्ण विश्वास है।केवल आप की विद्या पर मुझे आश्चर्य हो रहा है।,, ‘’ आश्चर्य मत करो मित्र! स्वप्न से किसी भावी घटना का क्या सम्बन्ध है?आप वैज्ञानिक युग में रहते हुये भी लकीर के फकीर बने हुये हैं।वास्तविकता तो यह है कि मंजुला के साथ अपने विवाह की बात सुनकर आप दुविधा में पड़ गये। इसलिये सोते जागते वही बात दिमाग में चक्कर काट रही है और भिन्न- भिन्न प्रकार के स्वप्न दिखाई देने लगे। मेरी बात मान कर विवाह कीजिए,अब तर्क वितर्क छोड़िये।,, जब कई दिन बीत गये और मधुसूदन की ओर से मयंक मणि को कोई उत्तर नही मिला तो उन्होनें मधुसूदन के पास एक पत्र भेजा। पत्र में उन्होनें लिखा- प्रिय बेटा। मधुसूदन! सुभाशीर्वाद, इतने दिनों तक तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते आँखे थक गयीं किन्तु न तो तुम दिखाई दिये और न तुम्हारा कोई उत्तर ही मिला।मैंने बहुत कुछ समझ कर ही एक बोझ तुम्हे उठानें के लिये कहा था किन्तु उसे उठाने में तुम असमर्थ लगते हो।जिस दिन से मैंने मंजुला के विवाह की चर्चा की उसी दिन से तुम्हारा कोई समाचार नहीं मिला।मुझे लगता है,तुम मुझसे रुष्ट हो गये हो।यदि ऐसी बात है तो बेटा! प्रसन्न हो जाओ। मेरे यहाँ का आना जाना मत छोड़ो।अब मैं ऐसा कोई काम नहीं करुँगा,जिससे तुम्हारी आत्मा को ठेस पहुँचे।बेटा!इस पत्र को पढ़ने के बाद आने का कष्ट अवश्य करना। यदि तुम नही आओगे तो मैं स्वयं आकर मनाऊगा। तुमसे परिचय हो जाने के बाद अब यही इच्छा होती है कि प्रतिदिन नहीं तो दूसरे,तीसरे दिन अवश्य भेंट किया करुँ।अब मैंने निश्चय कर लिया हैं कि तुम्हारे ऊपर कोई भार नही लादूँगा।मंजुला का विवाह तो करना ही है।इसलिये वर खोजना तो चलना ही है।मै चाहूँगा कि तुम भी मेरे साथ चलो ।इसके आगे क्या लिखूँ? तुम अपने दर्शनों से मुझे वंचित न करों। शेष कुशल। तुम्हारा शुभेच्छु- मयंक मणि पत्र पढ़ते ही मधुसूदन की विचित्र दशा हो गयी।उसने निश्चय कर लिया कि बिना किसी तर्क-वितर्क के अब मैं मंजुला के साथ विवाह कर लूँगा। उसने तुरन्त एक पत्र लिखा- परम पूज्य पिताजी! सादर चरण स्पर्श, आप का पत्र प्राप्त हुआ। समाचार से अवगत हुआ।आप मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे किन्तु मेरी ओर से आप को कोई उत्तर नहीं मिल सका।इसका मुझे दु:ख है।आप ने मुझे जो भार सौंपा है,उससे मैं आप को निराश नहीं होने दूँगा।मैं कल ही आकर अपना निर्णय बताकर आप को चिन्ता मुक्त करुँगा।जहाँ तक मेरे रुष्ट होने की बात आप ने लिखा है,ऐसा स्वप्न में भी सम्भव नहीं है। आप की प्रसन्नता ही मेरी प्रसन्नता है। शेष बाते दर्शनोपरान्त। आप का प्रिय बेटा मधुसूदन। दूसरे दिन मधुसूदन ने मयंकमणि के यहाँ जाकर मंजुला के साथ अपने विवाह की स्वीकृति दे दी। मयंक मणि के ऊपर से मंजुला के विवाह का बोझ उतर गया। प्रसन्नता पूर्वक उन्हों ने मंजुला को मधुसूदन के हवाले किया। चार- दूसरे दिन रिक्सेवान ने अलख निरंजन के दरवाजे पर आ कर कहा,’’पंडित जी आप ने तो मुझें कही का न किया। सारी रात इन्तजार करते बीत गयी। कोई स्त्री नहीं आयी।आप मेरा रुपया फेर दीजिए, मैं औरत पा चुका।आप को मैं ऐसा नही समझता था।मैनें तो समझा था कि आप शरीफ आदमी हैं।झूठ नहीं बोलेंगे, जो कहेंगे वह करेंगे। कलेजे के बल रिक्शा खीचना पड़ता है। किसी तरह पेट काट कर,रात दिन एक करके रुपया इकट्ठा किया था।आप ने मेरी गाढ़े की कमाई पर क्षण भर में पानी फेर दिया।बताइये अब कोई किसी पर कैसे विश्वास करेगा?,, अलख निरंजन ने कड़क कर कहा,”धूर्त कहीं का, आया है मुझे पहाड़ा पढ़ाने। औरत को उड़ा कर आया है रुपया भी लेने।चल,चल तेरे समान चूतियो को मैं रास्ता दिखाता हूँ। मुझे मूर्ख समझ रहा है। जिस औरत को तुम ले गये हो,उसके घर वालो से थाने में नामजद रपट करवाता हूँ। देखूँगा तेरी गुण्डे गीरी।रिक्सेवान अब कुछ नर्माया।फिर उसने हाथ जोड़ कर कहा,’’ बाबू जी! भगवान की कसम खा कर कहता हूँ कि मुझे कोई औरत नही मिली।आप मेरे ऊपर विश्वास करें मैं ब्राह्मण से झूठ बोल कर स्वार्थ सिद्ध नही करुँगा। आप मेरी गरीबी पर ध्यान दें कर मेरे ऊपर दया करें।,, ‘’हट जाओ दुष्ट कहीं के। हट भाग यहाँ से, नहीं तो जो चाहते हो वही होगा।मेरे पास आने का कैसे तुम्हें साहस हुआ?हट रहे हो कि उठाऊँ दण्डा?,, रिक्सेवान ने विनीत भाव से पुन: कहा,’’ बाबू जी!मैं मर जाऊँगा,आप मुझ गरीब को न सतायें।,, अब अलख का क्रोध सीमा पार कर चुका था।उठ कर उसने रिक्सेवान के गालों पर दो-चार तमाचा मारा।रिक्सेवान रोता हुआ वहाँ से वापस हुआ। रिक्सेवान के चले जाने के बाद अलख ने अपनी प्रथम सफला पर गर्व का अनुभव किया।उसी समय उसके दिमाग में एक विचार आया,वह यह कि यदि इस ढंग का व्यवसाय किया जाय तो बिना किसी पूँजी के पर्याप्त लाभ हो सकता है।किसी लड़की या लड़के को बहका कर बेंच देने से जो भी अर्थ लाभ होगा वह अपना ही है।छोटे-छोटे बच्चे जो इधर-उधर टहलते रहते हैं,उन्हें बहकाना कोई कठिन काम नहीं है।फिर सोचा,यह कार्य सब की निगाहें बचा कर करना होगा।इसे इस ढंग से करना है कि समाज को इसकी झलक तक न मिले।यदि अकेले करना चाहूँ तो सम्भव है किसी न किसी की दृष्टि पड़ जाय, इसलिये इस लाभदायी व्यवसाय को करने के लिये दो चार साथी बनाना आवश्यक है। ऐसा करने से उन साथियों को यह भार सौंप कर स्वयं समाज में भला व्यक्ति बनकर घूम सकूँगा।मैं उनका सरदार बनकर उन्हें जैसा चाहूँगा नचाता रहूँगा।अच्छा तो यह होगा कि उन्हें लाभांश का अधिकारी न बना कर वैतनिक ही रक्खूँ। ऐसा करना ठीक भी होगा,क्योंकि यदि किसी ने ठीक से काम न किया या कोई चालाकी की तो कान पकड़ कर निकाल भी सकता हूँ।किन्तु नहीं,ऐसा करने से तो रहस्य खुल सकता है।यदि किसी को नौकरी से अलग किया तो निश्चित ही इसे लोगों में बाँटेगा ।,, इसी ऊहापोह में पड़ा अलख अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सरदार होने के नाते कुछ अधिक भले ही ले लिया करुँ किंतु साथियो को लाभ का भागीदार बनाना ही श्रेयस्कर होगा।,, जो व्यक्ति जिस स्वभाव का होता है, उसे उसी कोटि के लोग मिल भी जाते हैं।साधु को साधु, दुर्जन को दुर्जन, शराबी को शराबी,गजेड़ी को गजेड़ी, चोर को चोर, मिल ही जाते है।अलख निरंजन साथियों की तलाश में लग गया। अंत में उसे सफलता मिल भी गयी। उसे रियासत भली,सुखई,पासी,जगदेव,स्वर्णकार,और हन्नू सिंह,इन चार साथियों का गिरोह मानव व्यापार में संलग्न हुआ। किन्तु किसी ने अलख निरंजन को अपना सरदार स्वीकार नहीं किया। ऐसी स्थिति में अलख नें अकेले ही यह कार्य करना अच्छा समझा। पाप पहले बढ़ाता है,अब अलख को अधिक संख्या में औरतें और बच्चें मिलने लगे। इस व्यापार द्वारा अलख नें इतना धन कमाया कि उसकी इच्छाएँ तत्काल पूरी होनें लगीं। देखते ही देखते दरवाजे पर टैक्सी खड़ी हो गयी और अन्य सुख के समान उपलब्ध हो गये। लोगो को आश्चर्य होता कि इतनी जल्दी अलख निरंजन को कहाँ से इतना धन मिल गया? यदि कोई मजाक मे पूछ देता है कि पण्डित जी! दो ढाई वर्षों में आपको इतना धन कहाँ से मिल गया? तो तुरन्त उत्तर देते,’’ ऐसा है भाई जी! मैं बम्बई चला गया था, वहाँ से दो चार सेठों के अनिष्ठ ग्रहो को शान्त कर दिया, उनका सारा कष्ट दूर हो गया। इसी खुशी में किसी ने मकान बनवाने के लिये रुपये दिये, किसी ने कार खरीद दिया,किसी ने कुछ दिया, किसी ने कुछ।यह सब आप लोगों की कृपा और आर्शीर्वाद का फल है। इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं। यदि आप लोगों की कृपा इसी तरह बनी रहे तो रुपया-पैसा रखने की जगह नहीं मिलेगी।,, राधा के जीवन को नष्ट करने वाले अलख निरंजन के मुख की कालिमा अब धीरे-धीरे धुलने लगी थी।जो लोग अलख से घृणा करने लगे थे, अब पुन: श्रद्धा प्रदर्शित करने लगे।राधा के साथ बलात्कार की बात से शास्त्री को जिन यजमानों ने किसी भी शुभ कार्य में अपने यहाँ उनको बुलाना बन्द कर दिया था, वे पुन:बुलाने लगे थे।शास्त्री पूर्ववत समाज में सीना तान कर बैठने लगे। पाँच जब माँ तारिका नें दूध मँगाकर छोटे बच्चे को पिलाया तो वह चैतन्य हुआ और माँ की ओर स्नेहिल दृष्टि से देखने लगा। तारिका ने बच्चे को उठा कर ह्रदय से लगा लिया और बड़े लड़के से कहा,’’ बेटे! तुम भी तो भूखे होंगे,क्या खाओगे?,,लड़के ने संतोष की साँस लेकर कहा,’’ माँ! मेरा भैया जी गया,मैं खा चुका,मुझे भूख नहीं लगी है।,, ‘’फिर भी,यह लो परेण और चीनी तुम भी खा लो,फिर आगे की बात सोची जायगी।इस प्यार भरे भोजन को हाथ में लेते ही लड़के को अपनी माँ की याद आ गयी।उसने एक ग्रास मुँह मे डाला और फूट-फूट कर रो पड़ा। बालक को रोता देख माँ तारिका के भी नेत्रो में आँसू गिरने लगे।उसने वात्सल्य भाव से बालक के आँसू अपने आँचल से पोंछकर कहा,’’ बेटा!रोओ मत । मेरे रहते तुम अपने को अनाथ मत समझो।खाओ मेरे लाल,खाओ।,, माँ तारिका का वात्सल्य पा कर बालक चुपचाप खाने लगा।भोजनोपरान्त बालक का खिन्न मलिन मुख खिल गया। बालक को प्रसन्न चित्त देखकर तारिका ने पूछा,’’ बेटे तुम इस अबोध शिशु को लेकर क्यों भटक रहें हो?अपनी पूरी कहानी बताओ।,,’’ माँ! मुझे जाने दो,मेरी कहानी सुनकर क्या करोगी?मुझे अपना पता बता दो यदि जीवित रहा तो रहा तो कभी-कभी आ कर आशीर्वाद ले लिया करुँगा।,, ‘’ बेटा कभी कभी की बात मत करो। तुमसे जो पूँछ रही हूँ।उसे जानने की मेरी इच्छा है।,, ‘’माँ! मत सुनो।,, ‘’ नहीं,बेटा! अवश्य बताओ।,, बालक ने रो रो कर अपनी करुण कहानी माँ तारिका को सुनाया।तारिका बालक की दुख भरी कहानी को सुनकर कुछ समय तक सोच विचार में बैठी रही। कुछ क्षणों के बाद गले को साफ करके बोली,’’ बेटा!तुम्हारी कहानी बड़ी ही करुणा पूर्ण है।‘’ अच्छा बेटा! अपना नाम बताओ।,, ‘’ मुझे लोग श्यामू कहकर पुकारते हैं।,, ‘’ इस बच्चे का क्या नाम है?,, ‘’ इसका नाम शाकुल है।,, ‘’ बेटे! इतने दिन तो तुम विपत्ति के पहाड़ के नीचे दबे रहे।अब चिन्ता त्यागो।,, ‘’ मम्मी की याद बार-बार आती है माँ! उसका प्यार भुलाए नहीं भूलता मेरी मम्मी तुम्हारी ही तरह थी माँ!,, तारिका की आँखो से पुन:आँसू छलक पड़े। फिर उसने कहा,’’ रही होगी तुम्हारी मम्मी बेटे! अब उसकी चिन्ता छोड़ो।चलो मेरे साथ।,, ‘’ कहाँ चलू माँ! तुम भी तो मेरे मैया को नही बेच दोगी?,, इतना सुनते ही तारिका ने श्यामू को अपनी बाँहो में भरकर वात्सल्य भरे शब्दों में कहा,’’ नही, बेटा!डरों नही। यदि किसी राक्षस ने तुम्हारा रक्त पीना चाहा तो क्या धरती के सब लोग उसी कोटि के हो गये? किन्तु तुम्हारा सोचना तर्कसंगत है। दूध का जला मनुष्य मट्ठा भी फूँक कर पीता है।बेटा! तुम्हारे भाग्य में यदि यही लिखा होगा तो लाख उपाय करने पर भी अन्यथा नहीं हो सकता। इसलिये मुझ पर विश्वास करों और मेरे साथ चलो।,, ‘’ तुम्हारे यहाँ मुझे क्या करना पड़ेगा माँ!,, ‘’ मेरे यहाँ तुम्हें मेरे बेटे की तरह रहना होगा।उठो,चलो।,, हिचकिचाहट के साथ श्यामू शाकुल को गोद में उठाकर तारिका के पीछे चल पड़ा।तारिका के घर पहुँचकर श्यामू ने देखा,दरवाजे के सामने एक चारपाई पर अस्सी वर्ष का बुड्ढा बैठा हुआ है।तारिका को देखते ही कहा,’’ भगवान शंकर को रोट चढ़ा कर आ गयी बिटिया! ये दोनों बच्चे तुम्हें कहाँ मिल गये?,, तारिका ने बुड्ढे का चरण स्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त किया ।श्यामू ने भी बुड्ढे का चरण स्पर्श किया। बुड्ढे ने आँखो में स्नेह के आँसू भरकर श्यामू के सिर हाथ फेरते हुये आशीर्वाद दिया और पुन: तारिका से कहा,’’ बेटी! इन बच्चों के विषय में तुमने कुछ नही बताया।यह लड़का तो बड़ा ही शिष्ट और होनहार लगता है। बताओ बेटी! ये कौन हैं?,, ‘’ पिता जी! ये अनाथ बालक हैं। ये किसी दुष्ट के द्वारा अपने माता-पिता से अलग कर दिये गये हैं।,, ‘’आह,बेटी!ऐसे ही तो तुम्हारा रोहित भी छीना गया हैं।हाय! वह भी इसी तरह कहीं ठोकरें खाता होगा।,,इतना कहकर वृद्ध अचेत होकर चारपाई पर गिर पड़ा और पसीने से तर हो गया।तारिका दौड़ कर वृद्ध को होश में लाने का प्रयास करने लगी। वृद्ध के होश में आने पर तारिका रोहित का स्मरण करके फूट-फूट कर कुछ समय तक रोती रही।उसको इस प्रकार रोती देखकर श्यामू ने पूछा,’’ माँ!क्यों रोती हो? हम तुम्हारे बेटे की तरह रहेंगे। कोई चिन्ता मत करो।,, कुछ समय तक रो लेने के बाद तारिका का मन हल्का हुआ।फिर उसने दोनों बच्चों को ले कर घर में प्रवेश किया। उस उदासी भरे भवन का अब कुछ माहौल बदला।रात में तारिका शाकुल को अपनी गोंद में लेकर लेटी। बहुत समय के पश्चात आज पहली बार शाकुल के माता के वात्सल्य का अनुभव हुआ। बहुत रात तक माँ से तोतली वाणी में बातें करता शाकुल सो गया। शाकुल के सो जाने के बाद तारिका को कभी अपनी ससुराल के वैभव की याद आती,कभी अपने स्वर्णिम समय के परिवर्तन की और कभी याद आती रोहित के गुलाबी आमा वाले मुख की रात भर विचारों की श्रृंखला बनती रही। रात कब बीत गयी, इसका उसे पता नहीं। कौवों ने कर्ण कटु रागिनी छेड़ी।तारिका शाकुल को सोता छोड़ कर उठी और देखा श्यामू गहरी निद्रा में सो रहा हैं। तारिका ने वृद्ध पिता के चरण छुए। आशीष देकर वृद्ध ने पूछा,’’ बेटी!बच्चे अभी नहीं जगे क्या?’’ ‘’ नहीं,पिता जी! बच्चे आज निर्भय हैं इसलिये निश्चिन्त होकर सो रहे है।ठीक है,बेटी! सोने दो।,, भगवान भरी चिमाली की किरणें धरती के अन्धकार का विनाश कर चुकी थी।जीव लोक स्वप्न के संसार से लौट चुका था।किन्तु श्यामू अब भी सो रहा था। तारिका ने घर के आवश्यक कार्यों को करने के बाद श्यामू के पास आकर कहा,’’ बेटा श्यामू!आज सोते ही रहोगें? उठो बेटा!धूप निकल आयी है।सूर्य की किरणें तुम्हारे मुख पर पड़ रहीं है।,,श्यामू सकपका कर उठा और तारिका को प्रणाम किया।इसी समय शाकुल की भी नीद टूटी।वह भैया-भैया!कहता हुआ श्यामू के पास आ गया।श्यामू शाकुल को उठाने के लिये उठना ही चाहता था कि तारिका ने फट शाकुल को उठा लिया।उसने कुछ समय तक शाकुल को प्यार परोसा।इस प्रकार के स्नेह को पाकर शायद शाकुल का अवोध ह्रदय यह स्वीकार करने लगा हो कि अब वह मातृहीन नहीं है। शाकुल तारिका से लिपटकर अपना मुँह उसके मुँह पर रख दिया।माँ तारिका शाकुल के मुख को चूम-चूम कर कुछ समय तक उसे खिलाती रही। तारिका और श्यामू का संसार बदल गया।दोनो ही आनन्द का अनुभव करने लगे।माँ तारिका ने एक गाय खरीदी,जिसकी देख-रेख श्यामू बड़े उत्साह एवं लगन के साथ करता। क्रमश:दोनों की पढ़ाई का भी प्रबन्ध कर दिया गया।जब शाकुल का प्रवेश विद्यालय में हुआ तो बड़े भाई के साथ वह भी विद्यालय जाने लगा।विद्यालय बन्द होने के बाद श्यामू घर का काम पूरा करता। पड़ोस वाले तारिका से यों ही जल रहे थे।किंतु जब से ये लड़के आ गये तब से तो मानो उनका सर्वस्व हर लिया गया हो। अब वे लोग तारिका के विषय में अनेक प्रकार की अफवाहें फैलाने लगे।जब अफवाहों का तारिका पर कोई असर नही हुआ तो एक पड़ोसी ने उसके दरवाजे पर घर बनाना चाहा।तारिका ने प्रार्थना की कि आप के पास बहुत जगह है।कृपा करके मेरा मोहारा न घेरे हैं।हमें भी जीने दें।उसकी प्रार्थना का पड़ोसी पर कोई असर नहीं हुआ।उसने अपना काम चालू रखा।श्यामू अब बालिक हो चुका था।इसलिये उससे वह अन्याय नहीं सहा गया।उसने जोरदार शब्दों में इसका विरोध किया।यहाँ तक की मारपीट की नौबत आ गयी।कुछ लोगों के प्रयास से अनर्थ टला। टला।श्यामू ने रोहित के विषय में तारिका से कई बार पूछा पूछा किन्तु वह इधर-उधर की बातें करके इसे टाल देती। आज जब पड़ोसी से विवाद समाप्त हुआ तो श्यामू रोहित के विषय में जानने के लिये आतुर हो उठा।उसने माँ तारिका से कहा,’’ माँ!आज तुम्हें रोहित के विषय में बताना होगा।अब मैं इन हरामजादों से बताऊँगा कि अन्याय का फल कितना विषैला होता है?’’ बेटे’’! बहुत दिन बीत गये हैं अब रोहित के विषय में जान कर क्या करोगे?’’बताओ माँ! शायद सफलता मिल ही जाय।,, रोहित नाम का एक लड़का उसी होटल में काम कर रहा था जिसमें श्यामू कैद था।इसलिये रोहित के विषय में जानने की विशेष उत्सुकता थी।श्यामू ने फिर हठ पूर्व कहा,’’ माँ बताओ! आज मैं रोहित के विषय में जाने बिना उठूँगा नहीं।,, तारिका ने जब देखा कि श्यामू हट करके बैठा है और बिना बताये मेरी जान छोड़ने वाला नहीं है,तो बताना पड़ा। ‘’ बेटा!सात वर्ष का मेरा एक लड़का था।वही मेरे जीवन का एक मात्र आधार था उसे पढ़ने के लिये प्राथमिक विद्यालय में भेजने लगी।प्रसन्नता पूर्वक वह विद्यालय जाने-आने लगा।एक दिन जब संध्या समय न...ही...आ..या..तो गाँव….के कई..लो..ग.मैं...और बाबूजी..ने रात भर उसकी खोज की,किन्तु उसका कहीं पता नहीं चला। इस प्रकार हम लोग कईं दिनों तक उसकी खोज करते रहे।,प...र...स…ब..व्यर्थ।अंत में निराश हो,रो पीट कर संतोष करना पड़ा। रोहित के विषय में जानकारी हो जाने के बाद श्यामू के मन में आया कि होटल वाले रोहित की जानकारी तारिका को दे दे।किन्तु उसे बताना उसने उचित नहीं समझा।उसने सोचा, हो सकता है,वह रोहित हो। वही हो तब भी उसे कैसे मुक्त किया जा सकता हैं?फिर उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह कोई भी रोहितहो मै उसे अवश्य छुड़ाऊँगा।फिर उसने तारिका से कहा,’’माँ यदि रोहित जीवित होगा तों मैं उसे लाकर तुम्हारे हवाले करुँगा। इस कार्य में मुझे चाहे कितना ही कष्टो का सामना करना पड़े।,, तारिका ने,बेटा...य..दि! कुछ कहना चाहा किंतु कह न सकी। तारिका और पड़ोसी के बीच झगड़ा तो शान्त हो गया,परन्तु पड़ोसी ने थाने पर जाकर श्यामू और शाकुल के नाम एफ0आई0आर दर्ज करा दिया।दरोगा को अपने पक्ष में करके पड़ोसी दो-तीन पुलिस लेकर तारिका के दरवाजे पर आ धमका।आते ही एक सिपाही ने पूछा ,’’ श्यामू कौन है?और कहाँ है?,,श्यामू ने बिना किसी भय के कहा,’’ श्यामू तो मैं ही हूँ,कहिए क्या बात है?,पुलिस ने पुन:पूछा,’’शाकुल कौन है?,, श्यामू ने उसी प्रकार फिर उत्तर दिया,’’ शाकुल मेरा छोटा भाई है।,, ‘’वह कहाँ है?उसे जल्दी बुलाओ,, ‘’बुलाता हूँ।आप का अभिप्राय क्या है?,, ‘’आप लोगों ने सुधाघर का घर नहीं बनने दिया,इसलिये आप दोनों को थाने पर चलना है।,, श्यामू-थाने पर चलना है तो चलूँगा,किंतु बात भी कुछ सुनेंगे या वैसे। पुलिस-क्या बात सुनेंगें? आप दोनों को चलना है।यदि सीधें नहीं चलेंगें तो हथकड़ियों के साथ चलना होगा। श्यामू-ठीक है,मैं चलने के लिये सहर्ष तैयार हूँ,किंतु पहले आप न्याय और अन्याय तो देख सुन लें।आप भी तो धरती के ही मानव हैं।आप की जमीन में कोई घर बनाये या कब्जा करें तो आप उसे रोकेंगे नहीं?आप देख लीजिये मेरे दरवाजे पर सुधाधर घर बना रहे हैं।मैने ऐसा करने से रोका अवश्य है।यदि अपनी वस्तु को किसी के द्वारा हड़पते देखकर उसे रोकना भी अपराध है तो मैं नि:संदेह अपराधी हूँ और यदि अपनी वस्तु की रक्षा करना अपराध नहीं है।तो आप लोग न्याय पक्ष की रक्षा करें। पुलिस-देखो,बढ़-बढ़ कर मत बोलो।बहाना बनाने से काम नही चलेगा।हम लोग तुम्हें पकड़कर थाने में ले चलने के लिये आयें है,न कि मुकदमा का फैसला करने।बाबू सुधाधर जी!आप जाएँ।इन्हें तो हम ले ही जायेंगे।,,सुधाधर अपनी सफलता पर मुस्कुराते हुये चले गये।उनके चले जाने के बाद एक पुलिस ने श्यामू से कहा,’’ थाने पे चलकर वहाँ कुछ खर्च वर्च कर के वहाँ से मुक्त होकर चले आओ।श्यामू ने कहा,’’मैं क्यूँ खर्च करुँ?मेरी ही जमीन हड़पी जा रही है,मैं ही खर्च करुँ?वाह रे जमाना!चलो मैं चलता हूँ।,, ‘’ अपने भाई शाकुल को भी बुलाओ।,, शाकुल को साथ ले कर श्यामू सिपाहिंयो के साथ थाने की ओर चल पड़ा। दोनो लडको को पुलिस वालो के साथ जाते देख कर तारिका ने रोते हुये कहा,’’ भैया!मेरे लड़के को कही न ले जाओ,जो कह दे दूँ,इन्हें छोड़ दीजिए।,, तारिका की आवाज सुनकर पुलिस रुके और कहने लगे।‘’देवि!तुम देने के लिये कह रही हो इधर श्यामू शेर की तरह गरज रहा है।तुम जाओ,अब हम इन्हीं से निपटेंगे।,, तारिका ने हाथ जोड़ कर कहा,’’नही,भैया!ऐसा न कीजिए,पैरो पड़ती हूँ,इन्हे छोड़ दीजिए।,, श्यामू ने पुन: कहा,’’ माँ!तुम चिन्ता न करो,जाओ घर!मैं देखता हूँ ये लोग अन्यायी का पक्ष कैसे लेते हैं?,, पुलिस ने पुन:कहा,’’हाँ!तुम्हें क्या चिन्ता हैं?तुम घर लौट जाओ।तुमने तो दो शेर पाल रक्खे हैं न।,, दूर से सुधाघर ने भी कहा,’’ देख लीजिए सरकार!जब आप लोगो के सामने ऐसी बातें कर रहा है।तो मुझे खरी-खोटी सुनाना या मारना-पीटना कौन सी बड़ी बात हैं?जाओ बेटा!जब थाने में कुटम्मस होगी।तब पता चलेगा।तारिका ने गुण्डे पाल रखे हैं।इनका न यहाँ घर और न ये तारिका के रक्त से सम्बन्धित ।ये बहेंतू न जाने कहाँ से आकर यहाँ के बासिन्दें बन गयें हैं।,, कुछ रास्ता तय करने के बाद सिपाहियों ने फिर लेन-देन की बातें कीं किन्तु श्यामू ने उसका उत्तर इस प्रकार दिया,’’ मेरे पास पैसें नहीं है,जिनके पास हो उनसे लीजिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है।,, ‘’मूर्ख!तुम्हें आपत्ति ही होगी तो तुम हमारा क्या कर लोगे? चलो तुम्हारी नेता गीरी का फल चखाता हूँ।घबड़ाओ नही।,, ‘’ठीक है,चल तो रहा ही हूँ।,, थाने के दरवाजे पर पहुँच कर श्यामू एवं शाकुल को वहीं पर कुछ समय तक रुकने के लिये कह कर एक सिपाही भीतर गया।और पंद्रह मिनट के बाद लौट कर दोनो को भीतर चलने के लिये कहा।थाने के भीतर प्रवेश करते ही दरोगा भास्कर ने कहा,’’ क्यों जी!तुम अपने को बड़ा गुण्डा लगाते हो!,, ‘’ नहीं,सरकार!मैं क्यों गुण्डा लगाऊँगा।,, ‘’ तब क्यों ठाकुर सुधाधर का मकान नहीं बनाने देते?साले,मारते-मारते चमड़ी उधेड़ लूँगा, यदि ऐसी हरकत आगे किया।,, ‘’ सरकार! इसमें मेरा कोई दोष नही है।मैने केवल अपनी सम्पदा को सुधाधर द्वारा हथियाने से रोका है।सरकार चलकर स्वयं देख लें।यदि मैंने गलत काम किया हैं।तो जो दण्ड देना चाहें दें।मैनें बाबू सुधाधर जी से प्रार्थना कि कि आप कृपा करके मेरे दरवाजे पर घर न बनाइयें।इतने पर ही वे लोग मुझे मारने दौड़े। गुहार करने पर गाँव के कुछ लोग आ कर बीच बचाव किये।अब आप ही बताइये इसमें मेरा क्या दोष है?,, दरोगा ने कहा,’’ देखो, दोष उसी का होता है जो चालाकी करता है।तुम मामले को उलझते चले जा रहे हो।सुलझाने की कोई बता ही नही कर रहे हो। कुछ सिपाहियों ने तुमसे जो बाते कहीं उसका उत्तर तुमने बड़ी नीरसता और उग्रता के साथ दिया।यदि उनके बातों पर विचार किये होते तो अब तक हँसते हुये घर जाते। अब भी समय हैं।सोच लो अन्यथा जेल में सड़ जाओगे।,, श्यामू ने नम्रता के साथ कहा,’’ दरोगा जी! मेरे पास पैसे नहीं है।आप से न्याय की भीख माँगता हूँ।,, ‘यह समझ लो. हम यहाँ घास छीलने के लिये नही बैठें है।यहाँ तो दो ही बातें हो सकती हैं।या तो कुछ खर्च करो अथवा जेल जाने के लिये तैयार हो जाओ हम कुछ पायेंगें नही तो हमारा खर्च कैसे चलेगा ?,, ‘’ सरकार! आप का खर्च चलने के लिये सरकार आप को वेतन देती है।फिर गरीबों को आप क्यों परेशान करते हों?,, इतना कटु सत्य श्यामू के मुँह से निकलते ही दरोगा जी आग बबूला हो गये। उन्हों ने उठकर श्यामू को कई चपत जमायें।पहले तो श्यामू ने अपनों हाथों पर कई बार रोंकें किन्तु जब सिपाहियों ने दरोगा को असफल होते देखा तो लोग भी श्यामू पर टूट पड़े। विवश शाकुल एक जगह रोता चिल्लाता खड़ा रहा। श्यामू को अधमरा छोड़ कर दरोगा शाकुल की ओर मुड़े और बोले,’’ क्यों साले हराम खोर ,उल्लू के पट्ठे!मार तो उस पर पड़ रही हैं।तुम क्यों चिल्ला रहे हो?,, शाकुल ने विनीत भाव से कहा,’’सरकार!अब न मारिये!छोड़ दीजिए।,, निष्ठुर दरोगा ने बिना उसकी बातें सुने उसके गालो पर कई तमाचा जड़े।बालक शाकुल चोट और मार से काँप कर भूमि पर गिर पड़ा।,,’’ तब दरोगा ने कहा,’’ ले जाकर सालो को बन्द कर दो।,, शाकुल की ऐसी दशा देखकर श्यामू के मन में प्रतिशोध की भावना जाग पड़ी।वह मन ही मन सोच रहा था।इसका बदला तो लेना ही है।जब भी अवसर मिलेगा इसका बदला अवश्य लूँगा।,, तारिका और वृद्ध पूरन सिंह ने जब उन लड़को की दुर्दशा सुनी तो दो चार सौ रुपयों की व्यवस्था करके तीसरे दिन किसी प्रकार उन्हे जेल से छुड़ाये उन दोनों को जेल छुड़ाये उन दोनों को जेल से मुक्त करतें हुये दरोगा ने कहा,’’ बेटा श्यामू! जाओ अब ऐसा काम मत करना।बड़ो के सामने कैसा बोलना चाहिये इसका ध्यान रखना।‘’ आप मेरे पिता तुल्य हैं।आप जो कुछ कर रहे हैं।मैं उस पर तो ध्यान दूँगा ही किंतु सब को अपनी करनी का फल भोगना ही पड़ता है।और जो भी दुष्कर्म मैं आप या कोई भी करेगा उसका कुफल भविष्य में मिलकर रहेगा।,, दरोगा यह नही समझ सकें कि श्यामू क्या कह रहे है?उसने श्यामू को पराजित समझ कर कहा,’’ हाँ,बेटा! ठीक कह रहे हो। जाओ,अब कभी भी तुम्हारी शिकायत नहीं आनी चाहिये।,, छ: राधा चली गयी। कल्पू सिंह एक जगह पर बैठ कर विलख रहे थे। अरविन्द की दुनियाँ उजड़ चुकी थी।वह एक कोने में फूट-फूट कर रो रहा था।लल्लू अनाथ की भाँति छटपटा रहा था।चारो ओर उदासी,करुणा और नीरसता का वातावरण। कल्पू सिंह का घर भूतों का डेरा हो गया।किसी को किसी के खाने की चिन्ता नहीं रही। जब सूर्य ढलने को हुआ तो कल्पू सिंह ने देखा कि उनका छोट लड़का एक चारपाई पर रोते-रोते सो गया था।कल्पू सिंह ने उसे जगाया और हाथ मुँह धुला कर कुछ खाने की व्यवस्था करने हेतु घर के भीतर प्रवेश किया।वहाँ उन्हों ने देखा, बर्तन साफ करके रखा गया है।चुल्हा पुता हुआ है।भोजन की सारी सामग्री चुल्हे के पास रखी हुई है।यह सब देखकर उनकी आँखो से जल की धारा प्रवाहित हो चली। फिर राधा जिस घर में रहती थी,उसमें जा कर देखा,राधा ने अपने सारे गहने उतार कर सन्दूक के ऊपर रख दिये थे।गहनों के पास ही संदूके एवं घर की कुंजिया रक्खी हुई थीं।कल्पू सिंह ने सन्दूक खोल कर के देखा, उसमें राधा के अन्य आभूषण एवं वस्त्रादि पड़े हुये थे। पूरा घर देख लेने के बाद उन्होंने मन ही मन कहा,’’आह!राधे!तुमने अपनी जीवन यात्रा के लिये कुछ नहीं लिया।जाते-जाते तुमने हमारी सुविधा का पूरा ख्याल किया।कल्पू सिंह के सामने अँधेरा छा गया और वे मूर्छित हो कर गिर पड़े। राधा घर से निकल कर उसी प्रकार चली जैसे सर्पिणी केचुली छोड़ कर चली जा रही हो। विचारों के सागर में डूबी हुई वह दिन भर एक दिशा में चलती रही।न उसे कुछ खाने-पीने की चिन्ता थी और न यही-चिन्ता थी कि वह रात कहाँ विताएगी। जब सूर्य अस्ताचल के निकट पहुँचा तब उसका ध्यान टूटा।उसने देखा सामने एक बगीचा है।इसी बगीचे में किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर रात बिताने का उसने विचार किया।उसके मन में आया कि रात में यदि किसी जन्तु का शिकार हो गयी तो प्रभु की कृपा मानूँगी। और यदि बच गयी तो सवेरे दुर्भाग्य जहाँ ले जाना चाहेगा जाऊँगी।धीरे-धीरे राधा ने बगीचें में प्रवेश किया।कुछ दूर चलने के बाद एक वट वृक्ष दिखाई दिया।वह उसी वृक्ष के नीचे बैठ गयी।चारों ओर घना अंधकार छाया हुआ था।रह-रह कर कुछ निशिचर पशु-पक्षियों की आवाजे सुनाई पड़ जाती थीं। राधा अपने भाग्य को कोसती और रोती रात भर जागती रहीं।वह यह निश्चित नहीं कर पा रही थी कि क्या करे? रात बीती सूर्य निकला।राधा ने अब तय किया कि किसी गाँव में चलकर खाने के लिये भीख माँगू।वह चलने के लिये ज्यों ही उठी चक्कर आया और गिर पड़ी।कुछ समय तक वहीं अचेत पड़ी रही।होश आने पर उद्विग्न मना सँभल कर चलने लगी।कुछ दूर चलने पर एक गाँव दिखाई पड़ा।राधा को आशा की किरण दिखाई दी।गाँव के समीप पहुँचकर उसने सोचा,’’ कैसे माँगू?क्या कहूँ?,,फिर कुछ साहस बटोरकर किसी द्वार पर जाकर अपनी दर्द भरी कहानी विलख-विलख कर सुनायी।गृह-स्वामिनी ने सहानुभूति पूर्वक राधा के लिये भोजन की व्यवस्था करके उसे अपने ही यहाँ रहने के लिये कहा।किंतु उसने वहाँ रहना स्वीकार नहीं किया। उसने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया और कहा,’’माँ!मुझे जाने दो,जिसके भाग्य में जो लिखा है भोगना ही पड़ेगा।,, इतना कहते ही उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े।और वहाँ से चल पड़ी। दिन भर चलने के बाद एक नदी के किनारे पहुँची।उसके मन में आया,’’ अच्छा अवसर है।अब इसी नदी में कूद कर इस घृणित जीवन को समाप्त कर देना ही ठीक होगा। यद्पि आत्म हत्या को महापाप कहा गया है।किन्तु इस अवसर पर जी की अपेक्षा आत्मघात श्रेयस्कर होगा। नदी में कूदने का निश्चय कर आगे बढ़ी।किन्तु लगार पर पहुँचते ही ध्यान में आया कि ऐसा करने से आत्महत्या के साथ ही साथ बाल हत्या भी होगीं।जबकि बाल हत्या न करने के कारण ही आज अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है।अन्यथा इस अपराध को कर लेने के बाद समाज के मुँह में थप्पड़ मार कर दूसरों को पायी,अपराधी,व्यभिचारी चरित्रहीन आदि कितने अपशब्द कहकर सती का पद प्राप्त करती।ठीक है,दैव!जो तुम्हें मंजूर है,वही होगा इतना कहकर जोर-जोर से रोने लगी।रोने की आवाज सुनकर एक वृद्ध राधा के निकट आया। एक युवती को इस प्रकार रोते देख कर कहा,’’बेटी!तुम्हारे रोने का क्या कारण है?तुम संध्या समय इस निर्जन और भयावने स्थान में क्यों आयी?तुम्हारें ऊपर कौन सी विपत्ति पड़ी है?,, वृद्ध के बार-बार चुप कराने और पूछने के बाद राधा शान्त हुई।उसने वृद्ध से कहा,’’ पिताजी!मैं एक अपराध के कारण घर से निकाल दी गयी हूँ।कई दिनों से इधर उधर भटक रही हूँ।आज नदी में कूद कर आत्म हत्या करने का निश्चय कर चुकी थी।परंतु कुछ सोचकर वह भी नकर सकी।अब क्या करुँ?कहाँ जाऊ? इसलिये रोने के अतिरिक्त कुछ भी शेष न रहा।,, वृद्ध ने प्यार के साथ कहा,’’ बेटी!तेरा नाम क्या है? ‘’पिता जी!मेरा नाम हतमागिनी राधा है,, ‘’ राधा बिटिया!तुम मेरे घर चलो। वहाँ तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नही होगा।,, ‘’ पिता जी! आप कौन है?आप के घर पर और कौन लोंग होंगे।मेरा वहाँ जाना किसे अच्छा लगे किसे न अच्छा लगे,इसीलिए.....। ‘’ बिटिया रानी मैं भी परम अभागा हूँ।मेरा नाम पूरन सिंह है।महामारी में मेरा सारा परिवार साफ हो गया,मुझ अभागे को छोड़कर ।तुम मेरे यहाँ चलोगी तो कुछ हद तक मेरा दुख दूर हो जायेगा।बेटी!तुम्हें देखने से लगता है जैसे मेरी तारिका लौट आयी हो।बेटी!हू बहू तुम्हारी ही तरह मेरी तारिका भी थी।आज से तुम राधा नहीं मेरी प्रिय बेटी तारिका हो,, राधा को साथ लेकर पूरन सिंह अपने घर की ओर चले। राधा ने संतोष की साँस ली। राधा के घर पहुँचने पर पूरन सिंह को बड़ी शान्ति मिली।पड़ोस वालो को राधा का आना अच्छा न लगा।उन लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की अफवाहें फैलाना आरम्भ कर दिया।परंतु पूरन सिंह को इसकी कोई चिन्ता नही थी।पड़ोसियों से खीझकर एक दिन उन्होंनें अपनी सारी सम्पत्ति राधा के नाम लिख दी।यह समाचार पाते ही गाँव वालों नें उन्हें और राधा को हर ढंग से परेशान करना शुरु कर दिया।विपत्ति के पहाड़ के नीचे से बच निकली राधा के लिये यह परेशानी कोई अर्थ नही रखती थी।आये दिन पड़ोसियों की नीचता का सामना बड़े साहस और धैर्य के साथ करती रही।इसी बीच राधा के खास पड़ोसी के यहाँ घटना घटी।पड़ोसी का एक बारह वर्षीय लड़का बीमार हुआ और अस्पताल पहुँचते-पहुँचते रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गयी।लड़के की मृत्यु का समाचार पाते ही गाँव के लोग उसके दरवाजे पर टूट पड़े।रोते कलझते परिवार के दुख से दुखी लोग उन्हें शांत कराने मे लगे हुये थें।इसी समय लड़के की माँ की दृष्टि एक ओर बैठी तारिका की ओर पड़ी।तारिका को देखते ही वह चिल्ला उठी,’’ इसी तारिका पिशाचिनी ने मेरे लाल को भूत करके मार डाला।अब आयी है।सहानुभूति दिखाने।सब को बेवकूफ समझती है।समझती है मेरी चाल कोई नही जानता हैं।घबराओ नही राड़!इसका बदला नहीं ले लिया तो असिल बाप की बेटी नहीं।कोई इसकी चोटी पकड़ कर यहाँ से हटाओं।इसका मुँह देखने से पाप लगता है।,, तारिका के ऊपर मानो पहाड़ टूट पड़ा।वह तो इस घटना से दुखी हो पड़ोसिन के दुख में सम्मिलित होने आयी थी।किन्तु इसका परिणाम कुछ और ही हुआ।वहाँ से उठकर वह सीधे अपने घर चली गयी। धीरे-धीरे शोक का वातावरण समाप्त हुआ।एक दिन पड़ोसिन ने पंचायत बुलायी।उसने पंचो के समक्ष भूत वाली बातें बतायीं।फिर कहा,’’ पंच परमेश्वर!मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे बेटे को तारिका ने भूत करके मारा हैं।अब आप लोग ही न्याय करें,इसके लिये क्या किया जाय?अथवा आप लोग उसे क्या दण्ड दे रहे है?,, एक पंच ने कहा,’’ क्यों तारिका!तुमने इतना बड़ा पाप किया है कि तुम्हें क्षमा नहीं किया जा सकता।अब तुम्हीं बताओ,इस अपराध के लिये तुम्हें क्या दण्ड दिया जाय?,, तारिका-आप ने कैसे मान लिया कि यह पाप मेरे द्वारा ही हुआ है ?मैंने किसी को मारा है,इसका कोई प्रमाण है?यदि इसका कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाण आप को प्राप्त हो जाये तो मैं निश्चित ही अपराधिनी हूँ।,, एक दूसरे पंच ने जोर देकर कहा,’’बात तो तारिका बिल्कुल उचित कह रही है।धरमू का लड़का मरा है,यह तो दुखद है।किंतु इन्हें कैसे मालूम हुआ कि तारिका ने भूत करके मारा है।ब धरमू इसे स्वयं बताये।,, धरमू ने हाथ जोड़कर कहा,’’ पंचो! तारिका हमसे हमेशा जलती रही और गालियाँ देकर मेरे बेटे को हमेशा सरापती रही। एक दिन झगड़े के दौरान इसने कहा था,’’ देवी कब तुम्हारें बेटे को लूटेंगी?जिस दिन तुम्हारा बेटा मरेगा,उस दिन मैं उत्सव मनाऊगी।,, गाली देने के पंद्रह दिन बाद ही मेरे ऊपर यह चाकी पड़ी।आप ही बताइये मेरे बेटे को मारने में तारिका का हाथ नहीं था,, तीसरे पंच ने कहा,’’ आप का अनुमान सही हो सकता है।किंतु क्या उसे झगड़े में आप अथवा आप के घर वालों ने उसे या उसके पुत्र को गालियाँ नही दी थी? इसलिये यदि आप को तारिका पर संदेह है तो किसी अच्छे ओझा से जाँच करा कर ही तारिका को दोषी ठहरायें।,, सब पंचों ने एक स्वर से कहा,’’ यह निर्णय बहुत सही हैं।अत:आज की पंचायत यही समाप्त की जाय और आज से सातवे दिन हम लोग इसी स्थान पर पुन:इकठ्ठे होंगें।,, धर्मू ने दौड़-धूप कर एक ओझा और एक सोखा को ठीक किया पंचायत के दिन उसी स्थान पर पंच लोग पुन:इकठ्ठे हुये। धर्मू ने कहा ,’’ पंचो! आज यहाँ एक ओझा और सोखा उपस्थित है।आप लोगो को जो जानना हो इन्हीं लोगो से जानकारी हासिल करें।,, दोनो भूत स्वामियों ने घुमा-फिरा कर तारिका नाम जान लिया था।अत:अपराधी का पता लगानें में उन्हें सरलता हो गयी थी।ठीक हैं वे दोनों सामनें आयें।एक पंच ने कहा, ओझा और सोखा दोनों सामने आ गये।पंचों ने उन दोनों के कार्य को पूछा। धरमू ने बताया,’’ सोखा जी अपराधी का पता लगायेंगे और ओझा जी भूतों का पता लगायेंगे।,, एक पंच ने कहा.’’ सोखा जी!आप अपना काम शुरु कीजिए।आप कैसे पता लगायेंगे? ‘’ सरकार कूड़ी घरैंगे।,, ‘’अच्छा कूड़ी धरो।,, सोखा ने जमीन पर रेखाओं द्वारा दो कोठे बनाये।दोनों कोठों में एक-एक नीबू रक्खा।फिर धरमू ने कहा,’’ आप मूठी बाँधि के दोनों निबुओं पर जोर से मारें।,,धरमू ने वैसा ही किया।एक नीबू ज्यों का त्यों बना रहा और एक फूट कर छितरा गया। सोखा ने तुरन्त कहा,’’ पचों!अब मैं अपराधी कौ नाम बताइ रहा हूँ। गलती माफ होइ।,, एक पंच ने कहा,’’ बताओ-बताओ इसमें गलती का कौन सा प्रश्न हैं?,, सोखा ने मंत्र पढ़कर नीबू पर जल छिड़का और कहा,’’ सरकार हमार देवता तो तारिका का नाम बताइ रहा है।,, सुधाधर जो कि पूरनसिंह के खास पट्टीदार हैं-बोल पड़े,’’ सत्य छिपाने से नही छिपता देखिए सोखा जी ने दूध का दूध और पानी का पानी अलग कर दिया।अब तारिका क्या जबाव देंगी?अब तो मामला साफ हो गया कि तारिका ही अपराधिनी हैं।,, किसी पंच ने कहा,’’ अब ओझा जी बताइये कि भूत ही किये गये थें या कोई प्रयोग किया गया था।,, ओझा ने हिचक-हिचक कर मंत्र पढ़ना आरम्भ किया।इस प्रकार लगभग आधा घण्टे तक हिचकते और गाते रहे।फिर रुक कर कहा,’’ तारिका जो भूत मैया के ऊपर कट गयी है।उसमें पल्टन हैं।बाबू पूरन सिंह के घर के जितना लोगन भरा हैं।और बहरें से बहुत भूत आई गयें है।,, तारिका ने पूछा,’’ ओझा जी! बाबू साहब के घर के कितने लोग शामिल है।सही-सही बताना नहीं तो अपना कुशल न समझो।,, ओझा जी पर तो वज्र गिर गया।एक ओर तो मरे हुये लोग़ों को भूत होने की बात कह चुका है।इधर संख्या बताना है। अब क्या करें? कुछ समय तक मौन रहने के बाद कहा,’’ सात लोगन बाबू साहब के अहैं,बाकी बहरे के।,, तारिका ने डपट कर कहा,’’ मूर्ख!झूठ!बिल्कुल झूठ बोल रहा है।मेरे सब भूत और संसार के जितने भूत तुम्हारी पकड़ में आते हो, सब को इकठ्ठा करकें मुझे दे दो,मैं लेने के लिये तैयार हूँ।जल्दी करो।,, ओझा ने कहा,’’तुम समझना कुछ होई त हम नही जानता।,, ‘’ हाँ,हाँ तुम्हें नही जानना हैं।जो कह रही हूँ करो।,, फूल तथा अन्य भुतही सामग्री उठाकर मंत्र पढने के बाद ओझा ने कहा, ‘’थाम हो!,, तारिका ने अपना आँचल फैलाकर सारी सामग्री लेली। सभी पंचों नें कहा,’’ धरमू! अब तो आप संतुष्ट है।तारिका को तो अपनी करनी का फल मिलेगा ही, धरमू ने कहा,’’ अब मैं संतुष्ट हूँ।,, सब पंच अपने-अपने घर गये। पंद्रह दिन के बाद रोहित गायब हुआ। अब पड़ोसियों में प्रसन्नता की लहर छा गयी।लोग कहने लगे, भूतों को मजाक समझ रही थी।दिखा ना उस लड़के को भूत उठा ले गये।और कभी ऐसा हुआ था?बड़ी धमंडी बनी थी।अब तक तो भूतों के फेर में पड़ी नही थी।इसलिये खाँची भर भूत आँचल पसार कर रोपा था।भोग गयी है,अब समझेगी कि भूत क्या होता है? सात एक दिन मधुसूदन ने सुनीता से कहा,’’ सुनीते!मुझसे एक बहुत बड़ा अपराध हो गया है।क्या मुझे क्षमा कर दोगी?यह अपराध हुये एक वर्ष हो गया है।किंतु भय और लज्जा के कारण तुमसे चर्चा नही की।यह सोचकर की कब तुम्हें अंधकार में रखकर उससे वचता रहूँगा,इसलिये साहस करके तुम्हारे सामने उसे खेलना चाहता हूँ।,, सुनीता ने कहा,’’ कहिए,कहिए भला आप भी तो अपराध करने लगे है।,, ‘’ क्या कहूँ देवि! वैसे तो मुझसे स्वेच्छा से अपराध नही हुआ हैं। किंतु उस अपराध को करने के लिये मैं विवश था।,, ‘’ क्या वास्तव में आप से कोई अपराध हो गया है?आप ने वास्तव में तलाक दे दिया क्या?अब तक तो मैं मजाक समझ रही थी।कहकर सुनीता हँस पड़ी।मधुसूदन ने गम्भीर मुद्रा में कहा,’’ अब भी तुम मजाक ही समझ रही हो।किंतु मैं उसे कहने में हिचक रहा हूँ।,, ‘’ आप नि:संकोच कहिए’ मैं सदैव आप की दासी रही हूँ और भविष्य में भी रहूँगी।,, ‘’दासी नही सुनीते! तुम साक्षात देवी हो। अच्छा ,सुनो ह्रदय पर पत्थर रखकर ‘’कहेगें भी,मैं बड़े चाव से सुनने को तैयार हूँ।,, ‘’ मैंने एक विवाह और कर लिया है।बिना तुमसें पूछे तुम्हारें अधिकार को दो भागों में बाँट दिया हैं।इससे बढ़कर और कोई अपराध नही हो सकता।,, सुनीता ने मुस्कुराकर कहा,’’ यही अपराध है?यह तो मेरे लिये सौभाग्य की बात है।यदि आप ने पहले बताया होता तों मैं उत्सव मनाती।अपराध तो आप का यह है कि इतने बड़े उत्सव से मुझे वंचित कर दिया।खैर, अब तो जो हुआ सो हुआ।आप बतायें,मेरी छोटी बहन के दर्शनों से इतने दिनों तक क्यों वंचित रखा? इसके लिये केवल इतना ही दण्ड है।कि कल आप जाइये और परसों मेरी प्यारी बहन को लेकर चले आइये।,, ‘’ देवि! दण्ड स्वीकार है,यदि इससे अधिक दण्ड न दो।,, मधुसूदन दूसरे ड्यूटी पर गया और मंजुला से बाते करके उसे घर चलने के लिये तैयार होने को कहा। मंजुला ने कहा,’’ वहाँ चलने पर बहन जी बुरा माने तो---। मधुसूदन ने कहा,’’ मेरी सुनीता बड़ी साधु प्रकृति की है।वह बुरा तो मान ही नही सकती। यदि बुरा ही मानेगी तो क्या करोगी?अपने घर नहीं जाओगी?,, ‘’ जाऊँगी क्यों नहीं? किंतु कुछ दिनों के बाद।,, ‘’ बुरा मानने की बात तो छोड़ो,उसी ने मुझे बाध्य करके तुम्हें लिवा जाने के लिये भेजा है।,, ‘’सच?’’ ‘’बिल्कुल सच।,, ‘’तब तो अवश्य चलूँगी।,, ठीक तीसरे दिन मधुसूदन मजुला के साथ घर पहुँचे।मंजुला को देखते ही सुनीता दौड़कर मंजुला के गले से लिपट गयी।मधुसूदन को इस प्रेम मिलन से बडी शान्ति मिली।मंजुला ससम्मान सुनीता की सेवा करने लगी।सुनीता के बच्चों की सेवा मंजुला इस प्रकार करने लगी।जैसे उसी के बच्चें हो।जब मंजुला और मधुसूदन के अवकाश के दिन बीत गये तो मंजुला ने ड्यूटी पर जानें की बातें की।सुनीता ने कहा,’’ नहीं,बहन!अब तुम्हें नौकरी करने की आवश्यकता नहीं है।हमारे घर में क्या कमी हैं।कि बिना नौकरी के काम नहीं चलेगा?’’मंजुला ने भी सोचा‘’ ठीक है,नौकरी कोई अच्छी चीज थोड़े है।दिमाग हमेशा उलघंघन में पड़ा रहता है।उसने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। सुनीता और मंजुला कुछ दिन तो बड़े प्रेम से रहीं।किन्तु धीरे-धीरे मंजुला के मन में सदा से चला आया सपली वाला भाव जागृति हुआ।अत:जब-जब मधुसूदन घर आते मंजुला सुनीता की शिकायत किया करती।पहले दो चार बार तो मधुसूदन सुनी अनसुनी करते रहे,किन्तु धीरे-धीरे उनके मन में भी सुनीता के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी।अब सुनीता से कटने लगे।उससे जब भी बोलते कड़े शब्दों में ।सुनीता को समझने में कठिनाई नही हुई।कि मधुसूदन के व्यवहार में।परिवर्तन का कारण केवल मंजुला है।एक दिन कुछ आवेश की बातें मंजुला के मुख से भी निकल आयी।इसका परिणाम यह हुआ कि मधुसूदन ने सुनीता को मारना शुरु कर दिया।सुनीता को रोने चिल्लाने की आवाज सुनकर पास-पड़ोस वालों ने आ कर बीच बचाव किया।मधुसूदन ने सुनीता से नाता तोड़ लिया।सुनीता ने हठपूर्वक कहा,’’ मैं कही नही जा सकती।यह मेरा घर है।मुझे किसी का साहयोग या सहानुभूति नही चाहिये।इतना सुनते ही मधुसूदन ने उसे मारते घसीटते हुये घर से कुछ दूर ले जा कर पटक दिया और कहा,’’ अब यदि घर की ओर पैर बढ़ाया तो पैर काट लूँगा।,, सुनीता ने गिड़गिड़ाते हुये कहा,’’ मेरे बच्चों को लेने दीजिये मैं चली जाऊँगी।,, मधुसूदन ने पुन: दो लात मार कर कहा,’’ बच्चों के नाम लिया तो जीभ काट लूँगा।,, रोता हुआ बडा लड़का छोटे बच्चे को गोद में लेकर माँ के पास आ ही रहा था।कि बीच में ही मधुसूदन ने ही उसे डपट कर घर लौटने के लिये कहा।कि निरीह बालक भयभीत होकर लौट गया।घर जा कर मधुसूदन ने उन्हें एक कोठरी में बंद कर दिया। रात भर तो सुनीता उसी स्थान पर रोती बिलखती पड़ी रही,’किंतु सूर्य निकलने से पहले ही वहाँ से चल दी।एक-दो दिन तो वह अज्ञात दिशा में चलती रही,पर उसने सोचा कि इस नारकीय जीवन पर से तो मर जाना ही अच्छा होगा।अत: किसी कुएँ में कूदकर इस संसार से मुक्त होने का निश्चय करके इधर-उधर कुएँ की खोज करती हुई चलने लगी।सहसा एक बगीचा दिखाई दिया।कुछ क्षण विश्राम करने के लिये उसने बगीचें मे प्रवेश किया।बगीचे का दृश्य बड़ा ही लुभावना था।इसलिये कुछ आगे बढ़ी।इसी समय उसकी दृष्टि एक मंदिर पर पड़ी।मंदिर को देखकर सुनीता बहुत प्रसन्न हुई।यह सोचकर की मंदिर है तो कुआँ अवश्य होगा।यहाँ उसमें कूदने से रोकने वाला भी कोई नहीं होगा।मंदिर बस्ती से दूर था और ग्रीष्मकाल की दोपहरी थी,इसलिये उसने सोचा कि अधिक से अधिक मंदिर का कोई पुजारी होगा।सम्भव है वह भी इस भीषण गर्मी से कहीं सो रहा हो।यदि ऐसा न हुआ तो उसकी निगाहें बचाकर कही छिप जाऊँगी,और जब भी अवसर मिलेगा, अपना काम पूरा कर लूँगी।इन्हीं विचारों में मग्न वह मंदिर के पास पहुँच गयी।मंदिर के सामने ही एक कुआँ था।कुएँ को देखते ही सुनीता को मुँहमाँगा वरदान मिल गया।वह आगे बढ़ी इसी समय ‘राम चरित्र मानस’ की एक पंक्ति उसे सुनाई दी-‘’ कछुऊ दिवस जननी धरु धीरा।,पाठ रुक गया।पाठ करने वाली वृद्धा ने सुनीता को कुएँ की ओर बढ़ते हुये देखा।सुनीता की दृष्टि भी मंदिर के द्वार की ओर पड़ी।उसने देखा कि एक साध्वी वृद्धा मृग-चर्म पर बैठ कर’ राम चरित मानस,का पाठ कर रही है।सुनीता ने सोचा’कछुए दिवस जननी धरु धीरा, क्या कोई शक्ति मुझे धैर्य बँधा रही है? सम्भव है मेरे श्यामू और शाकुल की आत्माएँ ही मुझे जीवित रहने के लिये प्रेरित कर रही हों।,, इसी समय वृद्धा ने पुकारा,’’ बेटी! क्या चाहती हो यहाँ आ जाओ।,, सुनीता ने वृद्ध के पास पहुँचकर अभिवादन किया। वृद्धा ने आशीर्वाद देकर उसे बैठने के लिये कहा। सुनीता ने कहा,’’ माँ! मुझे बैठाओं नही,जाने दो।,, ‘’बेटी!इस प्रकार की बाते क्यों करती हो? एक चटाई की ओर संकेत करके बैठ जाने के लिये कहा।,, सुनीता के बैठ जाने के बाद वृद्धा ने एक अलमारी खोलकर कुछ मिष्ठान और फल निकाल कर सुनीता के सम्मुख रख दिया।खाद्य सामग्री देखकर सुनीता की आँखों से आँसू की बूँद टपकने लगीं।इस समय उसके सामने श्यामू और शाकुल की मूर्तियाँ नाचनें लगीं।वृद्धा के बार-बार खाने के लिये कहने पर भी सुनीता का ध्यान बच्चों की ओर से नही हट रहा था।वह बहुत समय तक विलख-विलख कर रोती रही।उसे रोती देखकर वृद्धा की भी आँखे भर आयी।अवरुद्ध कण्ठ से वृद्धा ने पुन: कहा,’’बेटी!यह लो पानी,हाथ-मुह धो लो। मेरा कहाना मानो रोओ नहीं बेटी! वृद्धा के कई बार कहने पर सुनीता थोड़ा सा मीठा खा कर पानी पिया। सुनीता को पानी पिलाकर वृद्धा ने पूछा,’’बेटी!तुम्हारे दुख का क्या कारण है।तुम कौन सा कष्ट लेकर भगवान शंकर के दरबार में आयी हो?बताओ,बेटी! मैं भी तुम्हारे लिए भगवान आशुतोष से प्रार्थना करुँगी।‘’ कुछ नहीं माँ!यों ही चली आयी।,, ‘’यदि ऐसी ही चली आयी तो रोती क्यों हो? मनुष्य के ऊपर जब कोई आपदा आती हैं।तब इस प्रकार आँखों में आँसू आते हैं।यह तों मै मान ही नहीं सकती कि तुम्हें कोई दुख नहीं है।बताओ बेटी! मुझे अपनी माँ समझ कर बताओ । माता से बिटिया कुछ भी नहीं छिपाती।मै माँ की हैसियत से पूँछ रही हूँ,तुम्हें बताना ही होगा।,, वृद्धा को बहुत हठ करने पर सुनीता ने अपनी सारी व्यय कथा सुनायी।उसकी करुणा कहानी सुनते समय वृद्धा की आँखों से अनवरत आँसू की बूँदे टपक रही थीं। सुनीता के विषय में जानकारी प्राप्त करके वृद्धा ने कहा,’’ बेटी अब मेरे साथ यही पर रहो,कहीं मत जाओ।यहाँ तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा,, ‘’ठीक है माँ! अब मैं आप ही के साथ रहूँगी।वैसे इस निर्जन में मेरे आने का कारण कुछ और था। यह सोचकर की इस संसार में अब मेरा कोई नही है-इसी कुएँ में गिरकर आत्म हत्या के विचार से उधर जा रही थी।किंतु,’’ कछुक दिवस जननी धरु धीरा।, यह पंक्ति मेरे और मृत्यु के बीच पहाड़ बनकर खड़ी हो गयी और इधर आप की ओर दृष्टि पड़ते ही लगा जैसे यह आप की भव्य मूर्ति पीयूष कलश लिए खड़ी है।इसलिये अब मैंने यह निश्चय कर लिया है कि अब मुझे जीना ही है, चाहे कितनी ही कष्ट सहने पड़े। ‘’हाँ बेटी!भगवान ने यह शरीर बनाते समय कितना श्रम किया होगा,उस शरीर को क्षण भर में नष्ट करने वाला परमात्मा को कितना प्यार होगा?भला ऐसी नादानी करनी चाहिये? आत्मघात करने वाले को रौख नरक होता है? जब हम सुख मिलने पर फूले नहीं समाते तो दुख के समय जीवन से निराश क्यों हों?भूख के बाद तृप्ति और तृप्ति के बाद भूख निश्चित हैं।इसी प्रकार सुख के बाद दु:ख और दुख के बाद सु:ख अपरिहार्य है। इसलिये बेटी मैं कहती हूँ,दुख को उसी प्रकार स्वीकारो जैसे सुख को।,, ‘’ ठीक है माँ! तुम्हारी बातें सिर-माथे।,, सुनीता के मन में जिज्ञासा हुई कि वृद्धा माँ इस मंदिर पर कहाँ से और क्यों आ कर रह रही हैं।उसने कहा,’’माँ!एक बात मैं पूछना चाहती हूँ किंतु भय और संकोच वश पूछने का साहस नहीं हो रहा है।,,’’बेटी!मैंने कहा दिया है कि बेटी माँ से कोई बात नहीं छिपाती,तो माता से ही कोई बात पूछने में कैसा भय और संकोच?तुम निर्भय और नि:संकोच मुझसे कोई बात पूछ सकती हो।,, ‘’ अच्छा माँ बताइये आप इस निर्जन में अकेली क्यों रह रही हैं?,, ‘’बेटी!पूछा तो तुमने ठीक किया और मैं भी तुम्हें कोई बात बताने का वचन दे चुकी हूँ परंतु इसे न कहलवाओ तो अधिक अच्छा हो क्योकि गडा मुर्दा उखाड़ने से दुर्गन्ध ही फैलेगी,सुगन्धि नहीं।,, ‘’ यदि ऐसी कोई बात हो कि बेटी से भी छिपायी जाय तो रहने दीजिए।,, ‘’ छिपाने की कोई बात नही है बेटी! परंतु जिस पीड़ा को लेकर यहाँ आई थी वह पुन: नवीन होकर ह्रदय विचारक होगी,चलो किसी दिन बता दूँगी।,, नहीं माँ! यदि ह्रदय विदारक कहानी हो तो कभी न बतायें और यदि कभी बताने की इच्छा हो तो आज ही बतायें।,, वृद्धा ने जब समझ लिया कि सुनीता के मन में जानने की प्रबल इच्छा है तो बताना आरम्भ किया-बेटी! मेरा विवाह एक सम्पन्न परिवार में हुआ था।मेरे पतिदेव अच्छे वैद्य थे। बहु दूर-दूर से लोग रोते हुये आते थे और हँसते हुये जाते थे।वे बड़े दयालु प्रकृति के थे।किसी भी रोगी से उतना ही पैसा लेते थे जो दाल में नमक के बराबर था।फिर भी रोगियों की संख्या अधिक होने के कारण पर्याप्त धन इकट्ठा हो गया था।मेरे दो लड़के थे।सम्पन्नता मे पलने के कारण उन्हें कोई काम नही करना पड़ता था।पढ़ने लिखने में उनका मन नही लगता था।वे दिन भर बुरे लोगो के साथ रहते और घर का पैसा पानी की तरह बहाते। कुसंगति मे पड़ने के कारण बडा लड़का तो शराबी हो गया और छोटा जुआरी। एक दिन शराब के नशे में चूर बड़ा लड़का अनाप-सनाप बकता हुआ घर पहुँचा।मेरे पतिदेव उसकी यह दशा देखकर बहुत ही लज्जित और दुखी हुये।उन्हों ने उठकर कहा,’’ दुष्ट कहीं का क्या बक रहा है?,, इस पर गालियाँ देते हुये वह उनकी ओर झुका। उन्होने हाथ पकड़कर उसे एक थप्पड़ मारा । मार पड़ते ही उसने उन्हें भूमि पर पटक दिया और छाती पर चढकर मारना शुरु कर दिया। इसे देखकर मैं छुड़ाने के लिये दौड़ी।मुझे देखते ही..........।कुछ क्षण तक वृद्धा के मुझ से शब्द नहीं निकले। कुछ क्षणों के बाद फिर बताना शुरु कर दिया। मुझे बाहो मे कस लिया और तुम मेरी प्यारी..... कहाँ...थी...आ..ब..तकक्क्। अब...तो...कूँ...न..न...ही छोड़..तो। इस प्रकार कहता हुआ पशुवत चेष्टा करने लगा।इसी बीच छोटे लड़के ने भी ललकारा-शाबास भैया।छोड़ना नही यह राँड़।जुआ खेलने के लिये आसानी से पैसा नही देती।मैंने छुड़ाने का बडा प्रयास किया।जब देखा कि यह मेरे छुडाये नही छोड़ सकता तो मैंने उसकी बाँह में दाँतो से काटा।उसके हाथ ढीले पड़े। और मै मटका देकर किसी तरह उसके चंगुल से मुक्त हो भागती हुई घर मे घुस गयी।उसने मेरा पीछा तब भी किया।परंतु मैंने भीतर से किवाड़ बंद कर लिये।कुछ समय तक वह गालियाँ देता हुआ किवाड़ पीटता रहा।फिर मैंने किवाड़ को थोडा सा खोलकर देखा कि वह अपने पिता की ओर जा रहा है।मैने हाथ में एक डण्डा लेकर किवाड़ खोला और देखा कि वह उनके पास तक पहुँच चुका है।तेजी से दौड़कर मैंने पीछे से उसके सिर में एक डण्डा मारा।इस चोट से वह अपने को सँभाल न सका।भूमि पर गिर पड़ा।उसके गिर जाने से दर्शकों मे साहस आया और उन लोगों ने धर-पकड़कर मामले को सुलझाया। उसके चैतन्य होने से पहले ही मैंने पतिदेव से कहा,’’ अब गाँववालो के सामने मैं मुँह दिखाने लायक नही रह गयी हूँ। गाँव वाले मुझे देखकर बोलीं बोलेंगे-जिसका पुत्र माँ के साथ बलात्कार करने पर उतारु हो उसे चिल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिये।स्वामी!अब मैं यहाँ एक क्षण भी नही रहना चाहती।वैध जी ने कहा देवि!मै भी यही चाहती हूँ,चलो तैयारी करो कहीं दूर चलकर कुटी बनाये।,, वहाँ से उसी समय दोनों चल दिये।कई दिन चलने के बाद यहाँ पहुँचे ।यह स्थान हमें बहुत अच्छा लगा इसलिये यहीं एक कुटी बनाकर रहने लगे।मेरे पतिदेव दूर-दूर गाँव मे जाकर रोगियों का निदान और उपचार करने लगे।धीरे-धीरे यहाँ भी उनकी ख्याति बढ़ने लगी।कुछ समय व्यतीत होने पर कई लोगों ने यहाँ एक मंदिर बनवाने की सलाह की।और जनता के सहयोग से यही मंदिर और कुआँ बनवाया गया।काल की क्रूरता ने दो वर्ष हुये मेरे देवता को भी मेरे साथ न रहने दिया।कुछ क्षण तक वृद्दा और सुनीता दोनों आँसू पोंछती रहीं। आठ सुनीता के घर से चली जाने से मंजुला के मार्ग का कण्टक तो साफ हुआ परंतु अब भी दोनो लड़को की उपस्थिति खल रही थी।पहले कुछ दिनों तक तो मंजुला उनकी देखरेख करती रही किंतु बाद में उन्हे सताने का कोई न कोई बहाना खोज लिया करती थी।श्यामू विद्यालय जाने लगा था।किंतु शाकुल अभी अबोध था।इस लिये वह दिन भर अनाथ बना मंजुला की कृपा की वाट देखता रहा।दिन भर मे ये एकाध बार मंजुला कुछ खाने की सामग्री उसे दे देती।जब रोता मंजुला उसे पीट कर धर देती। इसलिये रोना भी शाकुल के लिये दुर्लभ था।किसी प्रकार ये दोनो यातनामय जीवन जी रहे थे। मधुसूदन को ड्यूटी पर जाना पड़ता इसलिये मंजुला पूर्ण स्वतंत्र थी।अब उसका संसार बदलने लगा था।अलख निरंजन उसके यहाँ आने-जाने लगे थे।घण्टों बाते करने के बाद घर वापस जाते।एक दिन अलख निरजंन आँगन में चारपाई पर बैठकर मंजुला से प्रेमालाप कर रहे थे।तभी श्यामू विद्यालय से आ गया। श्यामू को देखते ही मंजुला ने स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिये श्यामू को डपट कर कहा,’’क्यों हरामजादे! मैंने तुम्हें पढ़ने के लिये भेजा था।?‘’ हाँ मम्मी।,, ‘’ तो फिर क्यों चार बजे से पहले ही चला आया?अब मैं समझ गयी,तुम पढ़ चुके!मैने सोचा था,शास्त्री जी को बुलाकर कह दूँ एक घण्टा पढ़ा दिया करें लेकिन जब तुम्हें अवारा ही होना है तो कौन बिद्वान बना सकता है?पंडित जी !अब आप जाये!आप से इसके ट्यूशन की बातें कर रही थी।पर आप ने भी देख लिया,इसके लिये जो भी व्यवस्था की जाय सब व्यर्थ।,, शस्त्री जी ने यह भी कहा,’’तुम्हें ऐसा नही करना चाहिये बेटा।,, श्यामू ने कहा,’’ गुरुजी !मै अपने मन से नही आया हूँ।आज स्थानीय मेला होने के कारण दोपहर को छुट्टी हो गयी।,, ‘’अच्छा,अच्छा ठीक है।,, स्वैर्दोषै:हि शंकितो स्यान्मनुष्य:।(अपने ही दोष के कारण मनुष्य सशंकित होता है।)यद्पि श्यामू का ध्यान शास्त्री और मंनुला के प्रेम व्यवहार की ओर नही गया था।किंतु मंजुला ने सोचा कि श्यामू सब कुछ समझ गया है।इसलिये अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने लगी।उसे भय था कि मधुसूदन के आने पर सब कुछ कह देगा इसीलिये वह विशेष लज्जित और खिन्न थी।श्यामू ने उनसे पुन: कहा,’’बेटा!मैं तुम्हें विद्वान बनाना चाहती हूँ इसीलिये आज आये तो आये भविष्य मे चार बजे से पहले कभी मत आना।यदि दोपहर को भी छुट्टी हो जाय तब भी वहीं कही बैठकर दिये हुये कार्यों को पूरा किया करो।,,’’ठीक है मम्मी!अब ऐसा ही करुँगा।,, एक दिन एक युवक ने मधुसूदन के दरवाजे पर आकर पुकारा ,’’पंडित जी आज नही आये क्या? भीतर से निकल कर मंजुला ने कहा,’’ आइये,बैठिये क्या बात है?मुझसे बताइये।,, ‘’क्या बताऊँ उन्हीं से काम था।,, ‘’ फिर भी बैठिये।,, युवक संकोच के साथ चारपाई पर बैठ गया। मंजुला ने अभी आयी कहकर घर के भीतर प्रवेश किया और दो मिनट के बाद जल पान की व्यवस्था करके आ गयी।युवक ने कहा,’’पानी पीने की इच्छा नही है, आप बताइयें पंडित जी कब आ रहे हैं? मंजुला ने मुस्कुरा कर कहा,’’ पंडित जी न आये तो आप मेरी सेवा स्वीकार नही करेंगे?,, ‘’क्यों नही?लाइये पानी पीलूँ।,, ‘’अब अपना नाम और काम बता दीजिये आने पर मै बता दूँगी।,, ‘’ नाम तो मेरा होरिल है। मुझे कुछ रुपयों की आवश्यकता है यह काम तो बिना पंडित जी के होगा नहीं।अच्छा, तो मुझे आज्ञा दीजिये अब चलूँ।,, मंजुला ने जिस समय युवक होरिल के गठे शरीर,घुँघराले बाल,गौर वर्ण एवं विशाल नेत्रो को देखा और उसकी सुधा वर्षो वाणी को सुना ,उसका ह्रदय अनायास ही उसकी ओर खिंच गया था।इसी कारण वश उसने कहा,,’ जाने वाले को कौन रोक सकता है?जाइये,किंतु कल आने का वचन दे कर ही।,, होरिल ने कहा,’’ठीक है,कल फिर आऊँगा।,, होरिल वचन का पालन करने के लिये दूसरे दिन पुन: आया।उसको देखते ही मंजुला सिहर उठी।वह दौड़ कर होरिल के पास आयी और स्वागत किया।आज होरिल भी मंजुला को उसी प्रकार देख रहा था जैसे मंजुला होरिल को। जो होरिल कल वहाँ से शीघातिशीघ्र जाना चाहता था आज उठने का नाम ही नही ले रहा है।जब चार बजने को हुआ तो मंजुला ने स्वयं कहा,’’ श्यामू के आने का समय हो गया है।बताइये?कल कब आयेंगे?,, जिस समय आज आया था।,, होरिल चला गया। मंजुला एक क्षण के लिये भी होरिल को नही भुला पा रही थी। वह होरिल से ऐसी खिंची कि अलख निरंजन का आना उसे बहुत बुरा लगा।अलख निरंजन के आने पर उसने कहा,’’ देखो शास्त्री! अब तक जो हुआ सो हुआ।मैं कुल-वधू हूँ।तुमने मुझे वेश्या समझ लिया है।जब चाहते हो,चले आते हो।खबरदार!जो अब कभी दिखाई दिये तो ठीक नहीं होगा।,, मंजुला की बाते सुनकर अलख निरंजन को बड़ा आश्चर्य हुआ;क्योंकि अभी तक तो मंजुला उसे ह्रदय में बैठा लेना चाहती थी और एक दिन के अंतराल भी उसे दुख दायी होता था।आज क्या हो गया है उसे?,, अलख निरंजन हारे जुआरी की तरह बिना कोई उत्तर दिये वहाँ से वापस लौटे। अलख निरंजन के जाने के पंद्रह बीस मिनट बाद ही होरिल दिखाई पड़ा।जिसे देखते ही मंजुला कमल-कलिका सी खिल उठी।आगत-स्वागत के बाद दोनों भाव विभोर हो प्रेमालाप करते रहे। यहाँ तक कि आज उसे श्यामू के आने का भी ध्यान नहीं रहा। इसी बीच श्यामू आ पहुँचा। उसने देखा कि मंजुला एक युवक के कंधे पर हाथ रख कर बातें कर रही थी। अब श्यामू को पूर्ण नही तों कुछ-कुछ लोकाचार का ज्ञान तो हो ही गया था।इसलिये इस दृश्य से उसे दु:ख हुआ। फिर उसने ऐसी मुद्रा बनायी जैसे कुछ समझ ही न रहा हो।श्यामू को देखते ही मंजुला उठ खड़ी हुई और श्यामू से कहा श्यामू इन्हें तो पहचानते होंगें,, ‘’नहीं मम्मी! मैं इन्हें नही जानता।,, ‘’ ये मेरी मौसी के लड़के है।आज इन्हें दस वर्षो के बाद देख रही हूँ।तुम भी इनसे कम से कम नमस्कार तो कर लो।,,श्यामू ने तुरंत रिश्ता जोड़ा और कहा,’’मामाजी!नमस्कार।,, युवक ने नमस्कार बेटा-कह कर पूछा,’’तुम किस कक्षा मे पढ़ते हो?,,मामा जी!मैं कक्षा पाँच में पढ़ता हूँ।,, कुछ समयोपरांत होरिता ने कहा,’’ बहन जी!अब मैं जाना चाहता हूँ।आप मुझे आज्ञा दीजिये।,,मंजुला से पहले ही श्यामू बोल उठा,’’नहीं,मामाजी!आज मैं आप को नही जाने दूँगा।आज रुककर कल जाइये।आज शनिवार है पापा भी आते होंगे।,, ‘’नहीं,बेटा!घर पर ऐसा काम है कि मैं किसी भी हालत में नही रुक सकता।,, मंजुला चाह रही थी कि होरिल यहाँ से शीघ्रातिशीघ्र चला जाय। इसलिये उसने कहा,,’’ यदि नही रुक सकते तो जाये लेकिन महीने दो महीने में दर्शन दें दिया करें।‘’ठीक है फिर मिलूँगा,, मंजुला ने श्यामू को पट्टी तो पढ़ा दी किंतु उसके मन में संदेह बना रहा।उसने सोचा यदि श्यामू मेरी बातों में आ गया होगा तो ठीक है और यदि मेरी चालाकी समझकर मधुसूदन के समक्ष मेरा पर्दाफास किया तो इसे ऐसा फँसाऊँगी कि जीवन भर याद करेगा।मंजुला इसी ऊहा-पोह में बहुत समय तक उलझी रही।थोड़ी ही देर बाद मधुसूदन आ गये।मधुसूदन को देखते ही मंजुला की विचित्र दशा हो गयी। किंतु उसने बनावटी हँसी हँस कर कहा,’’ आइये,’इतनी देर हो गयी। मधुसूदन ने उत्तर दिया,’’गाड़ी एक घण्टा लेट थी इसलिये विलम्ब हो गया।,, जब तक मधुसूदन घर पर थे,मंजुला यही सोंच रही थी कि श्यामू पिता से क्या बातें करता है?श्यामू को मंजुला के कार्यों से कोई मतलब नहीं था। उसने पहले जैसा ही अपने को संतुलित रखा। मधुसूदन के अवकाश का समय बीता और वह अपनी ड्यूटी पर गये। मधुसूदन के चले जाने के बाद मंजुला बहुत खुश हुई।क्योंकि मधुसूदन की ओर से उसके प्रति कोई प्रतिकूल व्यवहार नहीं हुआ। होरिक के अतिरिक्त अब मंजुला के लिये संसार में कोई वस्तु प्रिय नही रह गयी थी। रात दिन उसके सामने होरिल ही दिखाई पड़ता। बहुत तर्क-वितर्क के बाद एक दिन उसने सोचा कि इस संसार मैं चोरी करती हुई कब तक अपने परिवार एवं समाज की निगाहों से बचती रहूँगी? इससे तो अच्छा यही है कि यदि मेरी होरिल तैयार हो तो मैं उसके साथ अन्यत्र कहीं अपना संसार बसाऊँ। उधर होरिल भी ठीक यही बात सोच रहा था।क्योंकि एक ही चित्त-वृत्ति वालों की भाव तरंगे एक दूसरे में समाहित होती है।होरिल आज यही निश्चय करके मंजुला से मिलने चला था कि उससे-कहूँगा-मंजुला यदि तुम मुझे ह्रदय से प्यार करती हो तो मेरे साथ निकल चलों और मेरी ही होकर रहो,’’ इस साझा बाजारी से काम नहीं चलेगा। वह मंजुला के पास पहुँचा।होरिल को देखते ही मंजुला ने कहा,’’ प्रियतम!आप बहुत बड़े स्वार्थी जान पड़ते है।मैं समझती हूँ कि आप केवल स्वार्थ के मीत हैं।,, ‘’क्यों प्राणेश्वरी! तुम ने मुझमें कौन सी कमी देखी? ‘’ यही कि हम लुक छिपकर कब तक जीवित रहेंगें? क्या हम इस समाज से मुक्त नही हो सकते?,, ‘’ तुम्हारी बात मैं समझ गया मंजुले!यदि यही बात मैं भी कहूँ तो तुम समझोगी कि मेरी ही बातों को दुहरा रहे है।आज मैनें घर से चलते समय यही सोचा था कि चलकर मंजुला से ही यही बात कहूँगा किंतु जो मै कहना चाहता था,उसे तुम्हारे ही मुँह से सुन रहा हूँ।,, होरिल की बातें सुनकर मंजुला नें पुलकित होकर कहा,’’प्रियतम ऐसा कब होगा?,, ‘’तैयारी करो , आज ही बारह बजे रात को चले चलें।,, ‘’ठीक तो है,किंतु लड़को का क्या होगा?इन्हें किसके जिम्मे छोड़ा जाय। ,‘’पगली हो।संत कबीर गर्भ से बाहर आते ही त्याग दिये गये थे,उनका क्या हुआ?इसकी चिंता मत करो,जो करना है उसे करो।,, योजना पक्की हो गयी।आज मंजुला बहुत प्रसन्न थी।उसने लड़को की बड़ी सेवा की।उन्हें हमेशा से अच्छा भोजन हमेशा से अधिक प्यार दिया।भोजन के बाद उसने दोनों को बाहर एक चारपाई पर सुला दिया।स्वयं घर छोड़ने की तैयारी करने लगी।घर की सम्पूर्ण मूल्यवान वस्तुओं को एकत्र कर बाँध लिया। रुपये पैसे आदि लेकर घर के भीतर प्रतीक्षा करने लगी होरिल के आने की।बारह बजा होरिल ने अपने आने का संकेत दिया। मंजुला ने गठरी उठायी दोनों चल दिये। रात बीती।सूर्य की किरणें आकाश-मार्ग को पार कर धरती पर उतरी उजड़े हुये उपवन का एक सुमन श्यामू आँखे मलता हुआ चारपाई से नीचे उतरा।उसने घर की ओर देखा,उसमें ताला लटक रहा था।उसनें सोचा माँ कही गयी होगी।उसके आने की प्रतीक्षा में द्वार पर टहलता रहा। कुछ समय के पश्चात शाकुल भी जगा और रोने लगा। श्यामू ने उसे गोंद में उठा लिया।उसे गोद में लिये श्यामू कुछ देर तक घर के आर पार मंजुला की खोज करता रहा।असफल श्यामू भी सिसक-सिसक कर रोने लगा।उसको रोता देख गाँव के कुछ लोगों ने रोंने का कारण पूछा । श्यामू ने बताया,’’घर में ताला लटक रहा है और पता नहीं मम्मी कहाँ है?अब मैं कहाँ जाऊँ?,, गाँव के लोग सहानुभूति पूर्वक दोपहर तक मंजुला की खोज करते रहे।बड़ा होने के कारण श्यामू पर शाकुल की रक्षा का दायित्व था इसलिये उसने गाँव के कई लोगों से शाकुल को कुछ खिलाने के लिये कहा। एक सज्जन ने थोड़ा दूध लाकर शाकुल को पिलाया किंतु किसी ने यह नही सोचा कि श्यामू भी भूखा है। उसके एक सहपाठी ने कुछ खाने का सामान अपने घर से लाकर श्यामू को दिया।श्यामू ने पहले तो खाने की अनिच्छा प्रकट की किंतु साथी के हठ करने पर थोड़ा सा खाया।मंजुला के गायब होने का समाचार बिजली की तरह चारों ओर फैल गया।दोपहर होते-होते बहुत से लोग मधुसूदन के दरवाजे पर एकत्रित हो गये।कोई कुछ कहता कोई कुछ। किसी ने कहा,’’ इन दिनों मंजुला के पास होरिल कलवार बहुत आता था, बहुत कुछ सम्भव है,वही लेकर उड़ा हो। किसी ने कहा,’’ मधुसूदन ने इस वेश्या के फेर में पड़कर जब सुनीता जैसी सती का तिरस्कार किया तो क्या सुख की रोटी खालेंगें?कोई कहता,’’ इसी रण्डी के कहने से मधुसूदन ने सुनीता को घर से निकाला था। पता नहीं बेचारी जीवित भी है या नही या कहीं बुड़ महरा कर मर गयी।,, अलख निरंजन भी भीड़ में उपस्थित थे।उन्हों ने कहा,’’ जो होना था,वह तो हो ही गया।अब आप लोग क्या सोच रहे हैं?सब शान्त थे।इसी बीच एक महाशय ने कहा,’’ शास्त्री जी! अब आप ही बताइये अब क्या हो?शास्त्री जी तो घड़ियाली आँसू बहा रहे थे वैसे तो बहुत प्रसन्न थे क्यों कि आज उन को बिना परिश्रम किये सौदा मिलने की उम्मीद थी।इसलिये उन्हों ने कहा,’’यदि आप लोग मेरे ऊपर छोड़ रहे हैं तो आप लोग अब मंजुला के लौटने की आशा छोड़े। इन बच्चों को मैं अपने यहाँ ले चल रहा हूँ।चार-छ: दिन मे जब मधुसूदन आयेंगें तब जो होगा होगा। अधिसंख्यक लोगो ने कहा हाँ! शास्त्री जी!बच्चो की रक्षा तो होनी चाहिये।आखिर अब यहाँ इनका है ही कौन जो इनकी देख-भाल करेगा? अलख निरंजन ने कहा,’’ श्यामू उठा लो शाकुल को और मेरे साथ चलो।,, अनाथ श्यामू शास्त्री के साथ जाने के लिये बाध्य था। शाकुल को गोद में लेकर शास्त्री जी के पीछे-पीछे चल पड़ा। घर पहुँचकर अलख निरंजन ने श्यामू से एक तख्ते पर बैठने के लिये कहा। उसके बैठ जाने पर शास्त्री जी घर में जाकर थोड़ा सा गुड़ लाकर श्यामू के सामने रख दिया और कहा,’’बेटा!इस समय यही खा कर पानी पी लो। संध्या समय भोजन की व्यवस्था होगी। थोड़ा सा गुड़ शाकुल को भी दे दो। श्यामू ने वैसा ही किया। दो घण्टे रात तक श्यामू भोजन की प्रतीक्षा करता रहा और शाकुल भूख से तड़पता और रोता रहा। घर के सब लोगों के खा लेने के बाद दो-तीन रोटियाँ और थोड़ा सा दाल का जूस श्यामू के लिये भी लाया गया।श्यामू ने थोड़ी सी रोटी और दाल का जूस किसी तरह शाकुल को खिलाया।फिर बचे हुये भोजन को खाकर संतोष किया। भोजन के बाद शास्त्री जी ने अपनी चारपाई श्यामू के पास ही बिछाई। लेटने के बाद उन्होनें श्यामू से कहा,’’ बेटा श्यामू! यहाँ इतने बड़े परिवार में तुम्हारा गुजारा कठिन है। तुम्हारें पिता इस घटना को सुनकर पता नहीं आयें या लोक लज्जा के कारण अपना मुँह छिपाकर बाहर ही रहें। तुम्हारी सोच जिसकी औरत किसी के साथ भाग गयी हो,वह समाज में कैसे मुँह दिखायेगा? मेरा विचार है,शहर में चलकर किसी होटल में तुम्हें नौकरी दिला दूँ। तुम्हारे पिता यदि निर्लज्ज होकर यहाँ आयेंगें ही और चाहेंगी कि तुम नौकरी न करो तो वहाँ से तुम्हें बुला लेंगे। वहाँ तुम्हें और तुम्हारें भाई को भोजन और पीने के लिये दूध भी मिला करेगा। पहनने के लिये कपड़े भी मिलेंगे। महीने के अंत में सौ-डेढ़ सौ रुपये भी पा जाया करोगे।,, श्यामू ने कहा,’’रुपया मैं कहा रक्खूगा?,, ‘’ आज कल तो रुपया रखना बहुत ही आसान है। बैंक अथवा पोस्ट आफिस में अपने नाम का खाता खुलवाकर प्रतिमाह उसी में अपना रुपया जमा कर दिया करो। जब शहर में रहने लगोगे तो स्वयं चतुर हो जाओगे और दूसरों को रास्ता दिखाओगे।तुम्हें किसी प्रकार की चिंता नहीं करनी है।,, श्यामू ने कहा,’’ तो कब चलना होगा?,, ‘’जब कहो! कहो तो आज ही इसी समय चल दें। नौ बजे बस मिलेगी। उसी से चल दो तीन घण्टे में पहुँच जायेगें।,, बाल सुलभ अज्ञान एवं लोभ ने बालक श्यामू को अपने जाल में फँसा लिया,’’जैसा आप समझें।,, अलख निरंजन ने जब समझ लिया कि चिड़िया जाल में फँस गयी है तो उन्हों ने कहा,’’ चलो फिर,सड़क यहाँ से एक किलोमीटर दूर है।वहीं गाड़ी मिलेगी,उसी से हमें चलना है।,,’’ठीक है,चलिए।,, अलख निरंजन के पीछे शाकुल को गोद में लिये श्यामू चलने लगा। सड़क पर पहुँचने के दस मिनट बाद बस आ गयी।बस पर सवार होकर चल दिये। लगभग साढ़े बारह बजे रात उनकी यात्रा समाप्त हुई। अलख निरंजन ने होटल मालिक का दरवाजा खटखटाया।होटल मालिक कूड़ामल ने दरवाजा खोला और अलख निरंजन से धीरे-धीरे मोलभाव करके श्यामू को भीतर चलने के लिये कहा। श्यामू शाकुल के साथ भीतर गया और कूड़ामल ने अलख निरंजन को दो हजार रुपये देकर बिदा किया। अलख निरंजन दो हजार रुपये ऐंठ कर एक रिजर्व टैक्सी करके सूर्योदय से पहले घर पहुँच गये। प्रात: ऐसी मुख मुद्रा बनाये जैसे उनका सर्वस्व लुट गया हो। इधर-उधर दौड़ कर बच्चों की तलाश करने लगा।जो कोई भी मिलता उससे यही कहते कि मैं रात में सो गया श्यामू अपने भाई को लेकर पता नहीं कहाँ चला गया।क्या आप लोगों को उनका कुछ पता हैं?शास्त्री शास्त्री जी की बातें सुनकर लोग भौचक्के रह जाते और कहते,’’ हमें तो कोई पता नही है।लेकिन इस अधेरी रात में इतने छोटे बच्चों की घर से निकलने की हिम्मत कैसे हुई?,, शास्त्री-यही तो मैं भी सोचता हूँ दूर तो जा नही सकते।अधिक से अधिक गाँव में ही किसी के घर गये होंगें।अब क्या करुँ?कुछ समझ मे नही आता।लोग तो यही कहेंगेंकि जब तुम उन्हें अपने साथ ले गये तो उनको सुरक्षित रखने का दायित्व भी तुम्हारें ही ऊपर है।मै गाँव के अधिकाँश लोगो से पूछ चुका हूँ।किंतु कोई नही बता सका कि वे बच्चे कहाँ है?अब मेरे लिये चिंता का विषय यही है कि मैं मधुसूदन को क्या जवाब दूँगा?हे प्रभो!अब मुझे क्या करना चाहिये,मै कुछ नही समझ पा रहा हूँ। शास्त्री को इस प्रकार वौखलाया देखकर सब ने विश्वास कर लिया कि शाकुल को लेकर श्यामू अपनी माँ को खोजने के लिये कही चला गया होगा।क्योंकि इतने छोटे बच्चे बिन माँ के कही रुक नहीं सकते। थोडी देर में अभिनय करने के बाद शास्त्री का कार्य समाप्त हुआ। कूड़ामल ने अलख निरंजन से छुट्टी पाने के बाद श्यामू से पूछा,’’तेरा क्या नाम है रे,’’ श्यामू ने उत्तर दिया,’’ मेरा नाम श्यामू है बाबू जी।,,’’और इस चुहिया का नाम क्या है?,,श्यामू समझ नही सका और इसलिये पूछा ,’’क्या? कूड़ामल ने आँखे तटेर कर कहा,’’ मूर्ख जिसे बंदरिया की तरह छाती से चिपकाकर घूम रहे हो,उसी का नाम पूँछ रहा हूँ।,,’’उसका नाम शाकुल है सरकार!,,कूड़ामल ने एक पटेर की ओर संकेत करते हुये कहा,’’ इसी पर सो जाओ और साढ़े चार बजे उठ जाना।,,श्यामू ने कहा,’’ ठीक है बाबूजी! लेकिन मेरे भाई के लिये थोड़ा सा दूध दिला दीजिए,यह कल से ही भूखा है।,,कूड़ामल ने कड़क कर कहा,’’हरामजादा कहीं का।आते देर नहीं हुई कि सिंहासन पर बैठा दूँ।,, ‘’ बहुत भूखा है बाबूजी!,, इस पर कूड़ामल ने झपट कर एक झापड़ मारा और कहा, ‘’साले!यदि राजसी हाट लगाना था तो घर ही न छोड़ते। जा कर चुप-चाप सो जा।,, श्यामू काँप उठा और कहा,’’ बाबूजी गलती हो गयी अब नही माँगूगा।,, शाकुल को लेकर चुपचाप पटरे पर लेट गया। प्रात: सभी कर्मचारी चार बजे ही उठकर अपने-अपने काम में लग गये। रात भर का जगा हुआ श्यामू अब भी सो रहा था। कूड़ामल ने श्यामू के पास पहुँच कर उसका हाथ पकड़ कर झटके के साथ खींचा और कहा,’’ क्यों बे चूतिया!यहाँ राजा बना सो रहा है? श्यामू सकपका कर उठ बैठा और बोला,’’ बाबूजी! रात भर जगने के कारण आँख नहीं खुल सकी।,, श्यामू के उठते ही भूख से व्याकुल शाकुल भी उठ कर बैठ गया और चिल्लाने लगा। कूड़ामल ने कहा,’’ इसे चुप कराओ,न ही तो पटक कर मार डालूँगा।,, श्यामू ने भय वश कुछ कहा नहीं और शाकुल को उठाकर चुप कराने लगा। कूड़ामल ने कहा,’’ जल्दी चुप कराकर जाओ देखो कोई काम करो।,, कूड़ामल के चले जाने के बाद उसकी पत्नी ने आकर कहा,’’ बेटा! इसके चक्कर मे मत पड़ो। इसको यही छोड़ दो,मैं इसे दूध पिला दूँगी। श्यामू बहुत प्रसन्न हुआ। और शाकुल को छोड़कर होटल में चला गया।वहाँ जाकर उसने देखा छोटे बड़े कुल दस लड़के वहाँ मशीन की तरह काम कर रहें हैं। कूड़ामल जिसे काम में ढीला देखता,गालियाँ देता और मारने दौड़ता ।एक लड़का सब से छोटा आठ वर्ष का रहा होगा-वह बिजली की तरह दौड़-दौड़ कर काम कर रहा था।गिलास और तस्तरियों को लेकर धोने के लिये जा रहा था।कि मेज से टकरा गया और हाथ से सारे बर्तन गिर गये,संयोग अच्छा था कि दो ही बर्तन टूटे। कूड़ामल ने-साला आँधी की तरह दौड़ता हुआ ही चलता है, यह नही सोचता कि गिर जाने पर कितना नुकसान होगा?-तीन चार लात मारा।लड़का गिर पड़ा और रोने चिल्लाने लगा।कुछ क्षण रुकने के बाद कूड़ामल ने फिर कहा,’’ अब और रोओगे तो मार ही डालूँगा।भयभीत बालक चुप हो कर फिर काम में लग गया।मालिक के क्रूरता पूर्ण व्यवहार को देख तथा भूख की मार से पीड़ित श्यामू को चक्कर आ गया और वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा।उसके गिरते ही सब कर्मचारी दौड़ पड़े। कूड़ामल का ह्रदय तीव्र गति से धड़कने लगा।इसलिये नहीं कि श्यामू के प्रति उसके ह्रदय में दया अथवा सहानुभूति थी, बल्कि इसलिये कि यदि वह मर गया तो उसके दो हजार रुपयें धूल में मिल जायँगे। जायँगे।उसने पंखी झलने के लिए कह कर स्वयं पानी श्यामू के मुख पर पानी का छीटा मारना शुरु किया। किया।दस मिनट के बाद बाद जब श्यामू की चेतना लौटीं तो उसने देखा कि लोग उसे घेर कर कर खड़े हैं।श्यामू उठकर बैठ गया और पानी माँगा ।।प्रात: आये हुये ग्राहको मे से एक ने कहा,’’ उसे पानी नहीं दूध या चाय दीजिए।,, कूड़ामल को ग्राहक की बात बहुत बुरी लगी किन्तु उसने कहा,’’ दूध क्या चाय दे दो भाई!,, चाय पीने के बाद श्यामू पूर्ण स्वस्थ हो गया और ग्राहको की सेवा में पुन: लग गया। इस घटना का प्रभाव कूड़ामल पर इतना अवश्य हुआ कि अब उसकी रुखाई में कुछ कमी अवश्य आयीं। एक माह बीतने के बाद श्यामू ने कहा,’’ मालिक बाबू आप मुझे कितना देंगे? आज मुझे काम करते एक महीना हो गया।,, कूड़ामल की त्योरियाँ चढ़ आई। उसने श्यामू के गालों पर दो-तीन चपत लगाकर कहा,’’ इतने से संतुष्ट हो गया या और चाहिये? बत्तमीज कहीं का। दो हजार तो तुम्हारे दामाद ले कर गये।तुम्हें क्या दूँगा?,, श्यामू को एक वर्ष काम करते हो गये। अब वह बहुत चालाक हो गया था।इसलिये मालिक की आँखे बचाकर कुछ खा पी लेता था।किन्तु शाकुल की अब भी दुर्दशा हो रही थी। कूड़ामल से छिपाकर मालकिन थोड़ा सा दूध या खाने की अन्य वस्तुएँ दे दिया करती थी।मालकिन के अपने भतीजे के व्याह के अवसर मायके जाना पड़ा।अब शाकुल को पूछने वाला कोई नही था।वह टहलता-टहलता होटल में आता तो कूड़ामल उसे घसीट कर घर पर कर आता। कूड़ामल की निगाहें बचाकर श्यामू दिन भर में दो बार उसे खाने के लिये कुछ दे आता।एक दिन घर से आते हुये श्यामू को कूड़ामल ने देख लिया और पूछा,’’ कहाँ गया था?,, श्यामू ने उत्तर दिया,’’ शाकुल रो रहा था उसी को देखने गया था।,,’’घबड़ाओ नहीं उसका इंतजाम मैं जल्द ही करता हूँ।,, कूड़ामल ने अपने बड़े लड़के को एकान्त मे कहा,’’ देखो कोई ग्राहक मिले तो शाकुल को चार छ: सौ रुपये में बेच दो।,, उन दोनों की बातें को होटल का सबसे छोटे लड़के रोहित ने किसी तरह सुन लिया था।वह दौड़ कर आया और श्यामू से सारी बाते बतायींशाकुल को बेचने की बात सुनते ही श्यामू को करेण्ट सा लगा।उसके हाथ पैर में जैसी शक्ति ही न रह गयी हो।वह एक कुर्सी पर बैठ गया। उसे इस प्रकार बैठा हुआ देखकर कूड़ामल ने कहा,'' क्यों रे समुआ! सब लोग काम कर रहे हैं तू साला बैठा है?,, श्यामू ने कहा,'' आज तबियत ठीक नही है।अब मुझे छुट्टी दे देते तो मैं दस दिन के लिए घर चला जाता।,, '' घर!कैसा घर रे!तेरा घर तो यही है।तू नौकर नहीं है, क्रीत दास है। अब तू यहाँ से नही जा सकता! समझ गया।,, ''बाबूजी! यदि मुझे नहीं जाने देंगे तो मैं नही जाऊँगा लेकिन मैं शाकुल को घर पहुँचाने भर की छुट्टी चाहता हूँ। उसे घर पहुँचा कर मैं तुरन्त चला आऊँगा।,, '' शाकुल से तुझे अधिक परेशानी है तो मैं तेरी परेशानी दूर करता हूँ।कल या परसों मैं उसे बेच दूँगा।अब ठीक हैं?,, ''बाबूजी ! ऐसा न करे, नहीं तो मैं मर जाऊँगा।,, '' उठ साला काम कर बढ़-बढ़ कर बातें मत कर।,, '' मैं अब काम नहीं करुँगा चाहे आप मुझे मार ही डालें। जब भाई ही नही रहेगा तो मैं जी कर क्या करुँगा? इतने सुनते ही कूड़ामल आग बबूला हो गया। उठ कर उसने श्यामू को कई वेत मारे। मार पड़ते ही श्यामू चीख पड़ा। फिर क्रूर कूड़ामल ने डपट कर कहा,'' चिल्लाना बन्द करेगा या दस बीस डंडे और दूँ?,, श्यामू के ऊपर इसका कोई असर नही,' वह रोता ही रहा। जब कूड़ामल ने देखा कि उसकी बातों का श्यामू के ऊपर कोई असर नही तो उसका क्रोध पराकाष्ठा पर पहुँच गया। अब केतली का खौलता पानी श्यामू के ऊपर डालने के लिए चला और ज्यों ही पानी गिराना चाहा, एक ग्राहक ने दौड़ कर कूड़ामल के हाथ को पकड़ लिया और कहा,'' अरे! यह क्या करने जा रहे हो?यदि मनुष्य को नहीं तो कम से कम भगवान को ही डरो।,, कूड़ामल ने आँखे तरेर कर कहा,'' तुम मेरे कामों मे दखल देने वाले कौन हो?खाना खाओ,पैसे दो और चलता बनो। इन सब कामों में तुम्हें क्या पड़ी है?,, ग्राहक ने कहा,''वाह! मेरे सामने एक गिरीह बालक को जला-जला कर मारो, मैं देखकर तुम्हें धन्यवाद दूँ। यही मानवता है? तुम से छुट्टी माँग रहा है,उसे क्यों नहीं छोड़ देते ,'' मुफ्त में नहीं रखा है।दो हजार रुपये मे खरीदा है।तुम बड़े दयालु बनते हो वो दो हजार रुपये दे दो ,छोड़ दूँ।,, दो हजार रुपये में खरीदे हो तो मार डालोगे? शर्म नहीं आती है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता। ,, इसी समय होटल के वैतनिक दादा ने दौड़ कर उस अज्ञात ग्राहक के गले पर हाथ लगाया । उसके हाथ लगाते ही ग्राहक ने झटके के खिसक कर कमर से कट्टर निकाल ली और कहा,'' मैं जानता हूँ तुम इस होटल के वैतानिक दादा हो। कहो तो सदा-सदा के लिये तुम्हारी दादागीरी समाप्त कर दूँ।,, यह दृश्य देख कूड़ामल कुछ नरम पड़ा। उसने कहा श्रीमान जी !''क्या मैं सचमुच उसके ऊपर गरम पानी डाल देता, आप नहीं जानते,यदि इतना तड़क-भड़क न दिखाऊँ तो ये साले एक पैसें का भी काम न करें।,, ‘’ इस लड़के को तुम्हें छोड़ना ही होगा,चाहें जैसा भी हो।,, ‘’ बाबू जी आप न्याय के आसन पर बैठ कर बोले,मेरा दो हजार रुपये कौन देगा?,, ‘’ बोलो,यह लड़का तुम्हारे यहाँ कितने दिनों से काम कर रहा है?,, ‘’साल भर से।,, ‘’ तुम्हारे यहाँ कोई नौकर भी है? या सभी क्रीत दास हैं?,, ‘’नौकर भी हैं।,, ‘’ उन्हें कितना मासिक देते हो?,, ‘’दो सौ रुपये मासिक।,, ‘’ठीक है इस लड़के का मैं सौ रुपये मासिक मान लेता हूँ। यह तुम्हारे यहाँ एक वर्ष तक काम कर चुका है इसलिये बारह सौ रुपये इसका वेतन हुआ। आठ सौ रुपये तुमकों और चाहिये। उसकी आपूर्ति मैं करता हूँ।,, आठ सौ रुपये निकाल कर कूड़ामल के सामने रख दिया और श्यामू से कहा,’’बेटा अब तुम यहाँ से जा सकते हो। क्यों सेठ जी! अब तो आप को कुछ नहीं कहना है?,, कूड़ामल चुपचाप बैठे रहे। श्यामू अपनी जगह से उठा और दौड़ कर शाकुल के पास गया। कुछ ही क्षणों में शाकुल को गोद मे लेकर अज्ञात व्यक्ति के पास आ गया और उसके चरण स्पर्श कर कहा,’’ इस उपकार के लिए मैं आप को क्या दे सकता हूँ?आप मेरे ऊपर एक कृपा और करें,’’ मुझे अपना पता दे दें। जिससे कभी-कभी आप के दर्शन कर सकूँ।,, ‘’ बेटा! मेरा कोई पता नही है। ऐसे टहलता घूमता कभी मिल गया तो मिल गया। अन्यथा मेरा कोई स्थायी पता नही हैं। ‘’ फिर भी अपना तथा अपनी जन्मभूमि का नाम तो बता ही दें, यह मेरे ऊपर बहुत बड़ी कृपा होगी।,, अज्ञात व्यक्ति ने एक ताँबे की गोल ताबीज देकर कहा,’’ अब आवश्यकता पड़ने इसे खोलना, अब यहाँ से शीघ्र चले जाओ।,, श्यामू ने चरण स्पर्श कर कहा,’’ ऐसा ही होगा,, और भाई को उठाकर वहाँ से चल दिया। नौ------ मंजुला के घर से निकल जाने की सूचना गाँव वालों ने मधुसूदन को नही दी। मधुसूसन हमेशा की भाँति इस घटना के कई दिन के बाद आये। घर पहुँचने पर देखा कि उसके घर मे ताला लटक रहा था। मंजुला और दोनों बच्चों का पता नहीं।आश्चर्य और शोक से व्याकुल मधुसूदन ने एक पड़ोसी के घर जा कर पूछा,’’ भैया! मेरे घर में ताला लगा हुआ है और मेरे परिवार का कोई भी व्यक्ति दिखाई नही दे रहा है। क्या आप बता सकते है ऐसा क्यों?,, पड़ोसी ने कहा,’’ पहले आप बैठिये ,पानी पीजिए फिर बताता हूँ।,, ‘’नहीं भैया! पानी तो मैंने पी लिया है,आप पानी के लिये परेशान न हों।,, ‘’ पानी के लिये क्या परेशानी है?उसने अपने लड़के से पानी मँगा कर पिलाया पानी पी लेने के बाद उसने सारी घटना आदि से अन्त तक बतायी। इस दुखद घटना की जानकारी होते ही मधुसूदन को जैसे लकवा मार गया हो। वे लुढ़क कर चारपाई पर गिर पड़े। मधुसूदन के आने का समाचार सुनकर गाँव के बहुत से लोग इकट्ठा हो गये। सब के बहुत समझाने बुझाने के बाद मधुसूदन अपने घर की ओर चले,उनके साथ गाँव के कई लोग चल पड़े।घर पहुँच कर,ताला तोड़ कर मधुसूदन घर के भीतर गये और फूट-फूट कर रोने लगे। उन्हें मंजुला का कम किंतु बच्चों की चिन्ता अधिक थी। कुछ समय तक रो लेने के बाद वे घर की एक एक वस्तु को देखने लगे। आज मधुसूदन का संसार लुट चुका था। उसके मन में अनेक विचार उठ रहे थे।‘’जीवन में सुनीता आयी और नारीत्व की सुगंध बिखेर कर चली गयी। मंजुला जीवन उपवन में बसंत की भाँति आयी,ग्रीष्म की भाँति दग्ध कर जीवन भर के लिए वर्षा देकर खिसक गयी।हा1 सुनीते! मैंने तुझ सती का अपमान करके तेरे साथ जिस क्रूरता का व्यवहार किया, उसका कुफल मेरे सामने है।मैं तेरी धरोहर सुमन-कोमल निर्दोष बच्चों की सुरक्षा भी न कर सका। तू मुझे क्षमा भी कर दे तो भी मिलने पर मै तेरे सामने अपना कंलकी मुँह नहीं दिखा पाऊँगा।हा!दैव!गाँव वालो ने-जिन्हें अलख निरंजन का चरित्र प्रमाण मिल भी चुका है-मेरे बच्चों को उसके साथ जाने दिया।,, रोते बिलखते मधुसूदन ने सारे मकान का निरीक्षण करके देखा कि मंजुला घर की सारी सम्पत्ति अपने साथ ले गयी है।उसने रोंन्धों कर किसी प्रकार रात बितायी। सवेरा होने पर वे घर से ज्यों ही प्रस्थान करने वाले थे कि गुलाल आ पहुँचा। उसने सजल नेत्रों से मधुसूदन की ओर देखकर कहा,’’भैया!आप के आने का समाचार देर से पाकर दौड़ा आया हूँ। विपत्ति तो बहुत बड़ी आयी है।अब आप क्या सोच रहे है?मेरे योग्य जो सेवा हो बताइये,मैं अपने प्राणों को भी देने के लिये तैयार हूँ।,, गुलाल को देखते और उसकी बातें सुनते ही मधुसूदन अनाथ की तरह रोने लगा।गुलाल ने कहा,’’ भैया! आप विद्वान हो कर भी अधीर होते हैं,कुछ धीरज धरें।मुझे अपने आप से अलग न समझें।यह विपत्ति आप की नहीं मेरी भी है।इस समय आप बालू मे से तेल निकालने के लिये कहेंगे तो भी मैं बिना असम्भव कहे उस काम में लग जाऊँगा।कहिये तो बच्चों का पता लगाने में जीवन बिता दूँ अथवा आप के साथ रहकर जीवन यापन करुँ।आज्ञा दीजिए,मैं उसे सुनने के लिये आतुर हूँ।,, मधुसूदन गुलाल भाई! मुझ सा अभागा संसार में शायद ही कोई हो इसलिये मैं नही चाहूँहा कि मेरे दुर्भाग्य का शतांश भी कोई भोगे।तुम अपने सौभाग्य पूर्ण जीवन में दुर्भाग्य का समावेश मत करो।कुवृक्ष के बीज मैं बोऊँ और कुफल का भागीदार किसी और को बनाऊँ।ऐसा मैं कदापि नही कर सकता। मैं तुम्हें सच्चे ह्रदय से आशीर्वाद देता हूँ,फूलो-फलो।मुझे जो भोगना है,भोगूँगा।,,भैया!आप मुझे अपने से अलग समझ कर ऐसा कर रहे है।आप ही बताइये एक लौह के टुकड़े को दो भागों में बाँट कर एक दूसरे के ऊपर रख कर एक टुकड़े में बिजली का स्पर्श कराइये तो क्या जिस टुकड़े में तार का स्पर्श कराया जायगा,उसी में बिजली दौड़गी अथवा दोनों में।,, गुलाल के इस तर्क को सुनकर विपत्ति के सागर में डूबे हुये भी मधुसूदन मुस्कुराने लगे और बोले,’’भाई गुलाल!अब मैं निरुतर हूँ।तुम्ही बताओ,अब मुझे क्या करना चाहिये?,, ‘’ मैं क्या बताऊँ?भैया! मेरे बताने से पहले आप क्या सोच रहे थे? जो कुछ भी आप सोच रहे हों,उसमें मैं आप से आगे रहूँगा।,, ‘’मेरे विचार तुम्हारे अनुकूल नही होगा गुलाल!इसलिये मैं तुम्हारे ही विचारों का स्वागत करना चाहता हूँ।,, ‘’ फिर आप मैं,और तू,की बातें कह रहे है।मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि जब तक आप के दिन नहीं लौटेंगे, तब तक मेरे लिये सुख की कल्पना भी हराम है। अब आप अपने पूर्व विचार बताइये।,, इस बार गुलता की त्यागमयी बातें सुनकर मधुसूदन फफक कर रो पड़े। मधुसूदन को इस दशा में देखकर गुलाल की भी आँखे छलक पड़ीं।कुछ समय तक रो लेने के बाद मधुसूदन ने कहा,’’ भैया गुलाल! तो मै ही बताऊँ कि मैं क्या चाहता हूँ?,,’’हाँ ,भैया! अब बिलम्ब न करें।,, मधुसूदन ने कहा,’’ मेरे बिचार है कि नौकरी से त्याग पत्र दे कर इस संसार से भी त्याग पत्र दे दूँ: क्योंकि अब संसार में मेरे लिये कोई भी आकर्षण की वस्तु नही रह गयी है। इस लिये कह रहा था कि मेरे साथ तुम्हें दर-दर की ठोकरें खाने की आवश्यकता नही है।इस विपत्ति के समय में सम्बल के रुप में केवल तुम मिले। इस लिये मैं नही चाहता कि मेरा अभिन्न गुलाल विपत्ति का आलिंगन करे।,, ‘’भैया!आप मेरे ह्रदय के भावों को नही समझ रहे है।यदि आप मुझे अपने साथ लेना अस्वीकार कर देंगे,तो भी मैं इस संसार को छोड़ कर अकेला ही तब तक समय बिताऊँगा,जब तक आप की उजड़ी दुनियाँ फिर से नही बस जायगी।,, गुलाल की इस प्रतिज्ञा को सुनकर मधुसूदन ने कहा,’’ यदि इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञा हो तो चलो मेरे साथ।,, दोनों ही वहाँ से चल देते हैं। कई दिन चलने के पश्यात एक नदी के किनारे पहुँच कर मधुसूदन ने कहा,’’भाई गुलाल्। कब तक हम पराश्रयी हो कर जियेंगे? यह स्थान बड़ा ही रमणीय है।मेरा विचार है कि यहीं एक कुटी बनाकर रात रुकने की व्यवस्था कर ली जाय। क्योंकि जमाना बहुत खराब है। लोग अपने यहाँ अपरिचित लोगो को ठिकाने से हिचकते हैं। इतने दिनो सें हम लोग घूम रहे है, क्या कोई हमे सहर्ष टिकाने के लिये तैयार होता है?इसलिये अब मैं नही चाहता कि किसी के यहाँ रात टिकाना पड़े।,,’’हाँ,भैया!आप ठीक कहते हैं।मिला तो कोई नहीं जो खुशी-खुशी अपने यहाँ हमें ठिकाने के लिये तैयार हुआ हो।,, ‘’ तो ऐसा करो,उधर जा कर देखो, ढखुलाही में कुछ लोग पशुओं को खिलाने के लिये ढाख की टहनियाँ काटने आये होंगे, उन्ही से कुल्हाड़ी लेकर दो-चार धून काट लो। इधर मैं सरपत आदि इकट्ठा कर लेता हूँ।,, ‘’ आप केवल स्थान की तलाश करे, मैं सारा समान इकट्ठा कर के आया।,, गुलाल ने पलाश-वन में जा कर कुल्हाणी वाले की बहुत देर तक खोज की पर कोई भी दिखाई नहीं दिया।निराश होकर गुलाल एक पेड़ पर चढ़ गया और कुछ लकड़ियाँ तोड़ कर मधुसूदन के पास आया। मधुसूदन ने पूछा,’’ कुल्हाड़ी नहीं मिली क्या?,, ‘’नहीं कुल्हाड़ी तो नहीं मिली।,, ‘’ नही मिली तो न सही। अब आज संध्या हो गयी है, कल किसी गाँव में चलकर इसकी व्यवस्था करेंगे।,, दोनों ने किसी प्रकार रात बिताई। दूसरे दिन गुलाल ने गाँव में जाकर कुल्हाड़ी माँग लायी और कुटी तैयार की। अब दिन भर दोनो साथ-साथ एक गाँव से दूसरे गाँव में घूमते और संध्या होते-होते अपनी कुटी पर पहुँच जाते।मधुसूदन और गुलाल ने आपस में विचार किया कि हम दोनों एक साथ न घूम कर अलग-अलग टहलें। क्योंकि अब हम दिन भर कहीं रहें किंतु कुटी बन जाने के कारण संध्या समय फिर मिल जायेंगे। इसलिये अब वे अलग-अलग गाँवो मे घूमने लगे। मधुसूदन किसी गाँव में पहुँचकर राम चरित मानस की कथा सुनाते और गुलाम लोगों के हाथ देखकर भविष्य बताता। लोग रुपया पैसा देने की इच्छा प्रकट करते किंतु दोनो ही केवल खाने भर का लेते। इनकेइस निर्लोभ से लोग बहुत प्रभावित होते और सम्मान करते। एक दिन टहलते-घूमते गुलाल बहुत दूर निकल गया। उसने सोचा कि बहुत दूर आया हूँ, अब कुटी पर चलना चाहिये। इसी समय कई लोग उसकी ओर आते दिखाई दिये।लोगों को अपनी ओर आते देख, गुलाल कुछ क्षण रुका। तब तक उन लोगों ने गुलाल के पास पहुँचकर कहा,’’ बाबाजी! हम लोग भी आप के पास हाथ दिखाने आये हैं। हमारी यही प्रार्थना है कि हम लोगो के हाथ देखने के बाद ही आप यहाँ से जायें।,, गुलाल दुविधा में पड़ गया।उस ने सोचा कि इन लोगों का हाथ देखना भी आवश्यक है और सूर्य डूबने से पहले कुटी पर पहुँचना भी। यदि इन्हें निराश करता हूँ, तो सूर्य डूबते-डूबते कुटी पर पहुँच जाऊँगा। और यदि इनके लिये समय देता हूँ तो आज कुटी पर पहुँचने में कठिनाई होगी कुटी पर न पहुँचने पर भैया मधुसूदन को रात नीद नहीं आयेगी। क्या करुँ? बहुत सोच-बिचार के बाद उसने आगन्तुकों की सेवा करना ही उचित समझ कर यह निश्चय किया कि आज यही रह जाऊँगा। गुलाल एक-एक कर आगन्तुकों के हाथ को देख ही रहा था कि एक स्त्री सिर पर टोकरी रखे पहुँच गयी। उसने बाबा से कहा,’’ बाबा इस दुखिया का भी हाथ देखने की कृपा करेंगे?,, गुलाल ने उसकी ओर देखा,देखते ही वह आश्चर्य चकित हो गया और उसका ह्रदय तेजी से धड़कने लगा। वह बहुत समय तक उसकी ओर देखता रहा। उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि वह मंजुला ही है।उसने मधुसूदन से मिलने जाते-आते मंजुला को देखा था, इसलिये वह मंजुला को कुछ-कुछ पहचानता था।किंतु मंजुला ने गुलाल को कभी ध्यान से नहीं देखा था और यदि ध्यान से कभी देखा भी होगा तो भी इस समय गुलाल को आसानी से पहचानना कठिन था: क्योंकि उसके सिर और दाढ़ी के बाल इतने बढ़ गये थे कि परिचित के लिये भी पहचानना बहुत सरल नहीं था। इसलिये मंजुला द्वारा गुलाल को पहचानने का कोई प्रश्न ही नही था। मंजुला को पहचान लेने के बाद गुलाल ने कहा,’’ बैठो,देवि! तुम्हारा भी हाथ देखूँगा।,, इस बीच हाथ दिखाने वालो में से एक व्यक्ति बोल उठा,’’ चल-चल बड़ी हाथ दिखाने वाली बनी है। तेरा हाथ देखे बिना मैं ही बता रहा हूँ,कान खोल कर सुन अब तू रानी नहीं बनेगी।यही भीख माँगकर तुझे गुजारा करना है। समझ गयी, जा भाग यहाँ से।,, उस व्यक्ति की बात सुनकर मंजुला की आँखे डबडबा आयीं और इस तिरस्कार से उसे हार्दिक वेदना हुई। वह वहाँ से जाने के लिये मुड़ी। उसको लौटते देखकर एक दूसरे व्यक्ति ने कहा,’’ भाई, सब अपने कर्मो का फल भोगते है। उसे भीख माँगने मे ही सुख है तो आप क्यों परेशान हैं? इसका रंग रुप देखकर ऐसा नही लगता कि यह किसी नीच कुल में पैदा हुई है। ऐसा लगता है कि यह भीख माँगने के लिये विवश है।,,’’ क्या इसके विषय में कुछ मालूम है? पहले व्यक्ति ने पूछा। ‘’ आप नही जानते?इसी गाँव के अन्तिम छोर पर नटो का डेरा पड़ा है। एक दिन मैं वहाँ पहुच गया था। वहाँ पता लगा कि अभी दस पंद्रह दिन हुये,इसके पति ने इसे नट के हाथ बेच दिया है।क्यों बेच दिया----------? पहले व्यक्ति ने कहा,’’ सुना है इसके पास बीस हजार की सम्पत्ति थी। धीरे-धीरे जब वह सम्पत्ति समाप्त हो गयी और पति पत्नी दोनों खाने के लिये मरने लगे तो कलकत्ता से अपने गाँव जाने के बहाने इसके पति एक नट के हाथ इसे बेच कर थोड़ी देर में आने का बहाना कर के वहाँ से खिसक गया।,, दूसरे व्यक्ति ने पूछा,’’ फिर क्या हुआ?,, ‘’ नट ने इसे रस्से पर नाचने के लिये खरीदा था। जब मैं वहाँ पहुँचा था इसके मालिक ने इसे रस्से पर चढ़ने के लिये कहा।परंतु इसने रस्से पर चढ़ना स्वीकार नही किया। बार-बार कहने पर भी इसने ‘ना, ही कहा। इस पर इसके ऊपर दनादन तमाचे पड़ने लगे। यह चिल्ला कर गिर पड़ी।गिरने पर भी नट ने भी कई लात मारें।फिर मैने ही कहा,’’ जब रस्से पर नहीं चढ़ सकती तो कैसे चढ़े? उसे तुम इस प्रकार बाध्य कर रहे हो यदि रस्से पर से गिरकर मर जाये तो..? उसने कहा,’’ मर जायेगी तो मर जाये साली। मुझको इसकी परवाह नही है।डेढ़ हजार रुपयें ऐसे सही।,, मैंने कहा,’’ तुम्हें रुपये की परवाह नही है तो इसे दूसरा काम दो, जो इससे हो सके।,, ‘’ मेरे यहाँ दूसरा कौन काम है? जा कर दुआरे-दुआरे भीख माँग्।,, गुलाल सारी बातें ध्यान से सुन रहा था। उसने मन में सोचा ,’’ मंजुला रानी बनकर मधुसूदन के यहाँ आयी थी और दासी बनकर गयी।हा! दैव!!तू कितना क्रूर है? फिर उसने कहा,’’ भाई ,उसे बुलाइये भी उसका हाथ देख लूँ। ऐसे दुखियाँ को और दुखी करना ठीक नही है।बाबा के कहने पर एक व्यक्ति ने जा कर उसे बुला लाया । वह लौट कर फिर बाबा के पास आ गयी। बाबा जी ने कहा,’’ बैठो देवि! तुम्हारा भी हाथ देखूँगा। गुलाल आये हुये लोगों का हाथ देख चुका था। इसलिये मंजुला से कहा,’’ दैवि! तुम नटिनी हो?,, मंजुला के आँखो में आँसू भरकर कहा,’’ इ..स..स...म..य..तो..नटि..नी..ही..।,, ‘’ रोओ नहीं देवि!बायाँ हाथ बढ़ाओ।,, मंजुला ने अपना बायाँ हाथ बढ़ा दिया। उसे हाथ बढ़ाते ही गुलाल ने आश्चर्य चकित होने का अभिनय किया और कहा,’तुम्हारी प्रारम्भिक रेखाएँ तो सौभाग्य की सूचना दे रही हैं। उन रेखाओं से लगता है तुम बहुत बड़े घर मे पैदा हुई हो।जहाँ बाते सत्य न हो टोक देना।,, मंजुला ने कहा,’’सत्य है महराज!,, ‘’ तुमने उच्च शिक्षा भी प्राप्त की है:सही?,, ‘’हाँ।,, ‘’ फिर तुम्हारा विवाह भी बड़े व्यक्ति के साथ हुआ?ठीक ? ‘’हाँ....बा....बा..जी...ठी...क..है।,, ‘’तुम्हारी सौत भी थी?,, ‘’हाँ,, ’’ इसके बाद जो कुछ हुआ ,उसे बताने के लिये आत्मा हिचक रही थी। अब आप जा सकती हैं।,, मंजुला रोंने लगी। कुछ क्षण रो लेने के बाद फिर बोलीं,’’ आप अन्तर्यामी है। अब आप मेरे भविष्य के विषय में बतायें। मैं इसी प्रकार नरकमय जीवन बिताऊँगी या आत्म हत्या करके संसार से विदा लूँगी? अथवा इस नरक से उद्धार होगा और मैं फिर से मनुष्य बन सकूँगी?,, गुलाल ने फिर से उसका हाथ देखकर कहा,’’ भविष्य वाली रेखाएं कुछ अटपटी हैं।अत: इसे मैं आठ दिन के बाद ही बता सकूँगा। क्योकिं इसके लिये मुझे पुस्तक देखनी पड़ेगी ,, ‘’बाबा जी! आठ दिन तो आठ वर्षों के समान बीतेंगे।अभी तक जो उस नर पिचाश से किसी तरह अपने को बचा सकी हूँ।अब और आगे बचा पाना कठिन ही नही असम्भव जान पड़ता है।मैने तो आज ही कल में आत्म हत्या कर लेने का निश्चय कर लिया था।बाबा जी! इतना समय न लें।,, ‘’देवि!आश्रम यहाँ से दूर है।आज वहाँ पहुँच भी नही सकता इसलिये आठ दिन किसी तरह अपनी रक्षा करो।उस नट से और अपनी मृत्यु से भी।,, ‘’महाराज मैं आश्रम पर ही आ जाऊँ।,, ‘’आश्रम पर जाने से वे लोग तुम्हारा पीछा करेंगे। उस समय तुम्हें बचाया नही जा सकता।दूसरी बात यह कि सूर्य निकलते ही मैं आश्रम छोड़ देता हूँ इसलिये जो कह रहा हूँ वही करो।अधिक से अधिक मैं चार दिन में ही आ जाऊँगा।तब तक तुम बच कर रहो।,, गुलाल को उस रात एक सज्जन ने अपने यहाँ टिकाया। मंजुला के विषय में सोचते-सोचते बहुत रात बीत गयी किंतु गुलाल को नीद नही आयी।आयी।कुछ क्षणों के लिये उसे कब नीद आयी। इसका उसे पता ही नही।प्रात:काल उठकर गुलाल ने आश्रम का रास्ता पकड़ा।दो ढाई घण्टे में आश्रम पर पहुँच कर गुलाल ने देखा कि मधुसूदन उसकी बाट जो रहे है।गुलाल ने पहुँच कर मधुसूदन को प्रणाम किया।आशीर्वाद देने के पश्चात मधुसूदन ने कहा,’’ गुलाल!तुम कल नहीं आये मुझे बड़ी चिन्ता थी।यहाँ तक कि रात मैनें भोजन आदि की व्यवस्था नही की।मैने सोचा कि जीवन का एक मात्र सहारा कहीं गुलाल भी तो मुझे छोड़ कर नही चला गया।,, ‘’आप जानते है भैया!मैं टहल कर क्या करता हूँ? ‘’नहीं,मै तो नही जानता।,, ‘’मैं लोगो के हाथ देखकर भविष्य बताता हूँ।कल अधिक लोग इकठ्ठा हो गये इसलिये दिन बीत गया और मुझे रुक जाना पड़ा।,, ‘’ठीक है,कोई बात नहीं। कुछ रात बीतने पर गुलाल ने कहा,’’भैया!एक बात पूछना चाहता हूँ। क्या आप बताएँगे?,,मधुसूदन ने पूछने की अनुमति दी। गुलाल ने कहा,’’ यदि मंजुला या सुनीता कहीं मिल जाये तो आप इस विषय में क्या सोचतें हैं।? भाई!गुलाल!अब मंजुला या सुनीता के विषय में कुछ न कहो केवल बच्चों का पता लगाओ।,, कहते हुये मधुसूदन का गला अवरुद्ध हो गया।‘’यदि संयोगत:कही मिल जाये तब की बात कर रहा हूँ। वैसे बच्चों की खोज तो कर ही रहा हूँ।,, ‘’ विश्वास घतिनी और पापिनी मंजुला का मुँह देखने में पाप लगता है और सुनीता को अपना कलंकी मुँह दिखा नहीं सकता इसलिए उन दोनों के विषय में कुछ सोचना व्यर्थ है।रही बात बच्चों की,वे निर्दोष है।जिनके ऊपर जो बीतता होगा,उसका कारण मै हूँ।इसलिये मेरे भाई । उन्हीं के विषय में सोचों और जो कुछ कर सकते हो करो।,,’’मंजुला को यदि अपने दुष्कर्मों का फल मिल गया हो और वह अपने अपराधों के लिये क्षमा माँग ले तो क्या वह क्षमा का पात्र नही है?,, ‘’ मंजुला?वह कहीं गुलछर्रे उड़ा रही होगी। तुम कहते हो वह क्षमा माँगेगी।,, गुलाल के सकुचाते हुये कहा,’’ भैया कहते तो डर लग रहा है लेकिन कहना ही पड़ रहा है।भैया! मंजुला के विषय में मुझे जानकारी हुई है।वह इस समय भीख माँग रही है।उसकी बड़ी ताड़ना हो रही है।,, ‘’कैसे मालूम हुआ,किसने बताया?,, ‘’भैया यदि आप पूँछ ही रहे हैं तो अब मैं नहीं छिपाऊँगा। उसको भीख माँगते हुये जब मैंने देखा तो मुझे विश्वास ही नही हुआ कि यह मंजुला ही है।लोगों का हाथ दिखाते देखकर उसने भी अपना हाथ दिखाया।भूतों की बात तो मैंने उसे बता दी।किन्तु भविष्य बताने के लिये चार दिन में पुन: बताऊँगा कह कर चला आया।अब आप का बिचार जान लेने के बाद ही उसके भविष्य के बारें में कुछ बताना चाहता हूँ। ‘’मैं क्या बताऊँ गुलाल!तुम्ही बताओ,वह स्त्री जो कई जगत पथ भ्रष्ट हुई हो और किसी के जीवन के साथ खिलवाड़ किया हो, उसका विश्वास?कदापि नहीं।वह विश्वास के योग्य नही है।उसकी करतूतों के कारण आज हमें दर-दर ठोकरें खानी पड़ रही है।,, ‘’भैया!अब तक वह बहुत भोग चुकी है।उसकी इतनी दुर्दशा हो चुकी है।कि अब उसके ऊपर विश्वास न करने का कोई कारण नही रह जाता । मेरा विचार है कि उस घोर नरक से एक बार उसका उद्दार कर दे:क्योकिं उसकी दशा को देखकर पत्थर भी बिना पिघले नही रह सकता।,, ‘’ठीक कहते हो गुलाल! मैं इसका पक्षधर हूँ कि डूबते को उबारा जाय किंतु जो स्वयं डूबने के लिये जलाशय को आमंत्रित करे,उसे कोई कब तक उबारेगा।मंजुला ने अपने लिये स्वयं विपत्ति बुलायी है।,इसलिये मैं तो चाहता हूम कि अपने कर्मों का फल उसे भोंगनें दो।,, ‘’भैया!आप कई बार कह चुके हैं।घृणा पाप से करनी चाहिये,न कि पापी से। इसलिये आप उसका उद्धार अवश्य करें। भले ही इसके लिये आप को समाज द्वारा तिरस्कृत होना पड़े। ,, ‘’यदि तुम्हारी इच्छा है तो जो चाहो वह करो,परन्तु नटों के चंगुल से किस प्रकार उसे मुक्त करोगें?कोई उपाय सोचा है?,, ‘’मुक्त कर पाना बहुत ही कठिन है? क्योंकि रात में उसे पशुओं की भाँति बाँध दिया जाता है। और दिन में भीख माँगने के लिये जिस दिशा में भेजा जाता है, उसके इर्द- गिर्द के गाँवों में नट-मंडली की बहुत सी स्त्रियाँ और लड़के चारों ओर छिटके रहते हैं जिससे कि कहीं भाग न जाय।,, ‘’फिर कैसे मुक्ति दिलाओगे?मैं तो कहूँगा कि उसके चक्कर में मत पड़ो।,, गुलाल ने कहा,’’क्या डेढ़ हजार रुपयों की व्यवस्था नहीं हो सकती ।,, ‘’यदि हो जाय तो?,, ‘’तब रुपयें देकर हम खरीद लेंगे।,, रुपयों की व्यवस्था तो इतनी जल्दी होना असम्भव है। यह व्यवस्था एक ही ढंग से हो सकती है।वह यह कि मैं जहाँ मुवजन करुँ नि:शुल्क न करुँ और तुम जिसका हाथ देखो परिश्रम निकालो।,, ‘’ तो क्या हर्ज है?परोपकार के लिये परिश्रमिक लेना पाप तो नही है।,, ‘’ पाप तो नहीं है, किंतु एक दिन में अधिक से अधिक डेढ़-दो सौ रुपये मिल सकते हैं और जुटाना है डेढ़ हजार । तो बताओ इतने रुपये कितने दिनों में इकट्ठे हो सकेंगे। तब तक नटो का डेरा भी वहाँ रह जायगा, इसमें संदेह है। अथवा मंजुला भी उस जीवन से ऊब चुकी है, कहा नही जा सकता कि वह जीवित रहेगी या नहीं। तब कैसे उसकी मुक्ति की बातें कर रहे हो।,, ‘’ऐसा है,मेरे पास एक अगूँठी है।बेचने पर लगभग एक हजार रुपये मिल जायगी।इसके बाद पाँच सौ रुपये घटते हैं। यह व्यवस्था भी कर ली जायगी। दो दिनों के बाद मुझें वहाँ जाना ही है।उससे मैं कह दूँगा कि एक सप्ताह के भीतर ही तुम नटों के बन्धन से मुक्त हो जाओगी।तब तक किसी प्रकार अपने प्राणों की रक्षा करती रहो।इस प्रकार तीन चार दिन में जा कर उसे छुड़ा लूँगा। इस अवधि में व्यवस्था तो हो ही जायेगी।,, दो दिन के बाद गुलाल उस गाँव में पहुँचा, जहाँ मंजुला से मिलने के लिये कहा था। पहुँचते ही एक व्यक्ति ने कहा,’’बाबा जी! उस दिन जो नटिनी आप को हाथ दिखाने आयी थी। वह बड़ी ही दर्दनाक मृत्यु हो गयी।,, मंजुला की मृत्यु की बात सुनकर गुलाल की काटों तो खूनी नहीं। वह वहीं भूमि पर बैठ गया और कुछ समय तक चेतना-शून्य सा बैठा रहा ।फिर कहा,’’ आज तो मैं उसका हाथ देखने आया था, इसी बीच वह चल बसी ?ठीक है, उसे जाना ही था। भवितव्यथा किसी के मिटाये नहीं मिट सकती।यदि उसे यह सब भोगना न होता तो उसके मस्तिष्क में अकरणीय करणीय बन कर क्यों आता और वह पाप से महापापी के पास क्यों पहुँचती? उसकी मृत्यु कैसे हुई?,, उस व्यक्ति ने बताया ,’’ जिस नट ने उसे खरीदा था, रात उसके साथ बलात्कार करना चाहा किंतु उसने बड़े साहस के साथ अपनी रक्षा की। वह दुष्ट नट रात भर प्रयास करता रहा किंतु जब वह सफल नही हो सका तो उसे बहुत मारा और सूर्योदय होने पर कहा,’’आज तुम्हें भीख माँगने नहीं जाना है।आज रस्से पर चढ़ना ही होगा। अब तुम्हारे साथ कोई रियासत नहीं की जायगी।,, पहले तो वह रस्से पर चढ़ने से हिचकिचाई लेकिन नट ने दो डण्डे मार कर कहा,’’ साली चढ़ोगी या गला दबाकर मार डालूँ? आयी है बैठ कर खाने।,, इस पर वह उठी और किसी तरह रस्से पर चढ़ी।ज्यों ही रस्से पर हाथ छोड़ कर खड़ी हुई। उसके पैर लड़खड़ाये, शरीर का संतुलन बिगड़ा,धड़ाम से जमीन पर गिरी और गिरते ही इस दुनियाँ से हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो गयी।,, ‘’डण्डे की मार से वह जिस समय चिल्लायी थी, उसके चिल्लाने की आवाज सुनकर हम लोग वहाँ गये किंतु तब तक उनका डेरा उखड़ने लगा था।,,इतना सुन लेने के बाद गुलाल ने और कुछ सुनने की इच्छा नहीं की।उसने आश्रम के लिए तुरंत प्रस्थान किया। वह मार्ग में कभी रोता,कभी संसार की विविधताओ पर सोचता और कभी मानव जाति की अमानुषिक क्रियाओं पर सिर धुनता चला जा रहा था।कुटी के पास पहुँच कर देखा मधुसूदन कुटी पर पहले ही पहुँच चुके हैं। मधुसूदन की निगाह गुलाल पर पड़ी।उन्हों ने गुलाल को इतना खिन्न और उदास कभी नही देखा था। गुलाल के निकट आ जाने पर मधुसूदन ने पूछा,’’ कहो गुलाल!जिस कार्य के लिये गये थे उसमें कहाँ तक सफलता मिली?,, गुलाल आँखों में आँसू भरकर मधुसूदन के पास बैठ गया।मधुसूदन ने पुन:प्रश्न किया,’’ क्या बात है?क्यों बोल नही रही हो?क्या किसी ने तुम्हारा अपमान किया है? जिसके कारण तुम्हें इतना दुख है।अरे यह क्या?आँखों से आँसू गिरने का क्या कारण है?,, गुलाल ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा,’’क्या कहूँ भैया! कुछ कहा नहीं जाता।अभी जीवन में पता नहीं कितनी विपत्तियाँ आयेंगी।?,, ‘’ इस प्रकार पग-पग पर अधीर होते रहोगे तो कैसे काम चलेगी? जो बात हो स्पष्ट बताओ। अब गुलाल को बताना ही था इसलिये उसने कहा,’’भैया!हत्यारे नटों ने मंजुला को मार डाला। हमें उसकी रक्षा की व्यवस्था के लिये एक दिन का समय भी नही मिल सका।,,इतना सुनते ही पूर्व स्मृतियों सजग हो उठीं,उसके नेत्रों में आँसू आ गये। कुछ क्षणोंपरान्त उन्हों ने कहा, ‘’ इतना दुख देखना और बाकी था। अन्यथा तुम्हारी भेंट ही क्यों होती? यदि वह नही दिखाई दी होती तो उसकी मृत्यु के बाद भी हम यही सोचते कि वह कहीं चैन की बंशी बजाती होगी। जिस उद्देशय को लेकर हम दर-दर भटक रहे हैं, उसमें हम पहली ही बार विफल हुये। आपस में बातें करते और मंजुला की दुखद मृत्यु पर सिर धुनते हुये दोनों ने रात बितायी। दस.............. भगवान मरीचिमाली अपनी किरणें समेट कर अस्ताचल की आड़ में छिप गये। शनै:शनै: अंधकार का साम्राज्य विस्तार पाने लगा। संध्या और आयी चली गयी।चतुर्दिक सन्नाटा! झीगुंरो,रीवों और झिल्लियों की झंकार। असंख्य नेत्रों वाला आकाश झाँक कर देख रहा था शर्वरी का ताण्डव। वातावरण शान्त और निस्तव्ध था। नीरव था अरविन्द का संसार। दरवाजे पर बिछी हुई खाट पर बैठा अरविन्द अपने भविष्य की चिन्ता में डूबा था। इसी समय दूर से एक गीत की स्वर-लहरी उसके कर्ण-कुहर में प्रविष्ट हुई- जा उड़ रे पंछी!दूर देश में, जहाँ ठिकाना तेरा,माने कहना मेरा। इस धरती पर जाल बिछा कर, बधिक खड़े बहुतेरे! हे मित्र पखेरु मेरे। जिसे सँवारा और सजाया, नीड नहीं अब तेरा! छाया अधिक अँधेरा। नश्वर है जगती का कण-कण शश्वत सत्य यही हैं। रहना यहाँ नही जहाँ स्वर्ग की गंध मिली थी, वहीं नरक उमड़ा है।तेरा घर उजाड़ा। जहाँ न धरती के मानव की, एक झलक भी मिलती। कली ह्रदय की खिलती। उसी देश में किसी वेश में, जा कर नीड बनाओ। समय न व्यर्थ गँवाओ॥ इस गीत को सुन लेने के पश्यात अरविन्द ने सोचा कि शायद मेरी दयनीय दशा पर प्रकृति तरस खा रही है और छदा वेश धारण कर मुझे इस संसार से विरक्त होने के कारण प्रेरित कर रही है।सचमुच अब मेरा घर उजड़ गया है और उसको उजाड़ने वाला था मनुष्य? ऐसे नर पिशाचों के बीच रहना अब ठीक नहीं है।किंतु नौकरी?किसके लिये?नहीं जब राधा ही नहीं तो मै यहाँ रह कर क्या करुँगा? अरविन्द रात भर तर्क-वितर्क करता रहा।कभी राधा के विषय में सोचता,कभी सोना चाहता,फिर कभी वृद्ध पिता के विषय में सोचने लगता।आज की रात शीघ्र जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। किसी समय क्षण भर के लिये निद्रा ने उसके ऊपर कृपा की तो उसने देखा,’’ सामने मालिन बसना हाथ जोड़े खड़ी कह रही है,’’ मेरे देवता! अब मैं आप को अपना कंलकी मुँह दिखाने योग्य नही हूँ। आप मुझे क्षमा करें और सच्चे ह्रदय से बिदा दें। ,,तत्क्षण आँखे खुली और सामने वही रात की छाया। किसी प्रकार रात बीती सूर्य की किरणों ने अग-जग को जगाया। अरविन्द उठा और नौकरी से त्याग पत्र देने के विचार से घर छोड़ कर चल दिया। कार्यालय पहुँच कर हिसाब-किताब पूरा किया और प्राप्य धन को प्राप्त करके वहाँ के कर्मचारी साथियों को अंतिम नमस्कार किया। अपने पैन्ट आदि वस्त्रों को किसी गरीब को देकर, अरविन्द ने स्वयं साधारण वस्त्रों को धारण किया। अपनी सुरक्षा के लिये उसने अपने पास एक हल्की सी कटार रक्खी। कई दिन टहलने के बाद गंगा के किनारे एक स्थान पर उसनें रहने की व्यवस्था की। धीरे-धीरे जनता के सहयोग से एक आश्रम की स्थापना की,और उसका नाम ‘अरविन्दाश्रम ,रक्खा। अब वही अरबिन्द अरविन्दाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुये। अरविन्दाचार्य टहल –टहल कर दीन-दुखियों की सेवा करने लगे। जहाँ कहीं नर –पिशाच से भेंट हो जाती ,वहाँ अपना साधु स्वभाव छोड़ कर उग्र रुप धारण कर लेते। एक दिन एक नव युवक ने आश्रम के रक्षक से कहा,’’क्यों भाई! महाराज अरविन्दाचार्य का आश्रम यहीं है?, रक्षक ने उत्तर दिया,’’ हाँ महाराज का आश्रम यही है।,, ‘’क्यामैं उनके दर्शन कर सकता हूँ?,, ‘’क्यों नहीं? महाराज का द्वार तो सबके लिये हमेशा खुला रहता है।किन्तु इस समय वे अयोध्या गये है। वे वहाँ से एक महीने के बाद लौटेगें इसलिये आप एक महीने के बाद ही आयें। निराश युवक वहाँ से वापस लौटा। एक माह के बाद युवक पुन: आश्रम पर गया। किंतु वही निराशा: क्योकिं अभी तक महाराज अरविन्दाचार्य नहीं लौटे थे। कुछ समय तक रुकने के बाद युवक ने आश्रम के रक्षक को चार हजार रुपये देकर कहा,’’ इन रुपयों को महराज को दे कर कहना,इसे एक युवक ने आश्रम के सहायतार्थ दिया है। यह पत्र भी दे देना। युवक के जाने के तीन दिन बाद अरविन्दाचार्य आये। सेवक ने रुपये और पत्र महाराज अरविन्दाचार्य को दिया और कहा,’’महाराज!एक अज्ञात युवक ने इसे दिया है।,, अरविन्दाचार्य ने पत्र को पढ़ा।उसमें लिखा था- परम पूज्य जीवन दाता महाराज जी! सादर चरण स्पर्श। एक दिन आपने जिन दो बच्चों को दानव की काश से मुक्त किया था और उनकी मुक्ति के लिये राक्षस राज को रुपये दिये थे! उनमें से मैं श्यामू आप के दर्शनों से वंचित आश्रम की सेवा में चार हजार रुपये दे रहा हूँ और आशा करता हूँ कि आप मेरी तुच्छ सेवा स्वीकार करेंगे।आप की ही कृपा से आज मैं गुलाल से एक स्वतत्र नागरिक हो सका हूँ और इस योग्य हो सका हूँ कि कि मनसा, वाचा और कर्मणा आप की सेवा कर सकूँ। मैं किसी न किसी दिन आप के दर्शन अवश्य करुँगा। यह पत्र लिख कर मैं आशा करता हूँ कि आप का वात्सल्य मुझे प्राप्त होता रहेगा। आपके आशीर्वाद का आकांक्षी आप का पुनर्जीवित दास श्यामू यह पढ़ते ही होटल की विस्मृत घटना याद आयी।‘’हाँ,एक दिन मैंनें दुष्ट होटल वाले चंगुल से तड़पते हुये एक बालक को मुक्त किया था। कदाचित उसने अपना नाम भी बताया था किंतु मुझे स्मरण नहीं। क्या वह युवक वही है? जो अपने को श्यामू कह रहा है।जाते समय उसने मुझसे मेरा पता माँगा था। पता तों मैंने नही बताया था किन्तु उसे एक ताबीज दी थी,जिसके भीतर मेरा पता था। सम्भव है, किसी समय ताबीज खोला हो और मेरा पता जानकर मेरे प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिये चार हजार रुपये दे गया हो। ऐसा कार्य कर के उसने मुझे उस पवित्र कार्य के पुण्य से वंचित कर दिया मै यह भी नही जानता कि वह इस समय कहाँ रह रहा है? अन्यथा उसके पास जाकर रुपये लौटा देता। यद्पि वह इसे स्वीकार नही करेगा।फिर भी समझा-बुझाकर इसे उसके हवाले करता । मुझे इन रुपयों से क्या लेना-देना है? इन रुपयों को मैं सुरक्षित रखूँगा और यदि वह कभी भी इस आश्रम पर आया तो उसे लौटाने का पूरा प्रयास करुँगा। मुझे यह भी विश्वास है कि वह आश्रम पर अवश्य आयेगा। ग्यारह थाने से लौट कर श्यामू ने देखा कि पड़ोस के लोग चुटकियाँ ले रहे है। कोई कहता,’’घमण्ड भगवान का आहार है।बड़े-बड़े घमण्डियों का घमण्ड चूर होते देखा गया है। कुछ चीटियाँ भी समुद्र पार करने के लिये कमर कसे तैयार हैं।,, कोई कहता,’’ अपने बल के सामने लोग किसी को कुछ समझते ही नहीं। कुत्ते जब तक शेर के सामने नही पड़ते तब तक खूब भूँकते हैं।,, कोई कहता,’’ शेखी बघार ने वाले मुँह में थप्पड़ खा कर भी भला मुँह दिखाते हैं,कही चिल्लू भर पानी में डूब नही मरते।,, यदि शब्द-वाणों के आघात को सहता हुआ श्यामू अपने दरवाजे पर बैठा रहा। वह अनुभव कर रहा था कि वास्तव में मुझे अब यहाँ नहीं रहना चाहिये।वह बचपन की विपत्तियों से उतना पीड़ित नही था, जितना इस घटना से। थाने वालों के पाशविक व्यवहार भी ग्लानि से तो वैसे ही उसका ह्रदय फटा जा रहा था, घर आने पर और घाव पर नमक पड़ने लगा। तारिका ने खाने के लिये बुलाया।किन्तु श्यामू कुछ बोला नहीं। तारिका ने पास जाकर कहा,’’ बेटा! कई दिनों से खाने की परेशानी हो रही है। चलो कुछ खा कर सो जाओ।,, तारिका की बाते सुनकर श्यामू सिसक-सिसक कर रोने लगा। श्यामू को रोता देखकर तारिका भी अपने को सँभाल न पायी। वह भी रोने लगी।किन्तु कुछ ही पलों में धैर्य धारण कर तारिका ने श्यामू को शान्त करते हुये कहा,’’बेटा!अब बीती हुई बातों के विषय में सोचना व्यर्थ है। अब भूत को भुला कर भविष्य के विषय में सोचो।,, ‘’सोच चुका हूँ माँ!,, ‘’ सोच चुके हो तो भूख लगी होगी,कुछ खा पीकर आराम करो।उठो बेटा!,, अपमानित श्यामू माँ की आज्ञा का पालन करने के लिये उठ गया लेकिन चिन्ता और ग्लानि के कारण उससे कुछ खाया नही गया।भोजनोपरान्त उसने तारिका से कहा,’’माँ!अब मैं घर छोड़ना चाहता हूँ।मुझे जाने की आज्ञा दो।,, ‘’बेटा!तुम्हारे घर रहने पर तो ये राक्षस रहने ही नहीं दे रहे हैं, घर छोड़ देने पर कैसे रहने देंगे?,, ‘’ ऐसा है माँ! वे लोग जितना भी सताना चाहें,सताएँ! कुछ बोलना नहीं।अब तो उसका घर बनेगा ही, मैं रहूँ या न रहूँ। उसे बनने दो।,, ‘’ यह तो बताओ यहाँ से कहाँ जाओगे?,, अब श्यामू के सामने सबसे बड़ी समस्या यही थी, वह क्या बताए कि यहाँ से कहाँ जायगा? थोड़ी देर चुप रहने उसने कहा,’’कहना तो नहीं चाहता था किन्तु....। ‘’बताओ बेटा! जिससे मैं निश्चिन्त रहूँ अन्यथा तुम्हारी चिन्ता में घुल-घुल कर मरुँगी।,, ‘’ क्या कहूँ माँ! जिस उद्देश्य को लेकर जा रहा हूँ,पता नहीं उसमें सफलता मिलेगी या नहीं,इसलिये बताने से हिचक रहा हूँ।,, ‘’ बेटा! यह मैं नही कहती कि डंका पीट कर जाओ मुझसे तो बता कर ही जाओ,,’’माँ!मेरा बिचार है कि मैं यहाँ से जाकर भैया रोहित का पता लगाऊँ और जैसे भी हो उसे ले आऊँ। क्योंकि जब हम तीन हो जायेगे तब इन राक्षसों का सामना करने में सक्षम हो जायँगे।,, तारिका के ह्रदय की गति तीव्र हुई और उसका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। श्यामू की बातें सुनकर तारिका आगे मानो स्वर्ग उतर आया हो। गला साफ करके उसने पूछा,’’ बेटा! क्या रोहित के मिलने की अभी आशा है?,, ‘’माँ!यदि रोहित जीवित होगा तो मैं उसें ले कर ही लौटूँगा।,, ‘’बेटा!---मैं....।, आगे वह कुछ न कह सकी। माँ तारिका की मौन स्वीकृति पाकर श्यामू घर से निकल पड़ा। शाकुल गहरी निद्रा में सो रहा था।श्यामू ने उसे अपने जाने का समाचार से अवगत कराना उचित नहीं समझा । इसलिये उसे नहीं जगाया। विचारों में मग्न श्यामू रात के अंधकार को चीरता चला जा रहा था। उसके सामने रोहित को मुक्त कराने का प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण था। उसने सोचा कि पहले रोहित को राक्षस कूड़ामल के जाल से मुक्त करना है। परन्तु यह सम्भव कैसे होगा? मेरा मुक्त होना तो इसके लिये सम्भव हुआ कि मेरे रक्षक के सामने क्रोधाधिक्य के कारण उसके मुँह से निकल गया कि आप बड़े दयालु हैं तो दो हजार रुपये दे दीजिए।दूसरी बात यह कि उस समय उसके पास एक ही गुण्डा था और उस गुण्डे के लिये मेरे जीवन दाता ने उससे भी अधिक भयंकर रुप दिखाया।अब इस घटना से उसकी आँखे खुल गई होंगी।उसने कई गुण्डे रख लिये होंगे।तब मैं अकेला रोहित को कैसे छुड़ा सकूँगा? इसी अधेर धुन में वह घर से बहुत दूर निकल गया।अन्त में उसके मन में एक बात आयी वह यह कि किसी दस्यु-गिरोह से मिलकर यह काम किया जाय।इतना सोचते ही उसकी सारी खिन्नता जाती रही और मानो उसकी सारी योजनाएँ सफल हो गयी।पुन: उसने सोचा,’’ आखिर दस्युओं का गिरोह मिलेगा कहाँ? इस प्रकार हरते-गुनते उसने रात बितायी। सूर्योदय हुआ।श्यामू नित्य क्रिया से निवृत होकर जलाशय के किनारे बैठ गया।वह कुछ समय तक वहीं बैठ कर सोचता रहा। सहसा उसके दिमाग में आया कि किसी घने जंगल में कोई न कोई गिरोह अवश्य होगा।अत: मुझे ऐसे ही स्थान पर खोज करनी चाहिये। वहाँ से उठकर वह ऐसे ही जंगल की खोज करने लगा।दो दिन के बाद एक घना जंगल दिखाई पड़ा।उस जंगल को देखते ही श्यामू प्रसन्नता से नाच उठा।जंगल के पास पहुँच कर उसमें प्रवेश करने का विचार किया। कुछ समय तक भयवश असमंजय मे पड़ा रहा किन्तु पूर्व परिस्थियों ने दृढ़ता प्रदान की और वह जंगल में प्रविष्ट हुआ। कुछ मार्ग पार करने के पश्चात उस वन की सघनता बढ़ने लगी। दिन में ही रात जैसा दृश्य दिखाई देने लगा। श्यामू के चलने की आहट पाकर हिरन,खरगोश,गीदड़,आदि जानवर भागने लगे। कुछ दूर चलकर श्यामू रुक गया। दिन बीता रात बीती किन्तु श्यामू को कोई सफलता नहीं मिली। भूख-प्यास से व्याकुल वह निराश होकर जंगल से बाहर निकलने का रास्ता ढूढ़ ही रहा था कि उसको प्रकाश सा दिखायी दिया और आधा मिनट के बाद ही लुप्त भी हो गया। इसलिये जिस दिशा में प्रकाश दिखाई पड़ रहा था, उसी दिशा में चलने लगा।बहुत दूर निकल जाने के बाद भी प्रकाश कहीं दिखाई नही दिया। अब श्यामू डरने लगा: क्योंकि बचपन में उसने भूतों की कहानियाँ सुनी थी। उसने सोचा, ‘’निश्चित ही ये भूत ही थे, जिन्हों ने मुझे डरवाने के लिये ही मेरे सिर पर प्रकाश फेका था। वह भूतों की अनेक कल्पनाएँ कर ही रहा था कि बहुत ही तेज से प्रकाश पुन: उसके मुख: पर पड़ा। अबकी बार प्रकाश देखते ही चिल्लाकर गिर पड़ा। एक व्यक्ति ने उसके पास आकर कहा,’’ आओ यारो! शिकार मिल गया है। चार व्यक्ति दौड़ कर उसके पास आ गये। श्यामू की अचेतना वस्था में ही उन लोगों ने उसके शरीर की अंगुल-अंगुल तलाशी ले ली। जब उन लोगों को उसके पास से कुछ भी नहीं मिला तो एक व्यक्ति ने कहा,’’ साले के पास कुछ भी नहीं है।,, दूसरे ने कहा, मार डालो दरिद्र ससुरा को।,, इस पर सरदार ने कहा,’’ मार कर क्या पाओगे, इसे होश में लाने का प्रयास करो।हम लोगों को देखकर डर से बेहोश हो गया है। इस विपन्नावस्था में इसके यहाँ आने का कारण कुछ और हो सकता है। क्योंकि इसके पास कुछ भी तो होता। एक व्यक्ति ने उसकी दाहिनी भुजा में बँधी ताबीज को निकाल कर कहा,’’ यही इसकी पूजी है। सरदार के आदेशानुसार अन्य लोगों ने पत्ता आदि से हवा की व्यवस्था की। थोड़ी देर बाद श्यामू की आँखे खुली। उसके चैतन्य होते ही सरदार चन्दा ने कहा, क्यों डर रहे हो? हम भी मनुष्य ही हैं। इस भयंकर वन में अकेले क्यों घूम रहे हो? जानते नही हो कि ऐसे जंगल में कितने हिंसक पशु ,भयावने पक्षी तथा चोर डाकुओ का वसेरा रहता है? अब श्यामू ने बोलने का साहस किया और कहा,’’ सरकार क्या इस जंगल में डाकू रहते हैं? क्या आप लोग मुझे किसी दस्यु-गिरोह से मिला सकते है? यदि आप किसी गिरोह से मिला दे तो जीवन भर मैं आप का कृतज्ञ रहूँगा।,, चन्दा ने कहा,’ पहले तुम बताओ, डाकुओ के गिरोह से मिलने का तुम्हारा उद्देश्य क्या है?,, ‘’सरकार!मैं बचपन से लेकर अब तक बहुत सताया गया हूँ। अब मेरे लिये संसार में कहीं भी शरण नही है। इसलिए अब मैं डकैतों की शरण में जाना चाहता हूँ।,, सरदार ने कहा,’’ हम लोगों को तुम क्या समझते हो?,, ‘’ आप लोगों को? आप लोग तो भूत हैं। इतना सुनते ही सब लोग हँसने लगे। सरदार चन्दा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुये कहा,’’बेटा!हम लोग भूत नही हैं। हम डाकू हैं। मेरा नाम सरदार चन्दा है। उठो, आज से तुम मेरे गिरोह के सदस्य हुये।चलो हमारे साथ।,, श्यामू ने कहा,’’ क्या आप सत्य कह रहे है? यदि ऐसा है तो मेरे भाग्य जागे।,,’’हाँ,सत्य कह रहा हूँ। तुम्हारा पेट पीठ से ढक गया है।इसलिये आवास पर चलकर कुछ खाओ-पियो।,, श्यामू ने बचपन में सुना था कि भूत किसी मनुष्य को पा जाने पर उससे प्रेम पूर्वक बातें करते है। और बहका कर अपने थान पर ले जाकर उसे मार कर खा डालते हैं। उसने सोचा कि अब मेरा अन्तिम दिन आ गया है।अब कोई भी उपाय मेरी रक्षा नहीं कर सकता। यदि इनके साथ जाना अस्वीकार भी करता हूँ तो भी मुझे छोड़ने वाले नहीं। अब तो इनके साथ जाना ही है।वह उठा और चलने के लिये तैयार हुआ। इसी समय उसका ध्यान ताबीज की ओर गया। बाएँ हाथ से टोकरकहा, सरदार जी!थोड़ी देर रुक कर चले ।,, ‘’क्यों!क्या बात है?,,’’ हमारी ताबीज पता नहीं कहाँ गिर गयी है। आप लोगों से मिलने से पहले वह मेरे हाथ मे थी।,, हँसते हुये एक दस्यु ने कहा,’’ ये लो अपनी सम्पत्ति।,, श्यामू ने ताबीज को हाथ में लेते हुये कहा,’’ भैया! यह मेरी सम्पत्ति ही है।,,उसे ध्यान आया कि मेरे रक्षक ने कहा था,’’ इसे आवश्यकता पड़ने पर खोलना।,, उसने सोचा,’’आज तो मैं मृत्यु कें मुख में जा रहा हूँ। अब इसे खोलने की आवश्यकता कब होंगी?,, उसने सरकार से कहा,’’ चाचा जी मैं दो मिनट सुस्ताना चाहता हूँ।,, चन्दा ने कहा,’’ थोड़ी ही दूर चलना है। चल कर वहीं सुस्ताओ।,, पराधीन श्यामू इसके आगे कुछ न बोल सका। वह डकैतों के साथ चल पड़ा। लगभग एक किलोमीटर चलने पर एक गुफा दिखायी दी। दस्युओं ने श्यामू को साथ लेकर उसी गुफा में प्रवेश किया।सौ मीटर चलने पर उस गुफा का अन्त हुआ कुछ और आगे बढ़ने पर एक दूसरी गुफा में प्रवेश करना पड़ा। कुछ दूर तै करने के बाद वे लोग एक कँटीली झाड़ियों से घिरे एक मैदान में पहुँच गये। यही उनके रहने का गुप्त स्थान था। आवास पर पहुँच कर श्यामू ने जो कुछ देखा,उससे वह और भी भयभीत हुआ। उसने सोचा,’’ हो सकता है ये लोग मुझे मायालोक में लाकर मेरी मन चाही वस्तुओं को दिखाकर मारना चाहते हों। क्योंकि भूत प्रेत मायावी होते ही हैं। वहाँ पहुँचने पर सब लोग बैठे । सरदार ने श्यामू को अपने पास बैठने को कहा।जीवन से निराश होकर श्यामू बैठ गया। इसी समय एक व्यक्ति ने-जो वहाँ पहले से ही था-खाने का सामान लाकर सब के सामने परसा। कई दिनों से भूखे श्यामू ने बड़े चाव से खाना खाया। अब वह कुछ आश्वस्त हुआ। किन्तु अब भी उसे पूरा विश्वास नही था कि वे लोग डाकू ही है। उसे पुन: ताबीज खोलने की याद आयी। एक किनारे जा कर उसने ताबीज को खोला। उसमें एक पत्र था- (1) साहस और धैर्य का फल मधुरतम होता है। (2) अन्यायी को दण्ड न देना ही सब से बड़ा पाप है। (3) किसी कार्य को इति श्री चिन्तन के बाद ही होती है। अ‍रविन्दाचार्य अरविन्दाश्रम अवध इसी समय चन्दा ने कहा,’’ अरे भाई क्या बड़े ध्यान से देख रहे हो?,, श्यामू ने कागज को मुठ्ठी में समेटते हुये कहा,’’कुछ नही।,, मुस्कुराते हुये चन्दा ने कहा,’’ कुछ तो अवश्य है।छिपाओ नही साथी। अब यहाँ अपने को हम लोगों से अलग न समझो।,, श्यामू ने भी मुस्कुराते हुये पत्र को सरदार के सामने रख दिया।पत्र को पढ़कर चन्दा अवाक रह गया।कुछ समयोपरान्त कहा,’’ मित्र इस पत्र का रहस्य बताओ।,, श्यामू सरदार से संतुष्ट हो चुका था।इसलिये उसने सारी व्यथा कथा सुना दी।उसकी करुण कथा को सुनकर चन्दा ने कहा,’’मित्र तुम्हारा क्या नाम है?,,’’मेरा नाम श्यामू है भैया!,,’’अच्छा श्यामू बेटा!जिस समय तुम्हारे रक्षक ने तुम्हें होटल से मुक्त कराया उस समय उनका परिचय तुमने पूछा था?,, ‘’पूछा तो कई बार पर उनका उत्तर था,’’ मेरा कोइ परिचय नहीं हैं।मेरे बहुत हठ करने पर तावीज देकर कहा था-आवश्यकता पड़ने पर इसे खोलना।,, श्यामू अब बहुत प्रसन्न था।धीरे-धीरे उसने बन्दूक आदि चलना सीख लिया।दो-चार डकैतियों के बाद पुलिस वालो को इनके छिपने के स्थान का पता चल गया। ये लोग अब बच-बच कर रहने लगे।एक दिन पुलिस के मुठभेड़ में सरदार चन्दा मारा गया।उसके मरते ही यह गिरोह निर्बल हो गया।श्यामू ने धीरे-धीरे अपने दल में धाक जमा ली थी।अब चन्दा के बाद उस गिरोह के सब सदस्यों ने श्यामू को ही अपना सरदार बनाया।सरदार का पद पा जाने के बाद श्यामू ने नये स्थान की खोज करने की बात की।इसका सब सदस्यों ने समर्थन किया।क्योंकि अब यह स्थान निरापद नही रह गया था। अपने कुछ साथियों के साथ लुक-छिपकर सरदार श्यामू एक जंगल के किनारे पहुँचा,वहाँ बहुत से चरवाहे अपने पशुओं को चरा रहे थे।वह जंगल इतना घना था कि उसमें प्रवेश करना सम्भव नही जान पड़ता था।कई दिन तक श्यामू ने घूम-घूम कर देखा किंतु उसमें प्रवेश का कोई भी मार्ग दिखाई नही पड़ा।हार कर श्यामू अपने साथियों के साथ एक किनारे बैठ गया।सहसा उसकी निगाह जंगल के ऊपर उड़ते हुये बगुलों पर पड़ी।उड़ते हुये बगुलों को देखकर उसने अनुमान लगाया कि निश्चित ही इस जंगल के भीतर कोई जलाशय है।फिर उसने सोचा कि यदि भीतर कोई तालाब होगा तो चरवाहे को भी इसका पता अवश्य होगा।इसलिये पता लगाना चाहिये कि जंगल के भीतर कोई जलाशय है या नही। अब वह पता लगाने के लिये पशुओ की ओर गया।कुछ समय के बाद उसने देखा कि एक भैंस पानी में भिगी हुई है।उसने चरवाहों से पूछा,’’क्यों भाई! यहाँ आस-पास कोई तालाब है क्या?मैं देख रहा हूँ कि यह भैंस किसी तालाब से ही आयी है।हमें प्यास लगी है।पानी पीना चाहते है।यदि तुम लोगों को मालूम हो तो चलकर दिखा दो,बड़ी कृपा होगी।एक चरवाहे ने कहा,’’ यह बड़ा पाजी भैंस है।हम इसे केतनऊ रोकना चाहता हूँ लेकिन पता नही कइसे अऊ कब इस बन के अन्दर हिल जाती है और एक घण्टा में,द्वि घण्टा में चली आती है।,,श्यामू ने कहा,अब आज तो जायगी नहीं,कल इसका तमाशा देखने के लिये हम फिर आयेंगे।,, एक चरवाहे ने कहा,’’हाँ,ठीक है,कल सवेरे आओ तो देखो।,, दूसरे दिन चरवाहों के आने से पहले ही श्यामू अपने साथियों के साथ आ कर बैठा, जहाँ पशुओ के साथ चरवाहे पहले मिले थे। गाँव वहाँ से दूर थे इसलिये जंगल तक पहुँचने में चरवाहों को लगभग एक घण्टे का समय लग जाता था।चरवाहों के आ जाने पर श्यामू ने कहा,’’ वह कौन सी भैंस है जो जंगल के भीतर जाती है?,, चरवाहों ने बताया लगभग एक घण्टा चरने के बाद वह भैंस एक ओर से जंगल में घुसने लगी।श्यामू ने अपने साथियों को वहीं पर रोक कर स्वयं भैंस के पीछे-पीछे चलने लगा।कुछ दूर चलने के बाद भैंस तेजी से चलकर कहीं गायब हो गयी। अब श्यामू को वापस आना पड़ा। लोगों के पूछने पर उसने बताया कि पता नहीं कहाँ गायब हो गयी? एक चरावाहे ने कहा,’’ भइया जी! एहि जंगल में जिन्त का वास है। वही इसे खीचि लेइ जाते है। हम लोग बहुत कोशिस किहा लेकिन पता नहीं पाइसके कि यह कौने रास्ता से निकलि जाती है?,, श्यामू ने कहा,’’ जाना तो हमको बहुत दूर है किंतु इस घटना से बहुत आश्चर्य हो रहा है। कल तुम लोग एक लोहे का घड़ा-जो चूता हो-लेकर आओ और उसी के साथ एक रस्सी भी।,, एक चरवाहे ने कहा,’’ त ओसे का होई?,, ‘’ कल लेकर आओ तो पहले।,, दूसरे दिन चरवाहे कुतूहल वश लोहे का फूटा हुआ घड़ा और रस्सी ले कर पहुँच गये और उन्हों ने श्यामू से करामात दिखाने के लिये कहा।घड़ा और रस्सी पाकर श्यामू ने चरवाहों से कहा,’’ जो भैंस जंगल में जाती है उसी के गले में घड़े में बाँध दो।,,चरवाहो ने घड़े को भैंस को गले मे बाँध दिया।कुछ समय के बाद भैंस जंगल के भीतर घुसी और एक घण्टे के बाद वापस आ गयी। श्यामू ने देखा घड़े का पानी लगभग समाप्त हो गया था किंतु घड़े से कुछ बूँदे अब भी टपक रही थीं।श्यामू ने कहा,’’ अब जंगल के भीतर मैं जा रहा हूँ और जिंद का पता लगा कर अभी आता हूँ।,, उसने अकेले जंगल में प्रवेश किया ।घड़े से गिरे हुये पानी को देखता हुआ वह कुछ दूर निकल गया।एक जगह उसे रुक जाना पड़ा।क्योंकि वहाँ जंगल इतना घना था कि कुछ समय तक पता ही न चला कि किस ओर जाया जाय।मार्ग का पता लगाने में कुछ समय तक उसे बहुत परेशानी हुई।किंतु सफलता मिल गयी। वह आगे बढ़ा।कुछ दूर चलने के बाद एक बहुत बड़ा जलाशय दिखाई पड़ा।उस जलाशय के मध्य में एक विशाल मन्दिर था।मंदिर को देखकर श्यामू बहुत प्रसन्न हुआ।पहले तो उसने सोचा इस जलाशय के मध्य में इतना विशाल मन्दिर के होने का क्या कारण हो सकता है?फिर जलाशय के चारों ओर देखा न मंदिर तक पहुँचने का कोई मार्ग और न ही किसी नाव आदि के होने का कोई चिन्ह ।कुछ देर तक सोचने विचारने के बाद वह तालाब मे कूद पड़ा और तैरते हुये मंदिर में जा पहुँचा।वहाँ पहुँचने पर उसने देखा कि मंदिर की तीन दिशाओं में चार-चार कमरे थे और एक दिशा में मुख्य द्वार बीच में एक गोल किंतु छोटा मंदिर ,जिसमें लोढ़े(बहा) जैसा शिवलिंग था।श्यामू ने बड़े ध्यान से उसका निरीक्षण किया। उसे लगा यह मूर्ति नहीं है। किंतु लोगो को धोखा देने के लिये इसे मूर्ति का रूप दिया गया है।इस लिंग के नीचे भी कुछ हो सकता है इसलिये उसने मूर्ति को बल लगाकर दोनों हाथों से ऊपर की ओर खींचा।शिवलिंग के साथ ही एक पतली पटिया निकल आयी।पटिया के हटते ही उसने देखा कि नीचे जाने के लिये सीढ़ी बनी हुई है।श्यामू ने नीचे जाकर कुछ और जानना चाहा किंतु दो चार कदम चलने के बाद उसकी हिम्मत छूट गयी और लौट पड़ा। बाहर आकर उसने सोचा,’’ यह बहुत पुराना तालाब और मंदिर है। बहुत कुछ सम्भव है यह मंदिर किसी सुरंग का गुप्त द्वार हो। एक घण्टे के बाद वह जंगल से बाहर आकर बहुत ही भयभीत की तरह वहाँ इकट्ठे लोगों से बोला,’’ अरे भाई! मेरी तो जान बच गयी।ज्यों ही मैं तालाब के किनारे पहुँचा पानी के भीतर से एक बहुत बड़ा जिंद निकल कर मेरे सामने आ गया। जितना लम्बा मैं,हूँ वह उसका तीन गुना लम्बा था। उसकी दों सींगें ऊप जाकर एक में मिल गयी थीं।जो दो-चार मीटर लम्बी थीं।मुँह घोड़े के समान था जिससे रह-रह कर आग की लपटें निकल रही थीं।दाँत आठ-आठ अंगुल के थे। सारे शरीर में लम्बे-लम्बे बाल थे और कान हाथी के कान से बड़े थे।उसे देखते ही मैं भय से काँपकर गिर पड़ा।मुझको गिरा हुआ देखकर उसने अपनें परिजनों को बुलाकर कहा,’’ इसे उठाकर थान्ह पर ले चलों,वहीं खाया जाय।इतना सुनते ही मेरे होश उड़ गये किन्तु साहस कर मैने कहा,’’ हे देव!मैं रास्ता भूलकर यहाँ चला आया हूँ।अब ऐसी भूल कभी नहीं होगी। आज मुझे अभय दान दीजिये।,,उसने कहा,’’ क्यों इतना डरते हो? हम लोग तुम्हें खाकर अपनी भूख मिटाएँगे। फिर तुम्हें अपनी ही तरह बना देंगें।,, मैने उसे पट्टी पढ़ाने का प्रयास किया और कहा,’’अपनी ही तरह बना देंगे?,, ‘’हाँ,अपनी ही तरह।,, फिर मैने कहा,’’ यदि ऐसा है तो बाहर हमारे और साथी हैं, आप से प्रार्थना है कि सब को इसी तरह बना दीजिए, यह तो बड़ी खुशी की बात है। मैं अभी दस साथियों को साथ लेकर आता हूँ।,, पता नहीं उसके दिमाग में क्या आया, उसने कहा,’’ दस लोगों को लेकर आओगे? अच्छा,जाओ एक घण्टे के अन्दर सब को साथ लेकर आ जाओ। अन्यथा मैं जंगल के बाहर निकल कर जितने भी लोग मिलेंगे, सब को खा जाऊँगा और हमेशा जो यहाँ मिलेगा, छोड़ूगा नहीं।,, ह्रदय को झकझोर देने वाली इस बात को सुनकर वहाँ उपस्थित सब लोग घबड़ा गये,यहाँ तक की श्यामू के साथी भी भयभीत हो गये। फिर श्यामू ने कहा,’’ अभी आधा घण्टा ही बीता है।हम सभी यहाँ से भाग चलें,जब तक एक घंटे का समय व्यतीत होगा, तब तक तो हम लोग बहुत दूर निकल चलेंगे।,, इतना सुनते ही,’’ अब यहाँ कभी नहीं आयेंगे।,, कहते हुये सभी वहाँ से भग गये। श्यामू भी अपने साथियो के साथ एक दिशा में भागने का अभिनय किया। कुछ दूर दौड़ने के बाद श्यामू ने कहा,’’ अब हमारा मार्ग निरापद हुआ। ये चरवाहे इस घटना का गाँव में प्रचार करेंगे। और इस घटना को सुन लेने के बाद यहाँ आने का साहस कोई नही करेगा। श्यामू के एक साथी ने पूछा,’’यह सब,जो आप बता रहे थे क्या सत्य है? मेरी तो आत्मा काँप गयी। श्यामू ने कहा,’’ पागल हो, कैसा जिंद? इन सब को डरवाने के लिये मैंने यह कहानी गढ़ी है। वह स्थान हमारे छिपने योग्य है।वहाँ कोई भी नहीं पहुँच सकता। चलो,अब वहीं चले । तुम लोग भी वह स्थान देख लो। उस स्थान को को देख लेने के बाद अन्य साथियों को भी यहीं बुला लाओ।,, श्यामू ने सब को उस स्थान को दिखाया सब ने देखा कि उस मंदिर में कम से कम पचास व्यक्ति रह सकते है।और दूसरी बात यह कि यहाँ का एक शब्द भी बाहर से नही सुना जा सकता।न कोई वहाँ पहुँच ही सकता है। उस सुरक्षित स्थान को देख लेने के बाद सब लोग बाहर आयें और अन्य साथियों को सूचित करने के लिये वहाँ से चल दिये। बारह छिपने का स्थान निश्चित हो जाने पर श्यामू अपना नाम बदलकर जंगी सिंह बन गया। उसने अपने साथियों को समझाया कि किसी के यहाँ डाका डालने पर आप लोगों को कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना होगा। डरवाने-धमकाने के अतिरिक्त गृह स्वामी या उसके परिवार के किसी सदस्य को मारना-पीटना नहीं है। किसी भी स्त्री के प्रति अनुचित व्यवहार नहीं करना है।निर्दोष व्यक्ति के यहाँ डाका नहीं डालना है।इन बातों के अतिरिक्त किसी की जीवनोपयोगी वस्तु को नही लूटना है। यदि कोई हमें मारना चाहता है तो भी अपनी सुरक्षा के लिये शस्त्रास्त्र उठाना है। हमारे भय से यदि कोई मूर्छित हो जाता है तो उसके प्रति हमारी सहानुभूति होनी चाहिये हमें अनावश्यक क्रोध नही करना है।जिसे मैं या मेरा साथी छोड़ना चाहे उसे अभयदान दे देना है।जो कुछ मैंने कहा,उसे स्वीकार हो वह तो हमारे साथ रह सकता है और जिसे न स्वीकार हो, वह अपनी व्यवस्था अलग से करे। अपने सरदार की बातें सुनकर सब ने स्वागत किया और एक स्वर में कहा’’ हम सब आप के आदेशों का पालन करने के लिये तहे दिल से तैयार हैं।,, * * * अँधेरी रात थी।साढ़े बारह बजे थे।अलख निरंजन कई साथियों के साथ अपने दरवाजे घर के बरामदे में सोये हुये थे। सहसा दरवाजे पर धायँ-धायँ की आवाज हुई।सब लोग हड़बड़ा कर उठ बैठे। जंगी सिंह ने अपनी टार्च का प्रकाश उनके मुँह पर डाला।शास्त्री जी काँप रहे थे। शास्त्री के एक साथी ने साहस करके के बन्दूक उठाना चाहा किन्तु जंगी सिंह ने डपट कर कहा,’’ खबरदार!जो हाथ इधर-उधर किया तो भून दूँगा। वह सन्न हो गया। लगभग बीस व्यक्तियों ने शास्त्री और उनके साथियों को घेर लिया। अब जंगी सिंह ने शास्त्री जी के पास जाकर पूछा,’’ अलख निरंजन आप ही का नाम है?,, ‘’हाँ,सरकार!,, ‘’मधुसूदन को जानते हो?,, ‘’थोड़ा बहुत।,, ‘’एक बात बोलो।थोड़ा या बहुत।,, ‘’जानता हूँ सरकार!,, ‘’उनके दो अबोध बच्चों को तुमने ही गायब किया है?,, ’’नहीं सरकार! उनके बच्चों को मै क्या जानू?,, ’’यही तो बात हैं।तुम उन्हें अच्छी तरह जानते हो। सही-सही बताओ नहीं तो यह देख रहे हो, कितनी बंदूके तुम्हारी ऊपर तनी हैं?,, ‘’ सरकार! जब मधुसूदन की स्त्री किसी के साथ घर से निकल गयी तो बच्चों को देखकर बड़ी दया आयी। उनको अपने घर लाया किंतु मेरे सो जाने पर वे न जाने कहाँ चले गये।,, उनके गायब होने से पहले तो आप ने उनकी बड़ी सेवा की होगी?’’ ‘’हाँ,सरकार! सेवा तो उतनी की कि उनके माता पिता भी उनकी सेवा नहीं किये होंगे।,, ‘’बड़े पाजी बच्चे थे,इतनी सेवा पर भी चले गये?,, ‘’हाँ,हुजूर!यही तो आश्चर्य की बात है।,, ‘’ वही तख्ता है जिस पर आप ने उन्हें बैठाया होगा। और दाल का जूस तथा दो-तीन रोटियों को भी दिया होगाअ? इसके बाद नौकरी दिलाने की बात भी की होगी क्यो,, इतना सुनते ही अलख निरंजन के ह्रदय की गति और भी तेज हो गयी तथा पसीने से सारा शरीर लथ-पथ हो गया। सँभलते हुये उन्होनें कहा,’’ हुजूर! जो कुछ मेरे पास था खिलाया और नौकरी दिलाने की बात अवश्य की थी: परंतु वे भग की गये।,, जंगी सिंह के ओठों पर मुस्कान आ गयी।फिर उसने कहा,’’वे बड़े मूर्ख थे। नौकरी के लिये कितना परेशान हैं? यहाँ तक कि घूस देने पर भी नौकरी नही मिल रही है। आप तो सेंत मे दिला रहे थे।,, ‘’हाँ,सरकार!मूर्ख तो थे ही।,,अलख निरंजन इतने भयभीत थे कि जंगी सिंह के-पूर्व घटनाओं को अक्षरश: बताने पर भी समझ में नही आया कि ये डकैत कौन हो सकते है? फिर जंगी सिंह ने कहा,’’ परंतु उन्हे नौकरी मिल गयी, कूड़ामल के होटल में समझे? कूड़ामल ने उन्हें नौकरी दे दी ,बड़े प्रेम से।अब तो आप समझ गये होंगे?,,इन सारी बातों को सुनकर अलख निरंजन धर-धर काँपने लगे और उनके मुँह का रंग उतर गया।कुछ बोलना चाहते थे किंतु उनके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकल सका।जंगी सिंह ने पुन:गरज कर कहा,’’ बोलते क्यों नहीं,बातें समझ में आयी या नही?,, शास्त्री जी ने भर्राई आवाज में कहा,’’ स......र.......का.......र! गल....ती...हो...गयी..।,, गलती हो गई या नहीं इससे मेरा कोई मतलब नहीं है।अब तुम यह बताओ, आज तक तुमने कितने बच्चों एवं स्तियों को बेचा है?,, ‘’और...कि..सी..को...नहीं...स..र..कार!,, ‘’मूर्ख झूठ बोलते हो। सही-सही बताओ,नहीं तो इस कोठी में आग लगाकर पूरे परिवार को उसी में फेंक दूँगा। बताओ,बताते हो या जेब से चाकू निकाल कर-जीभ काट लूँ।,, जब अलख निरंजन ने देखा कि बिना सही बताए प्राण नहीं बचेंगे तो कहा’’सरकार!कुल मिला कर दस।,, ‘’चण्डाल कसाई! अब भी छिपा रहा है।मैं सब कुछ जानता हूँ।,, एक साथी को हवाई फायर करने का संकेत दिया। साथी ने तुरंत आदेश का पालन किया। गोली की आवाज सुनते ही शास्त्री जी घबड़ा कर कहा,’’ साठ बच्चों तथा तीस स्त्रियों को अब तक बेच चुका हूँ।,, ‘’हाँ,अब सही बोल रहे हो।उठो,जल्दी करो।यहाँ से चल कर अन्न-वस्त्र तथा बर्तन छोड़ कर सारा सामान रुपया,पैसा घर से बाहर निकालो।,, ‘’सर—का—र!क्ष..मा...कर दीजि...ये। अब ऐसा....का…म...नही....करुँगा।,,श्यामू ने कड़क कर कहा,’’दुष्ट!हराम जादे!अभी क्षमा नहीं किया? तुम जैसे पापी को तो हाथ पैर काटकर अपाहिज कर देना चाहिये।किंतु मैने ऐसा कुछ भी नही किया। केवल तुम्हारे पाप की कमाई घर से बाहर निकलवा कर ही तुम्हें छोड़ दे रहा हूँ। इतनी क्षमा कम है?इससे अधिक क्या चाहते हो?,, अलख निरंजन के हाथ को पकड़ कर झटके के साथ खीच कर कहा,’’दो कुंजियों का गुच्छा।,, भयभीत अलख निरंजन ने कुंजी का गुच्छा निकाल कर दे दिया।फिर स्त्रियों के गहने उतरवाने लगे। इसी समय शास्त्री की सोलह वर्षीया पुत्री ने हाथ जोड़ कर कहा,’’भैया!मेरा सब कुछ ले लीजिए किन्तु यही हार छोड़ दीजिए।,, एक डकैत ने डपट कर कहा,’’ चुप हरामजादी!निकाल जल्दी!,,विवश लड़की आँखों में आँसू भरकर हार निकालने लगी।सरदार ने दस्यु के डपटने तथा लड़की के सिसकने की आवाज सुन ली। इसलिये उसने डपटने वाले साथी को बुलाया।इलाही तुरंत सरदार के पास आ गया।जंगी सिंह ने पूछा,’’ किसको डाट रहे थे।,, वही लड़की कह रही थी भैया! मेरा हार छोड़ दीजिए।,, ‘’ और जब तुमने उसे डपटा तब उसने क्या कहा?,, ‘’झूठे आँसू गिरा रही है और सब गहनों के साथ हार भी निकाल ही रही थी कि आपने बुला ही लिया।,, ‘’अच्छा,ऐसा करो कि उसका एक भी गहना मत छुओ। एक बात और सुनो, इस घर में जितनी भी लड़कियाँ हो किसी का कोई समान मत लो।सब लोगों से कह दो वे भी ऐसा ही करें।,, इलाही-बहुत अच्छा-कह कर भीतर चला गया। जब डाकुओं ने सारा सामान अपने अधिकार में कर लिया तो जंगी सिंह ने अलख निरजंन से सट कर बैठे हुये बारह वर्षीय लड़के से कहा,’’ चले रे उठ यहाँ से।,, लड़के ने डरते हुये कहा,’’ कहाँ चलू साहब!,, ‘’अब तुम यहाँ नहीं रहोगे। हमारे साथ चलना है।,, ‘’ कहाँ चलना है?,, ‘’नरक में! उठते हो या जमाऊ दो-चार तमाचे।,, इतना सुनते ही लड़का चिल्ला कर गिर पड़ा। अलख निरंजन उठ कर जंगी के पैरों पर लेट गये और बोले, ‘’सरकार!इतनी विपत्ति न ढाये। जीवन भर आपकी गुलामी करुँगा।मेरे प्राण प्रिय बेटे को न ले जाएँ।,, ‘’मूर्ख!लड़का चला जायगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा?,, ‘’हुजूर!मेरा संसार उजड़ जायगा। मैं जीवित नही रह सकूँगा।,, ‘’क्यों दुष्ट! मधुसूदन के दो लड़के चले गये, जब उनका संसार नही उजड़ा तो तुम्हारें एक लड़के के जाने से तुम्हारा संसार कैसे उजड़ेगा? जब वे जीवित हैं तो तुम कैसे जीवित नही रह सकते?मधुसूदन मर गये क्या?,, ‘’ नहीं,वे तो नहीं मरे परंतु मेरा जीना तो असम्भव ही जान पड़ता है,मेरे परमात्मा!,,’’इसलिये कि तुम्हारा लड़का,लड़का है और उनके लड़के कुत्ते के पिल्ले थे।नालायक! हरामी! क्या तुमने कभी यह भी सोचा कि जिन बच्चों को बेचता हूँ,उनके माता पिता की क्या दशा होती होगी? वे अपना जीवन कैसे बिताते होंगे? चल,हट,पाखण्डी-धूर्त कहीं का।,, पैर से अलख को ठोकर मारते हुये,, जंगी ने अपने एक साथी दस्यु से कहा,’’ नीलू! इसके दोनों हाथ को पीछे की ओर करके बाँध दो और लेकर चलो।,, नीलू ज्यों ही लड़के के हाथों को बाँधने के लिये उसके पास पहुँचा, उसने अपना सिर नीलू के पैरों पर पटक दिया और कहा,’’ साहेब! हमने कोई अपराध नही किया है। मुझे न बाँधिये।,, नीलू के बोलने से पहले ही सरदार जंगी सिंह बोल उठा,’’ तुम्हें दण्ड नहीं दिया जा रहा है। यह तो तुम्हारे परम पूज्य, महात्मा पिता को दिखाया जा रहा है कि जिन साठ बच्चों को उन्होने गायब कर के बेचा हैं उनके माता पिता को बच्चों के अभाव में जो सुख प्राप्त हुआ है।उसी सुख का अनुभव वे भी करें।,, अलख निरंजन ने गिड़गड़ाते हुये कहा,’’दुहाई हुजूर की,मुझ से घोर अपराध हुआ है। अब ऐसा अपराध कभी नही करुँगा। यदि आप दण्ड ही देना चाहते हैं तो मुझे ही मारिये-पीटिये। इस निर्दोष बालक को छोड़ दीजिये। इसने कोई अपराध नही किया है। स...र..कार!,, ‘’अपराधतो नहीं किया है किंतु अपराधी के धन से अवश्य पला है। इसलिये इस विषय में मैं एक भी शब्द सुनना नहीं चाहता।नीलू।रुक क्यों गये। शीघ्रता करो दो बजने वाला है।,, रोते-तड़पते अलख के सामने ही उनके प्रिय बेटे मुक्तेश के हाथों को नीलू ने पीछे घुमा कर बाँध दिया। मुक्तेश इतना भयभीत था कि कुछ क्षणों के लिये वह संज्ञा-शून्य हो गया। अलख निरंजन भी मुक्तेश के हाथों को बँधते देखकर मूर्छित हो गये और गिर पड़े। उनके परिवारवाले रोते-चिल्लाते रह गये। डाकुओं ने मुक्तेश एवं सारे समान को लेकर वहाँ से प्रस्थान किया।कुछ दूर जाने पर जंगी सिंह ने कहा,’’ इस लड़के की आँखो पर पट्टी बाँध दो और शीघ्र आवास पर पहुँच कर इसे बन्धन मुक्त कर दो। डाकुओ ने सरदार के आदेश का पालन किया। आवास पर पहुँचने पर डाकुओं ने मुक्तेश की आँखों की पट्टी खोल कर उसे बन्धन मुक्त कर दिया।उसकी देख रेख करने के लिये सरदार ने दो सशस्त्र डकैत को नियुक्त कर दिया और कहा,’’ देखना,इसे किसी प्रकार के कष्ट न होने पाये यह जो भी खाना चाहे उसकी व्यवस्था होनी चाहिये।जो पहनना चाहे उसकी भी व्यवस्था होनी चाहिये।,, * * * डकैतों के चले जाने के बाद अलख के यहाँ दौड़-धूप मची।कुछ लोगों ने थाने पर जाकर दरोगा को जगाया।दरोगा की आँखे खुलीं।उसने डाँट कर कहा,’’ कौन है? साले नीद हराम कर दिये हैं।दीवान!देखो क्या माजरा है?दीवान दरवाजे पर आकर पूछा,’’कहो, क्या बात है?,, आये हुये लोगों मे से एक व्यक्ति ने कहा,’’ साहब डाकू लोग घर की सारी सम्पत्ति लूट ले गये।,,’’गये।,,’’लूट ले गये तो हम क्या करें।किसी को मारा तो नहीं उस व्यक्ति ने कहा,’’ नही मारा तो नही,,नही,,किंतु घर का एक समान भी नही छोड़ा,तो अब तक क्या करते रहे?अब हम क्या कर सकते है? इस समय जाओ सबेरे देखा जायेगा।,,एक व्यक्ति ने कहा,’’ अरे!साहब कुछ तो कीजिए। कुछ नही तो रपट ही लिख लीजिए।‘’तो ठीक है,सौ रुपये लाओ,रिपोर्ट लिख लूँ।,, साहब घर में एक पैसा भी नहीं बचा है। सौ रुपये तो बहुत होते है।,, ‘’रुपयें नही है तो भग जाओ,कल मौका देखलेंगे,तब जो कुछ करते बनेगा,करेंगे।,,’’ साहब घर का मालिक बेहोश पड़ा है?,, ‘’हाँ साहब!अलख निरंजन शास्त्री के यहाँ।,, ‘’तुम लोगों ने तो कहा कि किसी को मारा पीटा नही है, तब क्यों शास्त्री जी बेहोश हैं?’’ साहब!घर तो लूटा,लूटा ही, उनके लड़के को भी बाँध कर लेते गये।,, ‘’ शास्त्री जी के लड़के मुक्तेश को? अच्छा रुको अभी आता हूँ।,, दीवान जी ने दरोगा जी के पास आकर कहा,’’ साहब शास्त्री जी के यहाँ डाका पड़ा है,उन्ही के आदमी आये हैं।,, ‘’यह निश्चित है कि शास्त्री के यहाँ की डाका पड़ा है?,, ‘’हाँ,साहब!उन्हीं के यहाँ इसमें संदेह नही हैं।,, ‘’यदि ऐसा है तो चार सिपाहियों को भेज दो,चलें।मैं भी तैयार होकर आ रहा हूँ।क्या कहूँ ये डाकू साले किसी बड़े आदमी को सुख से नही रहने देना चाहते।,, चारों सिपाही अलख निरंजन के यहाँ पहुँचकर जाँच-पड़ताल कर ही रहे थे कि मोटर साइकिल से दरोगा जी भी पहुँच गये। दरोगा को देखते ही अलख दौड़ कर उनसे लिपट गये और रो-रो कर कहने लगे।,साहब! मेरा तो सत्यानाश हो गया। हरामियों ने घर तो लूटा, इसकी मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं है। मेरे जीवन के आधार मुक्तेश को भी बाँध कर लेते गये।अब मैं क्या करुँ? मेरे सामने अँधेरा छाया हुआ है। मेरे भैया दरोगा जी!अब आप का ही भरोसा है।आप चाहें तो मेरा मुक्तेश मिल सकता है।वह मेरा ही नही आप का भी बेटा है।आप उसको मेरी अपेक्षा अधिक प्यार करते हैं।दरोगा जी ने मत्था ठोक कर कहा,’’ क्या कहूँ?शास्त्रीजी! आप समझते होंगे कि मुक्तेश के अपहरण से मुझे दुख नहीं है किन्तु मुझे जो दुख है मेरी आत्मा ही जानती है। उस छोकड़े को ले जाने का क्या तुक था? समझ में नही आता।लड़के के अपहरण का मतलब है कोई व्यक्ति जान या अनजान में आप द्वारा सताया गया है और उसी ने यह काण्ड कराया है।क्या आप ने किसी को पहचाना भी है?,, ‘’ पहचान तो नहीं पाया किंतु जो डाकुओ का सरगना जान पड़ता था।वह मधुसूदन के लड़को का नाम प्राय:लिया करता था।वह ऐसी ही बाते कर रहा था,जैसे मधुसूदन का लड़का श्यामू ही है।,, ‘’उसको आप ने देखा है?,, ‘’देखा भी है और आज से बारह वर्ष पहले जब उसकी दोनों माताएँ किसी के साथ कहीं भग गयी थीं,तब श्यामू और उसका छोटा भाई शाकुल दोनों ही मेरे ही यहाँ से गायब हुये थे।,,दरोगा जी ने अपनी मुस्कुराहट दबाते हुये कहा,’’ ऐसे ही गायब हुये थे या……..।,, ‘’ऐसे ही।,, ‘’हो सकता है.....।अच्छा जाने दीजिए।एक बात बताइये शास्त्री जी!आप के पास-पड़ोस में तो आप का कोई शत्रु नहीं है।?,,’’ वैसे जानकारी मे तो कोई नही है,भीतर-भीतर कोई जलता हो तो नही कह सकता।,,’’इस समय जंगी सिंह का गिरोह सबसे बड़ा गिरोह है लेकिन उसके विषय में तो सुनने में आया कि वह बड़ा दयालु है। उसे तो ऐसा नही करना चाहिये।मैने तो सुना है कि वह कई जगह डाका डालने गया लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उस घर का मालिक किसी तरह अपनी प्रतिष्ठा बनाये हुये है, वास्तव में वह धनवान नहीं है तो उसने उस घर के मालिक को दो-चार हजार रुपयों को दे कर उसकी सहायता भी की है। एक बात सुनने में आयी है-वह एक जगह डाका डालंबे गया। वहाँ पर रुपया तो उसे बहुत कम मिले किंतु अन्य सामान बहुत मिले।जब उसने सामानों का निरीक्षण किया तो साथियों को थोड़ी देर रुक कर चलने के लिये कहा। साथियों ने कहा,’’ सरदार जी! हम रुकने की आवश्यकता तो नही समझते,वैसे आप की इच्छा।,, ‘’ ध्यान से सुनो गृहस्वामी क्या-क्या कह कर रो रहा है? शायद इसे लड़की का विवाह करना है और निकट भविष्य में ही बारात आने वाली है। अच्छा रुकों अभी पता चल जाता है।,, जंगी सिंह ने गृहस्वामी को डपट कर बुलाया,’’ वहाँ क्या औरतो की तरह रो रहे हो? यहाँ चलो।,, डरते हुये मकान मालिक ने जंगी सिंह के पास आकर कहा,’’ सरकार अब नहीं रऊँगा। परसों तो जी भर रोना है।आज नही रोऊँगा।,, ‘’परसों क्यों जी भर रोना है?,, ‘’सरकार!परसों बारात आने वाली है। अन्य सामान तो जुटा लिया था किंतु पाँच हजार रुपये जो दहेज में देना है,नहीं मिल पाया है। कल दस बेस्सा खेत बेचकर एक आदमी से चार हजार रुपये लेने वाला था। किसी तरह काम चल जाता लेकिन दो हजार जो घर पर था,अब वह भी मन हीं रहा। इसलिये रोंने के अलावा बचा ही क्या है?,, सरदार जंगी सिंह ने कहा,’’ऐसी बात है तो अपने दो हजार रुपये रक्खो और अपना सारा सामान घर में ले जाओ।परसों बारात आने पर समधी जी को एक हजार देना,यदि मान गये तो ठीक है नही माने तों मैं दूँगा। खेत मत बेचना।,,इतना सुनते ही गृहस्वामी पुलकित हो गया और उसकी आँखों से कृतज्ञता के आँसू बहने लगे।वह जंगी सिंह के पैरों पर गिरकर फूट-फूट कर रोने लगा। कुछ समय तक रो लेने के बाद उसने कहा,’’भैया! मैं स्वप्न देख रहा हूँ या सच्ची घटना है? आप डाकू हैं या मेरी परेशानी को दूर करने के लिये डाकू-वेश में मेरे भगवान सामने खड़े हैं। भैया सही-सही बताएये आप कौन हैं।,, जंगी सिंह ने कहा,’’ भगवान अपने हाथ से किसी को देने नही आता,मैं डाकू ही हूँ। भगवान जिसके ऊपर कृपा करता है उसको भिन्न-भिन्न मार्गों से देता है। किसान के खेत में जितने पौधें होते हैं उनमें रख देता है, वणिक वृति वाले के व्यापार में,वैज्ञानिक के आविष्कार में खिलाड़ी के खेल में,नेता के वोट में,संगीतज्ञ के स्वर में,साधु की मधुकरी में,प्रबन्धकों की घुड़की में,आफिसरों की धमकी में,वकील,पेशकार,तहसीलदार,सिपाही,कर्क,कुछ शिक्षक और डाक्टर आदि की कला में।ईमानदारों के टूटे-फूटे उद्यमों में और असहायों की झोली में गुप्त रुप से रख आता है।समझ गये?अब जाओ अपनी अन्य व्यवस्थाएँ करो।रुपयों की चिंता छोड़ो।समधी जी से कहना,’’समधी जी!मेरे यहाँ डाका पड़ गया था।सब कुछ लुट चुका है।जो कुछ व्यवस्था कर सका हूँ।आप की सेवा में हाजिर है।,, इतने पर भी न माने तो चिन्ता मत करना मैं सब कुछ कर लूँगा। बारात के आ जाने पर लड़के के पिता ने कहा,’’ पहले एक सौ एक रुपया दे दो तब बारात द्वार पर आयेगी और यदि रुपया न मिला तो बारात लौट जायेगी।बहुत-बहुत प्रार्थना करने पर भी बिना एक सौ एक रुपया लिये बारात द्वार पूजा के लिये नही गयी।फिर द्वार पूजा के समय ही वर के पिता ने कहा,’’ इसी समय पाँच हजार दक्षिणा भी मिल जानी चाहिये।,, लड़की के पिता ने कहा,’’ श्रीमान जी घर में कुछ भी नहीं बचा है। बड़ी कठिनाई से एक हजार रुपये की व्यवस्था कर सका हूँ। मैं आप से बाहर नही हूँ। आप संतुष्ट होकर हमें आशीर्वाद दें। दो दिन पहले डाका पड़ा था,समझिये किसी तरह जान बच गयी।,, एक हजार का नाम सुनते ही समधी जी का क्रोध चरम सीमा पर पहुँच गया। उन्होंने आँखे लाल कर कहा,’’डाका पड़ गया तो मैं क्या करुँ? डाकू साले मूर्ख थे अन्यथा तुम जैसे मूर्ख को तो मार डालना चाहिये था।सब कुछ लुट गया है तो क्या करुँ? तुम्हारा खजाना भरुँ? मेरा खर्च जोड़ कर दे दो विवाह नहीं होगा।,, जंगी सिंह चुप चाप सारी बातें सुन रहा था।द्वार पूजा के समय ही सभी बाराती उठकर जनवासे में चले गये और डेरा उखड़ने लगा।जंगी सिंह ने जब देखा कि अब मामला बिगड़ने वाला है तो जनवासे में जाकर समधी से कहा,’’ समधी जी आप किसी की परेशानी पर ध्यान नहीं दे रहे है। आप के ऊपर यदि यही विपत्ति आती है तो आप क्या करते?,, ‘’मैं इसकी तरह नीचता कभी नहीं दिखाता। मैं अपने वचन का पालन अवश्य करता चाहे मेरा रोम-रोम बिक जाता।,, ‘’अच्छी बात,आप डेरा न उखड़वाइये। ये लीजिये पाँच हजार रुपये।,, ‘’ अब मुझे विवाह ही नही करना है। आप अपना रुपया रखिये अपने पास।,, ‘’ नही समधी जी!आप नाराज न हो, इज्जत सब की बराबर है।,, ‘’इन वनचरों के गाँव में आप ही मुझे भले आदमी दिखाई दे रहे है और सभी पुर-पवस्त वाले महा बीच हैं।यहाँ से विदा होने पर मैं आप को अपने साथ ले चलूँगा। आप देखेंगे,जिनसे जो बाते की हैं उनका पालन करता हूँ या नहीं।,, ‘’ठीक है,चलूँगा।,, विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद जंगी सिंह ने जाकर अपने साथियों को समझा दिया कि बारात बिदा होने पर तुम लोग बीच रास्ते में बारात वालो से सारा सामान रुपये आदि छीना लेना। बारात बिदा हुई। समधी जी ने जंगी सिंह को अपने साथ चलने के लिये बाध्य किया।उसे जाना ही पड़ा।आधा मार्ग तय करते ही तीस-पैंतीस सशस्त्र डकैतों ने फायरिंग करते हुये सारी बरात को घेर लिया और कहा,’’ तुम लोगों को अपने प्राण प्रिय हो तो सब कुछ यहाँ रख कर चुपचाप चले जाओ। भयभीत समधी तथा अन्य बरातियों ने सब कुछ डाकुओं को समर्पित कर दिया।डाकू लोग सब समान लेकर चम्पत हो गये। इस घटना के बाद जंगी सिंह ने सहानुभूति दिखाते हुये कहा,’’ अजब हो गया। चलिये भला समान और रुपया ही ले कर वे लोग संतुष्ट हो गये नही तो दस-बीस लोगो को मार ही डालते तो हम क्या कर सकते थे?,, समधी ने रोते हुये कहा,’’भैया! अब हम पास पड़ोस वाले को कौन सा मुँह दिखाऊँगा।,,जंगी सिंह ने धीरज बाँधते हुये कहा,’’पण्डित जी! अब संतोष कीजिये।क्या करियेगा? जो होना था वह तो हो ही गया। यदि दहेज का भूत आप पर न सवार हो तो जो कुछ आप के पास था, वही जाता,उस बेहारे का खेत तो बच जाता। आप का जो गया वो तो गया ही। उस गरीब का एक बीघा खेत चला गया।आप के ऊपर तो बहुत बड़ी चाकी पड़ी क्या कहा जाय? किंतु कहना ही पड़ता है।आप जिस निर्दयता से उस गरीब के साथ पेश आये,उसी निर्दयता के से आप के साथ कोई पेश आये तो आप की आत्मा क्या कहे?,, समधी जी निरुत्तर होते रहे। बारात घर पहुँची।डकैती का समाचार सुनकर हाहाकार मच गया।सारी खुशियाँ उदासी में बदल गयीं। कुछ समय बीतने पर बस वालों ने कहा,’’साहब!मुझे एक बरात और उठानी है।मेरा किराया दीजिए मैं चलूँ।,, समधी जी ने कहा,’’ बड़े बत्तमीज हो। मेरे साथ तुम नहीं थे क्या?रास्ते में जो कुछ हुआ तुमने नहीं देखा क्या?,, बस चालक-साहब उसकी जिम्मेदारी मेरी नहीं है। मुझे अपना रुपया नहीं चाहिये।,, जंगी ने कहा,’’ भाई जो बात-चीत तय हो गयी है उससे विचलित होना ठीक नहीं है। इसमें बस ड्राइवर का क्या अपराध ह?उसका रुपया देकर झंझट हटाइये। समधी जी ने जंगी की ओर देख कर कहा,’’ मैं तो आप को सज्जन समझ रहा था लेकिन आप तो महा नीच हैं।मेरा तो सर्वस्व लुट गया। आप न्याय करने चले है।मेरे मामले में आप का कोई मतलब नही है।आप जाइये यहाँ से।,, जंगी सिंह मुस्कुराते हुये वहाँ से चल दिये। वह जंगी सिंह आप के बेटे को निर्दयता के साथ बाँध कर ले जाय,यह नही हो सकता।यह कोई दूसरा गिरोह है।शास्त्री जी! आप धैर्य धारण करें। मैं आप के लड़के की खोज करने में कोई भी कोर-कसर नहीं उठा रक्खूँगा।,, तेरह लगभग चार बजे शाकुल की आँखे खुलीं।उसने देखा कि श्यामू जो उसके पास ही सोया हुआ था,उसका पता नहीं।कुछ समय तक प्रतीक्षा करने के पश्चात शाकुल ने दो-तीन बार बुलाया,’’भैया!भैया!ओ भैया!,कोई उत्तर न पाकर फिर पुकारा,’’मम्मी ओ मम्मी!,,तारिका बोली,’’क्या है?बेटा!,, ‘’भैया कहाँ है मम्मी!,, ‘’भैया को मैंने एक जगह भेजा है बेटे! अभी सूर्य निकलने में विलम्ब है सो जाओ।,, ‘’बिना मुझे बताये ही चले गये,ऐसा तो कभी नहीं करते थे मम्मी!,, ‘’सो जाओ!नहीं बताये तो क्या हुआ?,,कुछ समय तक सोच-विचार में पड़ा शाकुल पुन: सो गया। सवेरा होने पर शाकुल ने पुन:माँ तारिका से पूछा,’’मम्मी तुमने भैया को कहाँ भेजा है?और कब तक लौट कर आयेंगे?,, तारिका बड़े संकट में थी।पहले तो उसने सोचा शाकुल को बहका दे,किंतु फिर सोचा कि बहका कर उसे कब तक रक्खूगी? इसलिये उसने सत्य बता देना ही उचित समझा और कहा,’’बेटा! तुम जानते ही हो कि तुम्हारा भाई रोहित आज से कई वर्ष पहले गायब हो गया है।,, ‘’हाँ,मम्मी!इसे तो मैं सुन चुका हूँ।,, ‘’कल श्यामू ने कहा,’’ माँ!मैं भैया रोहित का पता लगा ने चाहता हूँ। उसमें तुम्हारी आज्ञा चाहिये।,, ‘’यद्पि अब मैं उसकी आशा छोड़ चुकी हूँ। इसलिये उसे जाने नहीं देना चाहती थी,किंतु उसने जाने का हट किया और मुझे आज्ञा देनी ही पड़ी।,, ‘’कब तक लौट कर आने के लिये कह गये है?,, ‘’लौटने का कोई निश्चित समय नहीं बताया है और बताता ही क्या?क्योंकि रोहित किसी निश्चित स्थान पर तो है नहीं कि लिवा कर चला आता।फिर भी यह कह कर गया है कि यदि रोहित जीवित होगा तो उसको तो घर लेकर ही लौटूँगा। शाकुल की आँखों से आँसू छलक पड़े,वह भर्राये स्वर में बोला,’’मम्मी!मुझे भी बता देना चाहिये था। मुझसे छिपकर जाने का मतलब है कि शीघ्र लौटना नहीं चाहिये।भैया रोहित को खोजने गये है।,, दस-पंद्रह दिन तो भ्रष्ट-वियोग को शाकुल ने किसी प्रकार सहयोग किया,इस आशाये कि श्यामू अब आयें, तब आये।परंतु जब भाई का वियोग असहाय हो गया।तो एक दिन तारिका के सो जाने पर धीरे से खिसक गया।सवेरे जब तारिका की नींद टूटी तो उसने देखा कि शाकुल की चारपाई सूनी पड़ी है। उसने सोचा कि शाकुल नित्य क्रिया से निवृत्त होने गया होगा, किंतु जब अधिक समय बीतने लगा और वह नहीं लौटा तो उसे चिंता हुई। वह विह्वल होकर इधर-उधर उसकी खोज करने लगी।दोपहर होते-होते वह चिल्लाने लगी।उसके रोने की आवाज सुनकर गाँव के दो-चार लोग पहुँच गये।किसी ने कहा,’’तुम व्यर्थ रो रही हो,वे तुम्हारे लड़के तो थे नहीं।यदि दूसरे के लड़के ही किसी को सुख देते तो लोग अपने बच्चों के लिये क्यों परेशान होते?,,तारिका कोई उत्तर न देती। दिन भर शाकुल का पता लगाती रहती किंतु कोई सफलता न मिल सकी। तारिका के नीरस जीवन में श्यामू और शाकुल के आ जाने के कारण जो कुछ सरसता आ गयी थी,उसके चले जाने पर पुन:उसकी जीवन वाटिका मुर्झा गयी।वह जीवन से पुन: निराश होने लगी,थोड़ी ही आशा थी श्यामू के रोहित को लेकर लौटने की । इसलिये दो-तीन दिन रोने तड़पने के बाद किसी तरह स्वयं को धैर्य बँधाया। * * * गोधली का समय था।तारिका दीपक जला रही थी,इसी समय बाहर से आवाज आयी।‘’ माँ!कहाँ हो?,, तारिका का ह्रदय उछलने लगा वह दौड़ कर बाहर आयी।उसे देखते ही श्यामू ने दौड़ कर तारिका के चरण स्पर्श किये।तारिका ने आशीर्वाद दे कर कहा,’’बेटा!आ गये?,, ‘’हाँ माँ आ तो गया,शाकुल कहाँ है?,, तारिका की आँखे डब डबा आयीं।उसने सिसकिये के साथ कहा ,’’ बेटा क्या बताऊँ कि शा---कुल---क—हाँ—है?,, इतना सुनते ही शाकुल के अनिष्ट की आशंका से श्यामू का ह्रदय धड़कने लगा।उसने धैर्य के साथ पूछा,’’क्या बात है माँ स्पष्ट बताओ।होनी हो कर रहती है।उसे कोई रोक नहीं सकता इसलिये जो घटना घटी हो साफ-साफ बताओ।,, ‘’बेटा!कोई अशुभ घटना नहीं घटी है।बैठो,बताती हूँ।,,तारिका की इस बात को सुनकर श्यामू को कुछ शान्ति मिली और वह बैठ गया। तारिका ने शाकुल के पलायन की बात बतायी। श्यामू ने कहा,’’ माँ! डरने की कोई बात नहीं है। अब शाकुल छोटा बच्चा नहीं है। इसलिये कहीं भी जाने पर उसे कोई कष्ट नहीं होगा।हो सकता है मुझे ढूढ़ने के लिये ही गया हो।मैं अपने प्रथम लक्ष्य की पूर्ति कर लेने के बाद उसका भी पता लगाऊँगा।घबड़ाने की कोई बात नहीं है माँ!,, ‘’बेटा! तुम्हारी धरोहर की रक्षा मैं नहीं कर सकी इसलिये कुछ पूछने की इच्छा रहते हुये भी पूछने का साहस नहीं कर पा रही हूँ।,, ‘’माँ!मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि रोहित जीवित रहेगा तो मैं उसे अवश्य खोज लूँगा। उसकी चिंता तुम स्वप्न में भी न करना। जो भी तुम्हारी इच्छा हो उसे प्रकट करो।,, ‘’बेटा!जिस उद्देश्य को लेकर गये थे,उसमें कहाँ तक सफलता मिल सकी?,, ‘’ उस उद्देश्य की सफलता की भूमिका बन चुकी है माँ! तुम्हारी और शाकुल की याद बहुत सता रही थी,इसलिये देखने के लिये चला आया,अन्यथा उसे पूरा कर के ही आता।,, तारिका का शरीर सिहर उठा। वह पूरी जानकारी के लिये उत्सुक था। अत:उसने कहा,’’क्या रोहित का पता लग गया है? क्या वह जीवित है। क्या उसे लाने में समर्थ हो बेटा!,,’’हाँ,माँ!वह जीवित है?उसका पता लग गया है और उसे लाने में कुछ ही समय शेष है। अधिक से अधिक एक माह तक तुम्हें धीरज धरना है।,, ‘’बेटा! तुम युग-युग तक जीवित रहो।एक बात है बेटा!मैं एक नही दो-चार माह धीरज धरुँगी किंतु रोहित के पहले शाकुल को खोजने का प्रयत्न करो।,,’’माँ! मेरे ही दोनों भाई है। मैं दोनों मे से किसी को बिना लाये नही रहूँगा। शाकुल के विषय में चिंता नहीं करनी है।चिंता का विषय रोहित है; क्योंकि उसे आसानी से नही लाया जा सकता।,, ‘’बेटा!अब तक मैं उसे भूल चुकी थी किंतु आज मेरा दुख फिर से नया हो गया है। क्या रोहित किसी दुष्ट की कारा में है?,, इतना कहते ही उसकी आँखे सजल हो गयीं।श्यामू ने मुस्कुराते हुये कहा,’’किसी समय उसे कारा की यातनाएँ अवश्य भोगनी पड़ी है किंतु इस समय वह चाहे नचा सकता है।केवल उसे लाने वाला चाहिये।,, ‘’बेटा आज अपने जीवन में के बार फिर मैं सरसता का अनुभव कर रही हूँ। तुमको पा कर मेरी आयु बढ़ गयी है बेटे! अन्यथा बहुत कुछ सम्भव था कि मेरे इस नारकीय जीवन का अंत हो गया होता।,, ‘’माँ!यदि यही बात मैं कहता तो तुम समझती कि यह बच्चा है मुझे खुश करने के लिये कह रहा है। परंतु माँ! सत्य तो यह है कि यदि तुमने हमें आश्रय न दिया होता तो हमारी क्या दशा होती?,, बेता! मैंने तुम्हारा उपकार किया? तुम दोनों को पाकर मैं धन्य हो गयी। मेरा जीवन-वन जो पलभर में परिवर्तित हो गया था,उसमें वसंत का आगमन हो गया श्यामू ने मुस्कुराते हुये कहा,’’माताएँ पुत्र का बखान करती ही हैं। चाहे वह नालायक ही क्यों न हो? श्यामू को देखकर पड़ोसियों के ऊपर पुन: पहाड़ टूट पड़ा। क्योंकि उन दोनों के चले जाने के बाद वे बहुत प्रसन्न हुये थे और उनमें से कुछ लोग तारिका को देखकर उसके ऊपर व्यंग-वाणों से प्रहार भी करते,’’ बहेतुओं से लोग परिवारवाद बनते हैं,जिनका कोई ठिकाना नहीं, ऐसे भगेलुओं को आगे करके कुत्ती भौं-भौं करती है।घड़बडुओ के भग जाने पर कुत्ती चुप्।,,इसी तरह कोई अन्य कहता,’’मँगनी के बेटवा पर एतना गुमां। अब बेचारी का घमण्ड खतम होइगs|,, इन खरी-खोटी बातों को तारिका चुपचाप सुना करती और अपने भाग्य को कोसती,किंतु आज जब तक श्यामू पुन: दिखाई दिया तो मानो सब की नानी मर गई। दो दिन रुक कर श्यामू फिर जाने के लिये तैयार हुआ। तारिका ने पूछा,बेटा!कब तक आओगे? श्यामू ने उत्तर दिया,’’माँ!मैं बहुत जल्द आने का प्रयास करुँगा। यदि कार्य शीघ्र पूरा हो गया तो कुछ कहता ही नहीं है। जहाँ तक होगा दस-पंद्रह दिन में ही सफलता मिल जायेगी।,, हाथों मे रुपयों की कुछ गड्डियाँ लेकर श्यामू ने तारिका से कहा,’’माँ!इसे रक्खों और जाने की आज्ञा दो।,, रुपयों को देख कर तारिका को बड़ा आश्चर्य हुआ।उसने पूछा,’’बेटे!कहीं नौकरी भी करते हो क्या?,, ‘’नौकरी क्या माँ! यही दो हजार रुपयें मैंने सालभर में कमाये हैं।,, ‘’वही तो जानना चाहती हूँ कि कौन सी नौकरी करते हो?,, ‘’नौकरी कौन करता हूँ?अबकी बार आने पर बताऊँगा।इस समय केवल जाने की आज्ञा चाहता हूँ।,, माँ तारिका ने आशीर्वाद के साथ जाने की आज्ञा दी। चौदह जंगी सिंह ने अपने दल के सदस्यों से कहा,’’मेरे प्यारे मित्रो!हमें दस दिन के भीतर तीन जगह डाका डालना है। उन तीनों में एक जगह की डकैती अपेक्षा कृत अधिक खतरनाक है। उससे हमारे प्राणों का भी खतरा हो सकता है। प्राणों की चिंता किये बिना जिसे हमारे साथ चलना हो वह चले और जिसे प्राणों का मोह हो वह यही रह कर हमारे लौटने की प्रतीक्षा करे।,, दस्युराज जंगी सिंह की बातें सुनकर सब लोगों को एक स्वर में कहा,’’ हमें प्राणों का मोह नही है।किंतु आप की आज्ञा-पालन का मोह अवश्य है।आप आज्ञा दीजिये और सब से पहले हमे खतरे वाले स्थान पर ही चलना चाहिये।आप यह भी बताने की कृपा करें कि वह खतरनाक स्थान है कहाँ?जिससे हम उस ढंग की तैयारी करके चलें।,, जंगी सिंह ने साथियों की अपने प्रति निष्ठा को देख कर प्रसन्नता पूर्वक कहा,’’मित्रो!वह स्थान तो मैं ही बताऊँगा ही,’’ यह भी बता देना चाहता हूँ कि हो सकता है द्रव्य-लाभ भी न हो।,, ‘’हमें इसकी परवाह नही हैं।आप वह स्थान बताइये।,, ‘’यह जो, दरोगा भास्कर है वह हाथ धो कर हमारे पीछे पड़ा है।अन्य गिरोहों की भाँति हम तो उसकी पूजा करते नहीं इसलिये हमारा गिरोह उसकी आँख की किरकिरी बना हुआ है।,, डाकुओं मे से एक ने कहा’’तो थाने पर डाका डालना है।वहाँ तो जवाबी गोलियाँ भी चलेगी। इस प्रकार कोई मर भी सकता है जो कि आप के सिद्धांत के विपरीत है।आप प्राय: कहा करते हैं कि हम जहाँ भी डाका डाले किसी की हत्या नहीं होनी चाहिये। तो वहाँ पर हम हत्या के अपराध से कैसे बच सकते हैं?,, ‘’आप ठीक कह रहे हैं। किंतु हमे तो पहले तो ऐसी व्यूह रचना करनी है कि हम किसी को बंदूक आदि चलाने का अवसर ही न मिले। यदि इसमें हम विफल हुये तो वे कुत्ते-जो बहुतों को काट खाये हैं-उन्हे दण्ड देना मेरे सिद्धान्त के अंतर्गत ही आता है।ऐसे अवसरों पर आप कुछ भी करने के लिये स्वतंत्र हैं।,, सब दस्युओं ने हर्ष-ध्वनि के साथ’सरदार की जय,कहकर अपने सरदार की आज्ञा का पालन करने का दृढ़ संकल्प लिया। अर्ध रात्रि का समय था।थाने के सभी कर्मचारी अपने-अपने कक्ष में सो रहे थे।थाने के मुख्य द्वार पर आठ सशस्त्र खड़े हो गये।शेष बीस लोग थाने को चारों ओर से घेर कर भीतर घुसने तथा अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करने लगे। जंगी सिंह ने पहरेदार से कहा,’’साहब को सूचित कर दो कुछ लोग आप से मिलने आये हैं।,, चौकीदार ने भीतर जाकर दरोगा जी को जगाया।दरोगा जी आँख मलते हुये बोले,’’वे कौन हैं?पूछो,क्या काम है?,, ‘’अपरचित है साहब !पूछने पर कहते हैं।,,साहब से मिलना है जा कर कह दो।,, ‘’क्या कहे?एक से एक साले आकर सोना दुस्चार कर देते हैं। जा कर कह दो अपना परिचय दें,वे कौन हैं? और किस लिये आये हैं?,, पहरेदार ने जाकर कहा,’’आप लोग कौन हैं दरोगा जी ने पूछा है।,, ‘’जा कर कह दो,जंगी सिंह डकैत आप के दर्शन करना चाहता है।,, पहरेदार ने जाकर दरोगा जी से ने कहा,’’साहब! जंगी सिंह डकैत आप से मिलना चाहते है।,,’’अच्छा,यह तो बताओ जो गालियाँ मैंने दी,उसने सुन तो नही लिया?,, ‘’ सुना तो अवश्य होगा साहब!,, ‘’ठीक है,कोई बात नहीं! उनके बैठने की व्यवस्था करके बुला लाओ।कुल कितने लोग है?,, ‘’ सब मिलाकर आठ नौ आदमी हैं।,, ‘’चार कुर्सियाँ तो हैं ही,एक दो बेंच और ला दो,काम चल जायेगा।,, प्रहरी ने बैठने की व्यव्स्था करके उन लोगों के भीतर प्रवेश करने के लिये कहा। सब लोगो ने भीतर पहुँच कर दरोगा भाष्कर के पास आसन ग्रहण किया। उन लोगो के भीतर प्रवेश करते ही अन्य सभी डकैत भीतर घुस कर प्रत्येक पुलिस के कक्ष के द्वार पर खड़े हो गये। परंतु इसका पता भाष्कर को नही था। आठों व्यक्तियों के बैठ जाने पर भाष्कर ने पूछा,’’ आप लोगों में सें जंगी सिह कौन है? जंगी सिंह ने कहा,’’ मै हूँ साहब!,, दरोगा जी ने दौड़ कर हाथ मिलाया और कहा,’’मैं बहुत दिंनो से आप का नाम सुनता आया हूँ।मेरी बड़ी इच्छा थी कि आप के दर्शन करुँ किंतु ऐसा कोई संयोग ही नही आया कि मेरी इच्छाएँ पूरी होतीं। अच्छा कोई सेवा मेरी योग्य?,, जंगी सिंह ने कहा,’’ सेवा तुम क्या करते हो? यह बताओ तुमनी अपनी कुचाल छोड़ी या नहीं।,, ‘’कैसी कुचाल?,, ‘’यही कि कागज के दुकड़ो के लिये निर्दोषों का रक्त पान करना,उनकी गरीबी पर ध्यान न देकर उन्हे परेशान करना,न दे पाने पर जी भर मारने-पीटने के बाद जेल भेज देना आदि।,,’’ऐसा मैं कब करता हूँ?,, ‘’नही जानते?हो सकता है,नियामक के पद पर आसीन होने के कारण मदान्धता ने पूर्व घटनाओ का भूल जाने के लिये बाध्य किया हो।,, इतना कटु सुनते ही दरोगा ने सीटी बजाई।सीटी की आवाज सुनते ही जंगी सिंह ने दरोगा के गालों पर तड़ातड़ कई तमाचे जमाये।दरोगा ने भी रिवाल्वर उठाना चाहा,तब तक अन्य डाकुओ ने भी मारना शुरु कर दिया।भाष्कर चिलाकर गिर पड़ा उसके चिल्लाने की आवाज सुनकर सिपाहियों ने दौड़ना चाहा किंतु डाकुओ की धमकी के कारण सब शान्त हो गये।इसी समय एक सिपाही ने-जो कि डाकुओ की निगाह में नही आ पाया था-छिपकर बंदूक चला दी।गोली एक डाकू के कान को कतरती हुई निकल गयी। गोली चलते ही डाकुओ के शरीर में आग सी लग गयी।उन्हों ने पता लगाना शुरु किया कि यह गोली किस दिशा से आयी है? पता लग जाने के बाद तीसरी बार फायरिंग होने के पहले ही वह पुलिस डाकुओं के द्वारा भून दिया गया।उसके मरने का समाचार पाते ही अन्य सिपाहियों के हौशले पस्त हो गये।जब दरोगा भाष्कर ने देखा कि उसकी सहायता में कोई सिपाही नही आ रहा है तो उसने समझ लिया कि कोई भी डाकुओं की गिरफ्त से बाहर नहीं है।उसने जंगी सिंह से क्षमा याचना की।जंगी सिंह ने कहा,’’क्षमा तो मै अवश्य कर दूँगा; क्योकि मै पुलिस विभाग का नही हूँ।लेकिन एक बात जान लो जिस थाने से तुम्हारा स्थानांतरण हुआ है,वहाँ तुमने एक दिन दो निर्दोष बालको को मार-मार कर निर्जीव कर दिया था ,इतने पर जब तुम्हें सतोष नही हुआ तो उन्हे कैद कर रक्खा और दो दिन तक उन्हें चाय के अतिरिक्त भोजन के नाम कुछ नहीं दिया क्योकि उन्हे प्रताडित करने के लिये तुम्हारे दामाद सुधाधर ने एक लम्बी रकम दी थी। जब लड़को की माँ ने कुछ रुपये लाकर दिये ।तब तुम्हारी दानवता में कुछ कमी आयी और लड़को को –यह सहेज कर कि कोई धन-पशु तुम्हारा। सर्वस्व लूटता रहे उसे रोकने की गलती अब कभी भी न करना-मुक्त किया। तुम्हारे उसी दुष्कर्म का फल चखाने आया हूँ। मैं तुम्हारे जीवन का अंत नही करुँगा। यही मेरी क्षमा समझो। अब यह बताओ,’’ आज घूस के कितने पैसे पाये हो?,, आप आज की बात कर रहे हैं,घूस लेना तो मैने बहुत पहले ही छोड़ दिया है। क्योंकि घूस लेने पर बहुत बड़े-बड़े अपराध करने पड़ते हैं। ऐसा पाप कि आत्मा काँप जाती है।,, ‘’ और झूठ बोलने से आत्मा मुस्कुराती है क्यों?,, ‘’झूठ नही बोल रहा हूँ सरदार जी! आप विश्वास कीजिए।,, ‘’अच्छा झूठ नही बोल रहे हो तो चलो अपनी आलमारी खोलो।,, आलमारी खोलने की बात सुनकर भाष्कर के मुख का रंग विवर्ण हो गया। और उसने कहा ,’’आलमारी में क्या रक्खा है ?साहब!उसे खुलवाया कर क्या करोगे?,, ‘’अच्छा,आलमारी मत खोलो।तुमने घूस लेना बन्द कर दिया है।इसे मैं सत्य मान लेता हूँ किंतु चोर-डाकू कुछ न कुछ उपहार मे तो देते ही होंगे।उसे तो बन्द नही किया है ‘’साहब!क्या वह घूस नहीं है?उसे ही क्यों लूँगा?,, ‘’यह भी सत्य मान लेता हूँ।,,अब भाष्कर को थोड़ी राहत मिली,किंतु इसी बीच जंगी सिंह ने पुन:प्रश्न किया।‘’पिछले माह का वेतन कब मिला है?,, दरोगा ने सोचा कि पूछ-ताछ करने के बाद ये लोग चले जायँगे।इस लिये वह निश्चिन्त हो गया था।जंगी सिंह को उसने बताया कि दस दिन पहले पिछले माह का वेतन मिला है।,, ‘’तब तो उसमें से तो आधा समाप्त हो गया होगा?बहुत कम बचा होगा।,, ‘’हाँ,साहब यही दो चार सौ बचा है।,, ‘’अच्छा,अब आलमारी खोलो। दो-चार सौ तुम्हारे लिये छोड़ कर शेष लेकर हम चले जायेंगे।उठो जल्दी करो।,, दरोगा ने गिड़गिड़ाते हुये कहा,’’ अरे साहब!,,इतने में जंगी सिंह ने दो लात मार कर कहा,’’कसाई साला उठता है या काट लूँ दोनों हाथ?,, डबडबाई आँखो से जंगी सिंह की ओर देखते हुये भाष्कर ने कहा,’’साहब!आप मेरे ऊपर दया कीजिये,भविष्य में आपकी पूरी सहायता करने का वचन देता हूँ।,, जंगी सिंह ने-कुद्ध होकर यह कहते हुये कि साले पहले अपनी सहायता कर लो फिर भविष्य की बातें करना-बन्दूक के कुंदे से उसके हाथ में खीच कर मारा। भाष्कर को अब की बार काफी चोट आयी और कराहने लगा। फिर पैर से धक्का देकर जंगी ने कहा,’’ अब बिना किसी बहाने के आलमारी खोलकर एक जगह बैठ कर रोओ चिल्लाहो और कराहो।,, भाष्कर ने कतार स्वर मे कहा,’’किस हाथ से खोलू सरकार!हाथ तो टूट गया है।,, ‘’चाबी मुझे दो, मैं खोल लूँगा।,, विवश भास्कर को कुंजियों का गुच्छा देना ही पड़ा।जंगी ने आलमारी खोली।और देखा कि एक ओर गहनों का ढेर लगा हुआ है।उसे निकाल कर एक ओर रक्खा। फिर देखा एक ओर नोटों की गड्डियाँ,उन्हें भी निकाला और सब कुछ लाकर भास्कर के सामने रख कर कहा,’’ क्यों रे राक्षस!नीच! ये गहने कहाँ से आये?ये गड्डियाँ विमान का रूप धारण करके आकाश मार्ग से आकर तुम्हें हवाई अड्डे पर उतर गयीं,क्यों!दुष्ट!हत्यारे! बताओ तुमने तो बहुत पहले से ही घूस लेना बन्द कर दिया है न? तुम्हारे पास तो वेतन के दो-चार सौ रुपये ही बचे थे। ये रुपयों की गड्डियाँ तुम्हारी आलमारी में किसने रख दी? और चोर डाकुओ से उपहार नही लेते लेकिन ये गहने........? बोलता क्यों नही? बोल नही तो दूसरा हाथ भी तोड़ डालूँगा। एक हाथ निर्दोषों को मारने के पाप से टूटा है और दूसरा असहायों से घूस लेने के पाप से टूटेगा।,, ‘’सरकार यह सब पहले का है।,, ‘’ तो आज तुम्हारे जीवन भर की पाप की कमाई जा रही है।भर आँख देख और कान खोलकर सुन सब को अपने कुकर्मो का फल भुगतना ही पड़ता है।,, ‘’साहब मुझे अपनी करनी का फल मिल गया। अब आप मेरे ऊपर रहम करे,सामान न ले जायँ।,, दूसरे हाथ से मारते हुये जंगी सिंह ने कहा,’’ ये लो अपने वेतन का चार सौ रुपये। शेष की आशा छोड़ो।,,सरदार जंगी सिंह ने चार सौ रुपये उसके सामने रखकर अपने साथियों को सारा सामान ले कर चलने के लिये कहा। सब ने अपने घायल साथियों तथा सामानों को लेकर वहाँ से प्रस्थान किया। पंद्रह थाना लूटने के बाद जंगी सिंह ने उस होटल को लूटने की योजना बनाई,जिसमे उसे बेचा गया था। उसके गिरोह के सभी सदस्यों मे बड़ा उत्साह था। होटल का पता लेकर भिन्न-भिन्न मार्ग से तीसरे दिन शहर के पूर्वी छोर पर मिलने के लिये कह कर वे लोग तीन-तीन,चार-चार के समूह में शहर की ओर चल पड़े।जंगी सिंह ने अकेले जाने का विचार किया किंतु इलाही उसके हो साथ जाना चाहा।जंगी सिंह ने उसे अपने साथ ले लिया।ग्रीष्म काल की अंगार बरसाती दोपहारी ।सूरज सिर के ऊपर चमक रहा था।लू चल रही थी। धरती के जीव-जंतु किसी छाया की शरण ले कर विश्राम कर रहे थे।इलाही के साथ जंगी सिंह प्रचण्ड धूप में संघर्ष करता हुआ चला जा रहा था।दोनो ही प्यास से विह्वल थे। दूर-दूर तक कहीं बस्ती का चिन्ह नही। मरुस्थल के मृग की भाँति दोनों जल की खोज में इधर-उधर दृष्टि दौड़ा रहे थे। कुछ दूरी तय करने पर एक सुरम्य वाटिका दिखाई दी। वाटिका देखते ही उन दोनों मे आशा का संचार हुआ । उनके पैर जो लड़खड़ा रहे थे, अब मानो परधारी हो गये हों। थोड़ी देर मे वे लोग उस बाग के पास पहुँच गये। मनोरम छाया पाकर एक वृक्ष के नीच बैठ गये। शरीर का पसीना तो सूखा किंतु प्यास उन्हें निर्जीव सा करती जा रही थी। लगभग दस मिनट तक विश्राम लेने के पश्चात जंगी सिंह ने कहा,’’ भाई इलाही! यह प्राण लेवा यात्रा तो जीवन की पहली यात्रा है। अब चलो,चलकर देखे इस बाग के भीतर कहीं पानी का ठिकाना है?,, ‘’हाँ,भैया!अब तो जीभ तालू से चिपक गयी है। बोला भी नही जा रहा है। आप बैठे,मैं देख लूँ कहीं पानी हो तो चल कर प्यास बुझायें।,, कह कर चल पड़ा।,, लगभग पचास मीटर जाते-जाते एक मंदिर दिखाई पड़ा।मंदिर है तो पानी अवश्य होगा। इसलिये वही से पुकारा,’’ भैया! यहा पानी है,आ जाइये!,, जंगी सिंह के व्याकुल प्राणों मे चेतना आयी। वह उठ कर तेजी से इलाही के पास पहुँच गया। कुछ ही क्षणों मे दोनों मंदिर पर पहुँच गये। ज्यों ही जंगी सिंह ने मंदिर की बरामदे की ओर देखा,वह पत्थर की मूर्ति की भाँति अवाक खड़ा हो गया और उसका ह्रदय धक्-धक् करने लगा।इसी समय बरामदे में बैठी एक स्त्री ने कहा,’’बेटे!आ जाओ, छाया में। बहुत तेज लू चल रही है।जंगी अब भी किंकर्तब्य विमूढ़ खड़ा रहा। इलाही बरामदे मे चला गया और कहा,’’ भैया यहाँ आ जाइये। जब माता जी है तो पानी मिल ही जायेगा।जंगी सिंह की आँखे सजल हो गयीं।तपास्विनी ने कहा,’’क्यों?बेटे! चले आओ मैं पानी पिलाती हूँ। घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है। पानी के लिये रो रहे हो?फिर वह पानी की व्यवस्था करने लगी। अब भी जंगी वही काष्ठवत खड़ा है।पानी की व्यवस्था करके तपस्विनी बाहर आयी और जंगी का हाथ पकड़ कर चलने को कहा। माँ के हाथ का स्पर्श पाते ही जंगी सिहर उठा,उसे अलौकिक आनन्द का अनुभव लेने लगा और अचेत होकर गिर पड़ा।उसे गिरते देख कर इलाही ने दौड़ कर उठाया और बरामदे में एक चटाई पर लिटा दिया। मुख पर पानी का छिटा देने और पंखी से हवा करने के कुछ समय पश्चात उसकी आँखे खुलीं।उसने देखा कि इलाही और तपस्विनी की आँखों से आँसू की बूदे टपक रही थीं।जंगी को चेतनावस्था मे देखकर तपस्विनी के कहा,’’बेटा!यह प्रसाद खाकर थोडा सा पानी पी लो।नहीं तो फिर चक्कर आ जायेगा।,, जंगी ने धीरे से कहा,’’प्यास नही लगी है माँ!,, जंगी के मुँह से ऐसी बाते सुनकर इलाही ने घबड़ाहट एव आश्चर्य के साथ कहा, ‘’भैया!आप मुझे पहचान रहे है?,, ‘’हाँ,भैया!इलाही तुम्हे अच्छी तरह पहचान रहा हूँ।पागल नही हूँ।,, ‘’तब क्यों रो रहे हों,प्यास नही लगी है?,, ‘’मे..री..प्या...स..बुझ...गयी...है..भैया!इ..लाही!,,सिसक-सिसक कर रोने लगा। इलाही ने जंगी के सिर को सहलाते हुये कहा,’’भैया!आप को क्या हो गया है? मेरी समझ में नही आ रहा है।,, तपस्विनी जंगी सिंह के सिर को अपनी गोद में लेकर आँचल से आँसू पोंछकर सिर और मुँह को सहलाने लगी।उस वात्सल्य भरे स्पर्श के सुख से जंगी सिंह मानो किसी दूसरे लोक में विचरण कर रहे हो। उस स्पर्श ने उसकी थकावट एव भूख-प्यास को क्षर भर में हर लिया । जंगी जब पूर्ण स्वस्थ हो गया तो उठकर बैठ गया।उसके बैठ जाने पर तपस्विनी ने पूछा,’’अब तो कोई कष्ट नही है?,, ‘’माँ!अब भी मुझे तुम्हारे पूर्ण स्वस्थ होने मे संदेह है।क्योकि तुम्हारी बातें अब भी कोई खास अर्थ नही रखती।,, ‘’माँ!मैं अपनी बाते संकोच और भय के कारण स्पष्ट नही कह पा रहा हूँ।,, ‘’माँ के सामने कैसा संकोच और भय?बेटा! किसी समय मैं भी दो बेटों की माँ थी।क....हो...बे....टा! तवस्विनी का गला भर आया। गला साफ कर फिर कहा,’’बेटा! यदि किसी के द्वारा सताए गये हो तो वह भी बताओ और यहाँ निर्भय हो कर रहो । यहाँ तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।मुझे अपनी माता ही समझो।,, ‘’वही समझ रहा हूँ माँ!जिस समय तुम माँ थी।तुम्हारे बच्चों के क्या नाम थे?,, ‘’यह जानकर क्या करोगे बेटे!पहले पानी पियो,कभी बता दूँगी।जब मुझे बेटा मान रही हो तो बेटे के हठ को पूरा करो।जो पूछ रहा हूँ,जब तक नही बताऊँगी,तब तक पानी नही पिऊँगा।,, ‘’जब...ह...ठ..ही कर बैठे..हो तो अवश्य बताऊँगी।मेरे दो...बेटे.. थे।बड़े..का..नाम..श्यामू..और...छोटे..का..नाम..शाकुल।,, ‘’मम्मी!मेरी मम्मी,कहता हुआ श्यामू माँ सुनीता के गले लग कर फूट-फूट कर रोने लगा।माँ सुनीता ने भी उसकी आयु का अनुमान लगाया कि वह शाकुल नही श्यामू ही हो सकता है।अत:उसने भी ‘’बेटा!श्यामू!भैया कहाँ भटक रहे हो?मेरे लाल!शाकुल को क..हाँ..छोड़ा?,, कुछ समय तक श्यामू को छाती से चिपका कर रो लेने के बाद दुख से वेमिल सुनीता का शरीर कुछ हल्का हुआ।इलाही भौचक्का हो कर मधुर मिलन को देख रहा था।उसने कहा,’’भैया!तुम्हारी माँ तो मिल गयी।किंतु मेरी माँ तो ऐसी गयी कि लाख उपाय करने पर भी नहीं मिल सकती ।उठिये,अब सुख पूर्वक पानी पीजिये।,, श्यामू ने पानी पीकर इलाही से पूछा,’’भाई इलाही!तुम्हारी माँ की कैसी कथा है?’’भैया!जब मैं पाँच साल की उम्र का था,तब मेरी माँ हमेशा के लिये इस दुनियाँ से चली गयी।करीब चार महीने के बाद मेरे अब्बा जान मेरे लिये नई माँ लाये।आने के बाद करीब एक महीने तक तो नई माँ ने तो मेरी खबरगीरी की लेकिन इसके बाद मुझे परेशान करने लगी।यहाँ तक कि एक दिन मुझे मार कर घर से निकाल दिया।मैं रोता हुआ एक दिशा में चलने लगा और दिन भर चलता रहा।शाम को एक गाँव में पहुँचा।किसी के यहाँ आने की हिम्मत नही होती थी।लेकिन एक सज्जन के दरवाजे पर जाकर रोने लगा।रोने की आवाज सुनकर एक आदमी ने आकर पूछा,’’तुम क्यो रो रहे हो,,मैं कुछ न बोला।फिर उसने कहा,’’अच्छा बैठ जाओ।,,मैं बैठ गया। वह आदमी घर के अन्दर गया और कुछ ही देर में कुछ खाना लेकर आ गया और मुझे देकर खाने के लिये कहा।खाना खा लेने के बाद उसने फिर पूछा,’’बेटा! कैसे टहल रहे हो?,, मैने बताया कि घर से निकाल दिया गया हूँ बाबा !उसने अपने यहाँ रहने के लिये कहा।मैं बहुत खुश हुआ। मुझे पशुओं को चराने के लिये कहा गया।साल भर के बाद मेरे साथ बुरा बर्ताव होने लगा।किसी तरह रो-धोकर दो साल तक दो साल तक रहा।एक दिन उसकी दो गायें एक आदमी के खेत में पड़ गयी।उस आदमी नें मुझे और मेरे गायों को इतना मारा कि एक गाय लँगड़ाने लगी। यह खबर सुन कर मेरे मालिक ने भी मुझे बहुत मारा और घर से निकाल दिया।अब की बार मैंनें भीख माँगकर खाने का इंतजाम किया और रात किसी पेड़ के नीचे किसी तरह सो कर समय गुजारने लगा।दो तीन साल इसी तरह गुजर गये।फिर एक दिन इसी दिन बीच ही में श्यामू ने आगे न कहने का आँखो से संकेत दिया।इलाही ने रुक जाने पर सुनीता ने कहा,’’बेटा!पूरा बताओ क्यों रूक गये?बेटा!तुम्हारा बचपन बड़े कष्ट से बीता। इलाही ने कहा,’’तब तक भैया से मेरी भेंट हो गयी,और इन्ही के साथ रह कर सुख की जिंदगी बिता रहा हूँ,,भोले स्वभाव वाली सुनीता ने और कुछ नहीं पूछा। सुनीता ने वहाँ से उठ कर भोजन की व्यवस्था की और दोनों को खिलाने के बाद बरगद के नीचे आराम करने के लिये कहा।श्यामू और इलाही दोनों बरामदे के नीचे आ कर लेट गये।इसी समय श्यामू को अपनी योजना का ख्याल आया।उसने तुरंत उठ कर इलाही से कहा,’’भाई इलाही!वहाँ पहुचना अति आवश्यक है।मैं तो भूल ही गया था।चलो मम्मी से आज्ञा लेकर शीघ्र यहाँ से प्रस्थान करें।दोनों वहाँ से उठकर माँ सुनीता के पास गये।सुनीता ने कहा,’’क्यों बेटे! प्यास लगी है क्या?,, श्यामू ने उत्तर दिया,’’नहीं मम्मी प्यास तो नहीं लगी है,हम एक आवश्यक कार्य से जा रहे थे,इसीलिये जाने की आज्ञा दो।वहाँ से लौट कर फिर आऊँगा।,, ‘’नही,बेटा!आज तो मैं किसी हालत में नही जाने दूँगी।कल देखा जायगा।यदि आवश्यक होगा तो सोचूगी।अभी तो तुमने शाकुल के विषय में कुछ बताया ही नहीं। वह कहाँ है लला’’मम्मी!इस समय कुछ न पूछो,केवल जाने की आज्ञा दो।यदि सम्भव हुआ तो यदि परसों ही लौट आऊँगा और शाकुल को तुम्हारे मिलने की सूचना इसके बाद ही दूँगा।,, ‘’यदि आवश्यक कार्य है तो जाओ परंतु परसों अवश्य आ जाना।,, ‘’आ जाऊँगा मम्मी! अब चिंता न करो।,, • * * कूड़ामल के होटल के सामने बीस व्यक्तियों के साथ जंगी सिंह ने पहुँच कर पुकारा,’’सेठ जी!भीतर से कूड़ामल ने कहा,’’कौन है?क्या बात है।,, ‘’जंगी ने कहा,’’अरे भाई हम ग्राहक हैं।खाना चाहते हैं।गाड़ी तीन घंटे लेट थी इसलिये काफी देरी हो गयी।आप कृपा करके खाने की व्यवस्था कर दीजिये नहीं तो हम भूख के मारे मर जायेंगे।,, ‘’आप जानते हैं?क्या बजे हैं?इस समय कोई व्यवस्था नही हो सकती।,, ’’सेठ जी!आप पूरा दाम ले लीजिये,लेकिन खाना अवश्य खिला दीजिए।,, ‘’आप कितने लोग हैं?,, ‘’हम बीस लोग हैं।,, ‘’आप लोगों को कहाँ जाना है?,, ‘’देवी के दर्शन के लिये जा रहे हैं।,, ‘’क्या बताऊँ इस समय डेढ़ बज रहे हैं।अभी के घण्टा पहले दुकान बन्द हुई है।सब नौकर गहरी निद्रा मे सो रहे होंगे।कही दूसरी जगह देख लीजिए साहब! हमारे यहाँ व्यवस्था नहीं हो पायेगी।,, ‘’अरे सेठजी!हम प्रति वर्ष आप ही के यहाँ खाना खाते हैं इसलिये दूसरी जगह न भेजिये।हम बीस व्यक्ति है।आप तीन नम्बरी लीजिए किंतु खाना अवश्य खिलाइये।,, ‘’अच्छा, ठीक है।हमारे पंद्रह कर्मचारी हैं।उनको पाँच-पाँच सौ रुपये और दीजिए। तो उन्हें जगाऊँ।,, ‘’जगाइये,उन्हें भी पाँच-पाँच सौ रूपयें देंगे।,, कूड़ामल ने प्रसन्नता पूर्वक दरवाजा खोलकर कहा,’’आप लोग तब तक बैठ जायें।मैं व्यवस्था करता हूँ।दरवाजा खुलते ही सभी डकैत तेजी से होटल में घुस गये।उनको हथियारों से लैश देखकर कूड़ामल के सामने ब्रह्माण्ड घूमने लगा।किंतु तुरंत वह दौड़ कर फोन के पास गया।फोन पर हाथ लगाते ही जंगी सिंह ने डपट कर कहा,’’फोन पर हाथ लगाया कि गोलियाँ पार कर जायँगी।,,रुक साले!कह कर कूड़ामल के ऊपर रिवाल्वर तान कर खड़ा हो गया। कूड़ामल काँपने लगा,और बोला,बाबू जी! आप लोग बैठे मैं खाने का इन्तजाम करता हूँ।मेरे चार पाँच नौकर यहाँ से लगभग एक कि.मी.दूर रहते हैं।उन्हें बुलाने के लिये फोन उठा रहा था।यदि आप नहीं चाहते तो जो यहाँ है वही व्यवस्था करेंगे।आप लोग बैठें।इसी समय चार बन्दूक धारी एक कमरे से निकलकर उन लोगों के पास आ गये।उन्हें देखते ही डकैतो ने अपनी-अपनी बंदूक का मुँह उन चारों की ओर कर के कहा,’’खबरदार!जो आगे बढ़ने का साहस किया तो चारों को मौत के घाट उतार कर इस इस शैतान कूड़ामल के सामने ही पूरे परिवार को साफ कर देंगे। एक दादा ने कहा,’’ हम कूड़ामल का नमक खाकर पले हैं।हमें प्राणों का मोह नही हैं।जंगी सिंह ने कहा,’’ कूड़ामल के परिवार का तो मोह है।,,जंगी सिंह के मुँख से यह वाक्य समाप्त होते-होते दोनों ओर से धायँ-धायँ गोलियाँ चलने लगीं। चारों गुण्डे घायल हो कर गिर पड़े।और गोलियों के दगने की आवाज बंद हुई।जंगी सिंह ने देखा कि उसके तीन साथियों को गोली लगी हैं और वे जमीन पर छटपटा रहे हैं।उसने साथियों को लेकर छ: व्यक्तियों को भाग जाने के लिये कहा।वे लोग घायल डाकुओ को लेकर भाग गये।चारों गुण्डे में से तीन ने तो उसी समय दम तोड़ दिये थे,और एक अधमरा कराह रहा था।एक द्स्यु ने जंगी सिंह से कहा,’’सरदार जी! यह साला अभी जीवित है।,,’’इसे जीने दो।अभी इसने कूड़ामल का कम नमक खाया है।कुछ और खा लेने दो।,, कूड़ामल इस घटना को देखकर बहुत भयभीत था।उसे कुछ सूझ नहीं रहा था।कि क्या करे? उसके मन में यह शंका समायी हुई थी कि अब उसका परिवार किसी भी हालत में बच नही सकता।इसलिये हाथ जोड़ कर कहा,’’सरकार!जो कहिये करने को तैयार हूँ।किंतु अब अधिक न सताइये।यदि आज्ञा हो तो थैली भेंट करू।आप क्षमा करके मुझें अभयदान दीजिये।,, जंगी ने कहा,’’ अभी थैली की आवश्यकता नहीं है।पहले यह बताओ कि तुम्हारे पास कुल कितने कर्मचारी हैं?,, ‘’बाबूजी मेरे पास कुल उन्नीस कर्मचारी थे।उनमें से चार...तो..गये।शेष....पन्द्रह...और..बचे..हैं।,, ‘’देखो नाटक न करो,अभी तुम्हारे ऊपर मार कहाँ पड़ी है?जो रो रहे हो।जो कर्मचारी बचे है उन्हें यहाँ बुलाओ।,,’’दुहाई सरकार की,उन्हें न मारिये,बल्कि मुझे मार डालिये।,, ‘’साले!पहले जो कह रहा हूँ,उसे करो!बुलाओ सब को।एक बात और सुनो।गृहस्वामिनी को भी बुलाओ।,, गृह-स्वामिनी को बुलाने की बात सुनकर कूड़ामल को लगा जैसे अब बारी-बारी से बुलाकर ये लोग परिवार के सब सदस्यों को मारना चाहते हैं।वह चीख कर जंगी सिंह के पैरों पर गिर पड़ा और हिचकियों के साथ कहने लगा,’’स..र..का..र..ऐसा..न..करें।मुझें..मार..डालें।और...किसी...को...न..मा...मा..रें।,, ‘’हराम जादे!पहले जितना कह रहा हूँ,उतना करने के बाद ही अन्य बातें करो।,, जंगी की बातें कूड़ामल की पत्नी छिपकर सुन रही थी।इसलिये हिम्मत करके जंगी के पास आ गयी।गृह-स्वामिनी को देखते ही जंगी सिंह ने दौड़ कर उसके चरण स्पर्श किये।गृह-स्वामिनी ने आशीर्वाद दे कर कहा,’’बेटा!बताओ मुझको किस लिये बुलाया।,, ‘’माँ!मैं आप का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता था,इसलिये बुलाया था।अब आप जा सकती हैं।,, ‘’बेटा!जो कुछ लेना हो लेलो,किंतु अब अनर्थ न हो पाये।,, ‘’माँ!अनर्थ तब भी न होता और अब भी नही होगा।केवल दानवता का विनाश करने के लिये आया हूँ।आप जायँ।आप की आज्ञा शिरोधार्यहै।,,गृहस्वामिनी वहाँ से चली गयी। पुन:जंगी ने कूड़ामल से कहा,’’क्यों दुष्ट!मेरी बातें नही जँच रही है?बुलाओं,अपने दासों को। इसी समय उसकी दृष्टि होटल की भट्टी पर पड़ी।अब भी कोयला दहक रहा था।कुछ पग खिसक कर एक दस्यु से केतली में पानी गर्मा ने के लिये कहा और फिर कूड़ामल के पास आ गया। कूड़ामल को आश्चर्य हो रहा था कि वह डाकू मेरे प्रति इतना क्रूर और मेरी पत्नी के प्रति इतना श्रद्धालु क्यों हैं?फिर उसने गिड़गिड़ाना शुरु किया। ‘’ साहब जितना रुपये लेना चाहें ले ले किन्तु जान छोड़ दें।,, ‘’अच्छा जान छोड़ दिया।अब बुलाओ,सेवको को।,, कूड़ामल ने पुन: कहा,’’छोड़ दीजिए सरकार!,’’इस बार जंगी को बहुत क्रोध आया।उसने कूड़ामल को कई घूँसा और लात मारा। कूड़ामल चिल्लाया।केतली का खौलता पानी जंगी ने इसारे से माँग लिया था।हाथ में केतली लेकर जंगी ने कहा,’’पापी!चाण्डाल!कहीं का।चिल्ला क्यों रहे हो?अभी तुम्हारा काम तमाम करते हूँ।चुप रहो,बच्चों की तरह चिल्ला रहे हो।चुप होते हो या केतली का पानी ऊपर डालूँ?इतना कहकर केतली ऊपर के पानी डालने का अभिनय करने लगा।यह समझ कर कि अब खौलता हुआ पानी मेरे ऊपर डाला जायेगा,उसने भय से काँपते हुये दोनो हाथ जोड़ कर कहा,’’बाबू जी!मेरे बच्चे कहाँ जायेगे?,, ‘’घबराओ नहीं तुम्हारें बच्चों की व्यवस्था मैं करता हूँ।उन्हे बेच दूँगा।चिंता मत करो।,,बेचने की बात सुनते ही कूड़ामल सनाक हो गया और उसे याद आया कि एक बार मैं एक लड़के के अबोध भाई को बेचना चाहता था,वही लड़का तो डाकू बनकर नही आया है?कुछ भी हो अब तो इसकी बातें मुझे माननी ही होगी।परन्तु एकाध बार और बचने का उपाय कर लेने के बाद्।,,पुन:उसने हाथ जोड़ कर कहा,’’सरकार!मेरे द्वारा यदि कभी आप के प्रति ऐसा अपराध हो गया हो तो क्षमा करें।अब ऐसी भूल जीवन में कभी नही करुँगा।इसी समय कूड़ामल की पत्नी पुन: आ गयी और बड़े ही विनीत स्वर में बोली,’’बेटा!मेरा ख्याल है कि तुम मेरा सम्मान करते हो,इसलिये मैं तुम्हारी माता के रूप में यह याचना करती हूँ कि एक बार क्षमा कर दो।,,’’माँ!मैं तुमसें दुराव नहीं रक्खूगा।मैं किसी समय तुम्हारे स्वामी का गुलाम था और मेरा ही नाम श्यामू है।,,इतना सुनते ही गृह-स्वामिनी दौड़ कर श्यामू को गले से लगा लिया। कूड़ामल मूर्छित सा सोफा पर लुढ़क गया। श्यामू ने पुन: कहा,’’माँ!मेरा एक छोटा भाई भी था,तुम्हें याद होगा।,, ‘’हाँ बेटा!याद है।,, ‘’उसकी सेवा तुमने इस कसाई की आँखे बचा कर की थी।इसलिये देवी की पूजा की और दानव को दण्ड दिया।जाओ माँ! तुम्हारे ही कारण इसे वह दण्ड नही दे रहा हूँ जिसका यह पात्र है। सबेरा होने में डेढ़ घण्टा शेष रह गया है इसलिये पंद्रह बीस मिनट में जो थोड़ा काम शेष रह गया है,उसे पूरा कर लेना है।उस काम को पूरा कर लेने के बाद हम चले जायेग़े। अब कूड़ामल का भय कुछ दूर हो गया था।वह पूर्ण चैतन्य होकर बैठ गया और बोला,’’बेटा श्यामू!मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया था,उसका अनुभव अब मुझे हो रहा है।उसके बदले में जो भी दण्ड मुझे देना चाहो दे सकते हो।मैं इसके लिये तैयार हूँ।,, ‘’दादा!अब आप दण्ड मुक्त हैं।फिर भी आप कर्मचारी को बुलावें। कूड़ामल ने अपने सब कर्मचारी को बुलाया।सभी कर्मचारी डाकू के सामने खड़े हो गये।श्यामू ने कूड़ामल से पूछा,’’दादा अब तो आप झूठ नही बोलेंगे?,, ‘’बेटा!राक्षस देवता के सामने झूठ बोलकर कब तक बचा रहेगा?इसलिये पूछो बेटा!जो पूछना हो।,, ‘’अच्छा,आप बतावे,इसमें से किसे(मासिक या वार्षिक) कितना देते हैं? ‘’बेटा इन्हें कुछ भी नही देता हूँ।इनको फँसाने वालों को ही जो देना था एक बार दे दिया थ।,, ‘’इनमें से रोहित कौन है?जब मैं जा रहा था उस समय वह बीमार था।जाते समय मैं उसे देख नही सका था।,, रोहित दौड़ कर सामने आ गया और बोला,भैया! मैं रोहित हूँ और आप कौन है?,, ‘’श्यामू।,, श्यामू शब्द सुनते ही रोहित श्यामू के गले लग कर रोने लगा।श्यामू ने उसे अपने से अलग करते हुये कूड़ामल से कहा,’’दादा!आप को केवल एक द्ण्ड दूँगा।,,’’कौन सा दण्ड बेटा!मैं कह चुका हूँ कि कठिन से कठिन दण्ड सहने के लिये मैं तैयार हूँ।,, ‘’वह दण्ड यही है कि इन सब को दो-दो हजार रूपये देकर इन्हे यहाँ से मुक्त करें।,, ‘’बेटा!यह लो कुंजी तिजोरी खोलकर सब का अलग-अलग गिन कर दे दो।अथवा चालीस हजार रूपये इस तिजोरी में होंगे इकट्ठा ले लो और बाहर जाकर बाँट देना।,, तिजोरी खोलकर दस हजार रुपये छोड़ शेष रुपये को लेकर कुंजी कूड़ामल को देते हुये श्यामू ने कहा,’’दादा!यदि आप में त्याग और दया की भावना भविष्य में भी रही तो राक्षस योनि से देवि योनि में आप का पुनर्जन्म हुआ।हम चले....। कूड़ामल ने देखा की कर्मचारियों की आँखे गीली थीं। कुछ दूर चलने के बाद एक निर्जन स्थान में घायल दस्युओं के साथ जंगी के साथी भी मिल गये।जंगी ने देखा कि उसके तीनो घायल साथी उठ कर बैठ गये थे।उन लोगों के मर्मस्थल में गोलियाँ नही लगी थीं।उनको अलग-अलग चिकित्सालयों में भेजने की व्यवस्था करके शेष सब डकैतों एवं मुक्त दासों को साथ लेकर जंगी मंदिर की ओर चल पड़ा।जंगी ने जब समझा कि सवेरा होने वाला है तो डकैतों को इलाही एवं सेवकों को अपने साथ करके भिन्न-भिन्न मार्गो से चलकर मंदिर पर पहुँचने के लिये कहा।चलते समय वह भी समझा दिया कि सब को एक साथ नहीं चलना है। मंदिर पर पहुँचने पर माँ सुनीता इतनी बड़ी भीड़ को देख कर चौंक पड़ी।श्यामू ने माँ के चरण स्पर्श किये।आशीर्वाद देकर माँ ने पूछा,’’बेटा!यह कैसी भीड़ है?ये सब कौन हैं?,, ‘’माँ!तुम्हारे पास कुछ हो तो पहले प्रसाद देकर इन्हे पानी पिलाओ,फिर सब कुछ बताता हूँ।,, सुनीता ने सब को प्रसाद दिया और पानी पिलाया।पानी पी लेने के बाद सुनीता ने पुन:प्रश्न किया,’’बेटा!मैने जो पूछा था उसका उत्तर चाहती हूँ।,, ‘’मम्मी!इस भीड़ मे आये तो डकैत है और आधे लोग गुलामी से मुक्त हो कर आ रहे हैं।सुनीता ने आश्चर्य चकित हो कर कहा,’’डकैत!डकैतो का तुम्हारा साथ कैसा? ‘’मम्मी!बड़ी करुण कथा है।,, ‘’फिर भी बताओ बेटे!,,बेटे!,,श्यामू ने बताया,’’ऐसा है मम्मी!परसों मैं इन दासो को मुक्त कराने के लिये जा रहा था।हम दोनों की प्यास ने तुमसे मिला दिया अन्यथा हम इस बाग के किनारे से निकल जाते।,, ’’तुम भी डाकू हो गये हो क्या?बेटा!,, ‘’इन लोगो को छुड़ाने के लिये मुझे भी डाकू बनना पड़ा है।यदि मैं डाकू न बनता तो ये लोग जिंदगी भर दासता की बेड़ी मे जकड़े रहते।,, ‘’क्या बिना डाकू बने इन्हें नही छुड़ा सकते थे?,, ‘’नहीं,तब इनका छूटना असम्भव था।,, ’’ तब तो अच्छा किया,किंतु अब यह वृत्ति छोड़ देंगे या जीवन भर इसी में रहना चाहते हो?,, ‘’अभी कुछ दिन तो इसमें रहना ही पड़ेगा।बाद में निश्चित ही इससे सन्यास ले लूँगा।,, ‘’कुछ दिन तक क्यों....?,, ‘’इसलिये कि एक कार्य और करना है।,, ‘’अच्छा,यह बताओ,कैसे तुमने जाना कि ये लोग दास हैं।,, श्यामू ने अपने जीवन भर की सारी कहानी माँ सुनीता को सुनायी।सुनीता आँसू पोंछ-पोंछ कर श्यामू की करुण कहानी सुनती रही।अंत में आ भर कर कहा,’’बेटा!मेरे भाग्य से तुम पुन: मिल गये।वैसे मैं तुम्हें पाने की आशा छोड़ चुकी थी।सब कुछ तुमने बताया बेटे!किंतु मेरे शाकुल के विषय में कुछ नहीं बताया।आखिर वह कहाँ हैं?,, ‘’मम्मी!वह भी सुरक्षित है,अब उसको ही लाने की बारी है।शीघ्र ही उसे भी लाऊँगा।,, ‘’कहाँ है वह?और उसे भी लाओगे?,, ‘’जब मैं माँ तारिका के यहाँ से उसके बेटे रोहित को लाने के लिये रात में निकला तो कई दिन तक वह मेरी बाट देखता रहा,किंतु एक दिन माँ तारिका से बताये बिना ही कही चला गया।परंतु चिंता की बात नही है।अब इन लोगों को अपने-अपने घर भेजने के बाद शाकुल का ही पता लगाना है।,, आँखो में आँसू भर-कर सुनीता ने कहा,’’बेटा!शीघ्र उसका पता लगाओ।पता नही मेरे लाल को किन विपतियों का सामना करना पड़ रहा होगा?,, ‘’ठीक है,मम्मी!मैं उसे भी शीघ्र ही लाता हूँ।,, श्यामू ने दस्यु साथियों को पाँच दिन के बाद इकट्ठा होने के लिये कह कर विदा किया।उनके चले जाने पर मुक्त-दासों से कहा,’’आप लोग दो-दो हजार रुपये लेकर अपने-अपने घर जायें।,, सब ने एक स्वर में कहा,’’हम आप को छोड़ कर कहीं नहीं जायेंगे।,, श्यामू ने उन्हें समझाया,’’यद्पि आप लोगो को घर से निकले बहुत दिन हो गये और आप लोग घर वालों को भूल गये होगे,फिर भी आप लोगों के घर पहुँचने पर अलौकिक सुख की प्राप्ति होगी और आप लोग भी अपूर्व आनन्द का अनुभव करेंगे।आप लोगों को मैंने अपने साथ रहने के लिये नही मुक्त किया है।,,श्यामू की बातें सुनकर उन सब की आँखे सजल हो गयीं।एक ने भर्राये स्वर में कहा,’’भैया!हम लोग घर जाने पर आप जैसे देवता के दर्शन कहाँ पायेगे?,, ‘’आप लोग अपना पता मुझे दे दीजिये और मेरा पता ले लीजिये।कभी-कभी हम एक दूसरे से मिल लिया करेंगे।,, इस पर सब सहमत हो गये और अधिकांश लोगों ने अपना-अपना पता दे दिया।दो लड़के अब भी नही बोल रहे थे।सब का पता लेकर श्यामू ने अपने मिलने का पता देकर कहा,’’आप लोग ये दो-दो हजार ले लें।,, सब ने पुन:कहा,’’हम लोग दो हजार रूपये ले कर क्या करेंगे।आप हमको केवल मार्ग व्यय दीजिये।,, ‘’घर पहुँचने पर लोग सोचेंगे,परदेशी आया है।इसलिये छूछे हाथ जाना ठीक नहीं है।,, जो दो लड़के मौन थे,उनमें एक था रोहित और उसी का उम्र का एक दूसरा लड़का संतू था।ये लोग अपने गाँव का नाम तो बता रहे थे लेकिन पूरा बताने में असमर्थ थे।संतू अपने गाँव के नाम के साथ पिता का नाम भी बता रहा था।श्यामू ने सामने समस्या थी कि रोहित तो अपना ही है किंतु संतू के लिये क्या किया जाय।कुछ-क्षण सोचने-विचारने के बाद दोनों को रुकने के लिये कह कर अन्य लोगों को वहाँ से विदा किया।श्यामू के विदा होने पर सब की आँखो से आसूँ गिर रहे थे।सब मुड़ कर देखते संतू और रोहित फूट-फूट कर रो रहे थे।सब अपने-अपने घर चले गये।रह गये रोहित और संतू।रोहित ने सजल नेत्रो से संतू की ओर देख कर कहा,’’भैया!संतू!सब लोग तो कल या परसों अपने माता-पिता और परिवार वालों से आनन्द पूर्वक मिलेंगे,उनका दुख तो श्यामू भैया ने दूर कर दिया लेकिन हम दोनों को तो लावारिस ही रह कर जिंदगी बितानी होगी।राक्षस के तो हम चंगुल से तो हम छूट गये।किंतु हम अपने परिवार में पहुँच सकेंगे,सम्भव नही लगता।भैया श्यामू के साथ रहना पड़ता तब भी हम संतोष की साँस लेते।लेकिन लगता है ये भी हमें अपने साथ रखना पसन्द नही करेंगे।,, सन्तू ने कहा,’’भैयारोहित!यह बताओ!उस होटल मे काम करते समय क्या तुमने कभी सोचा था कि किसी दिन हम वहाँ से मुक्त हो जायेगें।,, ‘’नहीं,भैया!मैने स्वप्न में भी इसकी कल्पना नही की थी।,, ‘’तो चुप-चाप अपने जीवन दाता पर विश्वास करो-जो प्रभु कीन सेर से दूना।उनके भवन और का सूना’’- वट-वृक्ष के नीचे संतू और रोहित परस्पर बाते कर रहे थे।उधर बरामदे में श्यामू माता सुनीता से बातें कर रहा था।माँ सुनीता ने पूछा,’’बेटा!इन दोनों को क्यों रोक लिया?इनको भी भेज दिये होते ये बेचारे भी अपने परिवार में पहुँच कर खुशियाँ मनाते।,, ‘’ऐसा है मम्मी!वह जो गोरा सा लड़का है,अपने घर पहुँच ही जायगा।चिंता मुझे दूसरे लड़के की है।,, ’’ वह कैसे पहुँच जायेगा?और यदि पहुँच ही जायेगा तो फिर उसे क्यों रोक रक्खा है?,,’’ मम्मी!वह आसानी से पहुँच जायेग।उसे क्यों रोक रक्खा?इसे बाद में बताऊँगा। ‘’और दूसरे लडके को क्यों रोक लिया है?,, ‘’उसी की मुझे विशेष चिन्ता है मम्मी!,, ‘’क्यों क्या बात है?,, ’’ उसका पूरा पता मालूम नही है,उसे उसके घर पहुँचाऊँ कैसे?समझ में नही आ रहा है।,, ‘’उसका पूरा पता नहीं मालूम है,कुछ तो मालूम है?,, ‘’हाँ,उसके पिता और गाँव का नाम मालूम है।,, ‘’ यदि इतना मालूम है तब तो वह अपने घर आसानी से पहुँच सकता है।,, ’’वह कैसे मम्मी!,, ‘’किसी लोक प्रिय समाचार पत्र में विज्ञापित कर दो और आकाश वाणी स्टेशन से प्रसारण करवा दो।शीघ्र ही उसके दिन भी लौट आयेंगे।,, ‘’मम्मी!यह तो बड़ा ही सरल उपाय है,मेरे दिमाग में आया ही नहीं।इसकी व्यवस्था कल ही करता हूँ।परंतु किस ढंग से इसका विज्ञापन होगा?,, ‘’इसके पिता और गाँव के नाम से समाचार छपवा दो,काम खत्म।,, ‘’मम्मी!तुम्हीं एक नमूना लिख दो।इसके पिता का नाम सुनील वर्मा और गाँव का नाम वनपुरवा है।,, ‘’नमूना क्या बनाना है?संतू को ऐसे स्थान पर रख दो,जहाँ पर इसके घर के लोग आसानी से पहुँच सकें।फिर वही के पते की आगे की कार्यवाही करो।,, ‘’मै सोचता हूँ,इसे गोरखपुर में कर दूँ।, ‘’ठीक है,फिर वही रेडियों-स्टेशन से इस प्रकार प्रसारण करवा दो- सुनील वर्मा,ग्राम वनपुरवा को सूचित किया जाता है कि उनका लड़का संतू वर्मा-जो आज से लगभग आठ वर्ष पहले गायब हो गया था-गोरखपुर में रह रहा है।आकर गोरखपुर आकाश वाणी से सम्पर्क करें।यही बात समाचार पत्र में भी निकलवा दो।,, श्यामू ने दूसरे दिन संतू से कहा,’’भैया!संतू!मेरे साथ चलो।तुम्हें भी तुम्हारे घर पहुँचाने की व्यवस्था कर दूँ।,, संतू ने विनीत भाव से कहा,’’भैया!मै घर नही पहुँच पाऊँगा।मुझे अपने ही साथ रहने दें।आप के साथ रह कर मैं सुख पूर्वक जी लूँगा।,, ‘’वाह!कैसे नही पहुँचोगे?पहले चले तो।,, ‘’भैया!इसके लिये आप क्यों परेशान होते है?मुझे आप के साथ रहने मे सुख है।,, ‘’जो मैं कहता हूँ करो व्यर्थ समय नष्ट न करो।,,चुपचाप संतू तैयार हो गया। गोरखपुर पहुँच कर श्यामू ने एक होटल वाले को एक माह का खर्च देकर संतू को वही रहने की व्यवस्था कर दी।और आकाश वाणी से प्रसारण करा दिया।फिर वहाँ से चलते समय संतू ने कहा,’’जब तुम्हारे पिता या घर का कोई व्यक्ति आये तो उसे लिवा कर मंदिर पर आने के बाद ही घर जाना।,, सजल नयन संतू ने कहा,’’ठीक है।,, सोलह अखबार की एक प्रति हाथ मे लिये,शशि मैली ने सुनीता वर्मा से कहा,’’वर्मा जी मै आप के लिये एक खुशखबरी के कर आया हूँ,कुछ खर्च वर्च कीजिये।,,सुनील ने कहा,’’वह तो मुझे कल ही मालूम हो गया था।पण्डित जी!जिस पार्टी से मेरा सम्बन्ध है उसी के सपोर्टर तो आप भी हैं।क्या वह खुश खबरी आप के लिये नही है?,, ‘’क्यों नही?वह खुशखबरी हमारी,आप सब की है।अपने उम्मीदवार के जीतने से पार्टी से सम्बन्धित सब लोगों को खुशी होती है,यह तो स्वाभाविक है।किंतु आज का अखबार आप ने देखा है?,, ‘’नही आज तो नही देख पाया।क्या इससे बढ़ कर कोई समचार है?क्या हमारी सुविधा के लिये कोई विशेष क्रय है?,, ‘’नही भाई!ऐसा समाचार सुनकर आप को अलौकिक सुख की प्राप्ति होगी।,,’’गुरु जी!तब विलम्ब मत कीजिये शीघ्र बताइये।,, समाचार पत्र सुनील के सामने रखते हुये शशिमैली ने कहा,’’यह देखिये,इसमें क्या लिखा है?,, उस समाचार को पढ़ते ही सुनील का शरीर पुलकित हो गया और सारे शरीर मे स्पन्दन होने लगा।हर्षातिरेक से गला भर आया और आँखो में आँसू टपकने लगे।वह कुछ समय तक अखबार को हाथ मे लिये बैठे रहे।इसी समय मौन भंग करते हुये शशि मैली ने कहा,’’बताइये बर्मा जी!यह समाचार आप के लिये है या.......।,, ‘’गुरुजी!...स्मृ...ति...याँ...पु...न..यी...हो..गयी...हैं।,, ‘’नाम और गाँव तो आप ही से सम्बन्धित है,आठ वर्ष पहले आप का लड़का भी गायब हुआ था।यह तो मैं जानता हूँ।केवल आप के लड़के का नाम नही जानता।यदि उस लड़के का नाम संतू ही रहा तो.....।,, ‘’नाम तो संतू ही रहा गुरुजी!,, ‘’यदि ऐसी बात है तो भाभी से मिठाइयाँ लाने के लिये कहिए।ब्राह्मण मधुर प्रिय: मिठाई जब तक नही मिलेगी ब्राह्मण धरना देगा,धरना।,, शशि मैली की बाते सुनकर वहाँ उपस्थित लोग हँस पड़े।सुनील ने पत्नी को पुकार कर कहा,’’अरे संतू की माँ!भाई अपने देवर ब्राह्मण देवता के लिये मिठाइयों की व्यवस्था करो।तुम्हारे लिये खुशखबरी लेकर आये हैं।,, संतू का नाम सुनते ही वर्मा की पत्नी चौक पड़ी;क्योंकि जब से संतू गायब हुआ,आज तक वर्मा जी ने संतू की माँ कह कर नहीं पुकारा था।उसने सोचा कहीं संतू आ तो नही गया।जिससे आज संतू की माँ कह कर पुकार रहे है। वह तुरंत बाहर आयी,पर संतू उसे नही दिखा।फिर भी कुछ आशा लिये उसने पूछा,’’कौन सी खुशखबरी है?सुनू भी तो।,, शशि मैली ने कहा,’’भाभी!कोई शुभ समाचार यों ही नही बताया जाता जिस पर बम्मन का बेटा तो बिना घूस लिये कदापि नही बतायेगा।पहले मुँह मीठा करो,फिर तो मीठी बातें निकलेंगी ही।सौगंध है इस जीभ को जो बिना मिठाई के कुछ बकरे।भाभी तुम्हारे पैरो पड़ता हूँ पहले मिठाई लाकर खुशखबरी सुनने का अधिकार प्राप्त कर लो फिर तो तुम मेरी भाभी और मैं तुम्हारा देवर ही देवर।,, शशि मैली की बातें सुन-सुन कर सुनील तथा अन्य लोग मुस्कुरा रहे थे।भाभी ने भी मुस्कुराते हुये कहा,’’अच्छा, बबुआ!खुशखबरी सुनाइये जितनी मिठाई खाना चाहेंगे खिलाऊँगी।,, ‘’ना बाबा!वादा का काम गड़बड़ होता है।भैया वर्मा जी!आप हमारे बीच में एक शब्द भी न बोलियेगा।देखता हूँ,भाभी हारती है या देवर।,, ‘’बबुआ!मैं हार गयी,तुम जीते।अब मैं बिना मिठाई खिलाये एक शब्द भी न पुछूँगी और न सुनूँगी।,,’’राम हरख!,,’’हाँ,मालकिन,, ‘’’’ये लो पच्चास रुपये।बाजार से बहुत जल्द मिठाइयाँ लाओ।,, ‘’अच्छा,मालकिन लाता हूँ।,,कह कर राम हरख बाजार की ओर गया और वर्मा जी की पत्नी घर के भीतर कुछ नमकीन बनाने के लिये चली गयी।नमकीन तैयार होते-होते सुनील का नौकर मिठाई लेकर आ गया।वर्मा जी के यहाँ इकट्ठे लोगों के सामने नमकीन और मिठाई परसी गई।मिठाई मुँह मे डालते ही शशि मौली ने कहा,’’भाभी!सुन लो, तुम्हारा सन्तू मिल गया है।जीभ कितने घुसखोर होती है?मिठाई का स्पर्श पाते ही बकरने लगी।सब ठाहाका लगाकर हँसने लगे।भाभी ने रोमांचित होकर कहा,’’देवर जी!मैं स्वप्न तो नही देख रही हूँ।क्या संतू अभी भी जीवित है?,,’’भाभी जी!मैं कहता हूँ संतू मिल गया है।आप कहती हैं क्या अभी जीवित है? अरे!दो-तीन दिन में ही आप की गोद महक उठेगी महक! ‘’बबुआ!आप के मुँह गुड़-घी लगे,यदि ऐसा हो जाये।,, ‘’इस समय तो इतनी मिठाइयाँ खा चुका हूँ कि पेट मे एक लौंग या इलायची की भी जगह नहीं है।परसों या नरसों जब भी हम संतू के साथ आयेंगे,उस समय गुड़-घी भी खा लेंगे।देखना भाभी!मुकरना नहीं।आने पर गुड़ घी का इंतजाम जरुर रहे,नही तो बेटे से आप का अधिकार समाप्त हो जायेगा और उसका पूर्ण अधिकारी हो कर मैं उसे अपने साथ लेता जाऊँगा,तुम ताकती रह जाओगी।,,’’देवर जी!गुड़ घी खा लेने के बाद भी आप पूर्ण अधिकारी रहेंगे।उसके विवाह के समय मै भी न्योतहरु बन कर आ जाऊँगी।तमाम संकटों से तो बची रहूँगी।,, ‘’भाभी! अब तुम चालाकी से बात कर रही हो।सब परेशानियाँ सह कर मैं बहू ला दूँ,तब तुम्हारा मालकाना चलने लगे।घर में एक परग भी नहीं रखने दोंगी।मैं तुम्हारे गुड़-घी से बाज आया।अच्छा,भैया।वर्मा जी!आप गोरखपुर चलने की तैयारी कब कर रहे हैं।,, ‘’कब चलना ठीक होगा?,, ‘’आज ही रात आठ बजे वाली गाड़ी से चले जाइये।सवेरा होते-होते पहुँच जायेगें। ‘’ चले जाइये नहीं,चलो,चलें।,, ‘’ठीक है मैं भी चला चलूँगा।तो अब मुझे चलने की आज्ञा दीजिए।आप सात बजे स्टेशन पर आ जाइये।वहीं मैं आप से मिलूँगा,ठीक है?,, ‘’हाँ,ठीक है।,, गोरखपुर पहुँचकर सुनील और शशिमैली ने ‘रेडियो स्टेशन’ से सम्पर्क किया।गोरखपुर से जाते समय श्यामू संतू-विषयक व्यवस्था की सूचना आकाश-वाणी कार्यालय को देता गया था।इसलिये होटल से उसे बुलाया गया।कार्यालय में पहुँच कर संतू सुनील की ओर बड़े ध्यान से देखने लगा।सुनील ने उसे बिल्कुल नही पहचाना।आकाशवाणी निदेशक ने पूछा,’’वर्माज जी!पहचानिए,यही आप का लड़का है?,, सुनील ने कहा,’’जिस समय यह लापता हुआ था,इसकी आयु बहुत कम थी।अधिक समय बीत जाने के कारण इसके आकार प्रकार में परिवर्तन हो गया है।यह शायद मुझे पहचानता हो।,, संतू की आँखे बरस रही थीं।उसने कहा,’’पिता..जी..मैं..कु..छ..पह...।,, आगे कुछ नहीं बोल सका और सुनील के पैर के पास बैठ कर फूट-फूट कर रोने लगा।उसे रोता देखकर सुनील और शशिमैली की आँखे गीली हो गयीं। इसी समय निदेशक ने कहा,’’भाई वर्मा जी!यह रोने का समय नही हैं।यह तो हँसने की घड़ी है।अब आप लड़के को लेकर जा सकते हैं।,, शशिमैली ने कह,’’मेरे देवता!यह रोनो और हँसने दोनों का समय है।जिसे मृतक समझ लिया गया था,वह सामने खड़ा हो,भला बताइये कौन अश्रुप्रवाह को रोक सकता है।,, ‘’ठीक है,तो आप लोग अब सहर्ष जायँ।,, वर्मा जी ने सौ-सौ के दस नोट जेब से निकाल कर निदेशक के सामने रख दिये।निदेशक ने कहा,’’वर्मा जी!यह क्या है?,, ‘’आप का परिश्रमिक सरकार!,, ‘’मेरा परिश्रमिक?मैने कौन सा परिश्रम किया है?,, ‘’साहब!मुझे अपार हर्ष है इसलिये दे रहा हूँ।,, ‘’आप न आते तब भी लड़के को मार्ग-व्यय देकर पहुँचाया जाता।,, ‘’फिर भी सरकार मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें।,, ‘’देखिये वर्मा जी!व्यर्थ का हठ न कीजिए।,, ‘’सरकार!आज मुझे इतनी खुशी है कि मैं हठ करने के लिये मजबूर हूँ।,, इस पर निदेशक महोदय को कुछ क्रोध आ गया।और उन्हों ने कहा,’’आप ही लोग जैसे सरकार के मुँह में थप्पड़ मारने के लिये कमर कसे तैयार रहते हैं।सरकार जनता की सेवा जी-जान से करना चाहती है किंतु आप लोग उसे बदनाम करने के लिये ऐसे कार्य करते रहते हैं कि सारी योजनाएँ विफलहो जाती हैं।,, ‘’नहीं सरकार!सरकार को बदनाम करने के विचार से ऐसा नही कर रहा हूँ। आप विर्लोभी हैं,इसलिये ऐसा कह रहे हैं।और तो,हम जिस कार्यालय में कोई काम लेकर जाते हैं,कोई कर्मचारी बिना कुछ लिये शीधे बात भी नहीं करता हमें तो लगता है,जो उत्कोच किसी समय अपराध समझा जाता था,आज वही भारतीय संविधान की किसी धारा के अन्तर्गत आ गया है।हमारा काम छोटा ही क्यों न हो,कुछ देना अनिवार्य हो गया है।हमारा कार्य न्यायोचित और दस रुपये मूल्य का हो,उसके लिये कभी-कभी बीस रुपये देना पड़ता है।,, बीच में ही शशिमैली बोल उठा,’’भैया!आप लोग बुरा न मानें तो एक बात मैं भी कहूँ?,, निदेशक महोदय ने कहा,’’प्रजातंत्र में सब को अपनी बात कहने का समान अधिकार है,इसलिये आप अपनी बात अवश्य कहिए।शशिमैली ने कहना आरम्भ किया,’’साहब!मेरे विचार से अपना प्रजातंत्र समद्विवाहु त्रिभुज है।निदेशक महोदय ने मुस्कुरा कर कहा,’’भाई!आप की बात ऐसी बात समझ में नही आ रही है।आप इसे स्पष्ट करें।,, ‘’यही कि दो भुजाये मिलकर तीसरी पर हाबी हो जाती हैं।,, ‘’अब भी आप सूत्र ही बोल रहे हैं।भाष्य की आवश्यकता है।,, ‘’यही कि समाज के दो तिहाई लोग शेष को निगल रहे हैं।,, ‘’और स्पष्ट कीजिए,सभी वरदराजाचार्य नही है कि महान भाषा वैज्ञानिक महर्षि पाणिनी के सूत्रो की व्याख्या कर लेंगे।,, ‘’यदि ऐसी बात है तो सुनिये फिर-समाज में दो प्रकार के डकैत हैं।एक तो वे जो रजिस्टर्ड हैं और दूसरे अनरजिस्टर्ड।शेष जो आदर्शवादी,सदाचारी और अनुशासित हैं,उन्हें दोनो प्रकार के डकैत लूट रहे हैं।मेरे विचार से तो ,अनरजिस्टर्ड डकैत कुछ डरकर लूटते हैं:क्योंकि उनके पास लिखित रुप में कुछ भी नही हैं,और जिनके पास रजिस्ट्रेशन का कागज है,वे निर्भीक होकर लूट रहे हैं।सरकार अनरजिस्टर्डो के पीछे पड़ी हुई है।सरकार रजिस्टर्ड दस्युओं के पीछे क्यों पड़े?उनके पास रजिस्ट्रेशन का कागज जो ठहरा।,,निदेशक महोदय ने पुन: कहा,’’इतनी व्याख्या कर देने के बाद भी कुछ शेष रह गया है,थोड़ा और स्पष्ट कीजिए।,, ‘’शेष का आदि अंत नही होता सरकार!और मैं उसी शेष को परब्रह्मा मानता हूँ।ब्रह्मा की व्याख्या जब आज तक कोई नही कर सका तो मुझ मूढ़ मत के पहले क्यों पड़ने लगा।,, ‘’अरे भाई!अपने सूत्रों के शेष को पूरा कीजिये,मैं ब्रह्मा की व्याख्या करने के लिये नहीं कह रहा हूँ।,, ‘’अच्छा तो वह भी सुन लीजिए-जो जंगलों,कंदराओं और निर्जन स्थानों में समाज की दृष्टि बचा कर रहते हैं वे अनरजिस्टर्ड है।ऐसे दस्यु कभी कभी-कभी और प्राय:अपराधियों को लूटते हैं और जो समाज के सामने सीना तान कर कुर्सियों पर बैठ कर चौबीस घण्टे लूटते है,उन्हें रजिस्टर्ड कह सकते हैं।ऐसे दस्यु अमीर,गरीब,अपराधी-निर्दोष सब को लूटते हैं।अनरजिस्टर्डों को पकड़ने या मारने वाला सरकार द्वारा पुरस्कृत होता है और रजिस्टर्डों को डाटने वाला भी दण्डित होता है।,, ‘’इसका मतलब यह कि जितने कर्मचारी है,सब रजिस्टर्ड डकैत हैं?,, ‘’श्रीमान जी!क्या सरकार को नही मालूम है कि उसके कर्मचारियों द्वारा निरीह जनता किस प्रकार लूटी जा रही है?समाचार पत्रों में प्राय: देखने में आता है कि पुलिस-मुठभेड़ में इतने डाकू मारे गये और इतने बंदी बनाये गये।क्या कभी यह भी निकलता है कि इतने कुर्सी वाले डाकू मारे गये और बंदी बनाये गये।जब कि ये सफेद पोस दस्यु प्रति पल ललाकार लूट रहे हैं।हाँ,एक बात है,दोनो को लूटने में थोड़ा सा अन्तर है।अनरजिस्टर्ड डकैत कहता है,’’तुम्हारे पास जो कुछ हो दे दो नहीं तो मार डालूँगा और रजिस्टर्ड दस्यु कहता है,’’इतना दे दो नहीं तो तुम्हें भूखो मार डालूँगा और तुम्हारे आने वाली पीढी को भी।,, फिर निदेशक महोदय ने कहा,’’आप की बात यह तो समझ में नही आयी।शशिमैली जी!,, ‘’अच्छा,तों मैं अपनी बातें उदाहरणों के साथ बताता हूँ।सम्भव है समझ में आ जाय। मान लीजिए,किसी संस्था में कोई पद रिक्त है और कोई व्यक्ति अपनी पूर्ण योग्यता के साथ उस पद के लिये अभ्यार्थी है।अन्य अभ्यर्थी अपूर्ण योग्यता वाले हैं।संस्था का स्वामी कहता है,’’बीस हजार रुपयें लगेंगे।हिम्मत हो तो कुर्सी आप की है।,, योग्यतम अभ्यार्थी रूपयों के अभाव में निराश लौटता है और समाज की दृष्टि में हेय बन कर भूखों मरता है।उसकी संताने साधन-विहीन हो कर दर-दर की ठोकरें खाती है।इसी प्रकार चकबन्दी का अधिकारी कहता है,,’’अच्छी चक लेनी हो तो कुछ खर्च करो।खर्च के अभाव में उसे अपनी भूमि से हाथ धोना पड़ता है। वह और उसकी संताने भूखों मरती हैं।बताइये किसी की जीविका छीनना डाका नही तो और क्या है?अनरजिस्टर्ड डकैत भले ले जाये किंतु जीविकोपार्जन का साधन नही ले जाता।,, ‘’ऐसा है,शशिमैली जी!इसमें भी तो जनता का दोष है।वह क्यों सरकार के कान में नहीं डालती कि अमुक व्यक्ति इस प्रकार का अपराध कर रहा है।,, ‘’श्रीमान जी! इसमें जनता की विवशता है।मान लीजिये कोई व्यक्ति कहीं नौकरी कर रहा है।उस संस्था के मालिक ने उस कर्मचारी से कहा,’’ आप का एक हजार रुपये होता है।आप को चार सौ रूपये दियें जायेंगे। लीजिये हस्ताक्षर कीजिए।इस बात को वह कर्मचारी उच्चाधिकारी से बताता है।पहले तो उच्च पदाधिकारी मौन हो जाते हैं।यदि बार-बार याद दिलाने पर सुन लिया तो तारीख पर तारीख पड़ने लगती है और अंत में सुनने को आया कि वकीलो की करामात से व्यवस्थापक की विजय हो गयी।कर्मचारी अपना सा मुँह लेकर व्यवस्थाप का क्रोध भाजन हो कर लौट आता है।परिणामस्वरूप एक हजार वेतन तो गया ही साथ ही डेढ़-दो हजार घर का भी गया।इसलिये उन संकटों से बचने के लिये ही लोग आँख मूद कर अनाचार को सह लेते हैं।और लुटते रहते हैं।आश्चर्य ,आश्चर्य और महा आश्चर्य! आप धरती के मनुष्य नहीं जान पड़ते,आप तो देवता हैं,देवता!भैया वर्मा जी! उठाइये रुपये,चलिये।,, आकाशवाणी से बाहर आकर सुनील ने कहा,’’अब कुछ खा पीकर ही गाड़ी पकड़ी जाय।गाड़ी छूटने में अभी लगभग दो घण्टे का समय है।,, संतू ने कहा,’’पिता जी!हम लोगों को अभी उस मंदिर पर चलना है,जहाँ हमारे भैया श्यामू रहते हैं।,, सुनील ने संदेह भरे स्वर में कहा,’’ तुम्हारा भैया श्यामू! यह कौन है?तुम्हारे और भाई है क्या?,, ‘’पिता जी! आप मेरे ऊपर संदेह न करें।मैं आप संतू ही हूँ।वहाँ मेरा वह भाई है, जिसने मुझे गुलामी से मुक्त किया है।उसी भैया का नाम श्यामू है।,, शशिमैली ने श्रद्धा से गदगद् हो कर कहा,’’अरे!अरे!तब तो उस देवता के दर्शन करना हमारा सौभाग्य है।कुछ समयोपरांत तीनों ने प्रस्थान किया। मार्ग में चलते हुये सुनील और शशिमैली ने संतू के गायब होने से लेकर मुक्त होने तक की कहानी की जानकारी प्राप्त की।शशि मैली ने पूछा,’’ अभी कितनी दूर चलना है?अब अधिक दूर नही चलना है,चाचा जी! क्या आप थक गये हैं? संतू ने कहा। ‘’थकना तो मैं जानता ही नहीं।इसलिये पूछ रहा हूँ कि अब पेट में चूहे कूदने लगें।इसका प्रबन्ध शीघ्र होना चाहिये।,, संतू की सारी व्यथा दूर हो चुकी थी,इसलिये उसने मुस्कुराते हुये कहा,’’चाचा जी!क्या चूहे अधिक परेशान कर रहे हों तो बाजार से चूहा मारने की दवा ले आऊँ।इस पर सब लोग हँसने लगे। इस प्रकार बाते करते हुये तीनों मंदिर पर पहुँच गये।संतू के साथ दो अन्य व्यक्तियों को देख श्यामू को अपनी सफलता पर बहुत संतोष हुआ।उसने प्रसन्नता पूर्वक दौड़ कर उन लोगों का स्वागत किया।संतू ने एक दूसरे से जब सब का परिचय कराया।परिचय होते ही शशिमैली और सुनील दोनों ही श्यामू के पैर की ओर लपके।श्यामू ने पीछे खिसक कर कहा,’’आप लोग मेरे पिता तुल्य हैं।मुझे क्यों नरक में डालते है?,, शशिमैली ने कहा,’’ बेटा यह तो ठीक कह रहे हो किंतु ‘तेजषां हि न वय: समीक्ष्यते।,तुम तेजस्वी हो,देवता हो,तुम्हारे पवित्र चरण हमे कब मिलने वाले वाले हैं।,, इसी समय माँ सुनीता जलपान आदि के द्वारा उन लोगों के स्वागत के लिये आयी। उन तीनों ने श्रद्धा पूर्वक माँ को नमन किया।रोहित एक जगह बैठ कर सब को देख रहा था। उसके नेत्रों में रह-रह कर आँसू आ जाते थे।वह सोच रहा था कि सब साथी तो अपने-अपने घर पहुँच गये किंतु मैं किसी भी हालत में अपनी माँ से नही मिल सकता;क्योंकि मुझे पिता का नाम मालूम नही है।बूढ़े बब्बा का नाम जानने का कभी प्रयास नही किया।इसी समय शशिमैली की दृष्टि रोहित पर पड़ी उन्हों ने पूछा,’’अरे भाई!वह बालक बहुत उदास बैठा कौन है?उसकी ओर देख कर संतू ने गले से लगा लिया और कहा,’’चाचा जी!यह भी मेरा भैया ही है।इसका नाम रोहित है।यह भी मेरे ही साथ होटल में काम करता था और मेरे ही साथ वहाँ से मुक्त हुआ है।,, सुनील ने पूछा,’’यह अपने घर कब जायेग?,, श्यामू ने कहा,’’जब ईश्वर की कृपा होगी।,,अब रोहित और सिसक-सिसक कर रोने लगा।उसको रोता देख श्यामू ने कहा,’’क्यों रोते हो जी!मैं अभी जीवित हूँ।मान लो तुम घर नही पहुँचे तो मैं पराया हूँ।क्या?मेरे साथ नही रह सकते?,, ‘’भैया!आप के साथ रहने में मुझे अधिक सुख है किंतु एक बार मम्मी से भेंट हो जाती तो........। जब से उसका साथ छूटा,कोई भी दिन ऐसा नही गया,जिस दिन उसकी याद करके न रोया हूँ।,, ’’ तो ठीक है,हो सकता है तुम्हारे घर का भी पता लग जाय,रोओ नहीं।,, सुनील वर्मा,शशिमैली और संतू के साथ घर जाने की तैयारी कर चुके थे।संतू की आँखे डबडबा आयी थीं।वह रोहित को गले से लगा कर कुछ कहना चाहता था।किंतु रोहित उससे भी अधिक रो रहा था।कुछ समय के बाद संतू ने कहा,’’भैया रोहित मैं तो जा रहा हूँ,पता नही अब जीवन में भेट होगी या नहीं,इसलिये जान या अनजान में मुझसे जो भी अपराध हुये हो क्षमा कर देना।,,रोहित केवल हिचकियों के साथ रोता रहा।फिर संतू श्यामू के पैरों को पकड़ कर रोने लगा और कहा,भैया!क...भी..क..भी...मे...री..खो..ज..खब..र..लेते...।,,सजल नेत्रो से श्यामू ने कहा,’’भाई!संतू!घबराड़ाओ नहीं,मैं तुमसे मिला करुँगा।यह लो अपना परिश्रमिक।दो हजार रुपये जेब से निकाल कर देने लगा।सुनील वर्मा ने कहा,’’बेटा श्यामू!तुम उलटा काम कर रहे हो।आज मैं तुम्हें जितना भी दूँ वह कम है।परिश्रम करने वाला ही परिश्रमिक दे,भला यह कहाँ का न्याय है?,, ‘’यह मैं अपने पास से नहीं दे रहा हूँ चाचा जी! यह तो होटल वाले से इसका वेतन लेकर दे रहा हूँ।सुनील ने कहा,’’बेटा!इसे अपने पास रक्खो और यह लो अपना पुरस्कार।नोटों का वण्डल निकाल कर श्यामू के सामने रख दिया। श्यामू ने मुस्कुरा कर कहा,’’चाचा जी! आप की कृपा से मुझे पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।यदि इसके लिये आप मुझे बाध्य करेंगे तो जो कुछ भी मुझसे हो सका है,सब पर पानी फिर जायगा।,, ‘’बेटा!यदि पुरस्कार नहीं लोगे तो मुझे जीवन भर के लिये एक पीड़ा दे जाओगे।,, शशिमैली जी बोल उठे,’’अच्छा,हो हजार श्यामू के और आप के कितने है वर्मा जी!,,’’पाँचहजार! वर्मा जी ने बताया। तो ठीक है,सब मिलाकर सात हजार हुये।श्यामू यदि मेरी बाते मानता हो तो इन रुपयो से एक अतिथि गृह का निर्माण यहीं पर करा दे।सारा झंझट समाप्त।सात हजार से जो अधिक व्यय होगा उसकी भी व्यवस्था कर दी जायेगी।,,इस बात को श्यामू ने स्वीकार किया। सुनील वर्मा शशिमैली और संतू के साथ घर के लिये रवाना हुये। सत्रह- मंजुला की मृत्यु के बाद मधुसूदन ने अपनी पर्णकुटी त्याग दी।उन्हों ने गेरुआ वस्त्र धारण किया।गुलाल ने भी वही बाना अपनाना चाहा किंतु मधुसूदन ने मना कर दिया,यह कह कर कि गुलाल मैं तुमसे एक बात करना चाहता हूँ और आशा करता हूँ कि तुम उसे अवश्य मानोगे। ‘’भैया!मैने सदैव आप की बाते मानी हैं तो आज ऐसी कौन सी बात है कि नही मानूँगा?,, ‘’हाँ गुलाल!मेरी विपत्ति के साथी यही तुमसे आशा करता हूँ।,, ‘’तो आप नि:संकोच आज्ञा दें।,, ‘’मेरे प्रिय गुलाल!मेरी इच्छा है कि अब मुझे अकेले ही भटकने दो और तुम अपने परिवार में चले जाओ,क्योंकि मेरा साथ देकर तुम जितना पुण्य कर रहे हो,अपने परिवार को छोड़कर अधिक पाप कर रहे हो।कुल मिलाकर पाप अधिक पुण्य कम कर रहे हो।अत: अब विलम्ब न करो और घर जाने के लिये तैयार हो जाओ।,,गुलाल स्तब्ध ही रह गया और कुछ भी उत्तर न दे सका।कुछ समय तक मौन रहने के बाद मधुसूदन ने ही मौन भंग किया।,’’कुछ बोले नही गुलाल!,, ‘’क्या बोलू भैया?क्या आप के साथ इसीलिये आया था कि कुछ दिन साथ रहने के बाद वापस चला जाऊँगा?,, ‘’देखो गुलाल मैं आयु में तुमसे बड़ा होने के नाते तुम्हें आदेश देता हूँ कि अब तुम अपने परिवार में जाओ।यह दूसरी बात है कि दो-चार माह का अंतर देकर मिल लिया करो।,, अबकी बार गुलाल हठ न कर सका।और बोला ,भैया!दो-चार माह के बाद आप से किस जगह मिल लिया करुँगा।यह तो मालूम हो जाय।,, ‘’इसकी चिंता न करो,जब मिलना चाहोगे,मिल जाऊँगा।,, ‘’आखिर कहाँ मिल जायँगे?वह जगह तो बता दीजिए।,, ‘’अब मेरा अधिकांश समय चित्रकूट में बीतेगा।अब मैं भगवान की शरण में जाना चाहता हूँ:क्योंकि जिस उद्देश्य को लेकर दर-दर की ठोकरें खा रहा हूँ,उस उद्देश्य की पूर्ति नही हो सकी और न भविष्य में कोई सम्भावना ही है।अत:तुम इसी समय घर के लिये प्रस्थान करो।जाओ मेरे भैया!अब विलम्ब न करो।,,गुलाल ने आँसू पोछते हुये मधुसूदन के चरण स्पर्श करके वहाँ से विदा हुआ। गुलाल के चले जाने पर मधुसूदन एकाकी बैठकर बहुत समय तक रोता रहा।एकान्त पाकर दु:ख में अश्रु-प्रवाह अधिक वेगवान होता है।कुछ समय के बाद अश्रु-प्रवाह रुका।उठकर मधुसूदन ने हाथ-मुँह धोकर चित्रकूट का मार्ग पकड़ा। मार्ग में चलते-चलते मधुसूदन के मन में आया कि एक बार अपनी मातृ भूमि के दर्शन करता चलूँ।दो तीन दिन चलने के बाद राजपुरा दिखायी पड़ा।गाँव को देखते ही मधुसूदन ने सिर झुका कर ग्राम-देवता को नमन किया।फिर बहुत देर तक वहीं पर-यह सोचता हुआ कि घर पहुँचने पर यदि सुनीता आ गयी होगी तो उसके सामने कौन सा मुँह दिखाऊँगा?-खड़ा रहा।कुछ समय तक सोचने के बाद उसके मस्तिष्क में एक बात आयी,वह यह कि पहले किसी से पूँछू,यदि सुनीता घर पर आ गयी होगी तो दूर से ही उस देवी को नमस्कार करके बाहर ही बाहर चला जाऊँगा।और यदि नही आयी होगी तो द्वार पर जाकर वहाँ की धूल को मस्तक और आँखों पर चढ़ा कर फिर हमेशा के लिये विदा ले लूँगा।इस प्रकार धीरे-धीरे गाँव के बिल्कुल निकट पहुँच कर एक लड़के से पूछा,’’बेटा!इस गाँव में मधुसूदन का घर बता सकते हो?कौन सा है?,, लड़के ने कहा,’’बाबाजी!इस गाँव में मधुसूदन तो कोई नही है।आप नाम तो नहीं भूल रहे हैं?इसी गाँव से सटा वह गाँव जो देख रहे है,उस गाँव में मधुसूदन तो नहीं अलख निरंजन हैं।उन्हीं को तो आप नहीं पूछ रहे हैं?,, ‘’अच्छा,हो सकता है।क्या अलख निरंजन घर पर हैं?,, ‘’है तो,लेकिन इस समय वे बहुत बीमार हैं।बचने की आशा नहीं है?,, ‘’क्या हो गया है उनको?,, ‘’डाक्टर लोग किसी मर्ज का पता ही नहीं पा रहे हैं।आज से एक वर्ष पहले उनके यहाँ डाका पड़ा था।डाकू लोग घर का सारा समान तो ले ही गये।उनके लड़के मुक्तेश को भी बाँध कर लेते गये।तभी से वे बीमार हैं।पता नही उनको क्या हो गया है?अब तो मुँह से साफ आवाज भी नहीं निकलती।हमेशा आव-बाव बकते रहते हैं।कभी कहते हाय भैया मुक्तेश अब तुमसे भेंट नही होगी।कभी कहते हैं,,जाओ अलख निरंजन तुम्हें अपनी करनी का फल मिल गया।अब क्यों रोते हो?,,कभी कहते हैं,’’ जिसको मैंने मारा,उसने मुझको मारा।कुछ समझ में नही आता कि उस पंडित को क्या हो गया है?मै तो समझता हूँ,उनके ऊपर ब्रह्म की सवारी है।,, ‘’हो सकता है बेटा!अब मैं वही चलता हूँ।,, ‘’हाँ बाबा जी!यही रास्ता जिनके घर तक जायगा।आप हाथ देखते हैं?,, मधुसूदन ने उसके सरल स्वभाव पर मुस्कुरा कर कहा,’’बेटा!हाथ तो कोई भी देख सकता है लेकिन हाथ में क्या लिखा है?तुम देखने से ही भाग्यवान लगते हो।पढ़ने जाते हो न?,, ‘’हाँ,बाबा जी!पढ़ने जाता हूँ।,, ‘’जाओ मन लगा कर पढ़ना तुम्हारा भविष्य बहुत ही अच्छा है।,, ‘’तो बाबा जी!आप इसी रास्ते से चले जायँ।,,लड़का चला गया। मधुसूदन ने सोचा,’’अलख निरंजन है तो महा पापी किंतु अब वह अपनी करनी का फल पा गया है और उसका घमण्ड टूट चुका है इसलिये उसी के यहाँ चल कर देखूँ,सम्भव है बच ही जाय्।सोचने के बाद मधुसूदन ने अलख निरंजन के ही घर जाना उचित समझा।और उसके घर का मार्ग पकड़ा। मधुसूदन ने अलख के दरवाजे पर पहुच कर पुकारा,’’अलख निरंजन,है कोई?अलख निरंजन की पत्नी ने झाँक कर देखा और कहा,’’आइये बाबा जी!बैठिये।,, बाबा जी दरवाजे पर बैठ गये।अलख की पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा,’’बाबाजी!बहुत दुखिया हूँ।आप मेरी विपत्ति दूर करे महराज!,,बाबा ने पूछा,’’कहो बच्चा क्या बात है?,, ‘’आप से क्या बताना है महराज!आप तो स्वयं सब कुछ जान रहे हैं।,, ‘’अच्छा,रुको,देखता हूँ।कुछ देर तक बाबा आँखे बंद कर के बैठे रहे,फिर आँखे खोल कर बोले,’’बच्छा!कुछ दिन पहले तुम्हारे यहाँ डाका पड़ा था?,, ‘’हाँ महराज!,, ‘’डाकुओ ने तुम्हारे घर को लूटने के बाद तुम्हारे पुत्र का भी अपहरण कर लिया? ‘’यह भी सत्य है बाबा जी!,, ‘’तभी से तुम्हारे पतिदेव बीमार हैं?,, ‘’हाँ बाबा जी!घर लुटने और लड़के का अपहरण तो था ही,अब उनकी बीमारी से कुछ भी नहीं सूझ रहा है।आप कोई उपाय करे महराज!जिससे मुझ दुखिया का दु:ख दूर हो।,, ‘’क्या कहूँ?देवी!तुम्हारे पति तो महापापी है।उसी के दुष्कर्मो का फल है जो तुम्हारे घर की लक्ष्मी चली गयी और तुम्हारा निर्दोष बच्चा भी विपत्ति में पड़ा है।,, ‘’महराज!आप अन्तर्यामी है,आप से कुछ छिपा नही हैं।आप चल कर उनको देख लेते तो शायद उनका रोग कट जाता।,, ‘’चलो देवि!देख लेता हूँ।,, बाबा ने अलख निरंजन के पास पहुँच कर कहा,’’क्यों अलख? कब तक चारपाई पर पड़े रहोगे?,, बाबा की बातों को सुनकर अलख ने आँखे खोलीं और हाथ जोड़ कर साँय-साँय करते हुये बोले,’’बाबा जी!मैं बहुत बड़ा अधी हूँ।मेरा------उ..द्धा...र.....क...रें....म...हा....रा….!,, ‘’ठीक है पूछो क्या पूछना चाहते हो?,, ‘’बा....बा..जी!मे..रा..ल..ड़..का...आये...गा...या....?,, ‘’लड़का तुम्हारा क्यों गया है?जानते हो?इस ढंग के अनेक अपराध तुम्हारे द्वारा इसी जन्म में हुये हैं।इसे स्वीकार करते हो?,, अलख निरजन कुछ बोल नहीं सका।बाबा ने ही पुन: कहना आरम्भ किया,’’मधुसूदन के निर्दोष बच्चो को तुमने ही गायब किया है और जब से वे बच्चे गायब हुए,आज तक उस घर में दीपक नही जला।यह सत्य है?,,अलख फिर से मौन।बाबा ने जोर देकर कहा,’’बोलता क्यों नहीं?मैं ओझा नही हूँ कि भूत बकराने आया हूँ। मेरे पास इतना समय नहीं है।अबकी बार अलख निरंजन ने धीरे से कहा,’’आप---स—त्य—कह---र—हे---हैं---म—ह—रा---ज!अलख निरंजन की बातें समाप्त होते ही मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने के लिये कहा,’’यद्द्पि तुम्हारा उद्धार के विषय में सोच रहा हूँ।तुम्हारा बेटा......।आँखे मूद कर ध्यान लगाने का अभिनय करते हुये फिर आँखे खोल कर,हाँ तुम्हारा बेटा बड़े आनन्द के साथ रह रहा है।और एक माह के भीतर ही आ जायगा।इतना सुनते ही अलख का मुर्झाया हुआ मुख खिल गया और इधर जो कई माह से बिना किसी को उठाये उठ नही सकता था,झटके के साथ उठकर बैठ गया।परिवार के लोगो में खुशी की लहर दौड़ गयी।अलख ने झुक कर बाबा के चरणों को पकड़ कर आनन्द के आँसू गिराते हुये कहा,’’बाबा जी!आप मेरे भगवान हैं।आप ने मुझे नया जीवन प्रदान किया है।मैं आप की सेवा कर सकता हुँ? बाबा ने घृणा प्रदर्शित करते हुये कहा,’’तुम जैसे लोगों की सेवा मुझे नहीं चाहिये।,, अलख निरंजन की पत्नी आँखो से आँसू गिरती हुई बाबा के चरणों पर गिर पड़ी।उसे उठाते हुये बाबा ने कहा,’’तुम्हारा बेटा तो आ जायगा किंतु उसके आ जाने पर अलख निरंजन को अपने पापों का प्रायश्चित करना पड़ेगा।,, ‘’वह क्या है?महराज!,,अलख निरंजन की पत्नी ने पूछा। ‘’जितने लोगों के साथ इसके द्वारा पाप हुआ है उतने निर्धनों को दान देकर उन्हें खुश करना होगा।अन्यथा इससे भी बडी विपत्ति आ सकती है।,, अब अलख निरंजन के स्वर में अधिक स्पष्टता आ गयी थी।उसने कहा,’’बाबा जी!,मै यह सब करुँगा।,, ‘’अब तुम खड़े हो जाओ।,, अलख निरंजन ने प्रयास किया किंतु खड़ा न हो सका।फिर बाबा ने कहा,’’दों आदमी इसके हाथों को पकड़ कर खड़ा करों।,,दो व्यक्तियों ने ऐसा किया। अलख के पैर काँप रहे थे।कुछ ही पलों में अलख निरंजन ने कहा,’’बाबा जी!अब चक्कर आ रहा है,गिर जाऊँगा।,, ‘’दो आदमी पकड़े है गिरोगे कैसे?किंतु जब चक्कर आ रहा है तो बैठा दो भाई!,,उन दोनों ने धीरे से बैठा दिया। बाबा जी ने पुन: कहा,’’अब ठीक है कोई भी परेशानी नहीं होगी।अब प्रसन्न चित्त अपने लड़के के आने की प्रतीक्षा करो,मैं चलता हूँ।,, अलख की पत्नी ने बाबा के चरण पकड़ कर कहा,’’बाबा जी!’’अभी तक तो मैं अपनी विपत्ति में फँसी रही,आप की सेवा नही कर सकी।महराज!अभी आअप रुकें।,, ‘’नही!,अब मैं एक मिनट भी नही रुक सकूँगा और न कोई सेवा ही स्वीकार करुँगा।फिर कभी देखा जायगा।,,उठ कर बाबा जी वहाँ से चल दिये। सूर्य अस्त होने वाला था।मधुसूदन ने अपने घर के सामने पहुँच कर देखा कि पूरा मकान बैठ गया था।सामने किवाड़ बंद है,ताला लटक रहा है।यह सब दृश्य देखने के बाद मधुसूदन की आँखो से अश्रु प्रवाह चल पड़ा।उसके मन में अनेक विचार उठने लगे।यही वह घर है जहाँ पर कहीं से आने पर सुनीता फूली नही समाती थी।वह मुस्कुराती हुई दौड़ कर सेवा में लग जाती।‘पापा आ गये,कह कर श्यामू गोद में कूद पड़ता था।किलकारियाँ भरता हुआ शाकुल भी पीठ पर चढ़ कर अपनी भाषा में न जाने क्या-क्या कह कर अपना हर्ष व्यक्त करता।इसी बीच अभागी मंजुला भी आयी। आह!पापी मधुसूदन तूने अपनी सती सुनीता का अपमान करके जैसे घर से निकाल दिया।आज देख रहा हूँ,उसी घर में भूतों का डेरा है।किसी की भी एक झलक भी नहीं मिल रही है।हे मातृभूमि जननी!आज इस मधुसूदन का अंतिम प्रणाम स्वीकार करो। अब कदाचित इस जीवन में तुम्हारे दर्शन न हो सकें। माँ! विदा दो।,, इस प्रकार दरवाजे से धूल उठा कर मस्तक और आँखों मे लगाया और ह्रदय पर पत्थर रख कर आँसूसे मातृभूमि का आँचल भिगोता हुआ,चित्रकूट के लिए चल पड़ा। अठारह- सब के चले जाने केबाद श्यामू से कहा,’’बेटा श्यामू!सब को तुमने उसके घर भेज दिया,रह गया रोहित उसको अपार दुख है।वह हमेशा उदास दिखायी देता है।उसका मन यहाँ नहीं लग रहा है।वह प्राय: रोता रहता है।क्या वह अपने घर नही पहुँच सकता?,, श्यामू ने कहा,’’मम्मी! उसका अपने घर पहुँचना सब से आसान है।,, ‘’ सब से आसान है?यह कैसेबेटा!,, ‘’उसको अपने घर पहुँचा ही समझो।,, ‘’घर पहुँचा ही समझूँ,क्या यह मेरा शाकुल ही है?,, ‘’नहीं मम्मी!शाकुल तो नही है किंतु जब जानना ही चाहती हो तो बताता हूँ।यह उसी माँ का बेटा है,जिसने हम दोंनो भाइअयों को शरण देकर पालन पोषण किया।,, ‘’यह क्या कह रहे हो बेट! यदि ऐसी बात है तो क्यों उसे अंधकार में रक्खे हो? उसे पहले ही पहुँचाना चाहिये था।,, ‘’मम्मी!अभी उसको पंद्रह मिनट तक अंधकार रक्खूँगा।इस अवधि में उसे कुछ नही बताना है।,, सुनीता ने पूछा,’’क्यों बेटे!ऐसा करने से क्या लाभ है?,, ‘’इसके पड़ोस में एक नर-पिशाच है।उसने इसके द्वार पर कब्जा कर लिया है।उसको वहाँ से हटाने का प्रयास कर लेने के बाद ही इसे लेकर जाऊँगा।तब तक इसे ऐसे ही रहने दो, श्यामू ने रोहित को बुला कर कहा,’’रोहित अब तुम मेरे साथ रहोगे।तुम्हें किसी प्रकार की चिंता नही करनी चाहिये।देखो यह मम्मी है और मैं तुम्हारा भैया।फिर तुम्हें किस बात की चिंता?तुम्हारे लिये कुछ पुस्तकें ला देता हूँ।पढ़ो और आनन्द के साथ रहो।,, ‘’ठीक है,भैया!रहूँगा क्यों नही?रोहित की आँखे नम हो गयीं। फिर श्यामू ने कहा,’’क्यों हमेशा रोते रहते हो?इसका मतलब यह कि तुम मुझे पराये समझते हो।,, ‘’नही भैया!मम्मी की बहुत याद आती है।वह रोती----हो—गी—भै---या!,, श्यामू ने कहा,’’अच्छा,तुम यही मम्मी के पास रहो मैं तुम्हारे मम्मी का पता लगाने जा रहा हूँ,, रोहित ने आश्वस्त हों कर कहा,’’रहूँगा भैया!,, ‘’हाँ,रोना नही!मैं चार-छ: दिन में ही आ जाऊँगा।,, उसी दिन श्यामू ने प्रस्थान किया।उसने गुप्त स्थान पर पहुँच कर उसने सुधाधर के यहाँ डाका डालने की योजना बनायी।दो-तीन साथी अभी भी नही आ पाये थे।संध्या होते-होते वे लोग भी आ गये।सब के इकट्ठा हो जाने पर जंगी सरदार ने कहा,’’इस बार दस्यु-दल का सरगना मो०इलाही होगा।मैं आप लोगो के साथ वहीं तक रहूँगा,जहाँ तक उस घर को दिखाने की बात है।घर दिखा देने के बाद मैं ऐसे स्थान पर रहूँगा जहाँ पर मुझसे किसी से भेट न हो सके।,, इलाही ने कहा,’’भैया!मम्मी से तों मैं बहाना करके आया हूँ।बात यह है कि आप लोगों को मेरे निवास स्थान पर चलना है।सुधाधर नाम के एक व्यक्ति ने मेरे दरवाजे पर गुण्डई के बल पर दलान बना ली है।उसी के यहाँ डाका पड़ना है।सब कुछ लूटने के बाद वहाँ से उसकी दालान गिरा देने के लिये बाध्य कर देना है।इलाही!तुम इस कार्य में मुझसे अधिक दक्ष हो।अत: सारा काम तुम कर लोगे, मुझे पूरा विश्वास है।उसकी दालान ठीक मेरे सामने है।केवल चार-पाँच हाथ जमीन हमारे घर से निकलने के लिये छूटी है।मैं भी आप लोगों के साथ रहता किंतु किसी को मालूम न हो कि यह डकैती मेरे द्वारा डाली गयी है।इसलिये ऐसा कर रहा हूँ,यदि किसी को मालूम हो जायेगा तो मैं बदनाम हो जाऊँगा और हम सभी गिरफ्तार हो जायेंगे।,, इलाही ने सारा मामला समझ लिया और कहा,’’ठीक है,भैया!अब मैं सब कुछ कर लूँगा।सुधाधरवा साले को मार दिया जाय तो क्या हर्ज है?,, ‘’नही ऐसा न कहो, और न करो।यह कर्म मैंने इसलिये नहीं अपनाया है किसी इंसान की हत्या करुँ,बल्कि इसलिये की इंसान की शैतानी समाप्त कर के उसे मनुष्य की तरह रहने के लिये विवश कर दूँ।उसे डरवा धमका कर ही राह पर लाना है,समझे।,, इलाही-यदि वह हमारे साथ शैतानी करके हमें ही समाप्त कर देना चाहे तो----।,, ‘’तो हल्की सी चोट दे सकते हो किंतु हल्की सी चोट देने का अवसर ही न आने पाये तो अधिक अच्छा हो।,, योजना बन जाने के बाद जंगी सिंह ने धीरे से पूछा,’’मुक्तेश का क्या हाल है?उसे किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है?,, एक दस्यु ने कहा,’’उसे कोई कष्ट नही है।केवल एकान्त में रहने के कारण खिन्न रहता है।और प्राय:रोया करता है।,, दूसरे दिन रात लगभग बारह बजे सुधाधर का घर दिखा कर जंगी लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर एक घने बाग में जा कर बैठ गया और डाकुओ ने नाकेबन्दी कर के सुधाधर के मकाने को घेर लिया।कुछ ही क्षणों मे धावा बोल दिया और दो तीन हवाई फायर करने के बाद इलाही ने डपट कर कहा,’’इस मकान का मालिक कौन है?,, घर के सब लोग थर-थर काँप रहे थे,किसी के मुँह से आवाज नही निकल रही थी।किसी डाकू ने कहा,’’बोलते हो या एक ओर से भूनना शुरु करु।भयभीत सुधाधर ने हाथ जोड़ कर कहा,’’सरकार!मैं गरीब आदमी,मेरे यहाँ क्या धरा है?जो आप इतना कष्ट करके आयें है?,, ‘’आप गरीब है तो बताइये इस गाँव में सबसे धनी कौन है?उसी के यहाँ हम चलें। सुधाधर तो शायद आप ही हैं।,, ‘’हाँ,साहब सुधाधर मैं ही हूँ।लेकिन इस घर के पश्चिम वाला घर क्या कम धनी है?,, ‘’क्या कहा?पश्चिम वाला घर अधिक धनी है।,, ‘’हाँ सरकार!उस घर में कोई है भी नहीं केवल एक औरत ही है।दो लड़के थे वे बाहर कमाने गये हैं।वे पक्के गुण्डे भी हैं।,, ‘’अच्छा,तो एक बात बताइये यह जो दलान है,उन्हीं गुण्डों से सम्बन्ध रखती है।हैं तो वे पक्के गुण्डे क्यों कि दलान का दरवाजा आप के घर की ओर बनाये गये हैं।हम अभी इसमें आग लगाकर भस्म करतें है। फिर उसी का घर लूटेंगे आप का कोई भी सामान नहीं छुएँगे।,,आग लगाने की बात सुन कर सुधाधर की आत्मा काँप उठी क्योंकि इसी दलान की एक कोठरी में उसका अधिकांश सामान रक्खा हुआ था।फिर सँभलकर कहा,’’सरकार यह सब जमीन मेरी ही है।मेरे बाबा ने इसका घर यहाँ बनवा दिया था।लेकिन अब ये गुण्डई के बल पर पूरा का पूरा हड़पना चाहते हैं।,, ‘’एक बात बताइये सुधाधर जी! वे लोग कहीं दूसरी जगह से आकर आप के बाबा की जमीन में बसे हैं क्या? ‘’नहीं ऐसी बात नहीं है।जिसके यहाँ दोनो गुण्डे आये है वह व्यक्ति मेरा चचेरा भाई है।,, ‘’फिर उसकी जमीन कहाँ है?,, ‘’उसने अपनी सारी जमीन बेच दी सरकार!,, ‘’देखो सुधाधर!तुम झूठ बोल रहे हो।कोई भी व्यक्ति खेती करने योग्य ही जमीन बेचता है या खरीदता है।घर या घर के पास की जमीन कोई तभी बेचता है जब उसे कहीं अन्यत्र बसना होता है।अन्यथा जब कोई अन्य जमीन उसके पास नही होती और घर या घर के पास की जमीन बेचे बिना वह जीवित नही रह सकता।अन्य जमीन रहते हुये तो ऐसा नही सुना है कि किसी ने घर और घर की आबादी बेच दे अपने निकलने का रास्ता भी रोक दे।क्या यह दालान तम्हारी ही है?,, ‘’हाँ सरकार! यह दालान तो मेरी ही है।,, ‘’तुम अन्यायी हो,तुम्हें अपने धन का घमण्ड है।वास्तविकता तो यह है कि गुण्डई के बल पर तुमने ही उसके दरवाजे पर यह दलान बनाई है और झूठा आरोप उसके ऊपर मढ़ रहे हो।,, ‘’नही!सरकार!मैं बहुत ही गरीब हूँ।मेरे पास कौन सा बल है जो गुण्डई करुँगा।किसने बताया कि मैं धनवान हूँ।,, ‘’हाँ,यह मैं बता रहा हूँ सुनो-एक दिन हम चार लोग वर खोजने के बहाने इस गाँव में आये थे।इधर उधर में जो पक्का कुआँ है,वहीं हम लोग बैठ गये। इसी समय लगभग पैंतालीस वर्षीय एक युवक आ गया।उससे मैंने पूछा ,’’भाई साहब!यह किस बिरादरी की बस्ती है?,,उसने बताया कि यह ठाकुरों की बस्ती है।मैने कहा,’’हमें एक शादी करनी है।इस गाँव में किसी के यहाँ शादी लायक कोई लड़का है?,, उसके उसके पूछने पर कि किसी कोटि की शादी चाहिये,मैनें कहा’’शादी तो बहुत बहुत ऊँची चाहिये। यदि इस गाँव में बहुत बड़ा आदमी न हो तो मध्यम दर्ज की है बताइये ।जो सभ्य घराना हो।,, उसने तैश में आकर कहा,’’वाह साहब!इस गाँव में बड़ा आदमी क्यों नही है?सुधाधर जी को आप क्या समझते है?,,इसलिये सुधाधर जी जान बचने वाली नहीं है।अब आप चलकर अपना माल-टाल दिखा दीजिए।,, ‘’सब झूठ है,साहब!हमारे पास कुछ भी नहीं है।,, ‘’यह बताओ,सुधाधर!उठ रहे हो या......।,, ‘’ क्या कहूँ?सरकार!मेरे पास कुछ भी नहीं है।,, ‘’उठ हराम जादे! उल्लू का पट्ठा नालायक कहीं का!,, फिर भी सुधाधर ने उठने में हीला-हवाली की।इस पर इलाही ने खीच कर उसके उसके गालों पर दो-चार थप्पड़ मार कर घसीटते हुये बोला,’’अब चलेगा या अब भी----।,, विवश सुधाधर ने उठना स्वीकार किया और एक-एक करके कुछ समानो को दिखाया। कुछ समान दिखाने के बाद जब रुकता तो पुन:तमाचा।इस पर सारी सम्पत्ति डाकुओं के कब्जे मे हो गयी।सुधाधर के मकान और दलान को लूटने के बाद इलाही ने कहा,’’सुधाधर अब पड़ोसी के घर में चलो जिसे तुमने बहुत बड़ा बताया है।,, ‘’मैं वहाँ जाकर क्या करुँगा,सरकार!,, ‘’तुम वहाँ चलो और जो वस्तु जहाँ हो दिखाओ।,, सुधाधर की सीटी-पटकी बंद हो गयी; क्योंकि उस घर में क्या था कि वह दिखाता।इसलिये उसने कहा,’’नही,सरकार!मुझे दूसरे के घर में न ले चलिये।बल्कि जैसे घर में कुछ भी न रहने दिया मुझे भी मार डालिये।,, ‘’तुम्हें मार तो सकता हूँ,किंन्तु मारुँगा नहीं।तुम पग-पग पर झूठ बोले हो इसलिये यह घर हमारी निगाह में हमेशा रहेगा।अब चल रहा हूँ तुम्हारे पड़ोसी वाले घर में। यदि वहाँ धन मिला तब तो ठीक है और यदि हमारा परिश्रम व्यर्थ गया तो वहाँ से लौट कर यह घर उड़ा दूँगा।,, ‘’नही साहब! मैं नहीं कहता कि आप मकान को लूटें।,, ‘’अब तो हम बिना उस घर को लूटे जा नहीं सकते।,, इलाही ने एक डकैत को दूर ले जाकर समझाया जा कर पहले माता जी के पैर छू कर यह कहना कि माँ एक गहना जो तुम्हारे पास हो दे दो। कुछ देर खट-खुट करने के बाद वही एक गहना लेकर चले आओ(फिर सब को सुनाकर)’’उस घर में एक औरत ही तो है।जैसा कि सुधाधर कह रहा है। दो आदमी बाहर खड़े हो जाओ और दो आदमी घर में घुस कर जो कुछ हो निकाल लो।,, चार डाकू पड़ोस के मकान में गये और कुछ देर के बाद आ गये।इलाही ने पूछा,’’क्या भाई! कितना माल ले आये।,, वहाँ गये डाकुओ ने कहा,’माल क्या सरदार जी! वहाँ जाना ही बेकार था।यही एक पायल मिली है।,, ‘’ठीक,अब समझ में आया।यह चण्डाल उसे यहाँ से खदेड़ना चाहता है।सुधाधर ! सुन लो,अब तुम्हारा मकान हर्ष वर्ष लूटा जायगा।सुरक्षा की जितनी व्यवस्था कर सकते हो किये रहना।,, ‘’नहीं;सरकार! ऐसा न कीजिए।जो भी आदेश हो हम करने के लिये तैयार हैं।,, ‘’यदि तैयार हो तो हम पंद्रह दिन के बाद किसी न किसी ढंग से देखेंगे। यह दालान यहाँ से हट जानी चाहिये।पंद्रह दिनों से एक दिन भी आगे खिसका कि अबकी बार पूरे परिवार को साफ कर देंगे,समझ गये।,, समझ गया सरकार!और आप की बात भी मान रहा हूँ।लेकिन मेरे पास अब पैसें तो है नहीं,इसे गिराने और दूसरी जगह बनाने में काफी पैंसे लगेंगे,वह भी पंद्रह दिन के भीतर।यह कैसे सम्भव होगा सरकार!,, ‘’हाँ,अब तुम सच बोल रहे हो।इसलिये ये पाँच हजार ले लो।अब परेशानी नही होगी।,, सुधाधर चुप रहा।फिर इलाही ने कहा,’’अब क्यों चुप हो।,, सुधाधर ने धीरे से कहा,’’गिरवा दूँगा।,, पंद्रह दिन के अन्दर्।समझ गये?,, कह कर अपने साथियों के साथ इलाही चल दिया। उन्नीस- अपने गुप्त स्थान पर पहुँच कर जंगी सिंह ने सबसे पहला काम जो किया,वह यह कि मुक्तेश को दो डाकुओ के साथ उसके घर भेजने की योजना बनायी।फिर लूटे हुये धन को सब साथियों में वितरित कर दिया।किंतु अपना कोई हिस्सा नहीं लगाया। ऐसा न करने के लिये साथियों के कहने पर उसने कहा,’’मेरे प्यारे भाइयों! इस कर्म को करके धन कमाना मेरा लक्ष्य नही था।अब मेरे लक्ष्य की पूर्ति हो गयी है इसलिये आज से मैं दस्यु कर्म से सन्यास लेता हूँ।आप लोग इसके लिये मुझे क्षमा करेंगे।,, जंगी सिंह के इस निर्णय से सब साथी अवाक रह गये।कुछ समयोपरान्त इलाही ने विनीत भाव से कहा,’’भैया!आप ने तो सन्यास ले लिया लेकिन हम लोग कहाँ जायँगे? जिसकी कृपा के कारण हम लोगों ने कभी किसी कष्ट का अनुभव नही किया उसके न रहने पर हम लोग क्या कर सकेंगे?,, ‘’इलाही भाई!मैं कहना तो नही चाहता था किंतु कुछ साहस जुटा कर कह रहा हूँ।पहले तो मैं चाहूँगा कि मेरे साथ भी आप लोग भी इस घृणित कर्म से मुख मोड़ लें,यदि ऐसा न हो सके तो मनुष्यता को न छेड़ते हुये नर-पिशाचों को दण्ड देने के लिये इस कर्म में लगे रहें।,, इन शब्दों को सुनकर कुछ क्षण के लिये मौन हो गये और इसी उघेड़-बुन में पड़े रहे कि अब वे अब कौन सा मार्ग अपनायें?,, दस-बारह मिनट मौन रहने के बाद इलाही ने कहा,’’भैया!आप की सन्यास लेने वाली बात अधिक उचित लगती है।लेकिन साथियों से सलाह मसविरा करके आप से कल बताऊँगा।,, ‘’धन्य,धन्य इलाही!मेरे हर दुख-सुख में साथ देने वाले आप लोगों से यही आशा है कि आप लोग भविष्य में भी बातों पर गम्भीरता से विचार करते रहेंगे।अब आप लोग आज विश्राम करें।,, दूसरे दिन इलाही ने अपना मत प्रकट करते हुये कहा,’’भैया!हम लोगों ने तय कर लिया कि हम लोग आप के दिखाये मार्ग का ही अनुशरण करेंगे।अब आज्ञा दीजिए हमें जो कुछ करना है।,, जंगी ने कहा,’’मेरे प्रिय मित्रो!सब से पहले मुक्तेश की आँखों में पट्टी बाँध कर उसके सिर से दो कि.मी.दूर ही छोड़ आइये।तब तक हम लोग यही रहकर पहुँचाने वाले दोनों की प्रतीक्षा करे।फिर आगे की योजना के विषय में सोचेंगे।,, दो व्यक्तियों ने मुक्तेश के पास जाकर उसकी आँखों में पट्टी बाँधनी चाही।आँखो में पट्टी बाँधने की तैयारी को देख कर वह चीख पड़ा और कहा,,’’आह!भैया!अब आप लोग मुझे अधिक दुख न दें।मैं आप के पैरों पड़ता हूँ।मुझे दें।मुझे मारकर आप लोगों को क्या मिलेगा?यदि मारना ही है तो एक बार परिवार वालों से मिल लेने दीजिए।दुहाई सरकार की,मैं मरने के लिये तैयार हूँ किंतु एक बार माता-पिता के दर्शन कर लेने दीजिए यही मेरी अंतिम इच्छा है।स—र—क--र—।और मूर्छित होकर गिर पड़ा।जंगी को इसकी सूचना दी गयी।वह दौड़ कर आया और मुक्तेश के मुँह पर पानी का छींटा दे कर उसे चैतन्य करने का प्रयास किया।कुछ समय के बाद मुक्तेश की चेतना जगी।होश आते ही फिर चोखा बाबूजी! बाँध कर मत फेकिए,फेकना ही है तो बिना बाँधे ही फेक दीजिए।,, जंगी सिंह ने कहा,’’भाई जी! तुम्हें मारने के लिये आँखों में पट्टी नही बाँधी जा रही है।बल्कि तुम्हें तुम्हारे घर भेजने के लिये ऐसा किया जा रहा है।,, मुक्तेश बलि के बकरे के भाँति जंगी की ओर देख कर कहा,’’बाबूजी!मैं घर जाना नही चाहता ।मुझे यही पड़ा रहना दीजिए।,, ‘’अब हम लोग अपने-अपने घर जा रहे हैं इसलिये सोचा कि तुम्हें भी तुम्हारे घर पहुँचा दिया जाय किंतु जब तुम नहीं जाना चाहते हो तो ठीक है,यहीं रहो।,, ‘’सरकार!जब मुझे घर ही पहुँचना है तो मेरी आँखों में पट्टी क्यों बाँधी जा रही है। यदि आप मेरे ऊपर सचमुच दया करना चाहते हो तो मेरी आँखे बंद न करे।,, ‘’मूर्ख!यदि हम तुम्हें मारना ही चाहेंगे तो बिना पट्टी बाँधे नही मार सकते? बिना पट्टी बाँधे मारेंगे तो तुम कौन सी करामात दिखाओगे?विश्वास करों अब तुम्हें यहाँ नही रहना है।हम लोगों की तरह तुमकों भी अपने परिवार में जाना है।आँखों में पट्टी इसलिये बाँध रहा हूँ कि जिस रास्ते से जाना है वह बहुत ही भयानक है।उस भयंकरता को देखकर तुम्हारी ह्रदय गति रुक सकती है।मेरे भाई मुक्तेश।अब व्यर्थ की शंका मत करो और न कोई तर्क वितर्क ही।,, विवश मुक्तेश की सजल आँखों में पट्टी बाँध दी गयी।दो आदमी उसको लेकर चल दिये।जंगल पार कर लेने के बाद वे दोनों डकैत ऐसे मार्ग पर चलने लगे जिससे किसी भी व्यक्ति से भेंट हो।लगभग 12 कि.मी. की दूरी तय करने के बाद मुक्तेश की आँखों से पट्टी खोल दी गयी।पट्टी खुलते ही मुक्तेश ने चारों ओर देखा और कहा,’’सरकार!घर पहुँच गये क्या?अभी तो मेरा गाँव नहीं दिखाई दे रहा है।,, ‘’अभी पहुँचे नहीं।पट्टी तो इसलिये खोल दी गयी है कि पट्टी बाँधने पर तुम्हें मृत्यु का भय था।अब निश्चिन्त चलो।अभी लगभग दो घण्टे और चलना होगा। दो घण्टे चलने के बाद वे लोग उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ से मुक्तेश का गाँव रदना डेढ़ कि.मी.ही रह गया था।एक डकैत ने कहा,’’अब यहीं रुककर सुस्ता लिया जाय फिर आगे की बात सोची जायगी।,, सब लोग एक वृक्ष की छाया में बैठ गये।कुछ समय तक विश्राम कर लेने के बाद एक डकैत ने कहा,’’मुक्तेश यदि तुम्हें यही छोड़ दिया जाय तो तुम अपने घर पहुँच सकते हो?,, मुक्तेश ने चारों ओर निगाह दौड़ायी और कहा,’’क्या सचमुच आप लोग मुझे मेरे घर पहुँचाने आयें है?आप लोग तो बदमाश नहीं देवता हैं।मैं तो अब तक अपनी मृत्यु की घड़ी जोह रहा था।,, मुक्तेश अब बहुत प्रसन्न दिखायी पड़ने लगा था।उसकी सारी शंका और उद्विग्नता समाप्त हो गयी थी। फिर उसने कहा,’’हाँ,अब मैं जा सकता हूँ।वह जो सामने गाँव दिखायी दे रहा है ।उसी के बाद शायद मेरा गाँव है परंतु आप लोगों को मेरे घर चलना है।बिना कुछ खायें पिये आप लोगों का वापस जाना उचित नहीं है।,, ‘’नहीं अब इसके आगे हमें नही जाना है।तुम सही बता रहे हो,अब तुम अपने घर पहुँच जाओगे।,,इस समय मुक्तेश की आँखों से कृतज्ञता के आँसू बह रहे थे। उसने बार-बार उन लोगों को अपने-अपने घर चलने के लिये कहा,किंतु वे लोग मुड पड़े।अपने गुप्त स्थान की ओर।मुक्तेश स्नेहिल नेत्रों से उनकी ओर तब तक देखता रहा जब तक कि वे लोग उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गये। दोनों डकैत मुक्तेश को पहुँचा कर अपने साथियों के पास आ गये।उनके आ जाने पर सब को अपने-अपने घर जाने का आदेश देकर श्यामू वहाँ से विदा होना चाहा।किंतु शेष साथियों ने पहले मंदिर पर जाकर माँ का आशीर्वाद लेकर ही घर जाने की इच्छा प्रकट की।श्यामू ने ठीक है।,कह कर उस स्थान से विदा लिया।सब साथी प्रसन्न चित्त माँ सुनीता के दर्शन हेतु मंदिर की ओर चल पड़े।दो-तीन घण्टे चलने के बाद सब लोग मंदिर पर पहुँच गये।सब लोगों ने श्रद्दा के साथ माँ सुनीता का चरण स्पर्श किया।इन लोगों को आया देख माँ सुनीता ने प्रसन्नता पूर्वक आदर किया। सुनीता ने कहा,’’बेटे!तुम्हारी यह मित्रता तो बहुत अच्छी लगती है लेकिन जिस कार्य के लिये यह साथ हुआ है,वह बहुत ही घृणित है।यही साथ यदि बहुजन हिताय होता तो कितना अच्छा होता।,, इलाही ने कहा,’’माँ!हम लोगों ने किसी निर्दोष और निर्धन को कभी भी नही सताया है।हमने दुष्टों राह पर लाने के लिये ही यह कर्म किया है।,, ‘’बेटे!कीचड़ से कीचड़ नही धुलता।इसलिये कीचड़ को धो लेने के लिए शुद्ध जल की आवश्यकता होती है।,, इस बात को सुनकर इलाही ने कुछ बोल न सका किंतु श्यामू से बिना बोले रह नही गया।वह बोला,’’मम्मी!बढ़ो प्रवत्ते सीता राम,की शिक्षा को केवल शुरु सारिका की ग्रहण कर सकते हैं,न कि बाज और उल्लू।जिनसे अपराध हो जाता है,उन पर समझाने-बुझाने का प्रभाव पड़ता है किंतु जो जान-बूझ कर अपराध करते हैं,उन पर किसी शिक्षा का असर नहीं होता।ऐसे ही लोगों को –जिन पर शिक्षा या उपदेश का कोई असर नही होता-राह पर लाने के लिये ही दण्ड-नीति का सहारा लेना पड़ता है।,, ‘’बेटा!यह तो ठीक है,किंतु जिस चारपाई में खटमल हो उस पर सोने वाला व्यक्ति रात भर पकड़-पकड़ कर मारता रहे तो क्या दूसरे दिन उस चारपाई पर वह निश्चिन्त सो लेगा?नहीं कदापि नही। वह प्रतिदिन प्रयास करके खटमलों को मारता रहे पर समूल नाश नहीं हो सकता।इसलिये कोई ऐसा प्रयास करना चाहिये कि भविष्य में एक-एक को स प्रयास न मारना पड़े।अर्थात ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये कि चारपाई में खटमल पैदा ही न होनें पायें।इसी प्रकार समाज को ऐसी व्यवस्था हो कि दुवृत्ति पनपने ही न पाये।,, श्यामू ने कहा,’’परस्पर विरोधी तत्वों का होना शाश्वत-सत्य है मम्मी!केवल भावाभाव का चक्र चला करता है।इसलिये भाव या अभाव में कोई एक दिलचस्पी हो,वह कैसे सम्भव हो सकता है?,, ‘’यह तो ठीक कह रहे हो किंतु भाव या अभाव के लिये कर्म करना तो सम्भव ही है।इसलिये अशान्त समाज धूमिल दर्पण को स्वच्छता प्रदान करने का प्रयत्न तो किया ही जा सकता है।मैं चाहती हूँ कि तुम लोग दस्यु-कर्म को त्याग कर दुष्ट सुधार का कोई उपाय ढूढ़ो।,, ‘’मम्मी!हम लोग दस्यु कर्म से सन्यास लेने के बाद ही पुन:तुम्हारे चरणों का प्रसाद लेने के लिये आये है।,,इतना सुनते ही माँ सुनीता के नेत्र आनन्द के आँसू से सजल हो उठे।उसने अवरुद्ध कण्ठ से कहा,’’बेटे!मुझे विश्वास है कि तुम लोग सत्पथ का सहारा लोगे और संसार को नयी दिशा प्रदान करोगे।,, माँ सुनीता ने सब के लिये भोजन की व्यवस्था की।पूर्ण तृप्त होकर सब ने दो तीन घण्टे आराम किया।फिर सब साथियों की ओर से इलाही ने श्यामू से कहा,’’भैया!अब तक के प्राप्त धन में आपने सब का हिस्सा लगाया किंतु स्वयं कुछ नहीं लिया,इसका हमें दुख है।,, श्यामू ने कहा,’’देखो भाई इलाही!मैं पहले ही बता चुका हूँ कि मैं धन के लिये डाकू नही बना था।मेरा डाकू बनने का एक मात्र लक्ष्य था आततक्षियों को दण्ड देना।वह पूरा हुआ उसे पूरा किया आप लोगों ने।मेरे लक्ष्य को पूरा करने में जो कुछ मिला है,उसके हकदार आप ही लोग हैं।मैं दुहरा लाभ नही लेना चाहता।अब आप लोग इसमें हठ न करें।इस विषय में आप लोगों का हठ व्यर्थ होगा।,, इलाही ने आपस में सलाह की।हम लोग विदा होते समय माँ के चरणों पर पाँच-पाँच सौ रुपये रखकर आशीर्वाद लेने के बाद ही घर चलेंगे।,, दो-तीन दिन मंदिर पर रहने के बाद श्यामू के साथियों ने माँ सुनीता और श्यामू से घर जाने की अनुमति माँगी।जाने की अन अनुमति मिल जाने पर सब लोगों ने माँ के चरणों पर दक्षिणा रख कर आशीर्वाद लेना चाहा।किंतु रुपयों को देखकर माँ सुनीता ने कहा,’’बेटे ये रुपयों तो मैं नहीं ले सकूँगी।,, इलाही ने कहा,’’क्यों माँ!,, ‘’ये रुपये पाप की कमाई से आये हैं।,, ‘’इलाही ने तुरंत उत्तर दिया,’’माँ!सुना है नबादन का नाबदान का पानी गंगा में पहुँच कर पवित्र हो जाता है।इसलिये पाप का रुपया तपस्विनी माँ के चरणों पर पहुँच कर पवित्र हो गया।माँ! हम आप के बेटे है,इसलिये हमारी रूह को न दुखायें।भैया ने अतिथि-गृह –निर्माण की बातें की थी।ये रूपये भी उसी में लग जायेंगे।,, अब वे लोग वहाँ से विदा हुये। श्यामू ने देखा कि रोहित का मन नहीं लग रहा है।रमेश रुवाँसा सा दिखायी देता है।उसकी मुख़ाकृति को देखकर श्यामू और माँ सुनीता को बड़ा कष्ट होता था। एक दिन सुनीता ने देखा कि रोहित का मुँह लाल हो गया है।खाने के लिये सुनीता ने कहा किंतु रोहित ने भरोई आवाज में कहा,’’माँ खाने की इच्छा नही हैं।,, ‘’क्यों?बेटा!,,क्या कोई तकलीफ है? ‘’नहीं माँ!खाने की इच्छा नही है।,, सुनीता ने उसके पास जाकर देखा,उसका शरीर बहुत गर्म था।खास कुछ तेज हवा चल रही थी।घबड़ा कर उसने श्यामू से कहा,’’बेटा!श्यामू!रोहित को बड़ा तेज बुखार है।कोई व्यवस्था करों नहीं तो हाथ नहीं आयेगा।,,श्यामू ने उसके पास जाकर देखा कि रोहित सुस्त पड़ा रो रहा है।श्यामू यह जानता हुआ कि रोहित को ज्वर है।अनभिज्ञसा बोला,’’रोहित क्यों अलसाये हुये पड़े रहते हो।हँसी खुशी से रहो।यहाँ तुम्हें किस बात की चिंता है?भाई और माँ के साथ रहते हुये भी तुम्हें कष्ट हो,मैं इसे अच्छा नहीं समझता।आज तुम हमेशा से अधिक उदास हो,इसका क्या कारण है?,, ‘’भैया!अब मेरी मम्मी से भेंट नही होगी,केवल यही कष्ट है।इसके अतिरिक्त मुझे कोई कष्ट नही है।,, ‘’अच्छा थोड़ी देर में मैं आता हूँ।,, एक घण्टा के बाद श्यामू दवा लेकर आ गया।उसने देखा कि रोहित सो रहा है और उसकी श्वाँस तेज चल रही है।श्यामू ने उसको जगा कर दवा खिलायी और कहा,’’रोहित!कल तुम्हें भी अपने घर चलना है।चल सकते हो?,,इतना सुनते ही श्यामू का मुर्झाया चेहरा खिल गया और उसने आश्चर्य से पूछा,’’भैया!क्या सचमुच कल चलना है?क्या आप ने मेरी मम्मी का पता लगा लिया है?,, ‘’हाँ,सब पता लग गया है और कल प्रात: काल ही हम यहाँ से चल देंगे।,,अब रोहित बहुत प्रसन्न था और उसके शरीर में ज्वर का चिन्ह मात्र ही शेष रह गया । दूसरे दिन सूर्योदय से पहले श्यामू ने रोहित को तैयार होने के लिये कहा।रोहित प्रसन्नता पूर्वक माँ सुनीता के चरण छूने गया।सुनीता ने सजल नेत्रो से रोहित को देखा और उसे गोद में लेकर आशीर्वाद दे कर कहा,’’बेटा!अब यहाँ नही रहेंगे?,, ‘’माँ!मैं मम्मी को देख लेने के बाद भैया के साथ ही चला आऊँगा और तुम्हें भी भैया के साथ वहीं लिवा चलूँगा।,, माँ सुनीता का गला भर आया।कुछ क्षणों के बाद कहा,’’बेटा!तुम सुखी रहो,कभी-कभी अपना मुँह दिखा दिया करना।मैं वहाँ चलकर क्या करुँगी।जाओ बेटे!मेरी बहन के ह्रदय को शीतल करों।जाओ बेटा युग-युग तक जीवित रहो।,, श्यामू और रोहित ने माँ का आशीर्वाद प्राप्त कर के वहाँ से प्रस्थान किया।रास्ते में श्यामू ने रोहित से पूछा ,’’भाई रोहित!तुम उस होटल वाले राक्षस के हाथ कैसे पड़ गये थे? वह कथा आदि से अन्त तक सुनाओ।रोहित ने बताया,’’मैं विद्यालय से घर जा रहा था एक आदमी हाथ में बैग लटकाये मेरे सामने आ गया और मुझसे पूछा,’’बेटा!कहाँ जाओगे?,, मैने कहा,’’श्रीमान जी!मैं अहलादपुर जाऊँगा।,, फिर उसने कहा,अहलादपुर में किसके लड़के हो?,, मैंनें पुन: उत्तर दिया,’’पिता का नाम तो नहीं जानता।मेरे बब्बा का नाम पूनम सिंह है।,, उसने अपनत्व दिखाते हुये कहा,’’अरे-अरे!वहीं तो मुझे भी चलना है।मैं तुम्हारा मौसा हूँ।इतना कहकर अपना बैग मेरे हाथों मे थमा कर कहा,’’इसे लिये रहो मैं पेशाब कर लूँ।,, मैंने बैग थाम लिया और विश्वास कर लिया कि ये वास्तव में मेरे मौसा ही हैं।पेशाब करके उठने के बाद मेरे हाथों से बैग लेकर कहा,’’एक चीज तो भूल ही गया।तुम्हारे लिये मिठाई नहीं ले सका।चलो बाजार से मिठाई ले लूँ,तो चलूँ।,,मैने कहा,’’मौसा जी!आप बिना मिठाई के ही चलें।बाजार चलने पर देर हो जायगी।मम्मी रो-रो कर मुझे खोजेगी।,, ‘’नही बेटा!ऐसा तो हो नही सकता।आज पहले-पहल तुम्हारे घर चल रहा हूँ।बिना मिठाई के मैं नही चल सकता।दस ही मिनट तो लगेंगे।इतनी ही देर में तुम्हारी मम्मी नहीं घबड़ा जायँगी।अब मैं मौन हो गया।वह मेरा हाथ पकड़े चल पड़ा।जब बहुत देर तक चलता ही रहा तो मुझे भय सा लगने लगा और मैने कहा.’’आप मुझे कहाँ लिये जा रहे हैं?अब मैं आगे नही जाऊँगा।मुझे छोड़ दीजिए।,, इस पर उसने कहा,’’चुपचाप चलते रहो,कुछ देर होने पर बस से चलेंगे घबड़ाओ नहीं।बस में बैठने के लोभ से मैं चुप हो गया।कुछ दूर चलने के बाद सड़क दिखायी पड़ी। सड़क पर पहुँच कर उसने मुझसे कहा,’’बेटा!बाजार तो नही दिखायी दे रही है,अब यही रूको,बस आ रही होगी,उसी पर बैठ कर चले चलें।मैं खिसक-खिसक कर रोने लगा।इसी समय एक बस आती दिखायी दी।उसने कहा कि इसी बस पर बैठ कर चलें बस आ गयी।उसे रोक कर मेरा हाथ पकड़े हुये तुम चढ़ गया।बस तेजी से चल पड़ी। कुछ दूर चलने के बाद मैंनें कहा,’’मौसा जी!कहाँ चल रहे हैं? उसने कहा,’’तुम्हारी मौसी के यहाँ।,,मैं चिल्लान लगा।पास में बैठे लोगों ने पूछा, ‘’बच्चा क्यों रो रहा है?,, उसने कहा,’’कुछ नही यह मेरे साढू भाई का बेटा है।इसकी मौसी ने कहा था कि उसे लेते आइयेगा।,इसलिये लिवा जा रहा हूँ।पहले तो बहुत खुश था लेकिन अब मालूम पड़ता है,इसे माँ की याद आ रही है।,, मैंने बार-बार कहा,’’मैं इन्हें नही जानता,ये मुझे पकड़ कर ले जा रहे हैं परंतु एक बार मुझे मौसा कहते हुये लोगों ने सुन लिया था इसलिये मेरी बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।मैं रास्ते भर रोता चिल्लाता रहा।बस होटल के सामने रोकी गयी और मुझे उस दानव कूड़ामल के हाथों में सौंप दिया।यह नही जानता कि मैं कितने में बिका?,, श्यामू ने आह भर कर कहा,’’इन दानवों से देश को खाली करना बहुत ही कठिन है।क्या बात सकते हो वह राक्षस कौन था?जिसने तुम्हें बेचा था।,, ‘’पूरा-पूरा तो नही बता सकता,लेकिन उसके दहिने गाल पर किसी घाव का दाग था।इतना ख्याल आता है।,,श्यामू ने मन में सोचा बिना पीपल कौन वृक्ष हरहराये।यह दुष्कर्म अलख के सिवा और किसी के द्वारा नही हुआ है।,,आपस में बाते करते वे दोनों अहलादपुर के निकट पहुँच गये।सहसा रोहित के मुँह से निकल पड़ा।‘’भैया इसी गाँव की तरह मेरा भी गाँव था।वह जो आम का पेड़ दिखायी पड़ रहा है।ऐसा ही पेड़ मेरे गाँव में भी था।उस पेड़ का नाम ‘मधुबनवा, था|शायद वह यही पेड़ है।,,श्यामू ने कहा,’’तब तो अपना घर भी पहचानते होगे।बताओ इनमें से तुम्हारा मकान कौन सा है?,, ‘’भैया!अपना घर तो दिखाई नही दे रहा है।,, श्यामू ने मुस्कुराते हुये कहा,’’ध्यान से देखो,जब पेड़ पहचान रहे हो तो घर भी इसी गाँव में कही होगा। ‘’एक मकान तो मेरे मकान जैसा दिखायी दे रहा है किंतु मेरे मकान के सामने कोई घर नही था।इस मकान के सामने तो दूसरा घर है।,, सुधाधर की दलान अब भी सीना ताने खड़ी थी इसलिये रोहित को अपना घर पहचानने में कठिनाई हो रही थी। श्यामू ने कहा,’’अब तुम अपना घर नही पहचान पाओगे,मैं ही दिखाता हूँ।,, ‘’क्या मेरा गाँव सचमुच यही है भैया?,, ‘’चलो भाई!पता लगाता हूँ।हो सकता है यही तुम्हारा गाँव हो।,, अपने घर के द्वार पर पहुँच कर श्यामू ने पुकारा,’’माँ!ओ मम्मी!,, भीतर से तारिका बोली,’’कौन बेटा श्यामू ?बेटा! आ गये?,, माँ और माँ के मुख से श्यामू का नाम सुनकर रोहित के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।उसके मुँह से निकल पड़ा।,’’भैया पहले बताओ मैं सो रहा हूँ या जाग रहा हूँ।मैं होटल में ही रहकर स्वप्न देख रहा हूँ।अथवा मंदिर पर या सचमुच अपने घर पहुँच कर जागता हुआ यह सब देख रहा हूँ।भैया!मम्मी का सबसे बड़ा और छोटा लड़का मैं ही था।आप आयु में मुझसे काफी बड़े हैं इसलिये आप मम्मी के लड़के हो नही सकते।आप की मम्मी मन्दिर पर है,कैसे हमारे यहाँ पहुँचने से पहले पहुँच गयी।भैया आप जादूगर हैं तभी तो हम लोगों को वहाँ से छुड़ा लाये जहाँ से हम लोगों का छूटना असम्भव था।,,रोहित की बातें समाप्त नही हो पायी थीं तभी तारिका भौचक्की से बोल उठी,’’बेटा!यह ....?तारिका के मुँह की ओर देखकर रोहित सिहर उठा।उसकी आँखे छलछला आयी तारिका की ओर दो परग चलकर रोहित गिर पड़ा।‘’मम्मी......।,, तारिका रोहित को गोद में लेकर उसके सिर को सलाती और रोती रही।कुछ ही क्षणों के बाद रोहित की आँखे खुली।और तारिका के गले से लिपटकर रोने लगा।बहुत समय तक रो लेने के बाद तारिका ने ही कहा,’’बेटा....अब..क्यों...रोते..हो?,, उठकर तारिका खाने-पीने की व्यवस्था में लग गयी। दो दिनों के बाद तारिका ने कहा,’’बेटे!श्यामू!रोहित तो मिल गया किंतु शाकुल का भी तो पता होना चाहिये निश्चिन्त न बैठो बेटा!उसे भी खोजने का उपाय करो।कहाँ होगा?,,कहकर रो पड़ी श्यामू ने कहा,’’माँ मैं भी सोच रहा हूँ उसे भी खोजूँ।किंतु कोई भी उपाय नहीं सूझ रहा है।पहले मैं अरविन्दाश्रम जाना चाहता हूँ फिर लौट कर शाकुल का पता लगाऊँगा।अरविंद का नाम सुनते ही तारिका चौक पड़ी।उसने पूछा,’’बेटा!यह कैसा आश्रम है?इस आश्रम की स्थापना करने वाला कौन है?,, ‘’माँ!एक महात्मा है,जिनका नाम अरविन्दाचार्य है।उन्हीं ने ही इस आश्रम की स्थापना की है।ये ही महात्मा मेरे जीवन के रक्षक हैं।जिस समय मैं होटल में दासता का जीवन जी रहा था और अनेक यात्राएँ भोग रहा था।इन्हों ने ही मेरा त्राण किया था।,, तारिका ने मन ही मन सोचा,’’हो सकता है,मेरे पतिदेव ही मेरे घर से चली जाने के बाद सन्यासी हो गये हों।क्या ही अच्छा होता कि एक बार मेरे देवता के दर्शन हो जाते।,, फिर उसने अपने कौतूहल को दवाते हुये कहा,’’बेटा!महात्मा के पास जाने पर हो सकता है शाकुल का भी पता लग जाय।वे निश्चित ही सिद्ध महात्मा होंगे।इसलिये मेरी ओर से एक बात पूछ लेंना बेटा।,, ‘’वह क्या?माँ!बताओ अवश्य पूछूँगा।,, ‘’यही के मेरी माँ आप के दर्शन करना चाहती है।आप कब आने की अनुमति दे रहे हैं?,, ‘’ठीक है, माँ!अवश्य पूछूँगा।और हो सकेगा तो उनसे यहाँ आने की प्रार्थना भी करुँगा।,, ‘’बेटा!वे महात्मा हैं,उनको यहाँ आने में कष्ट होगा,इसलिये यहाँ आने के लिये बाध्य मत करना जो मैनें कहा,’’पूछ लेने के बाद मुझे बताना।यदि सम्भव हुआ तो हम सब के सब वहाँ चलकर दर्शन कर लेंगे।,, ‘’ठीक है,मैं ऐसा ही करुँगा।,, • * * अरविन्दाश्रम पहुँच कर श्यामू ने देखा कि एक चबूतरे पर बैठ कर महात्मा अरविन्दाचार्य वहाँ बैठे हुये लोगों को उपदेश दे रहे है।भीड़ के पीछे वह भी बैठ गया।प्रवचन समाप्त होने पर धीरे-धीरे भीड़ छँटने लगी।अंत में दो चार व्यक्ति ही वहाँ रह गये।अवसर देख कर श्यामू ने महात्मा के चरणों को स्पर्श किया।महात्मा जी ने कुछ क्षण श्यामू की ओर देखकर कहा,’’भक्त!मेरा ख्याल है इस आश्रम पर तुम आज पहली बार आये हो।इसलिये अपना परिचय दो,, श्यामू ने नम्रता पूर्वक कहा,’’गुरुदेव!मेरा परिचय इतना ही समझे कि आप ने ही मुझे यहाँ तक आने का अवसर प्रदान किया है।यदि आप ने मेरे ऊपर कृपा न की होती तो मैं उस राक्षस के होटल से जीवन पर्यंत बाहर न हो पाता।,, इतना सुनते ही महात्मा ने श्यामू को गले से लगा लिया और कहा,’’बेटा!क्रोध में होने के कारण मुझे ध्यान ही न रहा कि तुम्हें मुक्त तो कर दिया किंतु एक अबोध बच्चे को लेकर जाओगे कहाँ? होटल से बाहर आने के बाद बिना तुम्हारी चिंता किये मैं बहुत दूर निकल गया।तब मुझे तुम्हरा ध्यान आया अब मुझे अपनी भूल का अनुभव आया।मैंने सोचा केवल होटल से मुक्त कर देने से ही बच्चों का उद्धार नही हुआ।मुझे उनके जीवन जीने की व्यवस्था कर देनी चाहिये थी।अब उनके विषय में सोचना भी व्यर्थ है।क्योंकि लगभग पाँच-छ: घण्टे का समय बीत चुका है,वे पता नहीं कहाँ होंगे?तुम्हें वहाँ से मुक्त कराने की जितनी खुशी थी,उससे अधिक पश्चाताप लेकर यहाँ पहुँच गया।,, ‘’ गुरुदेव!वहाँ से निकलने के एक ही दिन बाद मुझे ऐसा आश्रम मिल गया कि तब से आज तक का जीवन बहुत ही सुखमय है।यद्पि मैं अपने घर नही पहुँच सका किंतु अपने और उस घर में कोई अन्तर नहीं।,, ‘’कुछ भी कहो बेटा किंतु वह आश्रम भी होटल से मिलता-जुलता ही रहा होगा।अन्तर इतना ही हो सकता है कि होटल नें क्रीत दास थे और वहाँ स्वेच्छा से दासता स्वीकार किये होंगे।,, ‘’नहीं,गुरुदेव!होटल में मैं क्रीत दास था।किंतु वहाँ एक महिमामयी माँ का पुत्र।,, ‘’क्या कहा?महिमामयी माँ का पुत्र?,, ‘’हाँ,गुरुदेव!मुझे एक ऐसी माँ मिल गयी,जिसने हमें दोनों भाइयों का पालन अपने औरस की भाँति किया।,, ‘’उस देवी ने तो ऐसा कार्य किया जिसकी इस युग में कल्पना नहीं की जा सकती।वह साधारण स्त्री नही है बेटा।वह तो दर्शन योग्य है।काश!ऐसी ही देवियाँ संसार के कोने-कोने में जन्म लेती।,, ‘’हाँ,गुरुदेव!मैं भी यही समझता हूँ कि वह मानवी देह धारण कर भी अलौकिक है।गुरुदेव! माँ का कहना है कि किस समय आप हमें अपने दर्शन हेतु बुला रहे हैं?,, बेटा!उस देवी को यहाँ बुलाकर मैं कष्ट देना नही चाहता।इस समय तो नहीं कभी न कभी अवश्य तुम्हारे गाँव आऊँगा।,,श्यामू ने अपना पता देकर पुन:प्रश्न किया,’’गुरुदेव!मेरा छोटा भाई कुछ समय के लिये बहक गया है,क्या वह पुन: मुझे मिल सकता है?,, कुछ समय तक मौन रहने के बाद आचार्य जी ने उत्तर दिया,’’हाँ,बेटा!मेरी आत्मा कह रही है कि वह मिलेगा और शीघ्र ही मिलेगा।,,इस प्रकार वार्तालाप करने के बाद श्यामू ने घर जाने की अनुमति माँगी।महात्मा जी ने एक-दो दिन रूक कर जाने के लिये कहा। दो दिन आश्रम पर रुकने के बाद श्यामू ने वहाँ से प्रस्थान किया।अब उसके सामने सबसे बड़ी समस्या थी शाकुल का पता पता लगाने की।मार्ग में उसके दिमाग में आया कि समाचार पत्र में विज्ञापन दे दें।और आकाश वाणी से प्रसारण करा दे।यह दोनों कार्य कर लेने के बाद घूमता टहलता हुआ उसने देखा कि कोई फल नही निकला।एक दिन चाय पीने के विचार से एक दुकान पर बैठ गया।और समाचार पत्रों को उठाकर देखने लगा।उसमें उसनें देखा मुख्य पृष्ठ पर ही मोटे अक्षरों पर छपा था-कुख्यात डकैत जंगी सिंह पुलिस मुठभेड़ में मारा गया-इस शीर्षक को पढ़कर श्यामू को हँसी आ गयी।उसकों हँसता देखकर दुकान पर बैठे लोगों मे से एक ने श्यामू ने हँसने का कारण पूछा।श्यामू ने अपनी हँसी के कारण को छिपाते हुये कहाँ,’’भाई साहब!इसलिये हँस रहा हूँ कि जंगी सिंह के भय से बाहर निकलना भी दुस्वार हो गया था,अब तो लोग सुख की नीद सो सकेंगे।,, उस व्यक्ति ने कहा,’’भाई साहब!जो भी हो,जंगी सिंह डाकू नही था।मेरे विचार से तो वह दीन-बंधु और दानवीर था कयोकिं जिसके यहाँ भी उसने डाका डाला है वे सब के सब मानव देहधारी हिसंक पशु थे।कितने ही गरीबों को उसके द्वारा सुख और शान्ति मिली है।उसने डाकुओं के यहाँ डाका डालकर उसके अहंकार को नष्ट किया है।मैं तो कहता हूँ कि उसके मरने से पुलिस वाले-जो उसके पीछे परेशान थे।और जो भ्रष्टाचार रत थे-सुख की नीद सो सकेंगे।किंतु निर्दोष और निर्धन लोग रोते ही होंगे।शायद आप उसके विषय में बहुत कम जानते हैं।,, श्यामू ने कहा,’’कुछ भी हो डाकू तो डाकू ही हैं।,, उस व्यक्ति ने पुन:कहा,’’यह तो आप ठीक ही कह रहे हैं किंतु रावण जिसने बड़ी-बड़ी शक्तियों को बाँध रक्खा था और देश-विदेश के वैभव को लूटकर लंका का स्वर्ण-श्रृंगार किया था-के पक्षधर राम को डाकू ही कहते हैं,जब कि अन्य लोग राम को लोक रक्षक,मर्यादा पुरुषोत्तम ,भगवान आदि कह कर पूजा करते हैं।,, श्यामू ने कहा,’’किंतु जंगी सिंह राम तो नहीं हो सकता।,, ‘’जंगी सिंह राम तो नहीं हो सकता।,, ‘’जंगी सिंह राम तो नहीं हो सकता,’’यह सत्य है किंतु राम के समान उसका क्रिया-कपाल तो हो ही सकता है।,, अब की बार श्यामू कुछ बोला नहीं,अखबार के पन्ने पलटने लगा।फिर उसकी दृष्टि उस होंडिग पर पड़ी जो इस प्रकार थी-भारत के नवोदित क्रिकेट खिलाड़ी शाकुल की धुवाँधार बल्लेबाजी से मेहमान टीम के हौशले पस्त।इस समय एक व्यक्ति ट्रांजिस्टर लिये आ गया ।इस समय दूसरे दिन के खेल का आँखों देखा हाल प्रसारित हो रहा था।श्यामू ने पूछा,’’खेल का क्या हाल है भाई साहब!उस व्यक्ति ने उत्तर दिया!भारत की बहुत ही अच्छी स्थिति है।उसके चार सौ रन बनने वाले हैं और केवल दो खिलाड़ी आउट है और अभी तक क्रीज पर डटा हुआ है।इसी समय तालियों के गड़गडाहट के बीच आँखों देखा हाल सुनाने वाले ने कहा,’’शाकुल ने गेंद को लांग आन के ऊपर से उड़ा दिया है देखिए........और गेंद छ: रनों के लिये सीमा रेखा के बाहर।शाकुल का यह छठा छक्का।इस प्रकार शाकुल का निजी रन संख्या दो सौ छत्तीस और भारत की रन संख्या चार सौ साठ,दो विकेट के नुकशान पर।,,श्यामू ने फिर पूछा,’’भाई साहब यह टेस्ट श्रृंखला का कौन सा मैच है?,,उस व्यक्ति ने बताया कि यह पहला मैच है?,, पुन: श्यामू ने पूछा,’’दूसरा मैच कब और कहाँ होगा?,, ‘’दूसरा कानपुर में होगा।तिथि मुझे नहीं मालूम है।,, इतनी जानकारी हो जाने पर श्यामू के दिमाग में अनेक विचार उठने लगे।उसने सोचा कि शाकुल पढ़ते समय क्रिकेट प्रेमी तो था,अच्छा खेल भी तो लेता था किंतु दो वर्षो के भीतर उसमें इतनी क्षमता आ गयी,विश्वास नहीं होता।यह टेस्ट खिलाड़ी कोई दूसरा शाकुल है।मेरा शाकुल इतने कम समय में नही हो सकता।फिर भी दूसरा मैंच मैं अवश्य देखूँगा। यदि मेरा ही शाकुल है तो इससे बढ़ कर सौभाग्य और क्या हो सकता है?,, इन्हीं विचारों में मग्न वह दिन भर कहीं न कहीं आँखों देखा हाल सुनता रहा।खेल के अन्तिम दिन भारत की विजय के बाद दूसरे मैंच के दिनांक की घोषणा की गयी।श्यामू के मन में इतना कुतूहल था कि वह उसी दिन कानपुर के लिये रवाना हो गया। बीस- रोहित को पाकर तारिका बहुत प्रसन्न थी।उसकी सारी उदासी निराशा और अन्तवासाना समाप्त हो गयी।गाँव के लोग जो अब तक तारिका से ईर्ष्या और घृणा करते थे,रोहित को आया देखा,सहानुभूति दिखाने वाले हो गये थे।कोई कहता,’’छोटा भैया बहुत दिनों के बाद मिला है इसलिये उत्सव मनाना चहिये अम्मा!,,कोई कहता,’’मामी!अब तुम चालाकी कर रही हो।तुम्हारा रोहित फिर से जन्मा है,उसकी बरही होना चाहिये।,, तारिका सब की बातें सुनती और मुस्कुरा कर कहती,’’आप लोगों की कृपा और आशीर्वाद से यह अवसर प्राप्त हुआ है।आप की इच्छा की पूर्ति क्यों नहीं होगी।,, जब कोई हठ पूर्वक कहता,’’हम मानेंगे नहीं तुम्हें खर्च करना ही पड़ेगा।,,तो तारिका कहती कि श्यामू और शाकुल को भी आने दीजिए,आप की इच्छा की पूर्ति अवश्य करुँगी। एक दिन सुधाधर भी तारिका के दरवाजे पर आकर बैठ गये।तारिका उस समय घर के भीतर थी।सुधाधर ने बाहर से ही पुकारा,’’अरी ओ तारिका रानी!बाहर तो आओ।अब तो तुम्हारे दिन लौट आये हैं।कुछ खिलाओ,पिलाओ भई!,, तारिका ने एक कटोरी में कुछ मिठाइयाँ और पानी लाकर सुधाधर के सामने रख दिया।सुधाधर ने साहानुभूति दिखाते हुये कहा,’’भगवान सब की सुनता है, तारिके! तुमने किसी का कुछ बिगाड़ा नही है,इसलिये तुम्हारा अनिष्ट नही हो सकता।भगवान सब का भला करे।,,उन्होंने एक मिठाई खाकर पानी पिया।इसी समय रोहित भी घर से बाहर निकल कर सुधाधर के पास खड़ा हो गया।उसे देख कर तारिका ने कहा,’’बेटे! ये तुम्हारे बब्बा लगते है,पैर छूकर प्रणाम करो।रोहित ज्यों ही सुधाधर के चरणों की ओर झुका,उन्होंने उसे गले से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कहा ,’’बेटा!ऐसा है कि एक दिन मैं लेखपाल के कागज पत्रों को देख रहा था,उसमें मैंने देखा कि यह जो दलान है,वास्तव में तुम्हारी जमीन में है।इसके पहलें मैं यही समझता था कि यहाँ तक मेरी ही जमीन है।अब मैं चाहता हूँ कि इसके बदले में मैं तुम्हें अपना खेत दे दूँ,और तुम यही फैल कर अपना मकान बना लो,इस स्थान को मेरे लिये छोड़ दो।,, रोहित ने कहा,’’ठीक है बब्बा! भैया को आने दीजिए,उनका जो विचार होगा करेंगे।,, ‘’कौन भैया!,, ‘’बड़े भैया श्यामू!,, सुधाधर बनावटी हँसी हँस कर कहने लगा’’तुम बड़े भोले हो रोहित!लगता है कि अभी तुम आठ वर्ष के ही बच्चे हो।,, ‘’ऐसा क्यों बाबा जी!,, ‘’इसलिये कि अपने घर का मालिक ऐसे व्यक्ति को बना रहे हो जो तुम्हारा ही नमक खा कर जिया है।इसके मालिक तुम हो।मैं तुम्हारे हित की बातें कर रहा हूँ।आज तुम उनको भाई बना रहे हो,कल वे ही तुम्हारी सम्पत्ति का दो भाग लें लेगे और तुम्हें तिहायें से ही संतोष करना पड़ेगा।और सारा जीवन आँसू पोंछते बीतेगा।,,रोहित ने कहा,’’बब्बा!मेरे बब्बा मर चुके है।मेरे घर के भैया के अतिरिक्त कोई नही है।मम्मीं है।उनसे यह बात कहें तो अधिक अच्छा हो,लेकिन वे भी इस घर का मालिक भैया को ही मानती हैं।,, ‘’तुम लोग महा मूर्ख हो।उन भगोड़ो को हिस्सा देने के लिये ही वे भी ऐसा।,,कहती हैं।मैं तो तुम्हारे कल्याण की बाते कर रहा था।लेकिन जब तुम लोगों की बुद्दि में गोबर भरा है तो कोई क्या कर सकता है?,, सुधाधर की बातें सुनकर रोहित भीतर ही भीतर कुढ़ रहा था और सोच रहा था कि यह नीच यहाँ से उठकर कब जाय।कुछ क्षण चुप रहने के बाद सुधाधर ने फिर अपना जाल फैलाना शुरु किया।उसने कहा,’’बेटा!तुम मेरी बात समझ नही पा रहे हो।यह दालान मेरे अज्ञान के कारण अब तो बन ही गयी है।बनने से पहले यदि कागज देख लिये होते और जानकारी हो गयी होती तो यहाँ न बनवा कर कहीं अन्यत्र बनवाता।अब तो हाथ से ढेला निकल चुका है।यह समझ लो,अपने घर के एक मात्र अधिकारी तुम हो,इसलिये तुम्हारे और मेरे बीच समझौता हो जाता तो दोनो की समस्याएँ हल हो जाती।जब तुम्हारी समझ में नही आ रहा है।तो मैं क्या कर सकता हूँ?बलिहारी है तुम्हारी बुद्धि को,अब मैं कुछ भी नही बोलूँगा।तुम चाहे श्यामू को या घुरहूँ कतवारू किसी को अपने घर का मालिक बनाओ,मुझे क्या लेना देना है?अब मैं चलता हूँ।तुम श्यामू या शाकुल को देवता मानते हो तो मानो किंतु मैं तो इन बहेतुओं से बाते भी नही करना चाहता।इन्हें इस घर का स्वामी मान लूँ ऐसा कदापि नही हो सकता।जाओ,मैने तो समझा था तुम्हारे पास कुछ बुद्धि होगी किंतु देखता हूँ कि बुद्धि का शतांश भी तुम्हारे पल्ले नही पड़ा है।सुनने में आया है कि तुम किसी होटल-मालिक के यहाँ गुलाम थे।काफी समय तक गुलामी का जीवन बिताने का कारण वह गुलामी तुम्हारे रोम-रोम में समा गयी है।इसलिये अब गुलामी से मुक्त नही हो सके हो।वहाँ होटल-मालिक के यहाँ गुलाम थे और यहाँ श्यामू तथा शाकुल के।इसमें तुम्हारा दोष नही है,संस्कार का दोष है।यह देश कभी अंग्रेजो का गुलाम था और अब स्वतंत्र होने पर भी अंग्रेजित का गुलाम है।यहाँ तक कि जो उच्चातिउच्च पद पर आसीन हैं,जिनके हाथों में देश की बागडोर है।उन्हें भी अंग्रेजी महकती है।है।जाओ बच्चा!भोगोगे,मुझे क्या लेना देना है।,, इन सारी बातों को सुनकर रोहित का क्रोध सीमा पार कर चुका था किंतु मर्यादा का उल्लंघन किये बिना ही बोला,’’अच्छा बाबा!गुलामी तो मेरे रोम-रोम में समायी है;यह तो निर्विवाद है।किंतु आप से मैं एक बात पूछना चाहता हूँ कि आप मेरे ऊपर क्यों इतनी कृपा करना चाहते हैं?मैं जैसा हूँ रहने दीजिए।जब भी मुझे आप की कृपा की आवश्यकता होगी,मैं आप का दरवाजा खटकाऊँगा।इस समय आप कृपा न करने की ही कृपा करें।,, चिड़िया न फँसते हुये देख कर सुधाधर ने-भोगो हरामजादे!जिसके लिलार में दुख ही दुख लिखा है।उसे कौन सुख दे सकता है?कहते हुये वहाँ से प्रस्थान किया। रोहित का क्रोध अभी शान्त नही था।वह बार-बार सुधाधर की चाल का ध्यान करता और अपनी असमर्थता पर तरस खाता।तारिका के बहुत समझाने पर वह थोड़ा संतुलित हुआ।वह श्यामू की प्रतीक्षा में समय काटने लगा।एक दिन वह श्यामू के विषय में विशेष चिंतित था,इसी समय इलाही अपने दो साथियों के साथ श्यामू से मिलने तथा सुधाधर की गति विधि का पता लगाने के लिये आ गया।उसने दरवाजे पर रोहित को देखा,रोहित ने दौड़ कर नमस्कार किया।इलाही ने रोहित को देख कर दुख और सुख दोनों का अनुभव किया।यह सोच कर उसे दुख हुआ कि रोहित अपने घर नही पहुँच सका,इसलिये वह अब भी श्यामू के साथ है।सुख इसलिये कि रोहित से अब जीवन में कभी भी न मिलने की आशा रखते हुये भी वह मिल गया।रोहित से मिलने के बाद उसने पूछा,’’भैया कहीं गये है क्या?,, ‘’हाँ,भैया!वे बाहर गये हैं।,, इलाही ने पुन: प्रश्न किया,’’कब तक आयेंगे कुछ मालूम है?,, ‘’नही भैया यह तो मालूम नही है।,, ‘’ठीक है,अच्छा रोहित तुम अपने घर नही पहुँच सकते,यह क्यों?,, रोहित ने मुस्कुराते हुये कहा,’’भैया इलाही!पहलें आप लोग बैठें,फिर बताता हूँ कि मैं अपने घर पहुँचा या नहीं।,, रोहित के मुँह से ऐसी बाते सुनकर इलाही को बड़ा आश्चर्य हुआ।क्योंकि रोहित को आज पहली बार इतना प्रसन्न देखा है।इलाही अपने साथियों के साथ बैठ गया और रोहित दौड़ घर में गया।उसने भीतर जा कर माँ तारिका को इलाही के आने की सूचना दी।तारिका ने पूछा कि यह इलाही कौन है?रोहित ने उसका परिचय दिया।कुछ ही देर में माँ तारिका स्वागत-सामग्री लेकर आ गयी।उन लोगों की सेवा करने के बाद तारिका ने पूछा,’’बेटे!तुम लोगों मे से कौन इलाही है?और इलाही के अलावा तुम दोनों भी अपना-अपना परिचय दे दो।,, इलाही ने उत्तर दिया,’’माँ!इलाही तो मैं हूँ।,,इसके अतिरिक्त उन दोनों का भी परिचय दिया। तारिका ने पूछा,’’बेट!इलाही कोई काम लेकर आये हो या यों ही श्यामू से मिलने के ही उद्देश्य से आये हो?,, ‘’केवल भैया से मिलने के उद्देश्य से ही आया हूँ।,, तारिका ने कहा,’’बेटा!इस समय तो श्यामू नहीं है।उसे घर से निकले तो दस दिन हो गये ।पता नही कहाँ है?,, आता होगा बेटा!दो-चार दिन रूको,तब तक हो सकता है आ जाय।इलाही ने कहा,’’हो सकता है रोहित के घर का पता लगाने गये हो और उसका पता न लगने के कारण ही देर हो रही हो।,, तारिका ने मुस्कुराते हुये कहा,’’बेटा!रोहित तो अपने घर पहुँच गया है।,, ‘’तो क्या वह भी भैया से भेंट करने आया है?,, ‘’नही;बेटे!रोहित का घर यही है और मैं ही उसकी माँ हूँ।,, इलाही आश्चर्य चकित हो फिर बोला,’’यह कैसे माँ?,, ‘’हाँ,बेटा!यह सत्य है।इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।,, कुछ देर तक वार्तालाप कर लेने के बाद इलाही ने वापस लौटने का विचार प्रकट किया।तारिका ने हठ पूर्वक रुकने के लिये कहा।इलाही ने एक हप्ते के बाद पुन: आने के लिये कहा किंतु तारिका ने उस दिन रुक कर ही जाने के लिये अनुमति दी। इलाही ने तारिका से विदा हो कर सोचा,हो सकता है श्यामू मंदिर पर ही माँ के पास हों इसलिये वहाँ पता लगाने के बाद ही वापस चलें।इस प्रकार दोनों साथियों से मंदिर पर जाने की बातें करके मंदिर का रास्ता पकड़ा।वहाँ पहुचने पर केवल माँ सुनीता ही मिली।श्यामू का पता वहाँ भी नही चल सका।तीनों व्यक्तियों ने माँ सुनीता के चरण स्पर्श किये।सुनीता ने आशीर्वाद देकर उनकी यथोचित सेवा की।इलाही के यह पूछने पर कि माँ यहाँ एकांत में तुम्हारा मन कैसे लगता है?सुनीता ने कहा,’’बेटा!जब तक श्यामू नही मिला था,यहाँ एकाकी जीवन में भी मन नहीं ऊबता था किंतु बेटे के आ जाने के बाद से यह एकाकीपन बहुत ही खल रहा है।पहलें श्यामू और शाकुल के विषय में कभी-कभी सोचती थी परंतु अब दिन-रात उनकी चिंता सताया करती है।बेटे!अब तुम लोग आ गये हो इसलिये मेरा दुख हल्का हो गया है।मैं चाहती हूँ अब तुम लोग श्यामू के आने तक यहाँ रहो। माँ सुनीता की बातें सुन लेने के बाद इलाही ने पूछा,’’माँ!श्यामू भैया ने कब तक आने के लिये कहा है?,, ‘’बेटा!मुझसे तो कुछ नहीं कह कर गया है।केवल रोहित को उसके घर पहुँचाने के लिये कह कर गया है।यही जानती हूँ।,, इलाही ने कहाँ,’’माँ!हम लोगों को रोक कर क्या करोगी?एक हप्ते के बाद ही तो हम लोग फिर आ रहे हैं।तब तक बहुत कुछ सम्भव है,भैया भी आ जायँ।माँ अब हमें जाने की आज्ञा दें।,, माँ सुनीता से आज्ञा लेकर इलाही और उसके दोनों साथी वहाँ से चल दिये। एक्कीस श्यामू ने कानपुर पहुँच कर क्रिकेट मैच का क्रिकेट खरीदा।और खेल आरम्भ होने से पहले ही ज्यों ही फाटक खुला,क्रीडा क्षेत्र में जाकर संयोग से ऐसे स्थान पर बैठा जहाँ से सरलता पूर्वक सब खिलाड़ियों को देखा जा सकता था और खिलाडियों की भी निगाहें उस जगह पड़ सकती थीं।खेल आरम्भ हुआ।टाँस जीतने के बाद भारतीय कप्तान ने पहले बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया ।उस समय खिलाड़ियों की कारण श्यामू के लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकी।एक घण्टा तक खेल होता रहा।इसके बाद आरम्भिक जोड़ी टूटी।श्यामू ने बगल में बैठे दर्शक से पूछा,’’भाई साहब!अब कौन खेलने आयेग?,,बगल के दर्शक ने बड़े उत्साह के साथ उत्तर दिया,’’शाकुल के अतिरिक्त और कौन आयेगा।कमाल का खिलाड़ी है।,, श्यामू ने पूछा,’’बहुत अच्छा खेलता है क्या?,, दर्शक ने कहा,’’अरे साहब!अभी देखियेगा।ऐसी बैटिंग तो मैंने कभी देखी ही नहीं।असल में मैं केवल उसी के बैंटिग देखने के लिये आया हूँ।अन्यथा यहाँ आने का मेरा विचार ही नहीं था।,, इसी समय बल्ला हाथ में लिये शाकुल मैंदान में पहुँचा गया।शाकुल को देखते ही श्यामू का ह्रदय धक-धक करने लगा और उसके नेत्रों से आनन्दाश्रु छलक पड़े।शाकुल ने खेलना शुरु किया। वह एक-एक गेंद का बारीकी से अध्ययन करके धुनाई करने लगा।उसके एक-एक शाट पर तालियों और वाह!वाह की आवाज से स्टेडियम गूँजने लगा।दोपहर के भोजन तक शाकुल का अर्द्धशतक पूरा हो गया था।भोजन के बाद कुछ ही समय में शतक भी पूरा हो गया।शतक पूरा होते ही दर्शकों ने बधाइयाँ दी।और एक दर्शक ने प्रतिबन्ध के बावजूद नोटों की माला पहना कर शीघ्रता से जा कर अपनें स्थान पर बैठ गया।वह दृश्य देखकर श्यामू की आँखे आनन्द के आँसू से धरती को भिगोने लगीं। खेल चलता रहा।इसी बीच शाकुल की दृष्टि श्यामू पर पड़ी।उसका कण्ठ अवरुद्ध हुआ।गेंद आयी संतुलन बिगड़ा और स्टम्प उखाड़ी हुई गेंद निकल गयी।शाकुल आउट होकर पवेलिन गया।खेल समाप्त होने के कुछ पहले ही श्यामू गेट के पास खड़ा हो गया।अन्य खिलाड़ियों के साथ शाकुल निकला।श्यामू ने शाकुल और शाकुल ने श्यामू को देखा शाकुल अपने अधिकारी से आज्ञा लेकर भाई श्यामू के पास आ गया।दोनों एक-दूसरे के गले से लिपट कर बहुत देर तक आँसुओं से वियोगानल को शमित करते रहे। कानपुर का टेस्ट समाप्त होने पर श्यामू ने शाकुल को घर चलने के लिये कहा।शाकुल ने बताया बिना टेस्ट श्रृंखला समाप्त हुये घर चलना कठिन और अनुचित है।इसलिये श्रृंखला की समाप्ति पर ही घर चलना सम्भव होगा।शाकुल ने श्यामू से भी तीनों टेस्ट देखकर ही घर जाने के लिये कहा। श्यामू ने कहा,’’भैया शाकुल!मुझे घर पहुँचने में जितना ही विलम्ब होगा मम्मी को उतना ही कष्ट होगा।,, ‘’क्या मम्मी नही जानतीं कि आप यहाँ हैं?,, ‘’नही,यह तो मुझसे भूल हो गयी कि रेडियों पर तुम्हारे खेल का हाल सुनकर बिना किसी से बताए सीधे यहाँ चला आया।वास्तविकता तो यह है कि शाकुल का नाम सुनकर मुझे विश्वास ही नही हुआ कि तुम्ही हो।मैने यह समझा कि कोई दूसरा शाकुल होगा।फिर भी यह सोच कर कि हो सकता है मेरा ही शाकुल हो,कुतूहल वश तुरंत चल दिया।शाकुल इस समय मैं कितना प्रसन्न हूँ कि मेरे पास उस प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिये शब्द नहीं हैं।,, शाकुल ने कहा,’’भैया!लगातार की विजय से सारा देश प्रसन्न है,आप का शाकुल तो खेल में शामिल है।,, ‘’नही जी!अभी तुम्हारे खेल से मैं संतुष्ट नही हूँ।क्योंकि अभी तुम्हारे द्वारा कोई कीर्तमान नहीं बन सका है।तुम्हारे खेल से मुझे प्रसन्नता होगी,जब अपने कीर्तिमानों से सारे संसार को चकित कर दोगे।प्रसन्नता इसलिये है कि हमारे नीरस जीवन में एक नहीं अनेक खुशियाँ एक साथ आ गयी हैं।,, ‘’यह कि मेरा पता लग गया,वह भी एक टेस्ट खिलाड़ी के रूप में।,, ‘’फिर वही बात,अच्छा सुनो।पहली बात तो यह कि मेरी मम्मी जीवित है।,, ‘’कौन मम्मी?,, ‘’जिसने हमें जन्म दिया है।और दूसरी खुशी कि रोहित अपनी माँ के पास है।,,शाकुल ने आनन्द के आँसू भर कर कहा,’’भैया मैं आज ही घर चलूँगा।,, श्यामू ने समझाया कि भैया शाकुल!इतना भावुक नहीं होना चाहिये।तुम पूरी श्रृंखला खेल कर ही आओ।मैं चलकर तुम्हारे मिल जाने के समाचार से सब को चिंता मुक्त कर करुँगा।,, श्यामू की बातें मान कर शाकुल ने भाई को विदा किया। * * * रोहित प्रति दिन सुबह से शाम तक श्यामू की राह देखता रहता। एक दिन सहसा उसकी दृष्टि श्यामू पर पड़ी।रोहित खुशी से झूम उठा। उसने दौड़ कर श्यामू के चरण स्पर्श किये।फिर दौड़ कर माँ तारिका को श्यामू के आने की सूचना दी।तारिका ने पूछा,’’उसके साथ और कोई है?,, रोहित ने बताया,’’और कोई तो नही है भैया अकेले ही आ रहे हैं।,, इस समाचार ने तारिका को सामान्य स्थिति में ला दिया।श्यामू दरवाजे पर पहुँच गया।उसने माँ तारिका को कुछ उदास देखा।उदासी का कारण पूछने से पहले माँ तारिका ने पूछा,’’क्यों बेटे!शाकुल का पता नही लगा?इतना कहते ही उनके आँखों से आँसू छलक पड़े।माँ को इस प्रकार दुखी देखकर श्यामू ने बिना विलम्ब बताया कि माँ शाकुल का पता ही नही लगा बल्कि बहुत बड़ी सफलता के साथ शीघ्र ही आ रहा है।वैसे तो सब कुछ छोड़ कर वह मेरे साथ ही आने के लिये तैयार था किंतु मैने ही काम पूरा कर लेने के बाद आने के लिये कहा।‘’आखिर कब तक आ जायेगा?,, ‘’उसके आने में लगभग एक माह तो लग ही जायेगा।,, रोहित ने सुधाधर की सारी बातें बतायी।श्यामू ने मुस्कुरा कर कहा,’’रोहित भाई!सुधाधर जी जो कुछ कह रहे है,वह स्वाभाविक है।जब तक तुम नही आये थे,इस घर के बाहरी देख-रेख मैं करता था और आज भी उसके भीतर कमर कसे खड़ा हूँ।क्योकि माँ तारिका द्वारा मेरे जीवन की रक्षा हुई है और मैंने उसका नमक खाया है।इसलिये माँ का सुख-दुख मेरा सुख-दुख था।किंतु अब तुम आ गये हो,इसलिये घर के सर्वे सर्वा अब तुम हो।आयु में बड़ा होने के कारण तुम्हें सलाह दे सकता हूँ।सुधाधर ने तो कोई अनुचित बात नहीं कही कि तुम अपनी सम्पत्ति के तीन भाग मत करो।मेरी जननी न मिली होती तो जैसे चल रहा था वैसे चलता रहता।अब तुम अपना घर सँभालो और मुझे भी मेरी माँ के पास जाने दो।समय-समय पर मैं तुम्हारा समाचार लेता रहूँगा।,, श्यामू की बातें सुन लेने के बाद रोहित ने कहा,’’भैया!इस संसार में मेरा क्या अस्तितव है?मेरा एक जन्म मेरी मम्मी ने दिया था अपने उदर से और दूसरा जन्म आप ने दिया है राक्षस के कारागार से।आप मेरे भाई भी हैं और पिता भी।इसलिये आप मुझे त्याग कर नरक की दिशा न दिखायें।यदि आप मुझे सुखी देखना चाहते है तो इस रावण पुरी में अथवा अन्यत्र कहीं संयुक्त परिवार की रक्षा का दायित्व सँभालें। वर्तमान समय में वह परिवार पाँच सदस्यों का होगा।आप,बड़ी मम्मी,शाकुल,छोटी मम्मी तथा मैं(रोहित)।यदि आप इसे अस्वीकार करते है तो निश्चित ही रोहित का जीवन कुछ पहले सा ही होगा।अब आप सुधाधर की बातों का उत्तर दें।,, ‘’सुधाधर की बातों का उत्तर देना है?यदि तुम एक साथ ही रहने का हठ करते हो तो सुधाधर से बातें कर ली जायेंगी।,, श्यामू ने सुधाधर के दरवाजे पर जाकर अभिवादन किया।आशीर्वाद देकर सुधाधर ने पूछा,’’बेटा!श्यामू कब आयेगा?,, ‘’कल आयेगा बब्बा!,, ‘’थे तो आनन्द से?,, ‘’हाँ,आप के आशीर्वाद और कृपा से मैं बड़े आनन्द के साथ रहा।,, ‘’अभी फिर जाना है या अब यही रहोगे?,, ‘’बच्चा! अब तो जाने की इच्छा नहीं है,वैसे भगवान जाने कब क्या होगा?,, ‘’हाँ अभी यही रहो,रोहित अभी बच्चा है,उसे भी तो सँभलना है।,, ‘’सँभालना तो है बब्बा!लेकिन मनुष्य का लोभ किस तुच्छता पर उतर जाय,कहा नही जा सकता।आज मैं रोहित को सँभालने के लिये रूक जाऊँ और कल मेरा लोभ निम्न स्वर पर उतर जाय तब?तब मैं उसकी सम्पत्ति हथियाने के चक्कर में पड़ जाऊँगा।ऐसी स्थिति में रोहित को मिट्टी में मिलाने का हर सम्भव प्रयत्न करुँगा और समाज के सामने अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये जितने भी गलत रास्ते होंगे,सब अपनाने होंगे।,, सुधाधर ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से लिये श्यामू की प्रशंसा करते हुये कहा,’’बेटा!तुम बहुत बुद्धिमान हो।तुम्हारी बातें त्याग से भरी हुई हैं।तुम सन्यासियों जैसी बातें कर रहे हो।किंतु आज के युग में भला कोई दूसरे के लिये स्वयं को दुख डालने के लिये तैयार हो सकता है?इतना पर्याप्त है कि तुमने रोहित की अनुपस्थिति में उसका घर सँभाल दिया।यदि आगे भी इस घर का प्रबन्ध तुमको ही करना है तो क्या उसकी सम्पत्ति के तुम हकदार नहीं होते?क्या कोई अपना हक लेकर पैदा होता है?जब मनुष्य इस संसार में आता है।उस समय उसका कोई हक नहीं होता किंतु ज्यों-ज्यों वह कर्म की ओर अग्रसर होता है,उसका हक सुनिश्चित होने लगता है।अपने कर्म से मनुष्य फल का अधिकारी होता है।जब तुम रोहित की सम्पत्ति बढ़ाने और उसकी सुरक्षा के लिये कर्म करोगे तो बिना मीन-मेष के उस सम्पत्ति के अधिकारी हो जाते हो।,, विभेद नीति के कुशल खिलाड़ी सुधाधर ने अनेक प्रकार से श्यामू को लोभ का दास बनाना चाहा किंतु श्यामू अब किसी का दास नहीं हो सकता; क्योंकि वह दासता को एक बार ही नही अनेक बार पराजित कर चुका है वह सुधाधर जैसे निकृष्ट लोगों को पढ़ाने में दक्ष हो चुका है!बहुत समय तक बातें करने के बाद जब सुधाधर ने समझ लिया कि श्यामू अब मेरे वश में हो गया है,तब उन्हों ने कहा,’’श्यामू बेटा!एक बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ,यदि मानो तो कहूँ।,, श्यामू ने बनावटी श्रद्धा प्रदर्शित करते हुये कहा,’’बब्बा!आप मेरे पूज्य हैं,आप की बात न मानने का कोई प्रश्न ही नहीं है।,, ‘’बेटा!ऐसा है कि मैं तुम्हें अपनी जमीन दे दूँ तुम अपने रहने की व्यवस्था वहीं कर लो।यहाँ रहने पर तुम्हें परेशानी है और मुझे भी।इसलिये इस जगह को मेरे लिए छोड़ दो।जहाँ मैं तुम्हें जगह दे रहा हूँ,वहाँ फैल कर रहनें में सुविधा रहेगी।यह प्रस्ताव मैने रोहित के सामने भी रक्खा था,लेकिन उसने तुम्हारे ऊपर छोड़ दिया था। अब तुम आ गये हो,जैसा विचार हो वैसा करो।,, श्यामू ने कहा,’’अरे बब्बा!वास्तव में आप बड़े दूरदर्शी हैं।मैं तो इसे बहुत पहले ही सोच चुका हूँ केवल संकोच के कारण यह विचार आप के सामने नहीं रख सका था। आप जो जगह हमें देना चाहते है दिखा दीजिए।मैं अभी इसे छोड़ने के लिये तैयार हूँ।सुधाधर श्यामू की बातें सुनकर बहुत प्रसन्न हुये।उन्होनें अपनी सफलता पर गर्व का अनुभव किया और मन में सोचा चिड़ियाँ जाल में फँस गयी है।अब क्या था उन्हों ने उठ कर गाँव से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर ग्राम समाज की भूमि दिखा कर कहा,’’यहीं पर अपना मकान बना कर ठाठ के साथ रहो।इतनी जमीन में चाहे तो दो मकान बना लो।वहाँ तो इसकी तिहाई भी जमीन नहीं है।यदि तुम्हें यहाँ आना पसन्द न हो तो मुझको ही कोई खेत दिखा दो मैं ही वहाँ से चलकर अपनी व्यवस्था कर लूँ।,, श्यामू ने दर्शाते हुये कि वह सुधाधर की चालाकी को नहीं समझ रहा है---कहा, ‘’आप बड़े आदमी हैं आप का गाँव छोड़ना ठीक नही होगा इसलिये मैं ही गाँव छोड़ दूँगा,आप मुझे पराया न समझें।मैं आप का लड़का ही हूँ।,, ‘’बेटा!तुमसे मैं यही आशा करता हूँ।,, ‘’अच्छा बब्बा,!आप मेरे मकान का मूल्य कितना और कब दे रहे हैं?मेरा विचार है कि शीघ्र ही नीव डलवा दूँ।,,इतना सुनते ही सुधाधर पर मानो वज्रपात हो गया।क्रोध में आकर उन्हों ने कहा,’’कल के बच्चे चले हो मुझे पढ़ाने।इतनी जमीन देने के बाद भी मकान का मूल्य ।मुझे बेवकूफ समझ रहे हो।तुम बताओ जो अधिक जमीन है उसका क्या दे रहे हो?,, ‘’बब्बा जी! जमीन खरीद कर और अपनी जमीन तथा मकान दान कर नया मकान बनाने की शक्ति मुझमें नहीं है।,, सुधाधर ने श्यामू की बातों तथा अपनी विफलता से उदिवग्न हो कर कहा,’’जाओ भोगों मुझे क्या?मेरे मकाने के सामने और अगल-बगल बहुत जमीन है।मैं चाँहू तो चार-पाँच मकान बनवा लूँ।मैने तो तुम्हारी परेशानी देखकर सोचा कि ऐसा कुछ कर दूँ जिससे तुम भी सुख पूर्वक अपना निर्वाह कर सको।किन्तु विधि का विधान कौन अन्यथा कर सकता है?जब तुम्हें कच्छप के सिर की भाँति स्वयं को समेट कर ही रहना है तो किस में वह शक्ति है कि तुमको ऐसा करने से रोक सके।,,इस प्रकार अपने क्रोध को व्यस्त करते हुये वहाँ से चल दिये।श्यामू भी मुस्कुराता हुआ वहाँ से रवाना हुआ। बाईस:- टेस्ट श्रृंखला समाप्त हुई।कई उपलब्धियों के साथ शाकुल अहलादपुर पहुँचा।उसे देखते ही सब लोग आनन्द विभोर हो गये।तारिका ने शाकुल को ह्रदय से लगा कर प्यार किया और कहा,’’बेटे तुम इतने निष्ठुर हो गये कि पुन: आने का नाम ही न लिया।यदि श्यामू तुम्हारी खोज न करता तो शायद तुम्हारा लौटना सम्भव न हो पाता।हमारी तुम्हें याद ही न रहे गयी थी।,, शाकुल ने कहा,’’मम्मी ऐसी बात नही है कि मुझें तुम्हारी याद नहीं आती थी,बात यह थी कि जब भैया कई दिन नही आये तो मुझे उनके अनिष्ट की शंका होने लगी।उस दिन मुझे रात भर नीद नहीं आयी।मैनें सोचा,’’जो भैया मेरे बिना एक क्षण भी नही रह सकते थे;मुझे छोड़ कर इतने दिनों तक कैसे रह सकते है?,, मुझे यह संदेह होने लगा कि थाने की घटना से खिन्न भैया ने कहीं आत्म हत्या तों नही कर ली?फिर मन में आया कि जब भैया ही नही रहे तो मैं रहकर क्या करुँगा?अब मेरे सामने समस्या थी कि भैया से बता कर जाऊँ या चुपके से चल दूँ।अन्त में इसी निर्णय पर पहुँचा कि मम्मी से बता कर जाना चाहूँगा तो नहीं जाने पाऊँगा।इसलिये धीरे से उठ कर यहाँ से चल दिया।कई माह भटकने के बाद एक ऐसे स्थान पर पहुँचा,जहाँ क्रिकेट-खिलाड़ियों को प्रशिक्षित किया जा रहा था। इस प्रकार मैं प्रतिदिन पहुँच जाया करता था।कई दिन बीतने पर एक भद्र पुरुष ने मुझसे पूछा,’’लड़के तुम्हें मैं कई दिनों से यहाँ देख रहा हूँ।क्या इस खेल में तुम्हारी रूचि है?,, मैंने उत्तर दिया,’’ श्रीमान जी!रूचि तो है किंतु..........।,, उन्हों ने कहा,’’किंतु क्या?,, मैने कहा,’’ यही कि मैं अनाथ हूँ।इसमें मेरा प्रवेश कैसे हो सकता है?,, उन्हों ने पुन: कहा,’’चलो मेरे साथ अनाथ नहीं हो।,, मैंने खेलना शुरु किया।छ: माह के बाद मेरे खेल ने लोगों को बहुत प्रभावित किया।धीरे-धीरे मेरी ख्याति बढ़ने लगी और मैं अन्तर राष्ट्रीय टेस्ट मैचों के लिये भारतीय क्रिकेट बोर्ड की ओर से चुना गया।पहले तो मेरे द्वारा बहुत अच्छे खेल का प्रदर्शन हुआ।लेकिन जब से भैया को देख लिया मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार उठने लगते और मैं अपना संतुलन खो बैठता था।आगे के तीन मैचों में मै जम नहीं पाया। शाकुल की बातें समाप्त नही हो पायी थीं तभी रोहित ने उसे उठा लिया और स्नेंह भरे शब्दों में उसकी प्रशंसा करने लगा।शाकुल ने कहा,’’भैया!आप कौन हैं?मैं आप को नहीं पहचान रहा हूँ।,, रोहित ने कहा,’’मेरे प्रिय भाई शाकुल!मैं ही अभागा रोहित हूँ।,, रोहित नाम सुनते ही शाकुल ने उसको गले से लगा कर कहा,’’भैया तुम्ही मेरी मम्मी की आँखों के तारे हो?आज तुम्हें पाकर मैं धन्य हुआ।,, माँ तारिका से अनुमति प्राप्त कर श्यामू रोहित और शाकुल के साथ मंदिर पर पहुँचा।श्यामू और रोहित के अतिरिक्त तीसरे बालक को देखकर माँ सुनीता ने उसे पहचानने देर न लगी यह समझ कर कि शाकुल के अतिरिक्त यह अन्य कोई नही हो सकता।इसलिये उसने ललक कर शाकुल को गले से लगा लिया।इस समय शाकुल को अनुभव हो रहा था।जैसे वह छोटा बच्चा हो और माँ की गोद में अपार प्यार पा रहा हो।दोनो(माँ-बेटे) की आँखे अनवरत आँसू की वर्षा कर रही थीं।सुनीता बीच-बीच में पुकार उठती,’’बेटा..शा....कु...ल!मे..रे..लाल!मैं...तु...म्हारे...लिए... कु..छ...न..क..र...सकी।मुझ....अ..भा.गि.....नी..की...गोद....में.....तु....म....पु.....न: कैसे....आ....ग...ये..ल...ला...ला? मैं....अ..प..राधि...नी..हूँ....बेटा!मु...झे----।,, शाकुल कुछ बोलना चाहता था किंतु मम्मी ही कह कर रह गया।इस प्रकार दोनों बहुत समय तक बिलखते रहे।रो लेने के बाद दुख और सुख के आँसू का वेग कुछ कम हुआ।तब सुनीता ने कहा,’’मेरे लाल!तुम्हें बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ा है।श्यामू ने सब कुछ बताया है।जिस समय तुम भूख से पड़पते रहे तुम्हारी सुध लेने वाला कौन था?हा दैव!फूल सा कोमल रक्त का पुतला पत्थर बन गया था।,,अनेक भावों में मग्न सुनीता को इस समय इसका भी ध्यान नहीं रह गया था कि ये लोग भूखे प्यासें होंगे। कुछ समय व्यतीत होने पर श्यामू ने माँ सुनीता से कहा,’’माँ हम कब तक इस निर्जन में रहेंगे।हम अपने घर चलकर नये सिरे से अपने रहने की व्यवस्था करनी चाहिये।अब तक तो हम तालाब में तैरते हुये पत्ते की भाँति इधर से उधर भटक रहे थे।किंतु इस समय किनारे लग गये हैं।इसलिये हम अपना स्थायी प्रबन्ध कर लेना चाहिये।सुनीता ने कहा,’’बेटा अपने गाँव तो मेरा चलना असम्भव है।रही बात अन्यत्र की उससे अच्छा तो यहीं स्थान है।क्योंकि लगभग सोलह वर्षों से इस मंदिर पर रहने के कारण मुझे इस स्थान से ममता हो गयी है।अब इस स्थान को छोड़ना मेरे लिये दुखद होगा।बेटा!तुम लोग अपने गाँव जाकर रहो मुझे यहीं पड़ी रहने दो।कभी-कभी यहाँ आकर अपने कुशल मंगल का समाचार देते रहना।इसी से मैं संतुष्ट हूँ।शाकुल ने कौतूहल के साथ कहा,’’मम्मी!क्या हमारा घर और कहीं है?यदि ऐसा है तो वहाँ चलने में क्या हानि है?अब तो हम लोग आ गये हैं।फिर घर जाना क्यों असम्भव है?,, उस समय शाकुल अबोध शिशु था,जब सुनीता विपत्ति के बोझ से बोधिसत्व इस मंदिर के कुएँ में कूद कर आत्म हत्या करने के उद्देश्य से यहाँ आयी थी।इसलिये शाकुल को अपने स्थायी घर के समाचार से आश्चर्य हो रहा था।सुनीता ने शाकुल की बातों का जवाब न देकर केवल इतना ही कहा कि मेरे लाडले!यहाँ की भूमि मेरी पुनर्जन्म भूमि है।इसलिये मुझे प्राणों से भी प्रिय है।तुम दोनों जा कर घर सँभालो।,, श्यामू ने माँ की अन्तर्वेदना और ग्लानि को समझ कर कहा,’’जब हम लोग पराधीन थे और किसी को पराजित करने की शक्ति हममें नहीं थी,उस समय जो कुछ हुआ,हुआ।अब तो तुम्हारी दो भुजाएँ शाकुल और श्यामू के रूप में तुम्हारे पास तैयार है।इसलिये हर विपत्ति का सामना करना तुम्हारे लिये आसान है।तब घर क्यों नहीं चलोंगी?,, सुनीता ने सजल नेत्रों से श्यामू कि ओर देखा और आँसू पोंछ कर कहा,’’बेटे!मंजुला के विषय में तुम बता ही चुके हो,मैं भी घर से बाहर हूँ।इसलिये तुम्हारे पिता जी ने तीसरा विवाह अवश्य कर लिया होगा।तुम दोनों भाइयों का उनकी सम्पत्ति में कुछ न कुछ अधिकार भी होगा।मेरा वहाँ क्या है?वे लोग वहाँ पर मेरी उपस्थिति पसन्द नहीं करेंगे।,, श्यामू ने कहा,’’वे लोग पसन्द करें या न करें,हम दोनों किस दिन के लिये हैं? सुनीता ने अन्य मनस्क भाव से कहा,’’बेटा पहले उस देवी बहन के दर्शन कराने की व्यवस्था करो, जिसमें मेरे रत्नों की रक्षा यत्न पूर्वक की है।फिर गाँव में चलना या न चलना तो बाद में सोचा जायेगा।,, रोहित उत्साह और हर्ष के साथ बोल पड़ा,’’हाँ मम्मी!मैं तुम्हें अपने घर ले चलने के लिये ही आया हूँ।,, ‘’बेटा!मैं वहाँ क्या चलूँ?यहाँ शंकर जी का मंदिर है।अपनी मम्मी को ही यहाँ लिवा आओ।यदि वे यहाँ आ जाती है तो इसी बहाने भगवान शंकर के दर्शन भी कर लेतीं।मैं भी इनके दर्शन से लाभान्वित हो जाती।,,रोहित ने हठ पूर्वक कहा,’’नहीं मम्मी!तुम्हें मेरे यहाँ अवश्य चलना होगा।फिर वहाँ से मम्मी को साथ लेकर हम यहाँ आ जायेंगे।,,सुनीता ने सोचा कि वास्तव में उस बहन ने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है,मुझे ही उस देवी के दर्शन करना चाहिये।यदि वहाँ जाने में मैं आना कानी करती हूँ तो यह मेरा अपराध होगा।उसने रोहित से कहा,’’बेटे!चलों मैं चलती हूँ।मैं वहाँ चलने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।अब वहाँ चलकर ही उन्हें साथ ले जाऊँगी।,, माँ सुनीता का निर्णय सुनकर रोहित को अपार हर्ष हुआ।उसके मानस में रह-रह कर आनन्द की तरंगे उठने लगी।वह अपने आप कह उठता है,’’अहा मम्मी मेरे घर चलेगी।मेरी मम्मी,मम्मी से मिलकर बहुत खुश होंगी।अब हमारा भाग्योदय होगा।लोग हमें भी आदर की दृष्टि से देखेंगे।,,अनेक दिवा स्पप्न में मग्न रोहित प्रस्थान के समय की प्रतीक्षा करने लगा। दूसरे दिन प्रात:काल ही श्यामू ने रोहित और शाकुल के साथ माँ सुनीता को अहलादपुर के लिये भेज कर स्वयं अपने गाँव राजपुरा की ओर गमन किया।गाँव का रास्ता पूछता हुआ वह आगे की ओर बढ़ने लगा।सूर्य डूबने वाला था।श्यामू मुख-प्यास से विह्वल एक गाँव में पहुँच कर किसी व्यक्ति से पूछा,’’राजपुरा कितनी दूरी पर है दादा!,,उस व्यक्ति ने बताया,’’यहाँ से अभी बारह-तेरह कि.मीटर है।क्यों बेटा!वहाँ जाना है क्या?,, ‘’हाँ,दादा!जाना तो वही है किंतु प्यास से गला सूख रहा है अब एक परग भी आगे चलने की हिम्मत नहीं है।,, ‘’अच्छा,बैठ जाओ।,, कहकर घर से कुछ जलपान की व्यवस्था करके आ गया और बोला,’’बेटे!यह लो खा पीकर आराम करो।कल सवेरे जाना।,, श्यामू इतना थक गया था कि कहने की भी हिम्मत नही रह गयी थी। रात विश्राम के बाद उसने आश्रम दाता से विदा होकर शेष मार्ग को पार करने के लिये चल पड़ा। अपने गाँव राजपुरा पहुँच कर श्यामू ने देखा कि गाँव का नक्शा ही बदल गया है।जहाँ झोपड़ी थी,वहाँ बड़ा सा मकान खड़ा है।जहाँ कच्चा मकान था,पक्का मकान बन गया है।जो पुराने-पहचाने पेड़ थे उनमें से अधिकांश समाप्त हो गया हैं।जहाँ ऊसर भूमि थी,हरे भरे खेत लहलहा रहे हैं।जहाँ सब परिचित थे,अब कोई परिचित दिखाई नही दे रहा है।जहाँ उसका अपना भव्य मकान था,अब खँडहर मात्र शेष है।जहाँ गाँव के लड़कों के साथ साथ खेला करता था,वहीं कुछ जगह बची हुई हैं।इस स्थान को देखकर हर लड़के की याद करके वह भाव विह्वल रोता हुआ बैठ गया।बचपन की एक-एक बात याद करता और आँसू पोंछता बहुत देर एकान्त देखता रहा अपनी मातृभूमि का परिवर्तित रूप ।अतीत स्मृतियों की आँधी शान्त होने पर वह एक पड़ोसी के दरवाजे पर गया।वहाँ एक युवक कोई पुस्तक उलट-पलट रहा था।श्यामू के पैरों की आवाज सुनते ही उसने श्यामू की ओर देखा।श्यामू ने युवक से कहा,’’भाई साहब पानी पीना चाहता हूँ,मिल जायगा?,, युवक ने प्रेम दर्शाते हुये कहा,’’बैठिये,पानी क्यों नही मिलेगा?आप अपना परिचय दीजिए-कहाँ से आ रहे है और कहाँ जायँगे?,, श्यामू ने उत्तर दिया,’’मैं अहलादपुर का रहने वाला हूँ।एक काम से अलख निरंजन के पुत्र मुक्तेश के पास जाना चाहता हूँ।अभी उनका घर कितनी दूरी पर है?,, युवक ने मुक्तेश के घर की दूरी बताकर और कुछ जानने की उत्सुकता व्यक्त नहीं की।उसने श्यामू का स्वागत किया।पानी पी लेने के बाद श्यामू ने युवक से पूछा ,’’भाई साहब!यह जो सामने खण्डहर है मेरे ख्याल से आप ही का है।,, ‘नहीं,किसी समय यह बहुत सुंदर मकान था।यह मकान पण्डित मधुसूदन का था।मधुसूदन वैसे तो बहुत भले थे,किंतु उनसे एक चूक हो गयी थी जिससे पूरे परिवार का नाश हो गया और वह सुन्दर मकान खँडहर में परिवर्तित हो गया।,, पूरा परिवार नष्ट हो गया?तब उनकी चलाचल सम्पत्ति का क्या हुआ?,,’’चल सम्पत्ति तो रह नहीं गयी थी।अचल सम्पत्ति पर कुछ लोगों ने अधिकार करना चाहा था,किंतु मेरे पिता जी ने ऐसा करने से रोक दिया।क्यों रोक दिया?क्या किसी के जीवित रहने की आशा है?,, ‘’जीवित होने की आशा तो लगभग सब की है।,, ‘’तो क्या उस परिवार के सब लोग किसी लम्बी यात्रा पर चलें गये हैं?,, ‘’नहीं,यात्रा पर नहीं गये हैं, बल्कि उस परिवार के नाश की बड़ी दर्दनाक कहानी है।जिस समय की यह घटना है।मैं दस-ग्यारह वर्ष आयु का था।मधुसूदन एक स्त्री के रहते दूसरा विवाह कर लिया था।आये दिन दोनों औरतों में वाक् युद्ध हुआ करता था।एक दिन मधुसूदन ने खीज कर अपनी पहली को मार कर घर के निकाल दिया।उसके दो पुत्र थे।एक मेरी ही उम्र का,और दूसरा बहुत ही अबोध था।पहले कुछ दिनों से दूसरी पत्नी ने उसका पालन-पोषण ठीक ढंग से किया किंतु बाद में उनका इतना अपमान होने लगा कि देखने वाले भी बिना आँसू बहाये नहीं रह सकते थे।एक दिन दोनों लड़को को छोड़कर नयी माँ कहीं चली गयी।अब वे लड़के अनाथ हो गये।बड़ा लड़का जिसका नाम श्यामू था मेरा सबसे प्रिय मित्र था इसलिये मैंने चाहा कि खान-पान और रहने की व्यवस्था मेरे यहाँ हो किंतु जिसके यहाँ आप जाना चाह रहे है।वहीं अलख निरंजन बड़ी सहानुभूति दिखा कर अपने यहाँ ले गये।भाई साहब!जिस समय श्यामू अपने छोटे भाई को गोद में लेकर अलख के पीछे-पीछे जा रहा था उस दृश्य को देख कर पत्थर भी पिघल गया होगा।मैं तो बैठ न गया होता तो गिर पड़ता मैं दिन भर रोता रहा।संध्या को बिना खाये-पिये ही लेट गया।पता नहीं कब नीद आ गयी।सवेरे सुना कि श्यामू अपने छोटे भाई को लेकर कहीं गायब हो गया अलख बौखला कर दोपहर तक उन्हें खोजता रहा।,, ‘’आह नीच! फिर क्या हुआ भैया!,,श्यामू ने पूछा।आगंतुक के मुँह से निकली आह के कारण युवक उसकी ओर ध्यान से देखने लगा।उसनें देखा कि आगन्तुक की आँखे डबडबा आई थीं।युवक को आगंतुक पर कुछ संदेह होने लगा।किंतु वह प्रत्यक्ष कुछ कह न सका और पुन: खँडहर सम्बन्धी कहानी कहने लगा।मधुसूदन जो बाहरी नौकरी करते थे कई दिनों के बाद घर आये सब समाचार सुनकर रोते-कलझाते गुलाल के साथ कहीं चले गये और आज तक नहीं लौटे।,, आगंतुक ने कुछ और जानने के विचार से पूछा,’’इतने दिनों के बाद भी जब कोई नहीं लौटा तो अब क्या कोई आयेगा?मैं देखता हूँ कि इस खँण्डहर की लकड़ियाँ सड़ गयी हैं।कोई ले नहीं गया।यहाँ के लोग कितने निर्लोभी हैं,’’निर्लोभी नहीं हैं बल्कि खण्डहर की कोई भी वस्तु छूने से लोग डरते हैं।सब के मन में यह विश्वास है कि सुनीता सती थीं।वे घर से निकाले जाने पर जीवित नहीं रह सकती इसलिये उन्हों ने निश्चित ही आत्म हत्या कर ली होंगी।अब उनकी आत्मा इसी खँडहर के ऊपर मडरा रही होगी।यहाँ तक कि रात में आते-जाते लोगों ने उनको खँडहर में खड़ी देखा है।मेरी चाची ने तो उनको खड़ी भी देखा और उनकी आवाज भी सुनी है।वे कह रही थी; बहन! मेरे बच्चों को दे दो।मैं सदा के यहाँ से चली जाऊँगी।यदि मेरे बेटे नहीं मिले तो इस खँण्डहर में पैर रखने वाले का नाश कर दूँगी।एक दिन मेरे एक पड़ोसी ने देखा कि एक स्त्री श्वेत सारी पहन कर दरवाजे पर बैठी फूट-फूट कर रो रही है।धीरे-धीरे ऊपर उठने लगी और देखते ही देखते आकाश में विलीन हो गयी।,, भूत की बातें सुनकर आगंतुक मुस्कुराया और बोला,’’अच्छा,भैया!यह बताओ कि श्यामू या उसके घर का कोई व्यक्ति आ जाय तो आप लोग उसे यहाँ रहने देंगे? युवक ने कहा,’’मित्रवर! यह तो उनका घर है,न रहने देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है।आपने मुझे अपना पूरा परिचय नही दिया।आप कौन हैं,यह तो बता ही दीजिए। कि आप का नाम क्या है?आगन्तुक ने युवक की ओर सजक नेत्रों से देख कर कहा,’’भैया राजीव! अब मुझे कौन पहचानेगा?,, इतना सुनते ही राजीव ने पुलकित हो कर लपक कर श्यामू को गले से लगा लिया और कहा,’’भैया श्यामू! तुम अपने को छिपा कर क्यों बाते करते हो?मुझे पहले ही तुम्हारे ऊपर संदेह था किंतु संकोच वश कह न सका।,,इस प्रकार दोनों एक दूसरे के गले से लग कर कुछ क्षणों तक सिसकते रहे। थोड़ी ही देर में श्यामू के आने का समाचार सारे गाँव में पहुँच गया।सब दौड़-दौड़ कर राजीव के घर आने लगे।श्यामू सब से प्रेम के साथ मिलता।यह क्रम संध्या तक चलता रहा।श्यामू रात राजीव के घर ही रूका।रात राजीव ने श्यामू के सोने की व्यवस्था अपनी ही चारपाई के पास की।राजीव और श्यामू बहुत समय तक बातें करते रहे।राजीव ने श्यामू से पूछा,’’भाई श्यामू!तुम अलख निरजंन के यहाँ से कहाँ चले गये?,, श्यामू ने सोचा यदि अलख निरंजन की करनी का पता सब को चल गया तो वह समाज में बहुत ही तिरस्कृत होगा।जो कुछ उसने किया है,उसका फल तो उसे मिल ही गया है।अब उसे अधिक दण्ड देना ठीक नहीं है।इसलिये उसने राजीव के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया,’’भैया!उस समय मैं किंकर्तब्यविमूढ़ था।मुझे अपने हिताहित का ज्ञान नहीं था इसलिये जो समझ में आया कर बैठा।अलख निरंजन के घर से निकल कर मैं एक होटल वाले के हाथ बिक गया।बस यही से मेरा दुर्भाग्य शुरू होता है।इसके आगे फिर कभी।अच्छा भैया राजू!इस समय अलख निरंजन का क्या हाल है?राजीव ने बताया ,’’अलख ने बहुत धन इकट्ठा किया।यह धन कहाँ से आया?यह लोगों के सामने एक प्रश्न था।एक दिन उनके यहाँ डाका पड़ गया।डाके में उनका धन तो गया ही साथ ही साथ डकैत उनके लडके को भी लेते गये।इससे उनको इतना दुख हुआ कि वे बीमार पड़ गये।यहाँ तक कि उनमें उठने बैठने तक की हिम्मत नहीं रह गयी।एक दिन एक महात्मा ने उनके बेटे की शीघ्र आने की भविष्य वाणी की।तब से कुछ ठीक हुये।उनका बेटा आया भी किंतु उनके स्वास्थ्य में कोई विशेष सुधार नही हुआ है।अब भी लाठी के सहारे ही चल-फिर सकते हैं।लाठी का सहारा लिये बिना एक परग भी नहीं चल सकते।हाँ एक बात तो भूल ही गया।डाका के बाद से कुछ लोगों द्वारा सुना गया कि अलख निरंजन ने स्त्री और बच्चों का व्यापार करके इतना धन इकट्ठा किया था।श्यामू ने पुन: पूछा,’’लोगों को यह कैसे मालूम हुआ कि अलख निरंजन का धन मानव व्यापार से आया?,, ‘’गाँव का कोई व्यक्ति छिप कर सुन रहा था,वे डाकुओ से भयभीत होकर स्वयं ही बकर रहे थे।इतना ही नहीं,वह बड़ा नीच है।उसकी समाज में बड़ी निंदा है।,,इस प्रकार अपने वाल सखा को इतने अन्तराल के बाद पाकर राजीव बहुत रात तक बातें करता रहा। प्रात: काल राजीव ने श्यामू से यह जानना चाहा कि वह अपने घर कब तक आ रहा है।श्यामू शीघ्र ही आने के लिये कह कर वहाँ से विदा हुआ। तेईस- तारिका ने रोहित और शाकुल के साथ सुनीता को देखा।उसके हर्ष का ठिकाना न रहा।दरवाजे पर उन लोगों के पहुँचने पर तारिका ने स्नेह-विह्वल स्वागत किया।उन लोगों के साथ श्यामू को न देखकर उसे चिन्ता हुई।उसके न आने का कारण पूछने पर पता चला कि वह दो-तीन दिन के बाद आयेगा।इधर इलाही के आने का समय भी हो चुका था।इसकी सूचना सुनीता और तारिका दोनो को थी। इसलिये दोनों ही उसकी प्रतीक्षा में थी। दूसरे दिन एक घण्टे के अन्तर पर श्यामू और इलाही दोनों ही आ गये। दिन भर इधर-उधर की बातें होती रहीं।संध्या समय इलाही ने श्यामू से कहा,’’भैया!सुधाधर ने उस रात मुझसे अपनी दलान हटा लेने के लिये कहा था,वह भी केवल पंद्रह दिन के भीतर। किंतु पंद्रह से अधिक समय बीत गया और दालान ज्यों का त्यों अपने स्थान पर खड़ी है।अभी हाल में ही मैं यहाँ आया था।आप से मुलाकात नही हो सकी।इसलिये मैंने उसके खिलाफ कोई काम नही किया।आप लोग आ गये है।जो कहिये वही किया जाय।,, श्यामू ने शान्ति पूर्वक कहा,’’भाई इलाही! जब हम लोगों ने दस्यु कर्म से सन्यास ले लिया है तो आगे वह कार्य नही करना है किंतु इस राक्षस के दरवाजे पर ऐसी विष वेली बो देनी है कि इसको अपनी करनी का फल जीवन भर मिलता रहे।,, ‘’आखिर कौन सा तरीका है,जिससे वह काबू में आ सके।,, श्यामू ने अपनी योजना इलाही से बताया,,मैने माँ से बातचीत कर ली है कि यहाँ से चलकर अन्यत्र मकान बना कर रहा जाय और यहाँ की जमीन तथा मकान आदि ऐसे आदमी को लिख दिया जाय जो दबंग हो और सुधाधर तथा उनके समर्थकों को लोहे के चने चबाने के लिये रात भर विवश करता रहे।,, ‘’क्या ऐसा कोई आदमी यह सब खरीदने के लिये तैयार है?,, ‘’हाँ एक आदमी से मैने बात-चीत की है।उसने तो यहाँ तक कहाँ है।जिस दिन आप की इच्छा हो मैं तैयार हूँ।दाम-काम भी तय हो चुका है।पूरे अस्सी हजार देने के लिये वह तैयार है।इतना ही नहीं,उसने यह भी कहा है,जिस दिन रजिस्ट्री होगी,उसके दूसरे ही दिन यह दालान न गिर जाय तो मैं समाज के सामने मुँह न दिखाऊँ।,, इलाही ने संतोष की साँस ली और पूछा,’’तो कब तक ऐसा करने का विचार है?,, श्यामू ने कहा,’’अभी कुछ समय लगेगा क्योंकि हम एक महात्मा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।उन्हों ने यही आने का हमे वचन दिया है।यदि हम यहाँ से चले जायेंगे तो उनको यहाँ आने पर कष्ट होगा?,, ‘’यही तो नही कह सकता किंतु बहुत समय बीत चुका है इसलिये अब अधिक समय नही लगाना चाहिये।,, ‘’मैं भी महात्मा के दर्शन करना चाहता हूँ लेकिन मुझे कैसे मालूम हो सकेगा कि वे आ गये हैं। ‘’इसकी सूचना मैं तुम्हे दूँगा।पहले वे आयें तो।,, इलाही ने कहा,’’मैं मुसलमान हूँ,महात्मा जी मुझे अपना पैर छूने नहीं देंगे?,, ‘’मुसलमान!महात्मा लोग जाति के इस तुच्छ तुच्छ बंधन से मुक्त होते हैं उनकी कोई जाति नही होती और न ही उनके लिये कोई जाति होती है।,, ‘’अच्छा,भैया मुझे अवश्य बताइयेगा।अब मुझे आज्ञा दीजिए।,, श्यामू ने कहा,’’इलाही भैया!मुझसे एक बहुत बड़ी भूल हो गयी है उसके लिये मुझे क्षमा करना।,, ‘’आप से भूल,भैया यह कैसी बात कर रहे हैं?,, ‘’जिस समय सब साथी अपने-अपने घर जा रहे थे,मेरे ध्यान में नहीं आया कि तुम किसके घर जाओगे?,, ‘’इलाही ने हँसते हुये कहा,’’भैया!अगर मेरे सामने रहने की कोई समस्या होती तो मैं आप से कहने में तनिक भी शर्म न करता।लेकिन मेरे सामने इसकी कोई समस्या ही नहीं थी।मैं नीलू के यहाँ रहता हूँ।वहाँ पर मैने एक कमरा बनवा लिया है।रहने की कोई परेशानी नहीं है। इसलिये आप इसकी चिंता न करे।,, ‘’अच्छा,यदि महात्मा जी शीघ्र यहाँ से जाना चाहेंगे तब तो नहीं और यदि दो-चार दिन रहेंगे तो अवश्य सूचना दूँगा।,, ‘’अगर शीघ्र चले गये,तो......।,, ‘’तब एक दिन हम दोनो आश्रम पर चलकर उनके दर्शन करेंगे।,, ‘’ठीक है।,, कह कर इलाही वहाँ से विदा हुआ। दोपहर का समय था।अभी भगवान मरीचिमाली ने अपने करो से धरती का स्पर्श नही किया था।ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी। श्यामू बरामदे में रोहित और शाकुल के साथ ताश खेल रहा था।इसी समय कोई गेरुआ वस्त्रधारी दूर से आता हुआ दिखायी दिया।श्यामू ने सोचा ये हमारे गुरुदेव ही हो सकते हैं।शनै:शनै:दूरी कम हुई और स्पष्ट हुआ कि महात्मा अरविन्दाचार्य ही हैं।महात्मा जी ने श्यामू के एक पड़ोसी से श्यामू के घर को पूछ ही रहे थे,तब तक श्यामू ने दौड़ अगवानी की।श्यामू ने साष्टांग प्रणाम किया। रोहित और शाकुल ने भी दौड़ कर श्यामू का अनुशरण किया।श्यामू ने महात्मा जी को आने यहाँ लिवाकर आदर पूर्वक बैठाया।शाकुल ने भीतर जाकर माँ तारिका को महात्मा के आगमन की सूचना दी।तारिका ने झाँक कर देखा।महात्मा को देखते ही उसकी विचित्र दशा हो गयी।उसका ह्रदय धड़कने लगा। शरीर पुलकित हो उठा,और वह पसीने से तर हो गयी।वह भीतर की ओर मुड़ गयी।एक कोने में बैठ कर विचारों के सागर में डूबने उतराने लगी।इसी बीच श्यामू ने आकर कहा,’’मम्मी!महात्मा जी के लिये कुछ खाने-पीने की व्यवस्था नही कर रही हो।वे पता नही कितनी दूरी से चले आ रहे हैं?भूख-प्यास से परेशान होंगे।जल्दी करों कुछ ले आओ।,, तारिका की जैसी नींद टूटी।वह खड़ी हो गयी और अपनी भूल पर पश्चाताप करने लगी।फिर उसने कहा,’’बेटा!रूको पहले ले जा कर जलपान कराओ तब तक मैं भोजन की व्यवस्था कर रही हूँ।,, इधर तारिका ने झाँकते समय अरविन्द की दृष्टि उसके मुख पर पड़ गयी थी।वे चौक पड़े थे।थे।हू बहू!राधा जैसा आकार प्रकार। अरविन्द को विश्वास नही हुआ कि यह राधा ही है।पर उनके मन में अनेक तर्क-वितर्क चलने लगा।हो सकता है घर से निकलने के बाद राधा ने यहाँ आकर किसी के साथ पुनर्विवाह कर लिया है।अथवा किसी भले मनुष्य का आश्रय पा गयी हो।या राधा की कोई बहन उसी रंग रूप में यहाँ व्याही गयी हो।हो सकता है मेरा चेतना मस्तिष्क मुझे धोखा दे रहा हो।मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ।राधा के पास तो कोई भी बच्चा नही था।मान लिया दो लड़को को उसने आश्रय दिया है।और तीसरा?हो सकता है इस घर में और कोई हो,उसके भी लड़के हो सकते हैं।अच्छा अब, ध्यान में आया।यह तीसरा लड़का वही हो सकता है,जो राधा को घर से निकलते समय गर्भ में था।अरविन्द के मस्तिष्क में विचारों का तूफान चल ही रहा था कि श्यामू स्वागत सामग्री लेकर आ गया।जलयानो परान्त महात्मा जी ने श्यामू से कहा,’’बेटा श्यामू अपनी माँ को बुलाओ उनके दर्शनों के लिये ही मैं यहाँ तक आया हूँ। यदि उस महामानवी के दर्शनों के उत्कट अभिलाषा मेरे मन में न होती तो मैं तुम्हारे अनुरोध को तो नकार न पाता किंतु मेरे यहाँ आने में समय लग सकता था।,,श्यामू ने आज्ञा का पालन किया। राधा अब गुण्ढम के भीतर अपना मुँह छिपाकर महात्मा जी के पास आयी और उनके पैरों पर सिर रख कर सिसक-सिसक कर रोने लगी।महात्मा जी की आँखे भी सजल हो गयीं।तीनों लड़के आश्चर्य चकित यह दृश्य देख रहे थे।थोड़ी देर बाद महात्मा जी ने कहा,’’देवि!यह निष्ठुर संसार किसी के स्वर्ग-सुख छीन कर नरक की यातनाएँ प्रदान करने में तनिक भी संकोच नही करता।इसलिये तुम्हे इतना अधीर नही होना चाहिये।तुम इस समय एक विरागी के समान हो।अत: अवगुण्ठन की आवश्यकता नहीं है।तुम अपने सच्चे रूप में मेरे समक्ष आओ।अब मैं समझ चुका हू कि तुम कौन हो।,, राधा ने कहा,’’देव!इसीलिये यह कलंकी मुँह आप के दृष्टि-पथ से दूर रहना चाहता है।आप इस हत भागिनी को आशीर्वाद दीजिए कि मेरा और आप का अगला जन्म स्वच्छ कर्म योग से युक्त हो और वह जन्म आप के दर्शनों से शनै:शनै: शुद्धता की ओर अग्रसर हो।,, महात्मा जी ने पुन: कहा,’’देवि!तुम शुद्धाति शुद्ध हो।तुम्हारी शुद्धता में मुझे कभी संदेह नही था।केवल पिताजी की---हा---आप गये।,, इतना सुनते ही राधा फूट-फूट कर रोन लगी।कुछ समयोपरान्त अरविन्द ने धैर्य बाँधते हुये कहा,’’देवि क्षणभंगुर संसार में कुछ भी स्थायी हो,यह सोचना ही हमारी बहुत बड़ी भूल है।जो ध्रुव सत्य है,उस पर ही लोग दुख प्रकट करते हैं और जो असत्य है,उसी को सब कुछ मान कर आनन्द का अनुभव करते हैं।देवि! पिता जी को जाना था।अब उनके विषय में कुछ भी नहीं सोचना है।मेरी राधे! सब से बड़ी प्रसन्नता तो यह है कि तुम जीवित हो।मैने तो समझ लिया था कि तुम इस संसार में नहीं हो।आज तुमसे मिलकर मैं विरागी से पुन: अरविन्द हो गया।वही अतीत-स्मृतियाँ पुन: सामने नाच रही है।राधे! उठो,तुम सामान्य नारी से ऊपर उठ चुकी हो। जो कार्य जननी के लिये कठिन है,उसे तुमने दो अनाथ बच्चों की रक्षा कर के किया।तुम्हारे त्याग और तपस्या की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।अब बच्चों के भावी जीवन को सुखमय बनाने की योजनाओं के विषय में सोचो।अच्छा इनमें से श्यामू को तो मैं नही जानता हूँ किंतु इन दोनों के विषय में बताओ देवि!ये कौन हैं?,, राधा असमंजय में पड़ कर कुछ क्षण तक चुप रही परंतु अरविन्द ने पुन: पुछने पर ऊँगली से शाकुल की ओर संकेत करके बताया,’’यह तो शाकुल है,श्यामू का छोटा भाई और......................।राधा को मौन देख कर अरविन्द ने पुन: पुछा,और देवि!(रोहित की ओर संकेत करके)यह कौन है? राधा लज्जा और संकोच में धँसी जा रही थी।किन्तु जब उसने सोचा कि इस दशा में इसे बताना ही होगा,तब दबे मन से कहा,’’मेरे स्वामी!इसे जन्म देने का दुर्भाग्य मुझे ही प्राप्त है।,, राधा के मुख से इतना सुनते ही अरविन्द ने रोहित को गले से लगा लिया।और कहा,’’मेरे प्रिय बेटे!आज तक मैं तुझे जान न सका और तेरी जीवन नौका को पार लगाने के लिये एक क्षण का समय भी नही दे सका।इसलिये मेरे मानव-योनि में जन्म लेने एवं अधूरी तपस्या को बार-बार धिक्कार है।बेटे!मैने अब तक जो कुछ भी किया,अगला जन्म बनाने के लिये किंतु कर्तब्य-च्युत मानव का कोई जन्म सार्थक नही होता है।राधे!तुम इस बच्चे की जननी और जनक दोनों हो।तुम धन्य हो और तुम्हारा इस धरती पर जन्म लेना सार्थक है।,, रोहित अवाक् सब सुनता रहा,किन्तु कुतूहल ने उसे मौन न रहने दिया।उसने पूछा,’’महात्मा जी! आप कौन हैं?अभी तक मेरी समझ में नहीं आया। अरविन्द ने उत्तर दिया,’’मेरे लाडले!दुर्भाग्य वश मैं तुम्हारी माता से अलग होने के कारण तुम्हारा जन्मोत्सव नहीं मना सका।इतना ही मेरा परिचय समझो रोहित को अब यह समझने में कठिनाई नही हुई कि यही मेरे पिता हैं।उसकी आँखो से आनन्द के आँसू टपक पड़े।उसने कहा,’’पिता जी!अब आप सन्यास से सन्यास लेकर कर्म क्षेत्र में पुन: पदार्पण करके हमे सनाथ करें।घृष्टता क्षमा हो पितृ देव!,, अरविन्द ने रोहित की ममतामयी वाणी सुनकर कुछ पल मौन रहने के पश्चात कहा,’’बेटा!इस विषय में विचार करने के लिये मैं विवश हूँ।,, चौबीस- पूर्व योजनाओं के अनुसार श्यामू ने अतिथि-गृह एवं रोहित के मकान का निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया।धीरे-धीरे दो चार माह समाप्त होते-होते दोनों भवन बनकर तैयार हो गये।अब धूम-धाम से गृह-प्रवेश की तैयारियाँ होने लगीं।पूर्ण व्यवस्था हो जाने के बाद बहुत बड़े भोज का आयोजन किया गया।निमत्रण पत्र आस-पास के गाँवों मे तो भेजे ही गये किंतु राजपुरा के लोगों को विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया।श्यामू ने अपने पिता के परम मित्र गुलाल को एक दिन पहले ही एक व्यक्ति को भेज कर बुलाया। पत्र वाहक ने गुलाल के पास जाकर कहा,’’पंडित जी ने आपको मेरे साथ ही बुलाया है।गुलाल ने आश्चर्य से पुछा,’’कौन पंडित जी?,, पत्रवाहक ने उत्तर दिया,’’वही पंडित जी,जिन्हों ने मुझे भेजा है।,, गुलाल ने कहा,’’पत्र तो मैं पढूँगा ही फिर भी आप पंडित जी का नाम तो बताइये।,, ‘’उनका नाम बालेन्दु है।,, ‘’बालेन्दु!इनको तो मैं नहीं जानता,खैर पत्र देखता हूँ।,,गुलाल ने पत्र पढ़ा। पत्र के अन्त में लिखा था-आप मेरी प्रार्थना को अवश्य स्वीकार करें,क्योंकि आप मेरे पिता तुल्य हैं।आप को ही यहाँ का सारा प्रबन्ध देखना है। दर्शनेच्छु- बालेन्द्रमणि पत्र पढ़ लेने के बाद गुलाल बहुत देर तक सोचता रहा कि यह व्यक्ति कौन हो सकता है?अन्त में उसने थक कर पत्रवाहक से कहा,’’भाई!इनको तो मैंने न कभी देखा है और न ही इससे मेरा कभी परिचय ही है।हो सकता है भूल से इस गाँव का नाम लिख उठा हो।आप जायँ और जिनके लिये यह पत्र लिखा गया है,उसके गाँव का सही नाम लिखा कर तब यह पत्र दें।,, पत्रवाहक ने कहा,’’मैने राजपुरा के तमाम लोगों को पत्र दिये है।कैसे कहूँ कि गाँव के नाम से भूल हुई है?,, गुलाल को और आश्चर्य हुआ।उसने कहा,’’अच्छा ठीक है।आप वालेन्दु के परिवार के अन्य सदस्यों के नाम बतायें,उन्हीं मे से किसी से मेरा परिचय हो।,, पत्रवाहक ने कहा,’’अन्य सदस्यों में रोहित हैं,शाकुल है।,,शाकुल का नाम सुनकर गुलाल ने कहा,’’यह शाकुल बालेन्द्र का क्या लगता है?,, ‘’शाकुल बालेन्द्र का छोटा भाई है।,, ‘’गुलाल को याद आया कि एक शाकुल मधुसूदन का छोटा लड़का था और बड़ा भाई था श्यामू।क्या श्यामू का ही दूसरा नाम तो वालेन्दु नहीं है?,, फिर उसने पत्रवाहक से पूछा,’’भाई साहब!वालेन्दु का केवल यही नाम है या किसी के नाम से पुकारे जातें है?,, ‘’वैसे लोग उनको श्यामू कह कर पुकारते हैं।,, श्यामू नाम सुनते ही गुलाल पुलकित हो उठा,उसका ह्रदय तीव्र गति से धड़कने लगा।कुछ समय तक गुलाल किंकर्तब्यविमूढ सा खड़ा रहा।फिर उसने कहा,’’आज से कुछ दिन पहले श्यामू के राजपुरा आने का समाचार मुझे विलम्ब से मिला था।किंतु दुर्भाग्य वश मेरे पहुँचने से पहले हि वह वहाँ से जा चुके थे। इसके बाद ही मैं उनके पिता जी के पास चित्रकूट गया था।यह बताने के लिये कि श्यामू सकुशल है और एक दिन वे अपने गाँव राजपुरा आयेगी थी। पत्रवाहक ने साश्चर्य पुछा,’’क्या उनके पिता जी चित्रकूट में रहते है?,, ‘’हाँ मित्रवर वे वही रहते हैं किंतु उनसे बातचीत करने पर मुझे ऐसा आभास हुआ कि उनके मस्तिष्क में कुछ विकार उत्पन्न हो गये है।इसके पहले भी मैं उनसे कई बार मिल चुका था किंतु इस बार वे बहुत दुर्बल हो गये थे मुख पर अत्याधिक खिन्नता थी।पहले मुझे देखते ही बहुत प्रसन्न होते थे और अपने बच्चों के विषय में बार-बार पूछते किंतु इस बार मुझे देखकर अन्य मनस्क भाव से कहा,’’तुम कौन?अच्छा समझ गया मेरे गुलाल के भाई,तुमको यहाँ किसने भेजा?बैठो,पानी पिओ और शीघ्र यहाँ से जाकरमेरे गुलाल को भेजो।,, मेरी आँखे छलक पड़ीं।मैंने कहा’’भैया!आप मुझे नही पहचान रहे है?,, उन्हों ने मुझे ध्यान से देखा और कहा,’’अच्छा,तुमको गुलाल ही मान लेता हूँ।अब तुम यहाँ से जाओ और हराम जादे! दोनो रत्नों को लेकर आओ।,, मैं अनुनय,विनय करके वहाँ कई दिन रहा और उनकी सेवा करता रहा।धीरे-धीरे उनके मस्तिष्क में सुधार होने लगा।जब मैंने समझ लिया कि अब वे मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे है,तब मैंने बताया,भैया! श्यामू और शाकुल दोनो सकुशल हैं।श्यामू एक दिन अपने घर आये भी थे।उनके आने का समाचार मुझे मिला किंतु उनके चले जाने के बाद।मैने बहुत पता लगाया कि वह कहाँ रहते हैं किंतु पता नही चल पाया।,, उन्हों ने आँखो में आँसू भरकर कहा,’’भाई गुलाल! इस पर मुझे विश्वास नही हो रहा है क्योंकि मेरी सम्पत्ति हड़पने के विचार से दुष्ट ने उन दोनो को काट कर कहीं फेक दिया होगा।यदि वे लोग जीवित होते तो कहीं न कहीं अवश्य मिल जाते।मंजुला जीवित थी मिल गयी थी,अब मर जाने पर नही मिल सकती।यह सब मुझे सान्त्वना देने के लिये कह रहे हो।,, मैने कहा,’’नहीं भैया!इतने दिन बीत गये और कभी मैंने ऐसी बाते की थी।आप हमारे साथ चले घर।उनको लाने का भार मैं अपने ऊपर लेता हूँ।फिर उन्हों ने कहा,’’गुलाल!यदि यह बात सत्य है तो घर जाओ और श्यामू या शाकुल अथवा दोनो को लेकर यहाँ चले आओ,फिर मैं क्यों नहीं चलूँगा?उनको देखे बिना मैं कदापि नही चल सकता।तुम जितना समय यहाँ बिताओगे,वह समय उन्हे खोज कर यहाँ लाने में लगाओ।शीघ्र यहाँ से जाओ।,, उनके दृढ़ निश्चय पर मुझे झुकना पड़ा और मैं वहाँ से चला आय।अब उनकी क्या दशा है,नहीं कह सकता।,, ‘’मेरे मित्र रूको,मैं अभी तुम्हारे साथ चलता हूँ।,, पत्रवाह के साथ गुलाल श्यामू के आवास पर पहुँचा।गुलाल को देखते ही श्यामू ने समझ लिया कि यह व्यक्ति गुलाल ही हो सकता है,क्योकि मैंने एक पहले आने के लिये कहा था इसलिये उसने सोचा होगा कि आज ही चला चलूँ।श्यामू ने गुलाल का स्वागत किया और कहा,’’चाचा जी! सारी व्यवस्था आप ही को देखनी और करनी है।,, गुलाल ने कहा,’’बेटा!मैं सब कुछ करुँगा पहले बताइये शाकुल कहाँ है?,,पास ही में खड़े शाकुल को दिखा कर श्यामू ने कहा,’’चाचा जी! यही शाकुल है।,, गुलाल के आगमन को सुनकर सुनीता भी आ गयी।सुनीता को देख कर गुलाल ने उनके चरणों पर गिर कर प्रणाम किया और बहुत समय तक अश्रुवर्षा करता रहा ।इस प्रकार बहुत समय तक आनन्द का सागर लहराता रहा।श्यामू ने कहा,’’चाचा जी!अब आप हमें आदेश दे क्या-क्या करना है?,, ‘’मैं सारी व्यवस्था अपने हाथ में लेता हूँ।पहलें मैं यह तो जान लूँ कि कितना कार्य हो चुका है?,, श्यामू ने पूर्व की सारी व्यवस्था अपने विचार की जानकारी गुलाल को दी। अब गुलाली ने आगे की सारी व्यवस्था को सफलता के साथ सम्पन्न किया। भोजनोपरान्त राजपुरा के लोगो की शयन-व्यवस्था अतिथि-गृह में की गयी।प्रात: काल अपने घर जाने से पहले सब लोगों ने श्यामू से अपने घर चलने के लिये कहा।इस पर अरविन्द ने कहा,’’अब हम लोग यही रहेंगे।वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नही है।,, राजपुरा के राजू ने कहा,’’चाचा जी!वह इनकी जन्म भूमि है।हम यह नही कहते कि यह स्थान सदा के लिये छोड़ दें।यहाँ से चलकर वहाँ रहने की स्थायी व्यवस्था कर लें इसके बाद यहाँ भी आये करें इसमेंआप को क्या आपत्ति है?,, बहुत समय तक विवाद चलता रहा।परंतु यही निर्णय हुआ कि श्यामू अपनी जन्मभूमि राजपुरा में स्थायी रूप से रहेंगे और मंदिर तथा माँ राधा से सम्बन्ध बनाये रखेंगे। दूसरे दिन इच्छा न रहते हुये भी राधा श्यामू की विदाई की व्यवस्था करने लगी।तैयारी पूरी हो जाने पर राधा कभी श्यामू को अपनी शाकुल और सुनीता को गले से लगा कर रोती रही।गाँव वाले के आग्रह के बावजूद वह उन लोगों को छोड़ना नहीं चाहती थी।अश्रु-प्रवाह कुछ कम होने पर राधा ने कहा,’’बहन सुनीता! यदपि मैं अनधिकार कुछ कहना चाहती हूँ फिर भी अपराध के लिये क्षमा चाहती हूँ।देखना बहन मेरे लाडलों को कोई तकलीफ न होने पायें।,, सुनीता ने उत्तर दिया, ‘’बहन! ये बच्चे बड़े लाड-प्यार आप से पाये,वह मैं न दे सकी।मैं केवल जन्म देने वाली अधिकारिणी हूँ।अन्य सारे अधिकार आप के हाथों सुरक्षित है बहन! मैं इनको प्रसन्न रखने का प्रयास करुँगी।,, फिर राधा ने श्यामू से कहा,;;बेटे श्यामू!मेरे लिये यदि तुम्हारे ह्रदय में कुछ स्थान हो तो मैं तुम्हें आदेश देती हूँ कि जब तक मैं जीवित रहूँ।मुझे अपने दर्शन के लिये अधिक समय तक न तरसाना।मेरे अब तक के जीवन का अस्तिव तुम दोनों के कारण था।शेष जीवन का दुख-सुख भी तुम पर ही आधारित है।,, श्यामू ने कहा,’’माँ! यहाँ से मेरा शरीर जा रहा है किंतु आत्मा तुम्हारी ही गोद में क्रीड़ा करेगी। मैं प्रतिज्ञा पूर्वक कहता हूँ कि मेरा अधिकांश समय तुम्हारे चरणों का आशीर्वाद प्राप्त करने में ही बीतेग।माँ अपने आशीर्वादों से मेरे पथ को अकण्टक करो।,, सुनीता ने एक बार राधा को स्नेहिल नेत्रो से देखा और अवरुद्ध कण्ठ से कहा,’’बहन!तुम्हारें उपकारों का बदला इस जन्ममे तों नही किंतु भगवान शंकर से यह प्रार्थना करुँगी कि अन्य जन्मों में इस ऋण से उऋण होने की शक्ति मुझे प्रदानकरें।बहन! मैं तो मंदिर पर आया ही करुँगी।आप भी कभी-कभी मुझे अपने दर्शनों से कृतार्थ किया करेंगी,ऐसा मुझे विश्वास है।,, अवश्य आऊँगी बहन!कहकर राधा ने उन्हें विदा किया। श्यामू और शाकुल के साथ सुनीता के राजपुरा में पहुँचने पर सारा गाँव हर्ष और आश्चर्य में डूब गया।इनके आगमन की सूचना जिसे जहाँ भी मिलती,वह दौड़ कर इन्हें देखने के लिये आ जाता।दिन भर लोगों की भीड़ लगी रही।संध्या को इनके रहने की व्यवस्था राजू के घर हुई।दूसरे दिन गाँव के लोगों ने श्यामू के घर-जो खँडहर में बदल चुका था-को समतल करना आरम्भ किया और दो-तीन घण्टे में समतल कर दिया और उसी के ऊपर एक मडहा(छप्पर) बना दिया गया।अपने दोनों पुत्रों के साथ सुनिता उसी में रहने लगी। श्यामू के जीवन की प्राय:सभी जटिल समस्याएँ सुलझ चुकी थीं।परन्नतु पिता मधुसूदन का पता लगाकर उन्हें घर लाने की चिंता उसे दिन रात शालती रहती थी।श्यामू ने गुलाल के साथ चित्रकूट जाकरएक बार नहीं अनेक बार पता लगाया किंतु उनका कहीं भी पता नहीं चल सका।वहाँ के जिस भी व्यक्ति से पूछा जाता,वह कहता,’’आज से लगभग दो वर्ष पहले एक साधु रहता था किंतु इस समय वह कहाँ है कहा नहीं जा सकता।अन्त में उन्हे मधुसूदन का एक शिष्य मिला ।जो रो-रो कर बताने लगा,’’ एक दिन मैंने भोजन बनाकर उन्हें खाने के लिये कहा।उन्हों ने कहा,’’देखोबेटा! पहले इन दोनो लड़को को खिलाओ,ये बहुत भूखे है।मुझे आज कुछ भी नहीं चाहिये।,, मैंने कहा,’’गुरुदेव!वे लड़के तो मुझे नही देखायी दे रहे है;आप किन लड़को के विषय में कह रहे हैं?,, उन्हों ने पुन: कहा,’’इसमें तुम्हारा दोष नही है बेटा! आज कल धरती के सब लोग पगला गये हैं।तुम भी यदि पागलपन की बाते करते हो तो इसमें आश्चर्य की बात नही हैं।मुझे मूर्ख बना रहे हो?,, इतना कह कर कुटी के भीतर चले गये।बहुत प्रयत्न करने पर भी कुछ खाना स्वीकार नही किया।प्रात:काल जब मैंने देखा तो कुटी खाली पड़ी थी।गुरुजी का पता नहीं।दो-तीन दिन तक मैंने उनकी खोज करता रहा,किंतु कुछ भी पता नही चला। प्राय: दो वर्षों तक मधुसूदन की खोज होती रही किंतु सारे प्रयास व्यर्थ।कही भी उनका पता नही चल सका।श्यामू निराश हो कर बैठ गया।मधुसूदन के विषय में भिन्न-भिन्न प्रकार की आशंकाये होने लगी।इस प्रकार समय बीतता गया और मधुसूदन विषयक चर्चायँ भी समाप्त हो गयीं। पच्चीस- अर्द्ध रात्रि का समय ।प्राय: सारे जीव लोक कर्म क्षेत्र से विरत स्वप्न लोक में प्रवेश कर चुका था।रजनीगंधा सुगंध बिखेर रही थी।शीतल,मंद सुगंध वह सब को आनन्द और शान्ति प्रदान करने का यत्न कर रहा था ।ऐसे सुहावनें समय में भी एक व्यक्ति के नयनों में घनघोर घटा छाई हुई थी और अनवरत वर्षा हो रही थी।वह व्यक्ति था दुर्भाग्याहत मधुसूदन।कुशासन पर लेटे हुये मधुसूदन कभी अतीत स्मृतियों से व्यग्र हो उठते कभी वर्तमान की विसूचिका से विचलित होते तो कभी भविष्य की विभिषिका से बेचैन हो हड़बड़ा कर उठ बैठते।उनका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका था।धीरे से कुटी के बाहर आये। उन्हों ने देखा कि आकाश अपने परिवार के साथ आनन्दोत्सव मना रहा है।मरीचिमाली महराज हिमांशु अपनी कौमुदी के साथ कुमुदिनी और रातरानी का श्रृंगार कर रहे थे।यह सब देखकर मधुसूदन कुछ बुदबुदाये और चल पड़े अज्ञात दिशा की ओर। समय के थपेड़ो से आहत मधुसूदन कभी यहाँ,कभी वहाँ,कभी नादान बालकों और कुत्तों के अगुआ बने हुये टहलते रहे।कभी इस गाँव में कभी उस गाँव में घूमते टहलते एक गाँव में पहुँचे,जहाँ बालकों की भीड़ ने उन्हें ढेलों से मार-मार कर घायल कर दिया और वे अचेत हो कर गिर पड़े।एक सज्जन ने वहाँ पहुँच कर बालकों को डाट-मार कर हटाया और मधुसूदन की सेवा कर उन्हें स्वस्थ किया।चैतन्य होने पर उस सज्जन व्यक्ति से पूछा,’’आप कहाँ से आ रहे हैं? और कहाँ जायेगें।,, मधुसूदन ने उत्तर दिया,’’मैं,स्वर्ग से आ रहा हूँ और नरक में जा रहा हूँ। नहीं,नहीं मैं स्वर्ग से नरक में गया था और फिर स्वर्ग में जाने की तैयारी में हूँ।मैं स्वर्ग का राजा था।एक थी पिशाचिनी,उसने वहाँ जाकर मेरे स्वर्ग में आग लगा दी।मैं वहाँ से कूदा और नरक में का गिरा।किसी तरह वहाँ से मुक्ति पायी।लेकिन स्वर्ग का मार्ग भूल गया हूँ।वह देखो, जो आकाश में विमान मडरा रहा है,उसे उतार लो,तुम भी स्वर्ग चलोगे?लगता है तुम नरक में ही रहना चाहते हो।ठीक है तुम रूको,मुझे तो जाना ही है।अच्छा मैं चला।,, उस व्यक्ति ने कहा,’’रूकिये कुछ खा-पी लीजिये तब जाइये।,, मधुसूदन-बड़े मूर्ख हो,कहीं स्वर्ग में लोग खाते-पीते हैं?उन्हें तो सुगंध चाहिये ।जल्दी करों मुझे फूल-माला चढ़ाओ मैं चलूँ।स्वर्ग में खलबली मची हुई है।राजा के बिना सब स्वच्छन्द हो गये हैं।,, एक सज्जन ने खाना और पानी लाकर मधुसूदन के सामने रख दिया।एक-दो ग्रास मुख से डालने के बाद कहा,’’क्यों हरामी मैंने तो फूल-माला की माँग की थी,क्यों भोजन लाया?मुझे फिर नर्क में झोंकना चाहते हो?,, इतना कहकर सारा भोजन विखेर दिया और वहाँ से चल पड़े। दिन बीत चुका था।घूमते टहलते रात के दस बज गये।मधुसूदन की चेतना जगी।उन्हों ने सोचा,’’मैं कहाँ भटक रहा हूँ?यह वीहड़ स्थान,मैं कहाँ आ गया।अब किसी पेड़ के नीचे रात बिता कर सबेरे फिर चलेंगे।,, इतना सोचने के बाद एक पेड़ के नीचे बैठ गये।बचपन से लेकर आज तक की स्मृतियाँ एक के बाद एक सामने आने लगीं और स्मृतियों मे खोये हुये आँसू बहाते रहे।बहुत दिनों के बाद बाद उन्हें नीद कब आ गयी,इसका कोई पता नही उन्हों ने स्वप्न में देखा,’’गुलाल के साथ घूमते हुये एक ऐसे स्थान पर पहुँच गये जहाँ स्वच्छ जल वाला तालाब है,कमल खिले हुये हैं।जल पक्षी जल में डूब उतरा अपना हर्ष प्रकट कर रहे हैं।उन्हीं पक्षियों के बीच दो सुन्दर बालक तैर रहे हैं।बालकों की माँ किनारे पर बैठी हुई है।वह बार-बार बालकों को पुकार रही है,बहुत नहाये अब चलो घर।,, इसी समय जलाशय के मध्य से एक ज्योति-पुंज दृष्टिगोचर हुआ।जिसे देख कर मधुसूदन का ह्रदय धक-धक करने लगा।और वे चौंक कर उठ बैठे। कुछ समय तक श्यामू और शाकुल के विषय में सोचते रहे।यदि वे जीवित होंगे तो सयाने हो गये होंगे।काश,एक बार उनका मुँह देख लेते।क्यों इसके लिये सोचूँ।वे गये भले गये।जाओ श्यामू,शाकुल तुम भी जाओ।तुम दोनों के साथ तुम्हारी माँ भी जाय।मुझे क्या लेना-देना है?,, ‘’मैं पायो री,मैं तो राम रतन धन पायो,,कहते हुये वहाँ से चल दिये। मानसिक विचार ने पुन:धर दबोचा।प्राय:वही उपर्युक्त भजन गाया करते।कुछ दूर चलने के बाद पथिक को देखकर कहा,’’क्यों रे नराधम!मुझे छोड़ कर कहाँ जा रहा है?मेरे भी दो बच्चे हैं।मेरा भी घर है।,, उस पथिक ने कहा,’’भगवान करे आप के बच्चे हों,और आप का घर हो लेकिन मैं क्या करुँ?,, पुन: मधुसूदन ने कहा,’’मेरे भाई! नाराज मत हो।तुम महामानव हो बताओ वे मेरे बच्चे और वह मेरा घर कहाँ है?,, पथिक ने फिर कहा ,’’श्रीमान जी!मैं आप को नहीं पहचानता तो कैसे आप के बच्चों और घर को बताऊँ?,, ‘’मूढ़!तुम्हें बताना होगा।सुन मेरे घर की पहचान-खँडहर,भूतो का डेरा, पशुओं का चारागाह,नर पिशाचों का रंग मंच और और तुम्हारे अन्वेषण का विषय अब बताओ।,, पोथिक ने घबड़ाहट के साथ कहा,’’आप पागल तो नहीं हो गये हैं?,, मधुसूदन ने तड़क कर कहा,’’पागल तुम हो तुम्हारी मंजू पागल है।मैं क्यों पागल हूँ? मुझे पागल कहने वाला कई जुन्मों तक पागल रहेगा।,, पथिक ने कहा,’’बाबा!हाथ जोड़ता हूँ।आप पागल नहीं,मैं पागल हूँ।आप अपना रास्ता देखें।,, ‘’’’मैं अपना रास्ता क्यों देखूँ?तुम अपना रास्ता देखो।मैं यह देखूँगा कि तुम मुझे छोड़ कर कैसे जाते हो?,, ‘’तो चलिये मेरे साथ,मेरे घर।,, ‘’हाँ,चलूँगा तुम्हारे साथ, किंतु तुम्हारे घर नहीं,अपने घर।,, पथिक चाहता था कि किसी प्रकार इससे जान छूटती तो अच्छा था।कुछ क्षण के बाद उसने कहा,’’अच्छा चलिये आप ही के घर चलूँगा।आगे-आगे चलिये।,,मधुसूदन को यह बात जँची और आगे-आगे चल पड़े।कुछ दूर चलने के बाद अवसर पाकर पथिक एक अरहर के खेत में छिप गया।मधुसूदन बड़बड़ाते हुये चले जा रहे थे।लगभग एक कि.मी. चलने के बाद उन्हों ने मुड़कर देखा पथिक का कहीं पता नहीं।खीझ कर उन्होंने कहा,’’खिलाने के भय से हरामी भग गया।जाओ,तुम भी जाओ।,, इधर-उधर घूमते हुये मधुसूदन अपनी मातृभूमि के निकट के एक गाँव में पहुँच गये।गाँव में प्रवेश करते ही कुत्तों ने आगवानी की।उनसे किसी प्रकार जान बचाकर आगे बढ़े तो बाल मण्डली ने पीछा किया।एक सह्रदय व्यक्ति से इनकी दुर्दशा नहीं देखी गयी।उसने बालकों को डाट-डपट कर भगाया यह कहते हुये कि तुम लोग बड़े पाजी हो,किसी गरीब को सताना चाहिये?,, मधुसूदन की आँखे ततेर कर कहा,’’गरीब!मैं गरीब हूँ?देखते नहीं-मैं तो राम रतन धन पायो।,, क्यों गरीब कहा?,, उस व्यक्ति ने कहा,’’ आप को नही कह रहा हूँ।ऐसे ही ये लोग गरीबों को भी सताते है।आप बैठिये।,, मधुसूदन बैठ गया।फिर उस व्यक्ति ने पूछा,’’आप गरीब नही है तो ये चिथड़े कपड़े क्यों पहने है,, ‘’ चिथड़े नहीं है,यही नरक की पोशाक है।जब स्वर्ग में पहुँच जाऊँगा तो इसे बदल दूँगा।क्या आप स्वर्ग की गली दिखा सकते हैं?,, उस व्यक्ति ने कहा,’’स्वर्ग की गली तो दिखा सकता हूँ परंतु मार्ग बहुत ही खतरनाक है।आप उस पर चल सकते हो तो दिखाऊँ।,, मधुसूदन ने कहा,’’तुम मूर्ख हो।कहो तो रेलवे की लाइन विछवा दूँ,जिस पर भक-भक करती हुई गाड़ी चले। सब खतरा दूर हो जाय।मै गाड़ी पर बैठ कर चलूँगा और तुम गणेश बनकर चूहे की पीठ पर बैठ कर मेरे पीछे-पीछे चले चलना। उस व्यक्ति ने मुस्कुरा कर कहा,’’अच्छा,मै अवश्य आप के साथ चलूँगा,कहकर एक लड़के से कुछ खाने का सामान मँगाया। भोजन देखते ही मधुसूदन ने कहा,'' क्यों?मेरे जीवन दाता! मैं स्वर्ग का देवता! भला देवता भी खाते हैं?,, ''इस समय आप नरक की पोशाक पहने है इसलिये कुछ खाने में दोष नहीं है।,, ''ऐसी बात,'' तब अवश्य खाऊँगा।,, खा लेने के बाद एक सज्जन ने पूछा,''अच्छा, बाबाजी! आप का घर कहाँ है?,, ''मेरा घर?जहाँ मेरा वसेरा वहीं मेरा घर।,, ''अच्छा,आप का नाम क्या है?,, ''मेरा?आई एम मधु......। ''बस इतना ही या और कुछ?,, ''और कुछ लेकर क्या करोगे?,, मधुसूदन की आँखे डबडबा आयीं।वहाँ गाँव के कई लोग आ गये थे।उनमें से एक व्यक्ति ने कहा,''अरे! ये मधुसूदन है क्या?,, उस व्यक्ति की ओर देखकर मधुसूदन ने कहा,''ऐसा न कहो मित्र!मैं अभागा स्वर्ग का स्वामी था।,,उस व्यक्ति ने पूछा,''अच्छा आप के लड़के भी हैं।,, मधुसूदन ने सिर हिलाकर कहा,''क्यों नही?दो लड़के थे।स्वर्ग का उत्तराधिकारी किसे बनाऊँ,यही तो चिन्ता का विषय है।,, एक व्यक्ति ने कुतुहल के साथ कहा,''ये मधुसूदन के अतिरिक्त कोई नही हैं।,, इसी समय एक दूसरे व्यक्ति ने कहा,''मधुसूदन के सिर में दहिने कान के पास चोट लग जाने के कारण एक निशान बन गया था।इनको भी देखा जाय यदि निशान हो तब तो वही हैं अन्यथा यह कोई दूसरा व्यक्ति है।,, इस बात को सुनकर मधुसूदन ने स्वयं कहा,''हाँ है तो,देखते नहीं जो गुल्ली बिलते समय चोट लगी थी।,, इतना सुनते ही सब में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी।एक व्यक्ति ने दो लड़को को श्यामू के पास भेजकर सूचित किया कि आप के पिता आ गये हैं, आकर लिवा जायँ।लड़के दौड़ते हुये श्यामू के पास गये और मधुसूदन के आ जाने की सूचना दी।यह समाचार सुनते ही श्यामू और शाकुल के साथ गाँव के अन्य कई लोग दौड़ पड़े।दूर से ही श्यामू,शाकुल तथा अन्य लोगों को देखकर एक व्यक्ति ने मधुसूदन से कहा,''वह देखिये आप के दोनों लड़के श्यामू और शाकुल आ रहे हैं। मधुसूदन का ह्रदय धड़कने लगा।उन्हों ने लड़को की ओर देखा।देखते ही उनके आँखों मे आँसू के साथ अंधकार छा गया।वे मूर्छित हो कर गिर पड़े।दोनों लड़के उनके पैर पकड़ कर बहुत समय तक रोते रहे।जब उनकी चेतना नहीं लौटी तो एक चारपाई पर लिटा कर उन्हें घर ले जाया गया। घर पहुँच कर उन्हें चैतन्य करने के अनेक उपचार किये गये।उनकी यह दशा देखकर सुनीता भी अपने को सँभाल न सकी,वह भी संज्ञा शून्य हो कर गिर पड़ी।किंतु कुछ ही समय में उसकी चेतना लौट आयी और सँभल कर एक पंखी हाथ में लेकर आँसू बहाती हुई मधुसूदन की सेवा में लग गयी। दो-ढाई घण्टे बाद मधुसूदन ने आँखे खोली।वहाँ उपस्थित सब लोग आनन्द से झूम उठे।मधुसूदन का मस्तिष्क विकार जाता रहा। उन्हों ने चारो ओर दृष्टि दौड़ायी और कहा,''मैं कहाँ हूँ?मुझे घेर कर लोग क्यों खड़े हैं,, श्यामू ने रूँधे हुये कण्ठ से कहा,''पिता जी! आप अपने घर पर हैं और आप को बहुत दिनों के बाद पाकर खुशी से सब घेरे हुये हैं।,, मधुसूदन ने समझ लिया कि यही श्यामू है।अत:उन्हों ने श्यामू की ओर ध्यान से देखा।और उसे ह्रदय से लगाकर कहा,''बेटे!मेरा शाकुल कहाँ है?,, शाकुल भी पास आ गया।शाकुल को भी गोद में लेकर कहा,''बेटे,तुम्हारी माँ का मैं हत्यारा हूँ और तुम्हारा भी।तुम लोगों ने शायद मुझे क्षमा कर दिया।किंतु इससे मैं संतुष्ट नहीं हूँ।तुम लोग मेरे पुत्र होने के अधिकारी तभी हो सकते हो ,जब वही दण्ड-जो दण्ड मैनें तुम्हारी सती माँ को दिया था-मुझे देकर यम लोक पहुँचा दो।,, मधुसूदन की इन बातों को सुन-सुन कर सुनीता और भी अधिक आँसू की वर्षा करती रही।मधुसूदन की बातें समाप्त होते-होते सुनीता ने सामने आ कर कहा,''मेरे स्वामी! मैं जीवित हूँ।,, मधुसूदन ने उसकी ओर देखा और उसके चरणों पर सिर झुका कर कहा,''देवि! इस नराधम मधुसूदन के अपराधों को......को...क्ष........मा.....कर दे..ना।,, इति

धूमिल दर्पण

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

कौंचवध (तृतीय सर्ग से आगे)क्रमशः

चतुर्थ सर्ग     
रात बीतने वाली थी निशिचर घबराये।
तारे थे भयभीत खोजते राह न पाये।
बहता शीतल मंद सुगन्ध पवन सुखराई।
कण-कण में उल्लास,चेतना नयी समाई॥१॥
तमचुर ने दी प्रात-सूचना खेचर बोले।
कलरव करते कर्म हेतु निज-निज पर खोले।
जीव जन्तु सब कर्म लोक के क्रमश: जागे।
पर अति खिन्न मलीन ,तिमिर के भक्त अभागे॥२॥
दिखी सरसिजों के आगन, पर छटा निराली।
गुंजा रव कर यशो गान करती भ्रमराली।
किन्तु कुमुद मन मान , हृदय में शोक समाया।
झाँक चतुर्दिक मौन देखता विधि की माया॥३॥
विहस लताओं ने समोद, रस कलश सजाकर।
अभिनन्दन करती प्रभात का शीश झुका कर।
नर्तन करतीं थिरक, घूम झुक विविध तितलियाँ।
मानो आयी स्वर्ग लोक से भू पर परियाँ॥४॥
कलियों ने मुस्करा सुरभि का कोष लुटाया।
यह-यह महके उठी , धरती की मधुमय काया।
प्राची ने बालरुणा को रेंगते निहारा।
आनु-पणि चलता शिशु जैसे माँ को प्यारा॥५॥

धीरे-धीरे बीत, चला अब रवि का शैशव।
प्रखर तेजमय हुआ जवानी का पा वैभव।
कई लोक के जीव सभी निज लक्ष्य प्राप्त कर।
हुये कर्म मे लीन बढा उत्साह दिखा कर॥६॥
दस्यु राज ने सब कुछ देखा एक-एक कर।
किंतु नही कोई प्रभाव था उसके ऊपर।
पूर्व दिनो की भाँति आज भी कर तैयारी।
लुंठन-हत्या हेतु चला दुष्कर्म पुजारी॥७॥
कर प्रवेश कानन में भीषण वेश बना कर
दस्यु सहचाये को जाने क्या-क्या समझाकर।
जा कर बैठा उस पथ में लक ध्यान कमाये पर।
जहाँ भटक कर प्राय:कोई मानव आये॥८॥
बहुत समय तक रहा प्रतीक्षा में अन्यायी।
पर न अभागा कोई अब तक दिया दिखा में
हो निराश अब लगा सोचने मन में अपनी।
धत् देरी की! नष्ट हो गये सारे सपने॥९॥

चौंका सहसा नभ ध्वनि सी कानो में आयी ।
आशा की नव किरण दिखी मन खुशी समायी ।
जैसे कोई कहता हो-धीरज मत त्यागो।
होगा लाभ महान नही सोओ अब जागो॥१०॥

समझ न सका विवेक-हीन नर प्रभु की माया।
`होगा लाभ महान, सोच फूला न समाया।
इधर-उधर वह लगा देखने टहल-टहल कर।
रुका अचानक किसी ओर से आहट पाकर॥११॥
इसी समय कुछ भटके मानव दिये दिखायी।
उछल पडा वटमार खुशी मन में न समायी।
होगा लाभ महान , अहा प्रत्यक्ष दिखाया।
चलूँ करुँ अब सिद्ध, सुअवसर ऐसा पाया॥१२॥
कुछ ही क्षण में निकट आ गये पथिक अभागे।
देखा नर खूंखार ,खडा था उनके आगे।
विकट वेश को देख चिहुँक कर भगे वटोही।
अदृहास करता दौडा निर्मम-निर्मोही॥१३॥
कुछ बधिक ने कहा,रुको मत परग बढाना।
अब तुमको है प्राण सहित सब कुछ दे जाना।
मूर्खो मेरे चंगुल से बचने की आशा।
होगा लाभ महान आज पलटे गा पासा॥१४॥
हुये पथिक असहाय , शक्ति भग गयी हार कर।
अत: धड़कते हृदय गिरे भू पर आहें भर।
पास पहुँचा अति उग्र बधिक ने कहा डाट कर।
सब कुछ लूँगा मूढ, तुम्हारे शीश काटकर॥१५॥

कैसे साहस हुआ तुम्हें मुझसे बचने का
पाओ गे उपहार ब्यूह ऐसा रचने का।
देख दनुज को पास खडा सुन कर ककेश स्वर।
हुये पथिक निश्चेष्ट चेतना भगी छोड़ कर॥१६॥
कुछ क्षण के उपरान्त चेतना लौटी फिर से।
हाथ जोड़ झुका पथिक कुछ कम्पित स्वर से।
बोले वचन विनीत,नाथ यह भूल हमारी।
क्षमा करें,हम और नही कुछ,मात्र भिखारी॥१७॥
क्षमा शब्द दे नीचा, नही मैंने अपनाया।
दिया दण्ड निर्वाध , यहाँ पर जो भी आया।
अत: न आशा करो कि मै जीवित छोडूँगा।
और स्व कर्तब्यो से अपना मुख मोडूँगा॥१८॥
समय नही,अब दे उपहार तुम्हे चलना है।
अन्य ..............से भी मुझे अभी मिलना है।
कर के काम तमाम रुधिर धरती पर लौटा।
आद्योपान्त टटोल, वहाँ से वापस लौटा॥१९॥

चला सोचते हुये बधिक यह किसकी माया।
मलालय का मधुर प्रलोभन दे भरमाया।
अवसर मिला तुरंत , किन्तु कुछ हाथ न आया।
आज हृदय क्यो क्षुब्ध, हाय कुछ समझ न पाया॥२०॥

कुछ ही पग चल ठमका सहसा आहट पाकर।
लगा देखने चकित चतुर्दिक दृष्टि डालकर।
कहीं दूर से अस्फुट ध्वनि रह-रह कर आती
पडी सुनायी मनो मृत्यु को पास बुलाती॥२१॥
मुडा लक्ष्य की ओर , शीघ्र ही अति प्रसन्न मन।
कब पहुँचे उस ओर, कुतूहल बढ्ता छन-छन।
ध्वनि का पीहल कर के बढा, तो वह जन द्रोही।
पहुँच गया अति शीघ्र, जहाँ निरुपाय वटोही॥२२॥
झपटा श्येन समान क्रूर पथिको के ऊपर।
कर के वे चीत्कार,गिरे मूर्छित हो भू पर।
जो कुछ करना था करके फिर हाथ मीजता।
चला वहाँ से भी मन में अत्याधिक खीजता॥२३॥
दो-दो मिले शिकार किन्तु कुछ नही मिल सका।
आयी मधुर बहार फूल कोई न खिल सका।
यहा लाभ का लोभ अनूठा मुझे सुहाया।
पर उसके विपरीत ,आज फल मैने पाया॥२४॥
कभी मिली थी इसी जगह , वह जादूगरनी।
उसकी ही थी यह शायद मायावी करनी।
अब मारुँगा नही, तुरत, बाँधू गा कसकर।
दे ताड़ना अनेक,प्राण लूँगा हँस-हँस कर॥२५॥

सिर नीचा करके हताश चिन्ता में डूबा ।
बैठा हो कोई जैसा जीवन से ऊबा ।
फिर भी तृष्णा बैठी थी, मन में धर करके।
प्रेरित करती थी, प्राय: चिन्ताएँ हर के ॥२६॥
सिर ऊपर करके लगा देखने कान उटेरे।
सहसा उठ कर खडा हो गया आँख तरेरे।
पहले से भी अधिक क्रोध से विकृत कलेवर।
लगा काँपने महा प्रभंजन से ज्यो तरुवर॥२७॥
इसी समय अनजान पथिक मानव का क्रंदन।
पडा सुनायी खिला बधिक का मानस-नंदन।
पहुँचा दौड़ समीप,जहाँ से ध्वनि थी आयी।
इधर-उधर हो चकित दृष्टि उसने दौडायी॥२८॥
मुडा हार कर क्योकि नहीं कुछ दिया दिखायी।
इस भ्रामक धटना से मन में व्यथा समायी।
मुख मलीन तन शिथिला विफलता हुई सहचरी।
ह्र्दय हुआ दो टूक यथा फटती कटु ककरी॥२९॥
डगमग पग पड़ते चलता आशा को त्यागो।
दिखे पथिक दो अकस्मात ऋषि उसके आगे। 
बिखर रही थी सुरभि अलौकिक उनके तन सें।
छिटक रही थी,अति अद् भुत आया आनन से॥३०॥
दृष्टि पडी जब दुर्जन की ऋषियो के ऊपर।
चका चौध से बंद हुये लोचन आये भर।
किन्तु सभल कर धीरे-धीरे नयन खोल कर।
दस्यु राज बोला पथिकों से कुछ साहस कर॥३१॥
`` कहाँ चले निर्भीक यहाँ मेरा शासन है।
मेरे भय से हिलता , रहता इंद्रासन है।
जो कुछ भी हो पास,उसे देकर ही जाओ।
इस प्रकार हो अभय प्राण अनमोल बचाओ॥३१॥
आज प्रतिज्ञा तोड़ अभय कर दूँगा तुमको।
यदि अपना सब कुछ अर्पित करते ही मुझको।
अभी अन्यथा कुछ पहले जो किया करूँगा।
और घाव अपने डर अति शीघ्र मारुँगा॥,,३३॥
‘’ क्यों हे तात महान ! स्वपथ से भटक गये हो।
दानवता के जंजालो में अटक गये हो।
क्यों गार्हित यह कर्म,कर रहे तज मानवता।
देख तुम्हारे कर्म काँप उठती दानवता॥३४॥
छोड़ आसुरी वृत्ति महा मानव हो जाओ  
भूले-भटके मानव को सन्मार्ग दिखाओ।
जिसमें हो उद्दार  विश्व का और तुम्हारा।
पापों का हो शमन बहे कल्याणी धारा॥३५॥
सुन कर यह उपदेश क्रोध ही अधिक उमरता।
कौन अभागा नाव छोड़ तिर पार उतरता।
शिक्षा –दीक्षा उसे चाहिये जो निर्बुता हो।
उसे न दो उपदेश बाहु में जिसके बल हो॥३६॥
रख अपनी सम्पूर्ण सम्पदा सम्मुख मेरे।
अभयदान ले पुन: लगाओ घर-घर फेरे।
पहले निज उदधार करो फिरता जग का चिन्तन-
करना,अधिक उदार भाव से देकर तन-मन॥३७॥
`` हम त्यागी वैरागी है क्या पास हमारे।
जो दे कर संतुष्ट करे,हर कष्ट तुम्हारे।
वल्कल वसन और हाथों में मात्र कमण्डल।
यही हमारे जीवन अधिकाधिक सम्बल॥३८॥
`` जितना भी है,मुझे चाहिये केवल इतना।
और अधिक की इच्छा करना मात्र कल्पना।
तुम दरिद्र से महा लाभ की आशा करना ।
मात्र मरुस्थल में जा कर के गागर भरना॥३९॥
नहीं चाहता तुम मुझको सौपो सिंहासन।
विश्व सम्पदा प्राप्त करूँ मै जग का शासन।
अब मत करो विलम्ब, कमण्डल ही रख जाओ।
मृत्यु द्वार से वापस जा कर खुशी मनाओ॥४०॥
बेबश से उन ऋषियो ने रख दिये कमण्डल।
आया ज्यों भूचाल कँपा सारा भू मण्डल।
बोल उठे तत्काल महा ऋषि  अन्तर्यामी ।
क्यों करते यह महा पाप हे कानन स्वामी॥४४॥
क्या न तुम्हारे उदर-पूर्ति का कोई साधन?
शेष बचा, यह कर्म कर रहे जिसके कारण।
यदि कोई सत्कर्म कहीं पर भी तुम करते।
तो निश्चित ही निज जीवन सुख पूर्वक भरते॥४५॥
`` प्रश्न नहीं है केवल मेरे ही जीवन का।
अपितु भार मेरे ऊपर परिवार मरण का।
य दिन जीविका हेतु करूँ मै यह जन शोषण।
तो कैसे हो मेरे प्रिय परिजन का पोषण॥४६॥
`` एक प्रश्न है तुमसे हें परिजन-अनुरागी।
क्या होंगे प्रिय लोग पर तकों मे भी मागी?
जा कर पूछो देखो क्या देते है उत्तर।
सुन कर उनके कथन पुन: आ जाओ सत्वर॥४७॥
`` कोई वस्तु तुम्हारे पास अमूल्य बची।
जिससे तुमने भग जाने की चाल रची है।
मुझे पूछने भेज इधर तुम करो पलायन।
प्राणों के ही साथ-साथ बच जाय अतुलधन॥४८॥
मैं न तुम्हारे बहकावे में आ सकता हूँ।
नही छोड़ कर तुम्हे यहाँ से जा सकता हूँ।
अब तक तो मैं यही समझता था हो निर्धन।
किन्तु समझ में अब आया हो कपटी दुर्जन॥४९॥
अब न तलासी लिये बिना तुमको छोडूँगा।
और प्रतिज्ञा पूर्व नहीं अपना तोडूँगा।
अभय दान दूँगा पहले मन में आयो था।
क्यों कि तुम्हारा कपट वेश मुझको भाया था॥५०॥
‘’ नही चाहते वत्स!हमें तुम अभयदान दो।
किन्तु विश्व –वेदना  नाश का समाधान दो।
यदि धन ही सर्वस्व तुम्हारे जीवन में है।
और प्रलय अभिलाषा उसकी यदि मन में है॥५१।।
तो वर्षा अपार वैभव की कर दूँ नभ से।
जिसके लिये जूझते मानव ललक शलभ से।
कही बात जो तात! प्रथम निर्णय कर आओ।
होगा लाभ महान पुन: मुद मंगल गाओ॥५२॥
सोचा मन में दस्यु राज ने यह भी छल है।
बाहर सात्विक रुप हृदय में भरा गरल है।
होगा लाभ महान वास्य कितना सुखदायी।
किन्तु वना है प्रात: से अब तक दुखदायी॥५३॥
असमंजस में पडा बधिक , पहुँचा निर्णय पर।
‘’ यद्पि हैं विश्वास पात्र ये नही कपट नर।
फिर भी इनकी बात मान, मै घर जाऊँगा।
पाप-पुण्य का निर्णय कर वापस आऊँगा॥५४॥
इससे अधिक और क्या होगा,धोखा देंगे।
झूठ बोल बहका कर मेरा क्या ले लेंगे।
डाल-डाल यदि तुम हो सो मै पात-पात पर।
नहीं लगेगी चाह तुम्हारी यहाँ पहुँच कर॥५५॥

लख ऋषियों की ओर कहा उसने साहस कर।
गमन हेतु मैं प्रस्तुत हूँ पर तुम्हे बाँध कर।
‘’ है हमको स्वीकार बाँध दो चाहे जैसे।
बंधन जैसे एक , सभी बंधन है वैसे॥५६॥
अति प्रसन्न ऋषियो को बाँधा उसने कसकर।
विजय गर्व में चूर चल पडा घर को सत्वर।
आज हौसला बढा हुआ था सोच-सोच कर।
अब हूँगा धनवान बडा सब से भूतल पर॥५७।।
यदि होंगे ये सच्चे और वचन के पालक।
तो निश्चित ही हो  जाऊँगा मैं जन पालक।
बडे-बडे धनवान और विद्वान यशस्वी।
ज्ञानी,चिंतक,विज्ञानी शुचि यती तपस्वी॥५८॥
सब आ कर नत मस्तक होंगे सम्मुख मेरे।
और करेंगे पूजा मेरी साँझ सबेरे।
अब दुष्कर्मो से मिल जायेगा छुटकारा।
आज भाग्य का कुछ क्षण में होगा निपटारा॥५९॥
दस्युराज निश्चित हो, मन में सोच विचार।
घर जान के हेतु अब, मुदित हुआ तैयार॥६०॥
॥इति चतुर्थ सर्ग||

पंचम सर्ग
आज मन में था अधिक उत्साह।
भूप होने की ह्र्दय में चाह।
प्राप्त करने परिजनो का स्नेह।
जा रहा था शीघ्रता से गेह॥१॥
वेग से बढता रहा अविरक्त ।
स्वप्न के संसार में अनुरक्त।
थी ललक कब पहुँच जाये गाँव।
प्राप्त उत्तर पुन: आ उस ठाँव॥२॥
ऋषि युगल से बता उत्तर सार।
फिर कमाऊँ धन अपूर्व अपार।
सोचता था पहुँच कर निज गेह ।
दूर कर दूँ मै ह्र्दय-संदेह॥३॥
मृदु सपनों में मग्र शीघ्र ही पहुँचा घर पर।
कहा, बुला कर स्वजनों से उसने मुस्काकर।
एक बात मै पूछ रहा, तुम लोग बताओ।
नि:संकोच भाव मन के सब प्रकट जताओ॥४॥
मैं प्रतिदिन दुष्कर्म करुँ, जीविका कमाऊँ।
और किसी दिन एक घरी भी चैन न पाऊँ।
सो कर ले सुख नीद, जाग आनन्द मनाओ।
हो करके निश्चिन्त कमाई मेरी खाओ॥५॥

तो क्या मेरे पापों मे भी भागी होंगे॥
जो भी दण्ड मिलेगा, उसको बँटवा लोगे |
यदि है यह स्वीकार ,भार कुछ भी तो ढोलो।
झूठ बोलना पाप इसलिये झूठ न बोलो॥६॥
यदि स्वीकृति मिल जाय मुझको आज तुम्हारी।
तो मै करता रहूँ पाप भारी से भारी।
माँ की ममता बोल उठी हे पुत्र! समागे।
यह क्यो छोटी बात रख रहे मेरे आगे॥७॥
प्रस्तुत हूँ मै पाप-ताप सब कुछ बाटूँगी।
निशि-दिन दुख-सुख साथ तुम्हारे मै काटूँगी।
किन्तु वत्स ! यह अधम कमाई क्यो करते हो।
जड़ पदार्थ के लिये चेतना क्यों हरते हो॥८॥
बार-बार कहती आयी कुछ पुण्य कमाओ।
मानवता की रक्षा कर जीवन सुख पाओ।
पर आश्चर्य ! आज बाते करते ज्यों त्यागी।
पाप-पुण्य की कैसे मन में इच्छा जागी॥९॥

‘’ होगा लाभ महान आज अवलम्बे।
उसी के लिये आना पडा पूछने अम्बे।
बोल उठे इस बीच पिया जैसे घबराये।
तात! तुम्हारी बात आज मुझको न सुहाये॥१०॥

वत्स! पाप मे तो भागी मैं हो सकता हूँ ।
किंतु दण्ड में कभी न साझी हो सकता हूँ।
चाहो तो तुम करो उपार्जन त्याग भाव से।
अथवा दूर हटो कर्कश पहले स्वभाव से॥११॥
बोली पली, साधिकार,हे भाग्य विधाता।
पाप –पुण्य  तो स्वयं दम्पती मे बँट जाता।
किंतु दण्ड तो वही भोगता मिलता जिसको।
उसके सुख-दुख की चिन्ता होती है किसको॥१२॥
दुष्कर्मो को त्याग सुपथ पर यदि आ जाये।
तो निश्चित कि अनमोल रस बिन माँगे पायें।
विनती मेरी यही पाप कर्म से हट कर।
करें विश्व कल्याण मनोबल तन से डट कर॥१३॥
बोले अन्य सदस्य निकट आ रलाकर के।
चाह रहे हो जो बतलाओ समझकर के।
पडा सुनाई हमे चले हो पाप बाँटने।
यदि इतनी ही बात तो चले सिंधु पाये॥१४॥
जैसे सम्भव नहीं कभी सागर का पटना।
तथा असम्भव पाप-पुण्य का भी सम बँटना।
कान खोल कर सुनो क्षमा हो अधिक ढिठाई।
नही चाहिये हमें तुम्हारी अधम कमाई॥१५॥
हम हैं भाई सत्य,नहीं पर दास क्रीत है।
यह जग की है रीति, विभव के सभी मीत है।
अत: न आशा करो,दण्ड हम सब भोगेंगे।
और कलंक तुम्हारा सारा हम धो देंगे॥१६॥
खडा रहा रलाकर कुछ क्षण मन में गुनता।
फिर चल पडा सग्लानि साश्रु चिंतित सर धुनता।
माँ ने देखा सजल नयन सुत को जब आते।
ममता उठी पुकार पुत्र क्यों मुझे भुलाते॥१७॥
ठमक गया रलाकर सुन माता की वाणी।
अब क्या शेष रह गया है? अम्बे कल्याणी।
किंतु भूल गयी जननि ! मैंने व विचारा।
विना लिये आशीष चला यह अधम तुम्हारा॥१८॥
कुक्षि-सीप में माँ तूने मोती था पाला।
जो कि गरल से भरा नहीं वह पानी वाला।
उसने सब आशाओं पर पानी है फेरा।
पर पानी के लिये जा रहा मोती तेरा॥१९॥
मेरी ममता छोड़ और तब पुत्र कई हैं।
मैं चलता उत्तान किन्तु बे सब विनयी हैं।
मुझको दे आशीष, अकंटक हो पथ मेरा।
नूतन मिले प्रकाश, नष्ट हो घना अँधेरा॥२०॥
सजल नयन माँ बोली , सुत को गले लगा कर।
‘’ क्यों करते आघात पुत्र मानस दर्पण पर।
पहले कभी नही देखा था  तुमको ऐसा।
आज खिन्न, मन मात्र वदन दिखते हो जैसा॥२१॥
मेरा यह आशीष अकंतक राहे पाओ।
त्याग आसुरी वृत्ति,महा मानव हो आओ।
‘’ आने का अब नाम न लो, मुझको जाना है।
ऋषियो का आदेश आज मुझको पाना है॥२२॥
माँ के चरण पखार नयन जल से उदास मन।
जन्म भूमि का शीश झुका करके अभिवादन।
हो कर भाव विभोर, भूमि को फिर-फिर चूमा।
पुन: विपिन की ओर लगा रज सिर पर घूमा॥२३॥
जाते हुये कनखिओ देखा रोती माल।
फिर भी पत्थर जमा हृदय पर तोडा नाता।
अब स्वतंत्र था भार रहित थी उसकी काया।
पर भीतर था पाप कर्म का ताप समाया॥२४॥
पिछ्ली बातें सोच-सोच सिर धुनता जाता।
ज्यों अपने कर काट पैर कोई पछताता।
जीवन का अनमोल समय बिन मोला गँवाया।
कर का हीरा फेंक राख पर अधिक लुभाया॥२५॥
अब तक जिनके पास पापकर मूल गँवाया।
आज उन्हों ने ही लख मुझको मुँह विचकाया।
नहीं किसी का दोष जगत व्यवहार यहीं है।
केवल फल से काम विटप से प्यार नही है॥२६॥
जग में जितने जीव सभी के भिन्न मनोरथ ।
चिंतन सब के अलग-अलग सब के विभिन्न पथ।
‘’ अत: नही जग-जंजालो में मुझको फँसना।
और नही भौतिक वैभव से निज को लसना॥२७॥
देव शक्तियों के सम्मुख अब कैसे जाऊँ?
जा कर उनके पास , कौन सा मुँह दिखलाऊँ?
अथवा अब किस भाँति करुँ मै क्षमा याचना।
साहस नही हो रहा जा कर करुँ प्रार्थना॥२८॥
जिस मेरे सम्मुख भीषणता भी मय खाती।
ऊपर को सिर उठा नहीं बातें कर पाती।
वही आज मैं साहस शक्ति विहीन हो गया।
भीतर का अभिमान और उत्साह खो गया॥२९॥
जिनको मैंने अपराधी कह कर दण्ड दिया है।
मात्र नही अपराध महा अपराध किया है।
हाय उन्ही के सम्मुख अपराधी हो जाता
माँगूजा कर क्षमा नही साहस हो पाता॥३०॥
साहस हो या नहीं किन्तु अब क्षमा माँगने-
के अतिरिक्त न मार्ग दूसरा रहा सामने।
अत: क्षमा की भीख , माँग कर पाया शमन का-
पूछूँ सहज उपाय,जीव संताप हरण का॥३१॥
हरता-गुनता पहुँच गया,अति व्यथित  वहाँ पर।
बाँधा था ऋषियो को उसने मुदित जहाँ पर।
अदभुत दृश्य विलोक हो गया छक्का-वक्का।
जिससे लगा ह्रदय पर उसके,गहरा धक्का॥३२॥
वृक्ष सहित ऋषि नही दिखायी दिये कही पर।
धड़कने बढी ह्रदय की, मूर्छित गिरा वहीं पर।
कुछ क्षण तक वह पडा रहा वेसुध भूतल पर।
धीरे-धीरे जगी चेतना उठा सँभल कर ॥३३॥
आँखे खुली देव ऋषियों को देख सामने।
अति आश्चर्य चकित हो थर-थर लगा काँपने।
भूला सब संसार और सुध तन की खोयी।
जैसे जादूगर का खेल देखता कोई॥३४॥
समय बढा ऋषि-चरणो में आँसू वरसाता।
व्याकुल अधम अधीर माँगते क्षमा लजाता।
किंतु ह्रदय के मूल भाव थे क्षमा माँगते।
रलाकर था सुप्त शान्त,पर ज्वार जागते॥३५॥
तुष्ट हुये ऋषि देख ह्रदय का यह परिवर्तन।
उठा लगाये ह्रदय दिये आशीष मुदित मन।
पा कर अनुपम स्नेह  ह्रदय  की कली खिल गयी।
मानो उसे अपार दिब्य सम्पदा मिल गयी॥३६॥
पृष्ठ भाग पर एक, हाथ दूसरा शीष पर।
फेर स्नेह की वर्षा करके शुचि मुनीश वर।
बोले वचन सस्नेह,`तात अब चिन्ता त्यागो।
और ह्रदय में जो भी इच्छा हो वह माँगो॥३७॥
किंतु हुये तुम वत्स आज क्यों इतने कातर?
और ह्रदय की गति इतनी क्यों हुई तीव्रतर?
क्या कोई अनहोनी हुई तुम्हारे घर पर?
जिससे हुआ तुम्हारे जीवन तरु में पतझर?॥३८॥
घर वालों से जो उत्तर पाये न बताये।
बतलाओ संदेश तात! क्या ले कर आये।
बोलो यदि लालसा विभव की तो बरसाऊँ।
और तुम्हारे जन परिजनो को खुशी बनाऊँ॥३९॥
‘’ नही-नही गुरुदेव ! नही अब धन की इच्छा
अपराधो के लिये क्षमा की दें प्रभु भिक्षा।
अहंकार वश समझ न सका मूल्य जीवन का।
जिससे दिशा विहीन हुआ मै लोभी धन का॥४०॥
नही दूसरी चाह ,नाथ कोई भी मेरी।
ऐसा करें उपाय, कटे पापों की वेरी।
एक लालसा शेष,दनुज से मनुज कहाऊँ।
भटक रही मानवता , को सन्मार्ग दिखाऊँ॥४१॥
अब तक तो मैं वाम पंथ का था अनुयायी।
लम्पट, कपटी,कुटिल क्रूर दुर्जन अन्यायी।
हटा आवरण आँखो का कुछ दिया दिखायी॥४२॥
प्रभुवर करे शीघ्रता दक्षिण पथ दिखलाये
मेरे पापो का प्रायश्चित नाथ बतायें।
और लगी जो आग पाप की उसे बुझायें।
जिससे उजडा जीवन उपवन फिर लहराये॥४३॥

‘’ हम न तुम्हारे अपराधो से वत्स ! रुष्ट हैं।
अपितु ह्रदय परिवर्तन से अत्यन्त तुष्ट है।
राम-नाम ही पाप-मुक्ति का केवल साधन।
अत: लगाओ राम नाम से अपना तन मन॥४४॥
राम नाम की नौका पर सवार हो प्यारे।
भव सागर कर पार ,छोड़ कर सभी सहारे।
राम-राम कह यही हमारी अन्तिम दीक्षा।
पूर्ण हो गयी पुत्र तुम्हारी आज परीक्षा ॥४५॥
आँखे कर के वन्द , रस्म में ध्यान लगाओ।
भुला सकल संसार राममय तुम हो जाओ।
नेत्र निमीलित हुये दिखी ऋषियो को छाया।
छाया के अतिरिक्त और कुछ देख न पाया॥४६॥
भरा महा अभिमान , भरी मन की पंचलता॥
जरा-मरण मर गया, मरी हार्दिक दुर्बलता।
भरा भमत्व मोह मद मत्सर भरी कुटिलता।
भरा मनोहर भौतिक सुख मिट गयी जटिलता॥४६॥
अत: कुछ समय ध्यानावस्थित रहन सका वह श्रद्धावान।
आँखे खुली सामने देखा वही युगल ऋषि अन्तर्धान।
मौ चक्का सा खडा वही पर रहा देखता कुछ क्षण मौन।
धीरे-धीरे चला वहाँ से मन में गुनता ये थे कौन॥४८॥
॥इति पंचम सर्ग॥

षष्ठ सर्ग
थी विदुत की शक्ति अभी तक जिन बाहों में
करती वज्राघात विज्ञायिनी वन-राहों में।
वही आज असहाय पडी चिन्ता में डूबी।
मृत भुजंग सी शिथिल पूर्व जीवन में उठी॥१॥
वही ह्रदय जो पवि से भी लोहा लेता था।
प्रवल शक्तियों को चुनौतियों जो देता था।
आज मोम सा चक्षु-द्वार  से मृदुल पिघल कर।
निकल प्रलय का दृश्य दिखाता जैसे बाट्टर॥२॥
झंझा वात समान जो चरण मानो उड़कर
पहुँचा करते थे स्वलक्ष्य तक कभी मोद भर।
वे ही पक्षाघाताहत से शक्ति-हीन हो।
दिखते है असमर्थ शिथिल अत्यन्त दीन हो॥३॥
जिन आँखो से फूटा करती भीषण ज्वाला।
हो जाता था भस्म सामने आने वाला।
वही नेत्र हो गये आज सावन के जलधर।
करते अविरल वृष्टि उमड़ता करुणा सागर॥४॥
आहत पक्ष हीन पक्षी सा आहें भरता।
पश्चाताप पूर्व करनी पर रह-रह करता।
किं कर्तब्य विमूढ,कौन सा पथ अपनायें।
जो दे सके सुशान्ति,  ह्रदय की जलन बुझाये॥५॥

या कि विविध जंजालो वाले पथ पर चलकर।
करुँ अधिक दुष्कर्म रुप धर विकट भयंकर।
किन्तु नही वह पंथ ग्राह्य जो त्याग चुका हूँ।
अपनाना ऋषि मंत्र जिसे स्वीकार चुका हूँ॥६॥
दृढ निश्चय कर उठा महौषधि यथा मिल गयी।
रग-रग में उत्साह ह्रदय की कली खिल गयी।
वह विहार का क्षेत्र, परम पावन मन भावन।
जहाँ तपस्वी ऋषि-मुनि करते प्राय: चिन्तन ॥७॥
तमसा-तीर गहन कानन में टहल-टहल कर।
लगा खोजने तपोभूमि ,रमणीय कलुष हर।
कितना समय व्यतीत,हो गया किन्तु न पाया।
स्थान तपस्या योग्य, ह्रदय नैराश्य समाया॥८॥
फिर भी कृत संकल्प खोज में था वह तत्पर।
था अद्भुत उत्साह, प्रकाशित उसका अन्तर।
दृढ निश्चय कर जो बढता है कर्म रेख पर
दूरस्थ भी सिद्धि रीझती उसे देखकर॥९॥
एक दिब्य आलोक मची मोहक मनमायी।
दिखी सामने शिला,तपस्या सी सुखदायी।
मन में अधिक प्रसन्न,चतुर्दिक दृष्टि डालकर।
देखा अद्भुत भाव ह्रदय में प्रभा भाल पर॥१०॥
सुन्दर वह था वृक्ष, सुखद थी जिसकी छाया।
मानो तप के लिये तपस्वी तरुवर आया।
विटप नेक गुरु वट से दीक्षा लेने आ कर।
प्रस्तुत निशि-दिन चरणो में ज्यों शीश झुका कर॥११॥
ललित लताओ ने वृक्षो कलिये सहारा।
रंग बिरंगे सुमनो को चरणों पर वारा।
शिष्य मण्डवी सहित खुआश्रम अक्षय वट का।
देख हो गया मुग्ध तपस्वी वीता खटका॥१२॥
पूर्ण व्यवस्थित वट महर्षि का आश्रम पाकर।
बैठ शिला पर हुआ तपस्या-रत रलाकर।
ऋषियों का आदेश मुखरहो उठा अचानक।
राम नाम ही शमित करेगा पाप भयानक॥१३॥
राम नाम की अद्भुत नौका पर सवार हो।
चला नया जीवन पाने भव सिन्धु पार हो।
ध्यानावस्थित मन में माला राम नाम की।
जपने लग गयी बढ शुचिता ह्रदय धाम की॥१४॥
पहले तो मन उचट-उजट जाया करता था।
मोह यान पर बैठा मड़राया करता था।
धीरे-धीरे रमा राम में मन मतवाला।
मिटा धोरतम तिमिर ह्रदय मे हुआ उजाला।।१५॥
घोर तपस्या लीन हुये मति-मुक्ता निखरी।
जगी ज्योति मानस में अदभुत तन सुधिविसरी।
वल्मीकि का बना घरौदा ऋषि-तन ऊपर।
बाहर ढूहे सा दिखता पर नर वषु भीतर॥१६॥

तप करते दिन बीते कितने,रावे कितनी।
कुछ भी रहा न ध्यान,तपी थी धुन मे अपनी।
एक दिवस आ गये टहलते हुये प्रचेता।
रुके अचम्मित दृश्य देख जो मन हरलेता॥१७॥
कौतूहल वश उस ठूहे के पास पहुँच कर ।
लगे निरीक्षण करने श्रेष्ठ ध्यान लगाकर।
देखा दो विवरो से नि:सृत ज्योति विलक्षण।
प्राणि-चक्षुरो का अनुमान कर लिया तत्क्षण॥१८॥
अत: सुनिश्चित समझ तपी कोई तपरत है।
ब्रह्मानन्द विलीन क्षणिक तन-सौख्य विरत है।
सोचा मन में ऋषि समाधि अब कैसे टूटे।
सूझा एक उपाय मृत्तिका जैसे छूटे॥१९॥
ला तमसा से नीर कमण्डल भर-भर निर्मल।
उस ढूहे पर डाल सलिल धोते थे मल-मल।
धीरे-धीरे प्रकट हुई मानव की काया।
देख प्रचेता के मन में संतोष समाया॥२०॥
कुछ क्षण के पश्यात तपी ने नेत्रोन्मीलन।
कर के देखा खडे प्रचेता अति प्रसन्न मन।
अत: किया सम्मान प्रचेता का ऋषिवर ने।
उमडी ममता गले लगाया करुणाकर ने॥२१॥

फैली आभा ऋषि आश्रम में छटा निराली।
आज मानती प्रकृति यथा स्वयमेव दिवाली।
सुर-मानव का मिलन देख अतिशय सुखदायी।
सिहर उठा कण-कण में थी खुशी समायी॥२२॥
स्वच्छ गगन था मग्न  मग्न थी सकल दिशाएँ।
गिरि-कानन के तरु प्रसन्न सब ललित लताएँ।
शीतल, मन्द सुगंध समीर मुदित मन भावन।
रमता चारो ओर भाव भरता अति पावन॥२३॥
बहती तमसा कल-कल करती मुस्क्याती सी।
हर्ष व्यक्त कर चली जा रही इठलाती सी।
कहीं गूँजती विविध खगो की साम रागिनी।
प्रमुदित मृग कुल की क्रीडाएँ मनो हरिणी॥२४॥
उठती चारो ओर हर्ष की विविध तंरगे।
जड़ चेतन सब में छाई थी प्रबल उमंगे।
स्वागतार्थ रलाकर के सब ऋषि-मुनि आये।
देख रहे थे विधि-विधान टक टकी लगाये॥२५॥
धो वल्मीकि जगाये गये प्रचेता द्वारा।
अत: हुआ विख्यात नाम प्राचेवस प्यारा।
प्रकट हुये वल्मीकि गर्भ से महा तपस्वी।
अत: कहाये वाल्मीकि जग विदित मनस्वी।।२६॥
प्राचेतस-सर्वज्ञ प्रचेता कुछ विषयो पर।
कर के वार्तालाप हुये संतुष्ट परस्पर।
पा कर नेक जटिल प्रश्नो के समुचित उत्तर।
भाव विभोर तपस्वी ने फिर कहा सोचकर॥२७॥
देव सुनाये राम नाम माहात्भ्य मनोहर।
जिससे इन जीवन की नौका पहुँचे तट पर।
महामंत्र वह राम नाम मेरा आवलम्बन
अत: प्रबल जिज्ञासा से प्रेरित मेरा मन॥२८॥
जो देने का भाव प्रचेता मे था जागा।
था ऐसा संयोग वही ऋषिवर ने माँगा।
अत: हुये तत्काल सुनने मे विधि तत्पर।
राम नाम की महिमा पावन और सुरुचिकर॥२९॥
ध्यान मग्न हो वाल्मीकि ने अन्तर्मन से।
सुन महिमा कमनीय जुडी जो जम जीवन से।
परमानन्दित हुये श्रवण कर विधि की वाणी।
जगती मे जो मानवता के हित कल्याणी॥३०॥
देकर राम नाम महिमा का,
महा मंत्र स्रष्टा महिमान।
स्नेहिल दृष्टि डाल ऋषिवर पर
हुये अचानक अन्नतर्धान॥३१॥
॥इति षष्ठ सर्ग॥

सप्तम सर्ग
बीतराग वाल्मीकि महामुनि के जीवन का।
लगा बीतने समय यथा क्रम नव्य सृजन का।
राम नाम के महामंत्र का जाप निरन्तर।
करते रहे समोद त्याग भौतिक सुख नश्वर।।१॥
पावन सलिला तमसा के तट नित प्रति जाते।
कर के मंजन पान ह्रदय का कलुष मिटाते।
संध्या ,वन्दन, ध्यान,आदि जीवन अवलम्बन।
था संतोष अपार शान्ति सुख से पुलकित तन॥२॥
लगता जीवन में जैसे कुछ शेष अब नहीं।
लक्ष्य हो गया पूर्ण भटकना व्यर्थ अब कहीं।
इस प्रकार दिन-रात स्वयं को मुक्त मानते।
जीवन का बहुमूल्य समय सामान्य जानते॥३॥
लगे बिताने दुर्लभ नर-जीवन का क्षण-क्षण।
दिखता अब उत्साह का नही कोई लक्षण।
अत: हुये निश्चिन्त नहीं तृष्णा कोई थी।
और सृजन की शक्ति, नयी अब भी सोई थी॥४॥
देख पूर्ण सन्तुष्ट और निष्क्रिय मुनिवर को।
चिन्ता हुई विशेष , आज यह सर्वेश्वर को।
जटिल समस्या सोच लगे अब करने चिन्तन।
कैसे होगा छिन्त , मनुज जीवन-भव-बन्धन॥५॥

जैसे भी हो  फिर उपाय मुझको करना है।
सुप्त शक्ति जग जाय, भाव ऐसा भरना है।
कृत संकल्प ब्रह्म ने माया का आवाहन-
किया और योजना बनायी एक खिन्न मन॥६॥
जीव साथ फिर मर्त्यलोक हमको चलना है।
उदासीन  संतुष्ट , पुरुष को ये छलना है।
द्रवित हो जाय बहे करुणा की धारा।
मिटे उदासी विहँस उठे जग जीवन सारा॥७॥
माये! तुमको क्रौची का अभिनय करना है।
जीव! क्रौच हो तुम्हें हाथ मेरे भरना है।
करके धारण रुप बधिक का बाण भयंकर।
तुम्हें बना कर लक्ष्य उसे छोडूगा सत्वर॥८॥
उड़ कर चलो सवेग पहुँच कर कुछ ही पल में।
क्रीडा करो समोद, उतर तमसा के जल में।
बना मनोहर रुप, विमल छबि अधिक बिखेरो।
हों विमुग्ध सब जीव, दृष्टि सब की यों फेरो॥९॥
त्रिगुण मयी साकार मूर्तियों तीनो चल कर।
करती पार अपार पंथ पहुँचीं भूतल पर।
देखा तमसा तट की मनोहरिणी छबि को।
जो कर सकती है प्रदान प्रेरणा सुकवि को ॥१०॥
फिर देखा मोहक , सरिता का अति निर्मल जल।
बहता जो अविराम मनोरम झलमल झलमल।
क्रौंच दम्पती अति हर्षित जल में प्रवेश कर।
रति क्रीडा में मग्न हो गये प्रभु निदेश पर॥११॥
देख अलौकिक रुप, मुग्ध हो गये चराचर।
अन्य विहग जल-जन्तु चकित थे नवल दृश्य पर।
सव स्वकर्म से विरत देखते निनिमेष थे।
क्रौंच मिथुन के रुप तथा जो कुछ विशेष थे॥१२॥
टूटा मुनि का ध्यान कुटी से बाहर आये।
देख प्रकृति के भाव चतुर्दिक चकित दिखाये।
पूर्व भाव सब लुप्त रहे नूतनता छायी।
मानो सब ने मुक्ति स्वकर्मो से है पायी॥१३॥
फिर स्नान के लिये उठा कौपी न कमण्डल।
किया तुरत प्रस्थान हुये बहु शकुन सुमंगल।
करते तर्क-वितर्क आज क्यों होने वाला।
ऐसा होता मान, दिखेगा दृश्य निराला॥१४॥
हरते-गुनते पहुँचे गये तमसा के तीरे।
देख सुअवसर बधिक चल पडा धीरे-धीरे।
मुनि ने किये प्रवेश शुभम तमसा के जल में।
उधर कौंच के निकट व्याध पहुँचा कुछ पल में॥१५॥
अभी स्नान में व्यस्त रहें मुनि जल के भीतर।
तभी दृष्टि जा पडी क्रौंच-क्रौंची के ऊपर।
अद्भुत रुप निहार मुग्ध हो गये मुनीश्वर।
करते विविध विचार मुदित भीतर ही भीतर॥१६॥
अवगाहन कर आये निकल सलिल से बाहर।
उधर बधिक ने बाण चढाया प्रत्यंचा पर।
किया विशिष संघान लक्ष्य था क्रौंच निराला।
भीषण ध्वनि के साथ बाण से निकली ज्वाला॥१७॥
हुआ चेतना-शून्य विहग का मसृण कलेवर।
देख करुण यह दृश्य , तपी का बदला तेवर।
आग बबूला हुये देख यह कुत्सित घटना।
उन्हे क्या पता परम ब्रह्म की यह रचना॥१८॥
क्रूर कर्म दुर्दान्त देख यह,
मुनि ने विष का घूट पिया।
मंत्र-पूत जल लें अंजलि में,
हिंस्र व्याध को शाप दिया॥१९॥
रे निषाद! शत-शत वर्षो तक,
तू न प्रतिष्ठा प्राप्त करे।
काम मुग्ध जो क्रौंच मिथुन से।
एक जीव से प्राण हरे॥२०॥
वेद गिरा से भिन्न, देववाणी में नि:सृत।
कवि मुख से यह नूतन भाषा वृत्त अनुष्टुप।
मुनि के अभ्यन्तर से निकला जो छन्द था।
उसका भी उल्लेख यहाँ अनिवार्य है॥२१॥
या निषाद प्रतिष्ठां त्वम गम:
शश्वती समा:।
यत क्रौंच मिथुना देकमवधी:
काम मोहितम्॥२२॥
यद्पि थी गौरव की बात ।
नवल छन्द भाषा जन जात।
फिर भी कवि को था आश्चर्य।
मन में था भय अति कादर्य॥२३॥
आह!वेदों का उल्लंघन।
हुआ मुझसे उदेलित मन।
हो कैसे मेरा उद्धार।
मन में था यह दु:ख अपार॥२४॥
इसी समय देखा क्रौंची को,
करती हुई करुण क्रंदन।
भूल गये दुख पाप ताप का,
भूल गये संध्या वन्दन॥२५॥
उमड़ी करुणा ह्र्दय द्रवित था।
मिटी आन्तरिक दुर्बलता।
बहुत समय तक रहे देखते,
क्रौंची की वह विह्लता॥२६॥
फिर से अंजलि में पावन जल,
उसको यह वरदान दिया।
जा तू अमर रहेगी युग-युग।
क्रौंच साथ कर नेक क्रिया॥२७॥
वधिक,मिथुन की ही इच्छा पर,
नाचे गानित इधर-उधर।
कभी प्रतिष्ठा पान सकेगा,
जैसे अपराधी अनुचर॥२८॥
दिया शाप ऋषि ने, निषाद को,
भक्ति विजयिनी सफल रही।
ब्रह्म-प्रतिष्ठा में अब तक भी
इसी लिये मत,एक नहीं॥२९॥
कोई कहता राम रुप में,
ब्रह्म स्वयं आया भू पर।
धर्म सुजन की रक्षा की है।
विविध भाँति नर लीला कर॥३०॥
कोई कहता परशु राम को,
मनुज नहीं अवतार लिया।
दंमी अन्यायी राजाओं-
का: जिसने मद चूर्ण किया॥३१॥
कोई कहता कृष्शा न मानव,
निराकार साकार बना।
सर्व नाश कर दुष्प्रवृत्ति का,
सुजनो का आधार बना॥३२॥

महावीर को कुछ लोगों ने,
स्वयं ब्रह्म साकार कहा ।
जिसके द्वारा जन-जीवन में,
करुणा का नव स्त्रोत बहा॥३३॥
वुद्ध देव गांधी तक मे भी,
कुछ ने ब्रह्म रुप देखा।
जिनसे सत्य,अहिंसा,व्रत की,
खिची जन ह्र्दय में रेखा॥३४॥
कोई कह अद्वैत ,द्वैत कहता है कोई।
और विशिष्टा दैत वाद का पोषक कोई।
द्दैता द्दैत वाद का कोई हुआ पक्षधर।
कोई कहता सर्वशक्ति युत है एकेश्वर॥३५॥
भेदा भेद वाद का कोई चिन्तक भारी।
कोई शुद्धा द्दैत वाद का परम पुजारी।
शैव विशिष्टा द्दैत वाद का कर प्रतिपादन।
कोई कहता परम ब्रह्म सुख का आस्वादन॥३६॥
‘’ शून्य ब्रह्मा सत् चित् चेतन,
आनन्द मयी है उसकी सृष्टि।
इधर-उधर सर्वत्र व्याप्त है,
जहाँ-जहाँ जाती है वृष्टि॥३७॥

अति परिचय के कारण मानव,
करता हुआ अवज्ञा भ्रांत।
दौड़ लगाता है निशि वासर,
कस्तूरी मृग सरिस अशान्त॥३८॥
अभी न जाने कितने ही वादों का जाल विछा है।
जिनसे उलझी ब्रह्म प्रतिष्ठा था मुनि-शाप छिपा है।
अत: चलें उस देश जहाँ व्याकुल क्रौंची के लोचन।
अश्रु-पात कर रहे निरन्तर जैसे पावस के धन॥३९॥
प्रियतम वियोग में मर्माहत,
जीवन की पूर्व कथाओं को।
कहती विलास करती मानो,
शब्दो में व्यक्त व्यथाओं को ॥४०॥
हे नाथ! कहाँ तुम चले गये,
दे दु:ख छीन मेरा सुहाग।
हा! प्रात काल में अकस्मात,
यह गूँज उठा कैसा विहाग?॥४१॥
हा प्रियतम साथ तुम्हारे रह,
माना स्वलेकि उवर आया।
जो वहाँ सुरों को भी दुर्लभ,
वह सब कुछ सहज यहाँ पाया॥४२॥

पर हा! मेरी सुख सुविधाएँ,
वह बधिक छीन कर ले भागा।
जिसकी न कल्पना कभी रही,
वह विरह काल हो कर जागा॥४३॥
हे नाथ कहीं बैठे होते,
विधु से अपकी किरणे पसार।
तो हाय! चकोरी सी इक-टक,
जी लेती मैं तुमको निहार॥४४॥
हे प्राण नाथ मेरी नैया-
को छोड़ गये तुम मध्य धार।
हा! किन अपराधो का कठोर,
यह दण्ड दे गये उदार॥४५॥
हे प्रियतम! मेरे सपनों की,
थी सरस लहलही फुलवारी।
जिसको तुम नाली पोषक थे,
पर छीट चल दिये चिनगारी॥४६॥
अब किससे साथ प्रयाण करुँ,
मै महा अभागिन हूँ अवला।
हा! एकाकिनी कहाँ जाऊँ?
कोई तो आकर कहे भला॥४७॥
आधार शिलाएँ खिसक गयी,
मेरा स्वनिल संसार ढहा।
मेरे प्रलयंकर आँसू में,
उसका सारा अवशेष बहा॥४८॥
चक्रवाकी है फिर भी धन्य।
हुआ निशि  विरह प्रात संयोग।
अभागिन मैं कैसे संतोष?
करुँ, सह निशि-दिन विषम वियोग॥४९॥
मुझे सानंद स्नेह से देख,
परो के बीच चंचु को डाल।
कण्डु कण्डन करते जब नाथ,
आ! वे क्षण करते वेहाल॥५०॥
सहचरी मात्र निराशा एक,
विलखतीसाथ-साथ निरुपाय।
मुझे कर देने को निश्चिन्त,
विविध विधि करती नेक उपाय ॥५१॥
दिवस तो रो-धो किसी प्रकार।
बीत जायेगा दुख के साथ।
उगलती रजनी तम विकराल,
बीत पायेगी कैसे नाथ?॥५२॥
जहाँ रहा किसी वृक्ष की डाल,
निपिड़ तम में भी था आह्राद।
वहीं किस  भाँति अकेली हाय,
रह सकूँगी सह विषम विषाद॥५३॥
शर्वरी का सन्नाटा घोर,
व्याप्त होगा जब चारों ओर।
अकेली सिमट स्वयं में आप,
श्रवण कर तम का भैरव शेर॥५४॥
‘’ नही है क्षमा योग्य अपराध ,
तुम्हारा अधम निर्दयी पाप। 
उजाडा मेरा मृदु संसार,
आह!यह असहनीय संताप॥५५॥
किन्तु करती मै अनुनय एक,
मुझे भी पहुँचा प्रिय के पास।
भूल जाऊँगी सब अपराध,
मान लो विषय न करो हताश॥५६॥
क्रौंची के क्रन्दन से आहत,
वन पात गिरे पिघले पाहन।
सरिता का सहज प्रभाव रुका,
हो द्रवित श्रवण कर करुण रुदन॥५७॥
रुक गयी पवन की गति चंचल।
सुन ह्रदय विदारक आर्त नाद।
मानो आगे का पथ रोके,
था खडा हुआ भीषण विषाद॥५८॥
आहत नभ ह्रदय कराह उठा
बढ गयी मलिनता धन छाये।
विदुत नेत्रों से झाँक-झाँक,
दुर्दिन के आँसू बरसाये।।५९॥
रवि-रथ आगे को बढ न सका,
विह्ल क्रौंची का सुन विलाप।
जो प्रखर अलौकिक तेज रहा,
पड़ गया अचानक मंद आप ॥६०॥
डगमगी धरित्री अकस्मात।
घबराये सब सचर अचर।
कोई कहता है एक  अधी,
ले डूब नैया बीच भंवर ॥६१॥
भू पलट न जाय प्रलय आये,
यह सृष्टि विलीन न हो जाये।
यह चहल-पहल आनंद मयी,
युग-युग के लिये न सो जाये ॥६२॥
॥इति सप्तम सर्ग॥



अष्टम सर्ग
मिथ्या जग प्रपंच में फँस कर,
मैंने झंझट मिल लिया।
जैसे कोई मान न भरता,
करता, पर हित विविध क्रिया॥१॥
बदले में है यह क्या पाता?
जन जीवन से मूढ उपाधि,
यथा तिक्त कड़वी कहलाती
औषधि हरने वाली व्याधि॥२॥
सृष्टि खिलौना मेरे कर का,
जैसे चंग बाज की चंग।
उसके संचालन हित रहते,
सक्रिय उसके सारे अंग॥३॥  
रहें सुरक्षित सृष्टि-खिलौने,
मैंने किये अनेक उपाय।
किन्तु देख अपनी असफलता,
हुआ इस समय अधिक हताश॥४॥
किया प्रयत्न  सुरक्षा के हित,
पर न सफलता प्राप्त हुई।
मानवता के प्रहरी की ज्यों।
ओजस्विता  समाप्त हुई॥५॥

अब भी निष्क्रिय भटक रहा वह,
जैसे अब कुछ शेष नहीं।
जीवन लक्ष्य न ज्ञात हो सका,
जो हो रहा विशेष वही॥६॥
फिर भी पुन: प्रयास करुँगा,
मानवता का हो उपकार।
जिसके सिर दायित्व बोझ है,
हो सुसृष्टि पर अधिक उदार॥७॥
विविध विचारो सें निमग्न थी,
ब्रह्म चेतना सत्य गयी।
जो न विफलताओ से विचलित-
होता वही निश्चित विजयी॥८॥
सोचा एक उपाय ब्रह्म ने,
नारद का आहान किया।
वीणा झंकृत हुई तुरत ही,
मुनिवर ने प्रस्थान किया॥९॥
नारायण ध्वनि ध्वनित विपंची,
पहुँचे मुनिवर ब्रह्म समीप।
देखा सर्वेश्वर ने मुनि को
यथा तिमिर में जलता दीप॥१०॥
नत मस्तक संकुचि भाव से,
पूछा मुनि ने,`` क्या आदेश?
‘’ मर्त्यलोक मे जा कर कवि को,
देना है सम्यक उपदेश॥११॥
राम कथा पावन सुर सरिता,
हो प्रवाहिता भूतल पर
जिसमें अवगाहन कर मानव,
तर जाये भवाब्धि दुस्तर॥१२॥
एवमस्तु कह सिर घर आज्ञा,
मुनिवर चले भूमि की ओर।
यद्पि पंथ अपार दीखता,
लगता जैसे ओर न छोर॥१३॥
किन्तु तपस्या के विमान पर,
बैठे मुनीश्वर शुद्ध विचार।
मर्त्य लोक के लिये चल पडे,
जैसे ज्योति पुंज साकार॥१४॥
देह-चतुर्दिक प्रभा फूटती,
जिसके मध्य मनीश महान।
चले जा रहे अति प्रशन्न मन।
करते नारायण का ध्यान॥१५॥
इधर तपोधन वाल्मीकि-
आश्रम से ऋषियो ने देखा।
चली आ रही अन्तरिक्ष से,
जैसे स्वयं चन्द्र-लेखा॥१६॥
कुछ क्षण में ही कहा किसी ने,
इन्द्र धनुष का मर्दित चूर्ण
धनीभूत हो चला आ रहा,
अपनी विभा दिखाता पूर्ण ॥१७॥
नहीं-नहीं यह वाडग्नि जो,
मुक्त उदधि से चढी गगन।
देख वहाँ से भूमि कलुष को,
चली जलाने उसे मगन ॥१८॥
अथवा धूम केतु उत्तेजित,
देख धरा का वैभव मान।
ईर्ष्या जनित भाव से प्रेरित,
चला आ रहा काल समान॥१९॥
कुछ क्षण में ही अन्य किसी ने,
कहा सुमेर पिघल कर के।
चला आ रहा मर्त्यलोक में,
सुर सरि का अभिनय कर के॥२०॥
कहा एक ने यह अद्भुत फल,
मेघ वाटिका का श्रृन्गार।
लता चंचल समुदभूत यह,
चला आ रहा नभ के पार॥२१॥

दिया दिखायी किसी-किसी को,
यह कृशानु सरि लहराती।
चली आ रही बेगवती शुभ,
कल-कल करती इठलाती॥२२॥
कोई कहता सूर्य-सारथी,
अरुण भूल कर अपनी राह।
हाँका अश्वों को मनमाने,
अहा! वही दिखते दिननाह॥२३॥
धीरे-धीरे सब ने देखा,
आमा वेष्टित मनुज शरीर।
कोमल कान्त मनोहर सुन्दर,
शान्ति समान्वित धीर गम्भीर॥२४॥
क्रमश: और निकट आने पर,
सब को हुई सत्य पहचान।
तीन काल के द्रष्टा नारद,
चले आ रहे ज्ञान विधान॥२५॥
ब्रह्म लोक से चल कर नारद,
पहुँच गये ऋषियों के बीच।
की प्रफुल्लित तपी वाटिका,
पावन ह्र्दय सुधा से सींच॥२६॥

जिसने सुना देव ऋषि आये,
ब्रह्म लोक से भू पर धीर।
सब के मन में जगी लालसा,
कब हो दर्शन हुये अधीर॥२७॥
लगा बीतने युग सा क्षण-क्षण,
अत: चल दिये बिना बिलम्ब।
जैसे व्यथित अनाथ पा गया,
अकस्मात कोई अवलम्ब॥२८॥
लगे पहुँचने एक-एक कर,
मुनि-समीप था हर्ष अपार।
हुये समर्पित मुनि चरणों में,
जड़ चेतन शुचि विगत विकार॥२९॥
फिर स्वागत सेवा मे तत्पर,
हुये सश्रध्दा भक्ति समेत,
स्नेहिल दृष्टि डालकर सब पर,
हुये तुष्ट मुनि कृपा निकेत॥३०॥
दर्शनेच्छ सब धन्य हो गये,
कर नारद के शुभ दर्शन।
सब में शक्ति शौर्य था अद्भुत ,
अति हर्षित थे जड़-चेतन॥३१।।

जन्म सफल निज सब ने माना,
आज समस्या हुई समाप्त।
मानो सिद्धि साथ नारद के,
आयी हुई चतुर्दिक व्याप्त॥३२॥
सब थे मग्न विविध भावों मे,
बाह्याभ्यन्तर पुलकित अंग।
पर न बुझी थी प्यास चाह थी,
रहें सर्वदा सुर-मुनि संग॥३३॥
देखा नारद ने प्रसन्न मन,
है सब मोह ग्रस्त पथ हीन।
हो जायेंगे ये आगंतुक,
निश्चित ही कर्तब्य विहीन॥३४॥
मात्र विदा अति शीघ्र समस्या का निदान है।
क्योकि मोह कर्तब्य हीनता का प्रमाण है।
दे कर शुभ संदेश, और आशीष ह्रदय से।
विदा किया सब को सुर मुनि ने शुचि आशय से॥३५॥
विदा सुन खिन्न हुये सब लोग।
दुखद था वह देवर्षि वियोग।
पर आज्ञा धर शिर पर मौन।
किया मन छोड़ देह से गौन ॥३६॥
  ॥इति अष्टम सर्ग॥
नवम सर्ग
बीती विभावरी हुआ प्रात,
पुलकित सर सीरुह ह्र्दय जात।
मतवाले मधुपो का गुंजन,
थिरकें मधु परियाँ मुग्ध मगन॥१॥
शीतल सुरक्षित चल मंद पवन,
करता आह्र्दित तपो सदन।
आलोक अलौकिक था बिखरा,
सौंदर्य प्रकृति का था निखरा॥२॥
था वातावरण सरस मधुमय।
मानो सुकाल का हुआ उदय।
सब में आशा विश्वास जगा।
आहत हताश तम तोम भगा॥३॥
था सर्वत्र शान्ति का शासन।
बैर त्याग सब जीव मुदित मन।
एक साथ करते थे विचरण।
सत्य अर्थ में आज तपोवन॥४॥
देख अलौकिक दृश्य मनोहर,
शान्ति समन्वित सभी चराचर।
शुभ मुहूर्त है यही सुअवसर,
अत:आदि कवि को प्रेरित कर॥५॥
पूरा करुँ लक्ष्य मनगलमय
जिसका पाकर मानव आश्रय।
निज जीवन को सफल बनायें।
सुख संतोष शान्ति सब पायें॥६॥
मृदु कल्याणी वाणी में, बोले देवर्षि महान।
कविवर जागो देखो होने वाला सुखद विहान।
सुप्ति मरण, जागरण सजीवन करता नव निर्माण।
आये हो तुम धरा धाम में,करने जन कल्याण॥७॥
गत रजनी अब ऊषा सुन्दरी कंचन थाल सजाकर।
थिरक रही है आज चतुर्दिक हेम कलवा छलका कर।
प्रमुदित प्रकृति मानती उत्सव अनुपम ललित ललाम।
फैला धरती पर मनमोहक नवल दृश्य अविराम॥८॥
विविध विहंगम कलरव  करते बजी रागिनी साम।
गुंजित मधुकर निकर मनोहर सरसिज पर अभिराम।
मलय समीरण मंद-मंद चल करता सौरभ दान।
मधुमय वातावरण ह्र्दय हर सुषमा स्वर्ग समान॥९॥
सिद्धि समुत्सुक स्वागतार्थ ले ज्ञान विभव उपहार।
अब न गवाओ यह शुभ अवसर ग्रहण करो साभार।
बोलो कविवर कुछ तो बोलो क्यों बैठे हो मौन।
यदि न अकिंचन दान नृपति का ले तो दोषी कौन ॥१०।।

तुम समर्थ हो कर सकते हो सुखकारी सत्कर्म।
फिर प्रमाद क्यों करते मुनिवर!पालन करो स्वधर्म।
नयी सृष्टि के अपूर्व कर्ता उठो करो निर्माण।
जैसे सफल बधिक होता है चला लक्ष्य पर वाण॥११॥
`` आह देवर्षि चला कर बाण,
सृजन कैसा कैसा निर्माण।
आह क्रौंची का वह रोदन,
कर रहा ह्र्दय घाव नूतन॥१२॥
हुआ जिससे अनिष्टकर पाप,
त्याग वैदिक पथ अपने आप,
चल पडा अन्य राह अनजान।
समस्या का दिखता न निदान॥१३॥
हो गया सारा जीवन व्यर्थ,
ढो रहा देह-भार असमर्थ।
सुझाये भगवन सहज उपाय,
कि जिससे पाप पुण्य हो जाय ॥१४।
जिसे पाप तु समझ रहे हो,
वह वाणी का शुभ वरदान।
सूत्र पात्र कर नयी सृष्टि का,
विचल रहे हो क्यो मतियान॥१५॥

जीवन धन्य उसी का जग को-
नयी दिशा जो देता।
और भूल कर भी सुकर्म से,
जो विश्राम न लेता ॥१६॥
पहले तो मानव शरीर पा,
जगती मे तुम धन्य हो गये।
और दूसरे ताप प्रभाव से,
प्रभु के भक्त अनन्य हो गये॥१७॥
तिस पर भी माँ सरस्वती को-
मंगलमय वरदान पा गये।
जिसको पाप समझ कर भ्रम वश ,
कितना समय अमूल्य खा गये॥१८।।
शेष तुम्हारे जीवन का वह-
मूल्य समय अधिकांश पडा है।
कविवर व्रत लो नव रचना का,
अभी नही कुछ भी बिगडा है॥१९॥
अकस्मात संस्कृत भाषा में,
आदि छंद का जो अवतार-
हुआ श्रेय तुमको ही कविवर,
अत: करो उसका विस्तार॥२०॥

दृढ निश्चय कर उठो कवीश्वर,
करो लोक हित में वह कार्य।
जिसके लिये धरा पर आये,
और तुम्हें करना अनिवार्य॥२१॥
ऐसा चरित लिखो कविवर जो,
मानवता की परिभाषा हो।
वह इतिहास लोक मन रंजन,
जिसमें काब्यमयी भाषा हो॥२२॥
यदि कोई हो जटिल समस्या,
तो उसका भी समाधान है।
सुनो कवीश्वर! मनुज के लिये,
कुछ न कठिन सब का निदान है॥२३॥
`` जिसे समझा था मैने पाप।
बताते पुण्य उसी को आप।
मिल गयी देव! मुझे अब शान्ति।
मिट गयी आज ह्रदय की भ्रान्ति॥२४॥
आप का सिर माथे आदेश,
सुनाये गुरुवर! कथा विशेष।
लेखनी का जो हो आधार,
और जन जीवन का सुखसार॥२५॥

कौन इस समय लोक विख्यात,
यशस्वी अति पावन गुणवान।
भक्त वत्सल दीनों का बंधु,
सुधर्म धुरी सर्वज्ञ महान॥२६॥
जगत में जिसका चरित पवित्र,
अनूपम अति प्रसिद्ध महनीय।
प्रजा जन हो जिसके अनुकूल,
त्याग की मूर्ति, करे करणीय ॥२७॥
शान्त सुर से करता जो कर्म ,
स्वार्थ से विरत दया की मूर्ति।
दु:ख सबका जो समझ विशेष,
करे उनकी इच्छा की पूर्ति॥२८॥
जिसे दुखियों की चिन्ता नित्य,
रहा करती हो अपने आप।
स्वकष्टो का कर कभी न ध्यान,
दूर करता हो दुख-ताप॥२९॥



सज्जनो का जो वैरी घोर,
मिटा दे जो उसका अस्तित्व।
और जो आतंतिक भयभीत,
बचा ले उसका नर-व्यक्तितव॥३०॥

हे महर्षि! सर्वज्ञ सुजान,
जिसकी यशो कौमुदी व्याप्त।
कर के उस नर का गुण गान,
प्राप्त हो जिससे सुख पर्याप्त॥३१॥
॥इति नवम सर्ग ॥