रविवार, 30 अप्रैल 2023

राम की शक्ति पूजा

यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

महाप्राण निराला द्वारा रचित "रामकी शक्ति पूजा"


रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल – परिवर्तित – व्यूह – भेद कौशल समूह
राक्षस – विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध – कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि – राजीवनयन – हतलक्ष्य – बाण,
लोहितलोचन – रावण मदमोचन – महीयान,
राघव-लाघव – रावण – वारण – गत – युग्म – प्रहर,
उद्धत – लंकापति मर्दित – कपि – दल-बल – विस्तर,
अनिमेष – राम-विश्वजिद्दिव्य – शर – भंग – भाव,
विद्धांग-बद्ध – कोदण्ड – मुष्टि – खर – रुधिर – स्राव,
रावण – प्रहार – दुर्वार – विकल वानर – दल – बल,
मुर्छित – सुग्रीवांगद – भीषण – गवाक्ष – गय – नल,
वारित – सौमित्र – भल्लपति – अगणित – मल्ल – रोध,
गर्ज्जित – प्रलयाब्धि – क्षुब्ध हनुमत् – केवल प्रबोध,
उद्गीरित – वह्नि – भीम – पर्वत – कपि चतुःप्रहर,
जानकी – भीरू – उर – आशा भर – रावण सम्वर।

लौटे युग – दल – राक्षस – पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार – बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज – पति – चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित हैं वातावरण, नमित – मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर – सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा – मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल – विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।
बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर – पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या – विधान
वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,
सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,
यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर – फिर संशय
रह – रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार – बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-
काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर

राम की शक्ति पूजा ( पृष्ठ 2 )

फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।

बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग ‘अस्ति-नास्ति’ के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;
साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम – धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम – नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,
देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
“ये अश्रु राम के” आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति – खेल – सागर अपार,
हो श्वसित पवन – उनचास, पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग – भंग, उठते पहाड़,
जल राशि – राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश – भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण – महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम – पूजन – प्रताप तेजः प्रसार;
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन – कूजित,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले- “सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय – शरीर,
चिर – ब्रह्मचर्य – रत, ये एकादश रूद्र धन्य,
मर्यादा – पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,
लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।”

कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।
बोली माता “तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?”
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,
“हे सखा” विभीषण बोले “आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।

 

राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / (पृष्ठ 3)

कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?

सब सभा रही निस्तब्ध
राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-“मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।” कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-“आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।

शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!”

कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-“रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,
मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।”

खिल गयी सभा। “उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!”
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,
देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
“मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।”

राम की शक्ति पूजा पृष्ठ( 4)

कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,
“देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।”
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,
“चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।”
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।

क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
“धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

“यह है उपाय”, कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”

राम की शक्ति पूजा पृष्ठ (5)

कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
“साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!”
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।

“होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।”
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।

जयशंकर प्रसाद जी की महत्वपूर्ण पंक्तियां

यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

जयशंकर प्रसाद जी की प्रसिद्ध पंक्तियां-

1. ’’तुम भूल गए पुरूषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की।’’

2. ’औरों को हँसते देख मनु, हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।’’

3. ’’नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।।’’

4. ’’बीती विभाबरी जाग री, अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नगरी।।’’

5. ’’बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से।
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ है हीरो से।’’

6. ’’जो घनीभूत पीङा थी मस्तक में, स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसु बनकर, वह आज बरसने आई।।

7. ’’दोनों पथिक चले है कब से ऊँचे-ऊँचे, चढ़ते-बढ़ते’’
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साह से बढ़ते-बढ़ते’’

8. ’’हिमगिरी के उंतुग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।’’

9. ’’ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों हो पूरी मन की।
एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की।।’’

10. ’’उधर गजरती सिंधु लहरियाँ, कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रही फेन उगलती, फन फैलाए व्यालों सी।’’

11. ’’प्रकृति के यौवन का शृंगार, न करेंगे कभी बासी फूल।’’

12. ’’ओ चिन्ता की पहली रेखा, अरी विश्व वन की व्याली।’’

13. ’’नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पदतल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।’’

14. ’’रो-रोकर, सिसक-सिसक कर, कहता मैं करूणा कहानी।
तुम सुमन नोचते सुनते, करते जानी अनजानी।’’

15. ’’इस करूण कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती।
क्यों हाहाकार स्वरों में, वंदना असीम गरजती।।’

कामायनी के सन्दर्भ में विद्वानों का कथन

यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

कामायनी के सन्दर्भ में विद्वानों का कथन

“वर्तमान हिंदी कविता में दुर्लभ कृति” – हजारी प्रसाद द्विवेदी
“विश्व साहित्य का आठवाँ काव्य ” – श्याम नारायण
“आधुनिक हिंदी कविता का रामचरित मानस” – रामनाथ सुमन
“विराट सामंजस्य की सनातन गाथा” – विश्वम्भरनाथ मानव
“आर्ष ग्रन्थ” – डॉ. नागेन्द्र
“आधुनिक हिंदी काव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ” – शुक्ल जी
“मधुरस से सिक्त महाकाव्य” – रामरतन भटनागर
“मानवता का रसात्मक इतिहास” – नन्द दुलारे वाजपेयी
“कामायनी समग्रता में समासोक्ति का विधान लक्षित करती है” – डा. नागेन्द्र
“इसकी अन्तेर्योजना त्रुटिपूर्ण और समन्वित प्रभाव की दृष्टि से दोषपूर्ण है” – शुक्ल जी
“छायावाद का उपनिषद” – शांतिप्रिय द्विवेदी
“फंतासी कृति” – मुक्तिबोध
“एक क्म्पोजीसन” – रामस्वरूप चतुर्वेदी
“यह अपने आप में चिति का विराट वपु मंगल है – डॉ. बच्चन सिंह
सर्वोत्तम महाकाव्य है- हरदेव बाहरी
1. कामायनी मानव चेतना का महाकाव्य है।यह आर्ष ग्रन्थ है।–नगेन्द्र
2. कामायनी फैंटेसी है।- मुक्तिबोध
3.कामायनी एक असफल कृति है।- इन्द्रनाथ मदान
4. कामायनी नये युग का प्रतिनिधि काव्य है।- नन्द दुलारे वाजपेयी
5.कामायनी ताजमहल के समान है- सुमित्रानन्दन पंत
6.कामायनी एक रूपक है- नगेन्द्र
7.कामायनी विश्व साहित्य का आठवाँ महाकाव्य है- श्यामनारायण
8. कामायनी दोष रहित दोषण सहित रचना रामधारी सिंह दिनकर
9. कामायनी समग्रतः में समासोक्ति का विधान लक्षित करती है- डॉ नगेन्द्र
10. कामायनी आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य है- नामवार सिंह
11. कामायनी आधुनिक हिन्दी साहित्य का सर्वोत्तम महाकाव्य है- हरदेव बाहरी
12.कामायनी मधुरस से सिक्त महाकाव्य है- रामरतन भटनाकर
13. कामायनी विराट सांमजस्य की सनातन गाथा है -विशवंभर मानव
14.कामायनी का कवि दूसरी श्रेणी का कवि है -हजारी प्रसाद द्विवेदी
15. कामायनी वर्तमान हिन्दी कविता में दुर्लब कृति है- हजारी प्रसाद द्विवेदी
16. कामायनी में प्रसाद ने मानवता का रागात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है जिस प्रकार निराला ने तुलसीदास के मानस विकास का बड़ा दिव्य और विशाल रंगीन चित्र खिंचा है-रामचन्द्र शुक्ल
17. कामायनी छायावाद का उपनिषद है- शांति प्रिय द्विवेदी
18.कामायनी को कंपोजिशन की संज्ञा देने वाले-रामस्वरूप चतुर्वेदी
19.मुक्तिबोध का कामायनी संबंधि अध्ययन फूहड़ मारक्स वाद का नमूना है-बच्चन सिंह
20.कामायी जीबन की पूनर्रचना है -मुक्तिबोध
21.कामायनी मनोविज्ञान की ट्रीटाइज है -नगेन्द्र
22.कामायनी आधुनिक समीक्षक और रचनाकार दोनों के लिए परीक्षा स्थल है -रामस्वरूप चतुर्वेदी

कामायनी महाकाव्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्य 

✍️सर्ग 15
👉मुख्य छंद – तोटक
👉कामायनी पर प्रसाद को मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार मिला है
👉काम गोत्र में जन्म लेने के कारण श्रद्धा को कामायनी कहा गया है।
👉कामायनी के पांडूलिपी संस्करण का प्रकाशन 1971 में हुआ।
👉प्रसाद ने कामायनी में आदिमानव मुन की कथा के साथ साथ युगीन समस्याओं पर प्रकाश डाला है।
👉कामायनी का अंगीरस शांत रस है।
👉कामायनी दर्शन समरसता – आनन्दवाद है।
👉कामायनी की कथा का आधार ऋग्वेद,छांदोग्य उपनिषद् ,शतपथ ब्राहमण तथा श्री मद्भागवत हैं।
👉घटनाओं का चयन शतपथ ब्राह्मण से किया गया है।
👉कामायनी की पूर्व पीठिका प्रेमपथिक है।
👉कामायनी की श्रद्धा का पूर्व संस्करण उर्वशी है।
👉कामायनी का हृदय लज्जा सर्ग है।

कामायनी महाकाव्य का परिचय

यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

कामायनी महाकाव्य का परिचय

कामायनी महाकाव्य का परिचय में बता दें कि इसको आधुनिक हिन्दी साहित्य का गौरवग्रन्थ माना गया है। यह रहस्यवाद का प्रथम महाकाव्य है। सृष्टि के रहस्य पर विवाद करने वाली दो मुख्य विचारधाराएँ हैं; एक भारतीय, दूसरी पाश्चात्य। पाश्चात्य विचार धारा जो डारविन के सिद्धान्त पर आधारित है। भारतीय विचार मनस्तत्व प्रधान है।

प्रकाशन वर्ष – 1935
कुल सर्ग – 15
सर्ग का क्रम – चिंता आशा श्रद्धा काम वासना लज्जा कर्म ईर्ष्या इडा स्वप्न संघर्ष निर्वेद दर्शन रहस्य आनंद
अंगीरस – शांत (निर्वेद)
मुख्य पात्र – मनु, श्रद्धा, इडा कुमार
मुख्य छंद – ताटक
दर्शन – शैव
प्रतीक – मनु – मन, श्रद्धा – हृदय, इडा – बुद्धि,कुमार – मानव
सर्गों में विशेष छंद
आल्हा छंद – चिंता सर्ग आशा सर्ग स्वप्न सर्ग निर्वेद सर्ग
लावनी छंद – रहस्य सर्ग इडा सर्ग श्रद्धा सर्ग काम सर्ग लज्जा सर्ग
रोला छंद – संघर्ष सर्ग
सखी छंद – आनन्द सर्ग
रूपमाला छंद – वासना सर्ग
पुरस्कार – मंगलाप्रसाद पारितोषिक

'श्रद्धा' सर्ग काव्य खंड

   ' श्रद्धा ' सर्ग काव्य खंड 


कौन तुम! संसृति-जलनिधि तीर 

तरंगों से फेंकी मणि एक, 

कर रहे निर्जन का चुपचाप 

प्रभा की धारा से अभिषेक! 

मधुर विश्रांत और एकांत— 

जगत का सुलझा हुआ रहस्य, 

एक करुणामय सुंदर मौन 

और चंचल मन का आलस्य!” 

सुना यह मनु ने मधु-गुंजार 

मधुकरी का-सा जब सानंद, 

किए मुख नीचा कमल समान 

प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद; 

एक झिटका-सा लगा सहर्ष, 

निरखने लगे लुटे-से, कौन— 

गा रहा यह सुंदर संगीत? 

कुतूहल रह न सका फिर मौन! 

और देखा वह सुंदर दृश्य 

नयन का इंद्रजाल अभिराम; 

कुसुम-वैभव में लता समान 

चंद्रिका से लिपटा घन श्याम। 

हृदय की अनुकृति बाह्य उदार 

एक लंबी काया, उन्मुक्त; 

मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल 

सुशोभित हो सौरभ संयुक्त। 

मसृण गांधार देश के, नील 

रोम वाले मेघों के चर्म, 

ढँक रहे थे उसका वपु कांत 

बन रहा था वह कोम वर्म। 

नील परिधान बीच सुकुमार 

खुल रहा मृदुल अधखुला अंग; 

खिला हो ज्यों बिजली का फूल 

मेघ-बन बीच गुलाबी रंग। 

आह! वह मुख! पश्चिम के व्योम— 

बीच जब घिरते हों घन श्याम; 

अरुण रवि-मंडल उनको भेद 

दिखाई देता हो छविधाम। 

या कि, नव इंद्र नील लघु शृंग 

फोड़ कर धधक रही हो कांत; 

एक लघु ज्वालामुखी अचेत 

माधवी रजनी में अश्रांत। 

घिर रहे थे घुँघराले बाल 

अंस अवलंबित मुख के पास; 

नील घन-शावक से सुकुमार 

सुधा भरने को विधु के पास। 

और उस मुख पर वह मुस्क्यान! 

रक्त किसलय पर ले विश्राम 

अरुण की एक किरण अम्लान 

अधिक अलसाई हो अभिराम। 

नित्य यौवन छवि से ही दीप्त 

विश्व की करुण कामना मूर्ति; 

स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण 

प्रकट करती ज्यों जड़ से 
उषा की पहिली लेखा कांत, 

माधुरी से भींगी भर मोद; 

मद भरी जैसे उठे सलज्ज 

भोर की तारक द्युति की गोद। 

कुसुम कानन-अंचल में मंद 

पवन प्रेरित सौरभ साकार, 

रचित परमाणु पराग शरीर 

खड़ा हो ले मधु का आधार। 

और पड़ती हो उस पर शुभ्र 

नवल मधु-राका मन की साध; 

हँसी का मद विह्वल प्रतिबिंब 

मधुरिमा खेला सदृश अबाध। 

कहा मनु ने, “नभ धरणी बीच 

बना जीवन रहस्य निरुपाय; 

एक उल्का-सा जलता भ्रांत, 

शून्य में फिरता हूँ असहाय। 

शैल निर्झर न बना हतभाग्य 

गल नहीं सका जो कि हिम-खंड, 

दौड़कर मिला न जलनिधि अंक 

आह वैसा ही हूँ पाषंड। 

पहेली-सा जीवन है व्यस्त 

उसे सुलझाने का अभिमान, 

बताता है विस्मृति का मार्ग 

चल रहा हूँ बन कर अनजान। 

भूलता ही जाता दिन-रात 

सजल अभिलाषा कलित अतीत; 

बढ़ रहा तिमिर गर्भ में नित्य, 

दीन जीवन का यह संगीत। 

क्या कहूँ, क्या कहूँ मैं उद्भ्रांत? 

विवर में नील गगन के आज, 

वायु की झटकी एक तरंग, 

शून्यता का उजड़ा-सा राज। 

एक विस्मृति का स्तूप अचेत, 

ज्योति का धुँधला-सा प्रतिबिंब; 

और जड़ता की जीवन राशि 

सफलता का संकलित विलंब। 

“कौन हो तुम वसंत के दूत? 

विरस पतझड़ में अति सुकुमार! 

घन तिमिर में चपला की रेख, 

तपन में शीतल मंद बयार। 

नखत की आशा किरण समान, 

हृदय की कोमल कवि की कांत— 

कल्पना की लघु लहरी दिव्य 

कर रही मानस हलचल शांत!” 

लगा कहने आगंतुक व्यक्ति 

मिटाता उत्कंठा सविशेष; 

दे रहा हो कोकिल सानंद 

सुमन को ज्यों मधुमय संदेश:- 

“भरा था मन में नव उत्साह 

सीख लूँ ललित कला का ज्ञान 

इधर रह गंधर्वों के देश 

पिता की हूँ प्यारी संतान। 

घूमने का मेरा अभ्यास, 

बढ़ा था मुक्त व्योम-तल नित्य; 

कुतूहल खोज रहा था व्यस्त 

हृदय सत्ता का सुंदर सत्य। 

दृष्टि जब जाती हिम-गिरि ओर 

प्रश्न करता मन अधिक अधीर, 

धरा की यह सिकुड़न भयभीत 

आह कैसी है? क्या है पीर? 

मधुरिमा में अपनी ही मौन, 

एक सोया संदेश महान, 

सजग हो करता था संकेत; 

चेतना मचल उठी अनजान। 

बढ़ा मन और चले ये पैर, 

शैल मालाओं का शृंगार; 

आँख की भूख मिटी यह देख 

आह कितना सुंदर संभार! 

एक दिन सहसा सुंधु अपार 

लगा टकराने नग तल क्षुब्ध; 

अकेला यह जीवन निरुपाय 

आज तक घूम रहा विश्रब्ध। 

यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न, 

भूत-हित-रत किसका यह दान! 

इधर कोई है अभी सजीव 

हुआ ऐसा मन में अनुमान। 

तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत? 

वेदना का यह कैसा वेग? 

आह! तुम कितने अधिक हताश 

बताओ यह कैसा उद्वेग! 

हृदय में क्या है नहीं अधीर, 

लालसा जीवन की निश्शेष? 

कर रहा वंचित कहीं न त्याग 

तुम्हें, मन में धर सुंदर वेश! 

दु:ख के डर से तुम अज्ञात 

जटिलताओं का कर अनुमान, 

काम से झिझक रहे हो आज, 

भविष्यत् से बन कर अनजान। 

कर रही लीलामय आनंद, 

महा चिति सजग हुई सी व्यक्त, 

विश्व का उन्मीलन अभिराम 

इसी में सब होते अनुरक्त। 

काम मंगल से मंडित श्रेय 

स्वर्ग, इच्छा का है परिणाम; 

तिरस्कृत कर उसको तुम भूल 

बनाते हो असफल भवधाम। 
“दु:ख की पिछली रजनी बीच 

विकसता सुख का नवल प्रभात; 

एक परदा यह झीना नील 

छिपाए है जिसमें सुख गात। 

जिसे तुम समझे हो अभिशाप, 

जगत की ज्वालाओं का मूल; 

ईश का वह रहस्य वरदान, 

कभी मत इसको जाओ भूल। 

विषमता की पीड़ा से व्यस्त 

हो रहा स्पंदित विश्व महान; 

यही दु:ख सुख विकास का सत्य 

यही भूमा का मधुमय दान। 

नित्य समरसता का अधिकार, 

उमड़ता कारण जलधि समान; 

व्यथा से नीली लहरों बीच 

बिखरते सुखमणि गण द्युतिमान!” 

लगे कहने मनु सहित विषाद:- 

“मधुर मारुत से ये उच्छ्वास 

अधिक उत्साह तरंग अबाध 

उठाते मानस में सविलास। 

किंतु जीवन कितना निरुपाय! 

लिया है देख नहीं संदेह 

निराशा है जिसका परिणाम 

सफलता का वह कल्पित गेह।“ 

कहा आगंतुक ने सस्नेह:- 

“अरे तुम इतने हुए अधीर! 

हार बैठे जीवन का दाँव, 

जीतते मर कर जिसको वीर। 

तप नहीं केवल जीवन सत्य 

करुण यह क्षणिक दीन अवसाद; 

तरल आकांक्षा से है भरा 

सो रहा आशा का आह्लाद। 

प्रकृति के यौवन का शृंगार 

करेंगे कभी न बासी फूल; 

मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र 

आह उत्सुक है उनकी धूल। 

पुरातनता का यह निर्मोक 

सहन करती न प्रकृति पल एक; 

नित्य नूतनता का आनंद 

किए हैं परिवर्तन में टेक। 

युगों की चट्टानों पर सृष्टि 

डाल पद-चिह्न चली गंभीर; 

देव, गंधर्व, असुर की पंक्ति 

अनुसरण करती उसे अधीर। 

“एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड 

प्रकृति वैभव से भरा अमंद; 

कर्म का भोग, भोग का कर्म 

यही जड़ का चेतन आनंद। 

अकेले तुम कैसे असहाय 

यजन कर सकते? तुच्छ विचार! 

तपस्वी! आकर्षण से हीन 

कर सके नहीं आत्म विस्तार। 

दब रहे हो अपने ही बोझ 

खोजते भी न कहीं अवलंब; 

तुम्हारा सहचर बन कर क्या न 

उऋण होऊँ मैं बिना विलंब? 

समर्पण लो सेवा का सार 

सजल संसृति का यह पतवार, 

आज से यह जीवन उत्सर्ग 

इसी पद तल में विगत विकार। 

दया, माया, ममता लो आज, 

मधुरिमा लो, अगाध विश्वास; 

हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ 

तुम्हारे लिए खुला है पास। 

बनो संसृति के मूल रहस्य 

तुम्हीं से फैलेगी वह बेल; 

विश्व भर सौरभ से भर जाए 

सुमन खेलो सुंदर खेल। 

“और यह क्या तुम सुनते नहीं 

विधाता का मंगल वरदान— 

‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो, 

विश्व में गूँज रहा जय गान। 

“डरो मत अरे अमृत संतान 

अग्रसर है मंगलमय वृद्धि; 

पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र 

खिंची आवेगी सकल समृद्धि। 

देव-असफलताओं का ध्वंस 

प्रचुर उपकरण जुटाकर आज; 

पड़ा है बन मानव संपत्ति 

पूर्ण हो मन का चेतन राज। 

चेतना का सुंदर इतिहास 

अखिल मानव भावों का सत्य; 

विश्व के हृदय-पटल पर दिव्य 

अक्षरों से अंकित हो नित्य। 

विधाता की कल्याणी सृष्टि 

सफल हो इस भूतल पर पूर्ण; 

पटें सागर, बिखरें ग्रह-पुंज 

और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण। 

उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प 

कुचलती रहे खड़ी सानंद; 

आज से मानवता की कीर्ति 

अनिल, भू, जल में रहे न बंद। 

जलधि में फूटें कितने उत्स 

द्वीप, कच्छप डूबें-उतराएँ; 

किंतु वह खड़ी रहे दृढ़ मूर्ति 

अभ्युदय का कर रही उपाय। 

विश्व की दुर्बलता बल बने, 

पराजय का बढ़ता व्यापार 

हँसाता रहे उसे सविलास 

शक्ति का क्रीड़ामय संचार। 

शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त 

विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय; 

समन्वय उसका करें समस्त 

विजयिनी मानवता हो जाए।

यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य

"कामायनी" 'श्रद्धा' सर्ग की व्याख्या

श्रद्धा सर्ग की व्याख्या 


एक दिन जब मनु विभिन्न विचारों में लीन थे तब अचानक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि कोई उनसे यह कह रहा है—“जिस प्रकार समुद्र की लहरें समुद्र में भीषण उथल-पुथल मचाकर सतह से मणियों को निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार इस संसार रूपी समुद्र की लहरों अर्थात् सांसारिक आघातों से ठुकराए हुए मणि के समान तुम कौन हो? साथ ही जिस प्रकार समुंदर तट पर पड़ी हुई वह मणि अपनी आभा से समीपवर्ती प्रदेश को पूर्णत: जगमगा देती है और उस शून्य स्थान में उसका प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार इस सागर के समीप चुपचाप बैठे, अपने अपूर्व व्यक्तित्व की आभा प्रकट करने वाले तुम कौन हो।”


कवि का कहना है कि उस आगंतुक ने मनु से यह पूछा कि “तुम इस एकांत स्थान में क्यों बहुत थके हुए और आलस्य से भरे हुए बैठे हो तथा तुम्हारी शांतिपूर्ण मनोहर आकृति पर जो एक अपूर्व माधुर्य-सा दीख पड़ता हे उससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो तुमने इस जगत का रहस्य भली भाँति जान लिया है। साथ ही तुम्हारी मौनता न केवल तुम्हारे बाह्य सौंदर्य का बोध कराती है बल्कि उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है तुम्हारा हृदय करुणाशील है, अर्थात् कोमल भावनाओं से पूर्ण है और उसमें चंचलता का लेश मात्र भी नहीं है।” वास्तव में इन पंक्तियों में कवि ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि मनु वहाँ एकाग्र-चित्त हो किसी बात पर विचार कर रहे थे और उनकी मुखाकृति से व्यग्रता झलक उठती थी तथा यह भी आभास होता था कि उनके अतरतम में कोई व्यथा छिपी हुई है।


कवि कह रहा है कि जब उस आगंतुक ने कमल के समान कोमल मुख को झुकाए हुए भ्रमरी की मधुर गुँजार की भाँति वाणी में ये पंक्तियाँ मनु से कहीं तब मनु का हृदय स्वाभाविक ही आनंदित हो उठा। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने अभी तक इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दो पंक्तियों से यह अनुभव हो जाता है कि वह कोई सुंदर, मृदुभाषिणी, लज्जाशील, करुणामयी नारी ही है क्योंकि उसका मुख कमल के समान तथा वाणी भ्रमरी की गुँजार जैसी मधुर कहीं गई है और साथ ही कवि यह भी कहता है उसने अपना सिर नीचे झुका लिया था। इन पंक्तियों में स्वाभाविकता भी है क्योंकि जब आगंतुक के मुख को कमल माना गया है तब उसकी वाणी को भ्रमरी की गूँज मानना युक्तिसंगत ही है। कवि पुन: कहता है कि आगंतुक की वाणी मनु को उसी प्रकार अनायास निकली हुई जान पड़ी जैसा कि आदि कवि के मुख से अनायास ही मधुर छंद निकल पड़ा था।


कवि कह रहा कि आगंतुक की मधुर वाणी को सुनते ही मनु के रोम-रोम में हर्ष की विद्युत लहर-सी प्रवाहित होने लगी और वे अत्यधिक प्रसन्न हुए तथा उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मानो कोई उनके हृदयरूपी धन को लूट लिए जा रहा है। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि मनु को अपना हृदय उस ओर आकृष्ट होता सा जान पड़ने लगा और वे मुग्ध तथा आश्चर्यचकित हो उसी की ओर देखने लगे जिस ओर उन्हें यह वाणी सुनाई पड़ी थी। मनु का मन यह जानने को उत्सुक हो उठा कि आख़िर किस कोमल कंठ से यह वाणी निवृत हुई है पर उन्हें अपने मन की कौतूहलता अधिक देर तक दबाकर नहीं रखनी पड़ी।
कवि का कहना है कि मनु को अपने सामने एक सुंदर नारी मूर्ति दिखाई दी जो कि उनके नेत्रों पर मोहक जादू-सा डाल रही थी अर्थात् उन्हें अत्यधिक आवश्यक प्रतीत हो रही थी और यही कारण है कि ज्योंही उन्होंने उसे देखा त्योंही ये उसकी ओर आकृष्ट हो गए। कवि कहता है कि उस रमणी का शरीर ऐसा जान पड़ता था कि मानो यह फूलों से पूर्ण कोई लता हो या फिर काले-काले बादलों से घिरी हुई श्वेत शुभ्र चाँदनी हो। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने जो ‘चंद्रिका से लिपटा घनश्याम’ कहा है उसका अर्थ यह नहीं कि वह बाला श्यामवर्ण की थी और इसलिए इसका अर्थ यह करना कि ‘कोई श्याम बादल जो कि चाँदनी से लिपटा हुआ हो’ उचित नहीं है। वस्तुत: कवि यह कहना चाहता है कि वह रमणी नीला परिधान धारण किए हुए थी और इसलिए यहाँ नीले वस्त्र की उपमा मेघ से तथा उसके गौर-वर्ण की उपमा चाँदनी से दी गई है।


कवि कह रहा है कि रमणी का बाह्य तन उसके हृदय की ही अनुकृति था अर्थात् उसका शरीर बाहर से जितना मनोहर जान पड़ता था उतना ही उसका हृदय भी उदारता से ओतप्रोत था। कवि का कहना है कि यदि उस रमणी का शरीर लंबा एवं कोमल था तो हृदय भी विशाल और सुकुमार ही था अर्थात् उसका बाह्य तन और अंतर्मन दोनों ही सरल एवम् संकीर्णता रहित थे। कवि कह रहा है कि जिस प्रकार कोई लघु शाल वृक्ष सुंदर सुरभि युक्त पवन के झोकों से हिलारें-सी लेता हमेशा प्रिय लगता है उसी प्रकार उस बाला के शरीर से भी अत्यंत भीनी-भीनी गंध आ रही थी। वह लावण्यता की प्रतिमा सहज-सी प्रिय जान पड़ती थी। कवि ने इन पंक्तियों में उस रमणी को अपूर्व रूपवती कहा है और ‘मधुपवन क्रीडित’ कहने से संभवत: उसका अभिप्राय यही है कि उस रमणी के शरीर से समुधुर वायु अठखेलियाँ सी कर रही है। साथ ही यह भी कह सकते हैं कि उसके हृदय में मधुर भावनाएँ विद्यमान थी और वह अनेक उत्तम गुणों से पूर्ण भी जान पड़ती थी।


कवि का कहना है कि उस नारी का कोमल सुंदर शरीर गांधार देश के चिकने नीले रोम वाले भेड़ो के चमड़े से आच्छादित था अर्थात् युवती ने जो वस्त्र अपने शरीर पर धारण किया था वह गांधार देश की नीले रोयें वाली भेड़ों के चिकने चमड़े से बना था। इस प्रकार वह वस्त्र उसके सुंदर शरीर पर सुकोमल आवरण के समान था।
कवि मनु से प्रश्न करने वाली आगंतुक रमणी (श्रद्धा) का रूप वर्णन करते हुए कह रहा है कि उस रमणी के नीले वस्त्र में से उसका सुकुमार एवं सुंदर शरीर कहीं खुला हुआ था अर्थात् परिधान युक्त स्थानों के अतिरिक्त उसके शरीर के अन्य अंग खुले हुए थे और वे ऐसे जान पड़ते थे कि मिनो काले बादलों रूपी वन में गुलाबी रंग के बिजली के फूल खिले हुए हों। इन पंक्तियों में कवि ने नीले परिधान के लिए बादलों और रमणी के अधखुले अंगों के लिए बिजली के फूल नामक उपमाओं का प्रयोग कर यह स्पष्ट करना चाहा कि उसका शरीर अपूर्व सौंदर्यशाली या और उसका वर्ण गुलाबी रंग का था।


कवि अब उस बाला के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि उसका मुख इतना अधिक सुंदर था कि उसका वर्णन करना सहज नहीं है। इस प्रकार कवि प्रारंभ में ही यह स्वीकार कर लेता है कि उस रमणी अर्थात् श्रद्धा के मुख की तुलना किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती और उसकी सुंदरता अवर्णनीय है। कवि कह रहा है कि उस रमणी के मुख की शोभा वैसी ही थी जैसी की संध्या के समय आकाश के पश्चिमी भाग में काले-काले बादलों से घिरे हुए लाल सूर्यमंडल की रहती है।


कवि श्रद्धा के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि जिस प्रकार नवीन नीलम के छोटे से पहाड़ की चोटी पर वसंत की रात में ज्वालामुखी की लपटें अंदर ही अंदर धधकती रहती हैं उसी प्रकार उसका मुख भी शोभायमान है। चूँकि आगंतुक रमणी अभी युवा ही थी और नीला परिधान पहने हुए थी अत: कवि ने यहाँ लघु आकार के नीलम की कल्पना की है। यहाँ यह स्मरणीय है कि पुराने नीलम में धब्बे पड़ जाते हैं और वह उतना आकर्षक नहीं जान पड़ता इसलिए कवि ने यहाँ ‘नव इंद्रनील’ शब्द का प्रयोग किया है। साथ ही यह उस रमणी की यौवनावस्था ही है अत: उसे वसंत की रात्रि में धधकता हुआ ज्वालामुखी कहा गया है और उसकी मुख कांति को ज्वालामुखी की लपटें माना गया है परंतु पूर्णानुराग की भावना से रहित होने के कारण उसके अंतर के ज्वालामुखी को उचित माना गया है।


कवि का कहना है कि उस नवयुवती के मुखड़े पर घुँघराले बाल इस प्रकार बिखरे हुए थे कि मानो काले बादलों के सुकुमार शिशु ही चंद्रमा के समीप पीयूष पान करने के लिए पहुँच गए हों। कवि यहाँ घुँघराले बालों की उपमा बादलों के छोटे-छोटे सुकुमार बच्चों से दे रहा है तथा मुख को चंद्रमा मानता है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में जिस तरह काले-काले बादल चंद्रमा के समीप एकत्र हो जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे उसका सुधा रस पान करना चाहते हो उसी प्रकार उस बाला के कंधे तक लटकने वाले घुँघराले केशों को देखकर यही आभास होता था कि मानो वे भी उसके चंद्रमा सदृश्य मुख का पीयूष पान करने के लिए एकत्र हुए हों।
कवि कह रहा है कि उस नवयौवना के मुख पर मंद-मंद हँसी को देख यही अनुमान होता था कि संभवत: प्रभातकालीन बालारूण अर्थात् बाल रवि की कोई आभायुक्त किरण ही किसी लाल कोपल पर विश्राम करती हुई वहीं टिक गई है और इस दशा में यह अत्यंत सुंदर जान पड़ती है।


कवि उस आगंतुक रमणी का रूपवर्णन करते हुए कह रहा है कि उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो संपूर्ण सृष्टि की करुण भावना ने ही एकत्र होकर शरीर धारण कर लिया हो अर्थात् वह बाला अनंत करुणामयी ही जान पड़ती थी। साथ ही उसका यह यौवन शाश्वत ही है अर्थात् हमेशा बना रहने वाला है और उसकी देह द्युति जिस तरह आज आभायुक्त है उसी तरह हमेशा ऐसी बनी रहेगी तथा उसके शरीर की शोभा कभी भी कम न होगी। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि वह बाला न केवल अपूर्व सुंदरी है अपितु करुणामयी भी है और उसके इस लौकिक सौंदर्य को देखते ही मन इस प्रकार उसकी ओर आकृष्ट हो उठता है कि स्वाभाविक ही उसे स्पर्श करने की आकांक्षा होने लगती है। इतना ही नहीं वह इतनी सुंदर थी कि जड़ पदार्थों में भी स्फूर्ति जागृत करने की अर्थात् चेतना उत्पन्न करने की शक्ति रखती थी।


कवि का कहना है कि जिस प्रकार प्रभातकालीन तारे की अपूर्व शोभा युक्त अकशय्या से मधुरिमा में ओत-प्रोत उल्लास पूर्ण अपूर्व मादकता भरी और लज्जायुक्त उषा की पहली सुनहली किरण उठती है उसी प्रकार उस बाला के सुंदर मुख पर हल्की-सी मुस्कराहट छा रही थी। कवि ने यहाँ प्रियतम की गोद में रात्रि भर सोने के पश्चात् प्रभातकाल में उठने वाली किसी नारी की कल्पना की है और उसका कहना है कि उस नारी के मुख पर जो हर्ष, मादकता एवं लज्जा दीख पड़ती है वही उस बाला के मुख पर भी दिखाई देती थी।


कवि कह रहा है कि वह सुकुमार नारी इतनी सुंदर जान पड़ती थी कि मानो फूलों की वाटिका में मंद पवन के झकोरो से प्ररित हो मकरंद का आधार लिए हुए फूलों के इस अर्थात् पराग के कणों का समूह ही साक्षात् देह धारण कर शोभायमान प्रतीत हो रहा हो और उन कणों पर मन को रुचिकर प्रतीत होने वाली सुंदर स्वच्छ नव बसंत की पूर्ण चाँदनी रात का प्रकाश पड़ रहा हो। इतना ही नहीं उस बाला के सुंदर मुखड़े पर रम्य क्रीड़ायुक्त अर्थात् मधुरता से ओत-प्रोत मंद-मंद उठने वाली मुस्कराहट की स्वाभाविक झलक भी दीख पड़ती थी।
कवि कह रहा है कि उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा की बातें सुनकर मनु ने उससे कहा कि इस आकाश और पृथ्वी के मध्य उनका जीवन एक रहस्य बनकर रह गया है अर्थात् वे इस प्रकार अनगिनती उलझनों से घिरे हैं कि उन्हें यही नहीं समझ में आता कि इन उलझनों को कैसे सुलझाया जाए। मनु का कहना है कि जिस प्रकार अंतरिक्ष से टूटा हुआ तारा जलते-जलते शून्य में असहाय-सा हो इधर-उधर भटकता फिरता है उसी प्रकार उन्हें भी अब व्यथा रूपी जलन को लेकर इस निर्जन प्रदेश में बिना किसी सहारे के इधर-उधर भटकना पड़ रहा है।


मनु कह रहे हैं कि उनका जीवन तो अब एक प्रकार से पाखंड मात्र ही रह गया है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की वास्तविकता या गति के चिन्ह नहीं रहे तथा उन्हें यह जीवन बिल्कुल व्यर्थ बिताना पड़ रहा है। इस प्रकार मनु का यही कहना है कि जिस प्रकार पर्वत के अस्तित्व की सार्थकता झरनों के रूप में प्रवाहित होने में ही है अन्यथा वह तो जड़ ही कहा जाता है उसी प्रकार मेरा जीवन भी उसी पर्वत खंड के समान ही है कारण कि उससे अभी तक किसी भी प्रकार का स्त्रोत निर्झरित नहीं हो सका। इतना ही नहीं मनु अपने जीवन को उस हिमखंड जैसा मानते हैं जो कि सरिता बनकर सागर में नहीं मिल सका।


मनु उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा से कह रहे हैं कि मेरा जीवन तो पहेली के समान उलझा हुआ है और मैं उसे भरसक प्रयत्न करके भी सुलझा नहीं पाता और यह भी समझ में नहीं आता कि आख़िर उसका क्या कारण है? मनु का कहना है कि इस प्रकार मैं बिना सोचे समझे अनजान-सा बनकर अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।


मनु कहते हैं कि मैं दिन-रात अपने कोमल अभिलाषाओं से पूर्ण विगत युग को भुलाने का प्रयत्न कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अब वैसा उल्लास और आनंद शायद ही मिल सके। मनु का कहना है कि मैं तो यही चाहता हूँ कि जिस प्रकार घोर अंधकारपूर्ण गुफा में संगीत की मधुर स्वर लहरी दूर तक गूँजकर नही रह जाती है उसी प्रकार अब उनके व्यथापूर्ण जीवन की सभी सुखद कल्पनाएँ शनै शनै निराशा रूपी अंधकार में मिटती-सी जा रही हैं।


मनु कह रहे हैं कि चारों ओर निरुद्देश्य भटकने के कारण मैं यह भी नहीं कह पाता कि आख़िर में स्वयं क्या हूँ क्योंकि मुझे अपने जीवन में सार्थकता के कुछ भी अंश नहीं दीख पड़ते। मनु का कहना है कि मुझे तो यही जान पड़ता है कि मानो मैं नीले आकाश के रिक्त स्थानों से भटकी हुई वायु की एक तरंग के समान हूँ और मेरा जीवन उस उजड़े हुए राज्य की भाँति है जिसमें शून्यता-सी व्याप्त है।
मनुष्य अपने जीवन को जड़ता से पूर्ण विस्मृतियों का स्तंभ भी कहते हैं और उन्हें वह ज्योति की धुँधली-सी छाया जैसा लगता है। इसका अर्थ यह है कि मनु अपने आपको कीर्तिमान देवजाति का क्षुद्र वंशज ही समझते हैं और वे रह-रह कर यही सोचते हैं कि सफलता प्राप्त करने में न जाने अभी कितना समय और लगे क्योंकि उन्हें चारों ओर विलंब ही बिलंब देखना पड़ रहा है।


कवि कह रहा है कि आगंतुक को अपने दयनीय एवं अभावग्रस्त जीवन से परिचित कराने के पश्चात् मनु ने यह जानना चाहा कि आख़िर वह रमणी कौन है? इस प्रकार मनु आगंतुक से कहते हैं कि वे तो अपने जीवन को पतझड़ के समान मानते हैं और उस नारी को वसंत का दूत समझते हैं तथा यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उन्हें उसकी बातें सुनकर यह आशा हो चली है कि उसके जीवन से शीघ्र ही सरसता और मधुरता का आगमन होगा। मनु उस आगंतुक से कह रहे हैं कि उनके जीवन में वसंत के समान उल्लासमय वातावरण प्रस्तुत करने की आशा उत्पन्न करने वाले तुम कौन हो?


मनु कहते हैं कि जैसे सघन अंधकार में विद्युत की क्षीण रेखा चमक उठती है वैसे ही आज उनके निराशारूपी अंधकारपूर्ण जीवन में वह आगंतुक आशा की सुनहली किरण के समान जान पड़ता है और उसे देखकर उन्हें वैसी ही शांति प्राप्त होती है जैसी ग्रीष्म ऋतु में शीतल मंद पवन के प्रवाहित होने से मानव मात्र को प्राप्त होती है। इतना ही नहीं मनु उस आगंतुक को अंधकार में नक्षत्र की किरण के समान मानते हैं अर्थात् उनकी दृष्टि में वह रमणी उनके नैराश्यपूर्ण हृदय में आशा की किरण के समान है। इसलिए उसका आगमन होते ही उनके मानस प्रदेश की समस्त हलचल शांत हो गई है और उन्हें वैसी ही अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त हो रहा है जैसा कि किसी कोमल भावनाओं वाले कवि को दिव्य मनोहर कल्पना के उदय होने पर प्राप्त होता है।


कवि का कहना है कि मनु के उद्गारों को सुनने के पश्चात् वह आगंतुक व्यक्ति, उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए अपनी मधुर वाणी से अपना परिचय उसी प्रकार देने लगा जिस प्रकार कोयल प्रसन्न होकर फूल को वसंतागमन की सूचना देती है। वस्तुत: इन पंक्तियों से फूल और मधुमय नामक दोनों ही शब्द श्लिष्ट हैं तथा सुमन का अर्थ फूल के साथ-साथ सुंदर मनवाला और मधुमय का अर्थ वसंतमय एवं मधुर दोनों ही माना जाना चाहिए। इस दूसरे अर्थ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उस आगंतुक ने सुंदर मन वाले मनु को भावी जीवन की मधुर आशा बँधाई।
वह आगंतुक रमणी अपना परिचय देते हुए कह रही है कि मैं अपने पिता को अत्यंत प्यारी संतान हूँ और मेरे मन से हमेशा से ललित कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा रही है। इस प्रकार मैं इधर गंधर्वों के देश में रहकर अपनी अभिलाषा पूर्ण कर ही हूँ।


उस आगंतुक रमणी का कहना है कि स्वच्छंद प्रकृति की होने के कारण मैं इस विस्तृत उन्मुक्त आकाश के नीचे दिन-प्रतिदिन इधर-उधर घूमती रहती थी और इस प्रकार मेरी यह आदस-सी पड़ गई कि चारों ओर घूमकर प्रकृति की सुंदर छवि देखी जाय। वह बाला कहती है कि इस प्रकार प्रकृति के विभिन्न दृश्यों की मनोहर सुषमा को देख, आश्चर्यकित हो मैं अपने हृदय से उठने वाले रहस्यों को सुलझाने की चेष्टा करती और हमेशा यह जानने को उत्सुक रहती कि आख़िर इन सुंदर वस्तुओं में विद्यमान सत्य क्या है?


वह आगंतुक रमणी कह रही है कि मेरा मन प्राकृतिक दृश्यों की सुषमा निहार कर रहस्य से पूर्ण हो जाता था और कुतूहल मिटाने के लिए भी वह स्वभाविक ही अधीर हो उठता था अतएव हिमालय पर्वत को देखकर ही कभी-कभी मैं यह सोचने लगती कि आख़िर धरती के हृदय में ऐसी कौन-सी पीड़ा है या उसे कौन-सा कष्ट है कि इसके कारण उसके मस्तक पर चिंता की सिकुड़न पड़ गई है। यहाँ यह स्मरणीय है कि जब कोई भी प्राणी किसी व्यथा से पीड़ित होता है और उसके मन में चिंताएँ-सी उठने लगती है उस समय स्वाभाविक ही उसके मस्तक पर सिकुड़न-सी आ जाती है। अत: इन पंक्तियों में वह बाला हिमालय को धरती के ललाट की सिकुड़न ही मानती है और उसका अनुमान है कि कदाचित् किसी आंतरिक व्यथा के कारण पृथ्वी के मस्तक पर सिकुड़न-सी पड़ गई है और यही सिकुड़न हिमालय के रूप में दीख पड़ती है।


वह आगंतुक बाला कहती है कि हिमालय पर्वत के मौन सौंदर्य की ओर देखने पर कभी-कभी यह भी आभास होने लगता कि उसकी इस नीरव सुषमा में कोई न कोई महान और गुप्त संदेश अवश्य है। इस प्रकार मेरे मन में यह जानने की इच्छा बलवती हो उठी कि आख़िर वह संदेश क्या है।
उस रमणी का कहना हे कि ज्यों ही मेरे मन में हिमालय के मौन सौंदर्य में विद्यमान गुप्त संदेश को जानने की उत्सुक्ता जागृत हुई त्यों ही मेरे चरण भी आगे बढ़ चले। इस प्रकार रमणीय पर्वत शृंखलाओं में अनेक मनोहर दृश्यों को देख मेरे नेत्रों की प्यास बुझ गई और मैं इसी निष्कर्ष में पहुँची कि यह पर्वत ऊपर वैभवशाली है तथा उनकी साज-सज्जा भी मनोहरिणी है।


उस बाला ने मनु से पुन: कहा कि एक दिन अचानक इसी हिमालय पर्वत के नीचे अपार सागर अपने पूरे वेग से उमट उठा और वह गरजता हुआ पर्वत की तलहटी से टकराने लगा। वस्तत: इन पंक्तियों में उस रमणी ने भीषण जल प्रलय की ओर संकेत किया है और उसका कहना है कि एक दिन हिमालय पर्वत के चारों ओर जल ही जल दीख पड़ने लगा तथा उसी समय से मैं नित्प्राय-सी हो इधर-उधर अकेली निश्चिंत घूम रही हूँ।


वह आगंतुक रमणी मनु से कह रही है कि अकेले घूमते-घूमते मैं इस ओर निकल आई और मैंने जब यहाँ पास में ही यज्ञ से बचा हुआ कुछ अन्न देखा तब मुझे यह अनुमान-सा होने लगा कि प्राणियों के हित साधन में तत्पर कोई न कोई प्राणी अवश्य जीवित है। इस प्रकार मुझे यह विश्वास हो गया कि जल प्रलय के पश्चात् मेरे समान कोई दूसरा प्राणी भी जीवित बच रहा है अन्यथा यह अन्न यहाँ न दिखाई देता।


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