प्रगति शब्द का अर्थ है 'आगे बढ़ना, 'उन्नति। 'प्रगतिवाद है ''समाज, साहित्य आदि की निरन्तर उन्नति पर जोर देने का सिद्धांत। साहित्य के संदर्भ में यह ''साहित्य का एक आधुनिक सिद्धांत जिसका लक्ष्य जनवादी शäयिें को संपादित कर माकर््सवाद तथा भौतिक यथार्थवादी èयेय की संपूर्ति करना है। 'हिन्दी सहित्य कोश, भाग 1 में प्रगतिवाद के संबंध में लिखा गया है- ''प्रगतिवाद सामाजिक यथार्थवाद के नाम पर चलाया गया वह साहितियक आंदोलन है, जिसमें जीवन और यथार्थ के वस्तु सत्य को उत्तर छायावाद काल में प्रश्रय मिला और जिसने सर्वप्रथम यथार्थवाद की ओर समस्त साहितियक चेतना को अग्रसर होने की पे्ररणा दी। प्रगतिवाद का उíेश्य था साहित्य में उस सामाजिक यथार्थवाद को प्रतिषिठत करना, जो छायावाद के पतनोन्मुख काल की विÑतियों को नष्ट करके एक नये साहित्य और नये मानव की स्थापना करे और उस सामाजिक सत्य को, उसके विभिन्न स्तरों को साहित्य में प्रतिपादित होने का अवसर प्रदान करे। वर्ग-संघर्ष की साम्यवादी विचार धारा और उस संदर्भ में नये मानव, 'नये हीरो की कल्पना इस साहित्य का उíेश्य था। इसकी मूल प्रेरणा माक्र्सवाद से विकसित हुर्इ थी। (पृ. 511)
इस उद्धरण के रेखांकित वाक्यांशों को èयान से पढ़ने पर प्रगतिवाद का अर्थ और उसकी मुख्य विशेषताओं को समझा जा सकता है। इस संदर्भ में पहली बात तो यह कि प्रगतिवाद में व्यä अिैर समाज के आगे बढ़ने, उसकी उन्नति पर बल है। जैसे ठहरा हुआ पानी कुछ समय बाद दुर्गंधयुक्त हो जाता है और प्रयोग करने योग्य नहीं रहता, किन्तु नदी का बहता पानी जहाँ-जहाँ से बहता है वहाँ की भौगोलिक सिथति के अनुसार अपनी जगह बनाता हुआ, आस-पास के लोगों को आनंद देता हुआ आगे बढ़ता जाता है। बहते पानी में गंदगी रुकती नहीं अत: उसका पानी प्रयोग में आने योग्य रहता है। ठीक वैसे ही, जो समाज अपने समय की आवश्यकताओं को नहीं समझता और वषो± पूर्व बनाये गये सिद्धांतों, नियमों, मान्यताओं और विश्वासों में जकड़ा रहता है वह भी कभी आगे नहीं बढ़ता और रुके हुए पानी की भाँति बदबूदार हो जाता है। प्रगतिवाद उन रूढि़यों, नियमों, मान्यताओं, पद्धतियों का विरोध करता है जो समाज की प्रगति में बाधक हैं, और उन नियमों-मान्यताओं को अपनाने पर बल देता है जो वर्तमान के अनुकूल हैं। दूसरी बात है सामाजिक यथार्थ और जीवन और यथार्थ के वस्तु सत्य की अभिव्यä किी। हम जिस समाज में रहते हैं, उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से प्रभावित होते हैं। गुणदोषोें से भरपूर इस समाज में ही हमारे व्यäतिव का निर्माण होता है और अपने व्यäतिव, इच्छाओं, आकांक्षाओं के सहारे इस समाज को भी हम बनाते-बिगाड़ते हैं। फिर सामाजिक यथार्थ क्या है? क्या समाज में व्याप्त अच्छाइयाँ, या बुराइयाँ? सामाजिक यथार्थ की बात जब हम करते हैं तो उसके अंतर्गत अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों ही आते हैं। साहित्य में यदि केवल अच्छाइयों का ही चित्राण हो तो वह आदर्शवादी साहित्य कहलाता है ओर यदि केवल बुराइयों का ही चित्राण हो, तो नग्न यथार्थवादी या प्राÑतवादी। प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद ने कहा था कि यथार्थ केवल प्रकाश या केवल अंधकार नहीं है, बलिक अंधकार के पीछे छिपा प्रकाश और प्रकाश के पीछे छिपा अंधकार है। प्रगतिवाद उन शäयिें को पहचानने पर बल देता है जिनके कारण हमारा समाज अंधकार.ग्रस्त है और उन शäयिें को पहचानने पर भी बल देता है जिनके बलबूते इस अंधकार को हराया जा सकता है। तीसरी बात प्रगतिवाद का प्रेरक कारण माकर््सवाद का सिद्धांत हैं। यह सिद्धांत शोषक शäयिें का विरोध करता है और शोषित समाज में चेतना जगाने, उन्हें अपने अधिकारों और समवेत शä किे प्रति भरोसा करने पर बल देता है। यह उस सामंतवादी और पूंजीवादी मानसिकता और संस्Ñति का विरोध करता है जो शä अिैर धन को कुछ मुट्टीभर लोगों के हाथों में केंæति कर देती है, जिससे वे स्वार्थी और दंभी हो जाते हैं और अपनी शä अिैर धन का दुरुपयोग कर उन लोगों का शोषण करते हैं जिनके परिश्रम के बल पर वे सुख भोगते हैं। प्रगतिवाद भी सामंतवाद और पूँजीवाद का विरोध करता है जो समाज में व्याप्त अंधकार का कारण है और उन गरीबों मजदूरों-किसानों को प्रकाश-पुंज मानता है जिनके बल पर यह अंधकार नष्ट हो सकेगा। प्रगतिवाद की दृषिट में यही श्रमशील मानव 'नयामानव और 'नया हीरो है। चौथी बात, इस उíेश्य में छायावाद के पतनोन्मुख काल की विÑत्तियों को नष्ट कर नये समाज के निर्माण की बात कही है। आप पढ़ चुके हैं कि छायावादी कविता में इतिहास, कल्पना, आदर्श, प्रेम, विरह, प्रÑति की सुंदरता और सुकुमारता पर विशेष बल था। प्रगतिवाद में इतिहास को नकारा नहीं गया, इतिहासअतीत के मोह से मुä किी बात की गयी है। इसके लिए व्यä कि उन्नयन समाज के सभी वगो± की समान रूप से उन्नति, रूढि़यों, अंधविश्वासों से मुä अिदि वस्तु सत्य प्रधान हैं इसलिए र्इश्वर, रहस्य, प्रÑति की सुंदरता, वैयकितक प्रेम, विरह के लिए वहाँ कोर्इ स्थान नहीं।
हिन्दी कविता में प्रगतिवाद का उदय
हिन्दी कविता में प्रगतिवाद का आरंभ 1936 के आसपास माना जाता है। परंतु कविता के प्रगतिवादी तत्त्वों का समावेश कोर्इ आकसिमक घटना नहीं थी। इसके अंकुर आधुनिक काल के आरंभ में ही भारतेंदु युग से फूटने लगे थे। बि्रटिश राज्य की जनविरोधी नीतियों, उनके अत्याचारों के परिणामस्वरूप लोगों का èयान देश की दुर्दशा, और उसके मूल कारणों की ओर आÑष्ट हुआ। नवजागरण के प्रभाव से भी इस दुर्दशा के मूल कारणों की पड़ताल की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। अशिक्षा, अंधविश्वासों, रूढि़यों, संप्रदायवाद को प्रगति विरोधी माना जाने लगा। विदेशी दासता से मुä पिने की छटपटाहट जोर पकड़ने लगी। अनेक राजनैतिक-सामजिक संस्थाओं का जन्म हुआ जिन्होंने देश की दशा सुधारने और उसे अंगे्रजी साम्राज्यवाद के चंगुल से निकलने के प्रयास किये। महात्मा गाँधी के प्रभाव से दबे-कुचले हरिजनों के प्रति भी सहानुभूति का भाव उदय हुआ। इन सभी सिथतियों का प्रभाव तत्कालीन साहित्य में किसी न किसी रूप में देखा जा सकता है। भारतेंदु और द्विवेदी युग की रचनाओं में जाति और धर्म के बंधनों के प्रति प्रश्नचिहन लगने लगे थे क्योंकि इन्हीं के कारण देश अनेक वगो± में बँट गया था, कमजोर हो गया था, और समाज का एक बड़ा वर्ग उपेक्षा और अत्याचार सहने को विवश था। हिन्दी में छायावाद युग में साहित्य में प्रेम-विरह की निजी अनुभूतियों, स्वप्नों, रहस्यों को प्रधानता दी गयी। लगभग इसी समय में यूरोप में रह रहे भारतीय साहित्यकारों ने लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। उन्होंने अपने परिपत्रा में रुढि़वादी, जड़तावादी, परंपरावादी विचारों से समाज को मुक्त कराने पर बल दिया। उन्होंने देश की सामाजिक-आर्थिक अवनति के मूल कारणों को पहचानने पर बल दिया और कहा कि साहित्यकारों को कल्पना-लोक से बाहर निकल कर यथार्थ की भूमि पर खड़े होना होगा। इस संघ पर माकर््सवाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है, जो वंचितों शेषितों और किसान-मजदूरों का पक्षधर था। सन 1936 में लखनऊ में इस संघ की बैठक हुर्इ जिसकी अèयक्षता प्रेमचंद ने की थी। इस नवीन चेतना और प्रगतिशील लेखक-संघ की इस बैठक का प्रभाव हिंदी लेखकों-कवियों पर व्यापक रूप से हुआ। छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले सुमित्राानंद पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला की रचनाओं में यह परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता हैं। प्रÑति के सुकुमार कवि पंत 'रूपाम के संपादकीय में लिखते हैं- ''इस युग में जीवन की वास्तविकता ने जैसा उग्र आकार धारण कर लिया है उससे प्राचीन विश्वासों में प्रतिषिठत हमारे भाव और कल्पना के मूल हिल गये हैं। अतएवं इस युग की कविता स्वप्नों में नहीं पल सकती, उसकी जड़ों को पोषण सामग्री ग्रहण करने के लिए कठोर आश्रय लेना पड़ रहा है। 'जुही की कली और संèया सुंदरी के रचयिता निराला जी 'विधवा, 'वह तोड़ती पत्थर, 'कुकुरमुत्ता और 'गुलाब जैसी कविताएँ लिखने लगते हैं। सन 1936 से आंरभ हुआ प्रगतिवाद का यह दौर सन 1950 के लगभग तक माना जाता है। उसके बाद प्रगतिवाद आंदोलन के रूप में भले ही न रहा हो, किंतु उसके द्वारा स्थापित मूल्य परवर्ती कविता में भी किसी न किसी रूप में विधमान हैं। मुäबिेध, नागाजर्ुन, धूमिल, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल आदि अनेक कवियों की रचनाओं में यह प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
प्रगतिवादी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ-
1. शोषक शäयिें की पहचान और उनका विरोध - प्रगतिवाद में देश और समाज की आर्थिक-सामाजिक अवनति के मूल कारणों की पड़ताल पर जोर दिया गया। भारतीय संदभो± में सामंतवाद, पूँजीवाद, सेठ, साहूकार, जमींदार, शासन तंत्रा को शोषक तंत्रा के रूप में प्रस्तुत करने वाले अधिकारी, पटवारी, पुलिस, पंडे-पुजारी आदि उन सभी वगो± के प्रति आक्रोश का भाव मिलता है जो निजी स्वाथो± की पूर्ति के लिए कभी परंपरा के नाम पर और कभी शासन के नाम पर निरीह जनता को अपने अत्याचारों का शिकार बनाते हैं। प्रगतिवादी कविता ने स्वर्ग और र्इश्वर की कल्पना से दूर हट कर ठोस यथार्थ पर पांव रखने और मानवता के वास्तविक शत्राुओं के विरोध का स्वर बुलंद किया-
ताक रहे हो गगन - मृत्यु नीलिमा गहन गगन,
देखों भू को - जीव प्रसू को। -पंत
बालÑष्ण शर्मा 'नवीन कवियों से ऐसी कविता सुनाने का आग्रह करते हैं जो इस गली.सड़ी व्यवस्था को बदलने के प्रति जागृति उत्पन्न कर सके- कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।
2. मानववाद के प्रति आस्था - प्रगतिवादी विचारधारा में ऐसे समाज की स्थापना पर बल दिया गया है जिसमें मनुष्य को विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त हो सकें। वह अपनी शä अिैर सामथ्र्य का सही उपयोग कर समाज के निर्माण और विकास में सहयोग कर सके। इसीलिए प्रगतिवाद में मानव का महत्त्व सर्वोपरि है-
सुंदर है विहग, सुमन सुंदर
मानव तुम सबसे सुंदरतम।
साम्राज्यवाद और पूँजीवाद - दोनों ही मनुष्य के सवा±गीण विकास में बाधक हैं अतएव मानव-विरोधी हैं। जो व्यवस्था धन और शä किे मुट्टी भर लोगों के हाथों को मजबूत करने में विश्वास रखती हो और साधारण जन को उनकी प्राथमिक आवश्यकताओं से भी वंचित कर देती हो, उनके व्यäतिव के विकास को रोकती हो, उन्हें पशुओं से भी बदतर जीवन जीने पर विवश करती हो, प्रगतिवाद उस मानव-विरोधी व्यवस्था का विरोध करता है।
3. शोषण का विरोध और समानता पर बल - जैसाकि अभी कहा प्रगतिवाद मानववाद का समर्थन करता है और धन तथा सत्ता के केन्æीकरण का विरोध करता है। इसी क्रम में यह बात भी समझनी आवश्यक है कि प्रगतिवादी विचारधारा शोषण का विरोध करती है और शोषण के शिकार गरीब-असहाय वंचित जनों के प्रति सहानुभूति रखती है। प्रगतिवाद में उस मानसिकता और व्यवस्था का विरोध है जो स्वयं परिश्रम नहीं करते किंतु गरीब मजदूरों के परिश्रम के बल पर अपनी तिजोरियाँ भर लेना चाहते हैं, जो आम जनता को पद-दलित कर अपना वर्चस्व और राजसिंहासन बनाये रखना चाहते हैं, और जो लोग अपने श्रम से इस समाज को सुखी-समृद्ध बनाने में सर्वाधिक योग देते हें वे अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते। निराला जी ऊँची-ऊँची अêालिकाओं और विशाल प्रासादों में रहने वाले धनिकों को अपने काव्य का विषय नहीं बनाते, बलिक इलाहाबाद के राजमार्ग पर पत्थर तोड़ती गरीब मजदूर स्त्राी को काव्य का विषय बनाते हैं-
श्याम तन, भर बँधा यौवन
नत नयन प्रिय कर्म-रत-तन
गुरू हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु मालिका, अêालिका, प्रकार
4. धर्म और इश्वर के प्रति अनास्था - विश्व के प्रत्येक देश, प्रत्येक समाज में धर्म और इश्वर की उपसिथति किसी न किसी रूप में अवश्य रही है। किंतु प्रगतिवाद में इनके प्रति कोइ आस्था नहीं। इसका कारण यही है कि धर्म और इश्वर के नाम पर लोगों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करना आरंभ कर दिया, स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझने लगे, धर्म के नाम पर अनेक युद्ध हुए। जिस धर्म की स्थापना समाज को सँभालने के उíेश्य से हुइ थी, उसी धर्म के नाम पर लोगों को बाँटा जाने लगा। धर्म के नाम पर ढोंग, पाखंड और अंधविश्वासों को बढ़ावा मिलने लगा। धर्म व्यवसाय बन गया। प्रगतिवाद में इसीलिए धर्म और इश्वर के प्रति अनास्था का भाव दिखाइ देता है। नवीन जी लिखते हैं-
है कितनी-कितनी विडंबना इनमें, हाय यहाँ कितनी अक्षमता,
इन पर छाये पीर, कब्र, सब भूत.प्रेत.पीतल और पत्थर,
एक छींक से ही होते हैं ये मानव सभीत अति सत्वर।
ऐसा ही एक और उदाहरण प्रस्तुत है-
हर पत्थर भगवान यहाँ का हर पंडा पैगंबर है,
गाय यहाँ माता बन पुजती, अब बकरी का नंबर है,
यह ऋषियों का देश घुली है भंग यहाँ के पानी में,
नरकों का मनहूस बुढ़ापा मिलता भरी जवानी में।
(5) प्रगतिवादी कविता में गाँवों, नगरों, महानगरों का चित्राण - प्रगतिवादी कविता में गाँवों के जीवन, रहन-सहन, वहाँ के प्राÑतिक वातावरण, ग्रामीण संस्Ñति को आधार बनाया गया है। परंतु इन कवियों के लिए ग्रामीण जीवन अहा ! ग्राम्य जीवन भी क्या है! क्यों न इसे सबका मन चाहे! वाला भाव ही महत्त्वपूर्ण नहीं। नगरों, महानगरों की भागमभाग वाली जीवन-चार्ये और यांत्रिकता की बजाय उन्हें ग्राम्य जीवन अपनी सरलता के कारण तो आÑष्ट करता है, किंतु वहाँ की गरीबी, अज्ञानता, अशिक्षा, रूढि़याँ, अंधविश्वास आदि इस आकर्षण को èवस्त कर देते हैं। किसानों की दयनीय सिथति उन्हें विहवल कर देती है। पंत, निराला, दिनकर, नवीन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह आदि कवियों की कविताओं में भारतीय ग्राम्य जीवन के यथार्थ चित्रा देखे जा सकते हैं। इस संदर्भ में एक उíरण द्रष्टव्य है-
मिêी से मैले तन अघफटे कुचैले जीर्ण वसन,
ज्यों मिêी के बने हुए ये गँवर्इ लड़के भू के धन,
कोइ खंडित, कुंठित, Ñशबाहु पसलियाँ रेखांकित,
टहनी सी टाँगे, बड़ा पेट, टेढ़े-मेढ़े, विकलांग, घृणित।
गा्रम्य जीवन के साथ-साथ नागरिक जीवन के यथार्थ चित्रा भी इस दौर की कविताओं में मिलते हैं। औधोगिक सभ्यता के प्रसार के साथ-साथ ग्रामीण-Ñषि-व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने लगी और नगरों.महानगरों का विस्तार होने लगा। संयुक्त परिवार टूटने लगे। बढ़ती महँगार्इ, विश्वयुद्धों, विदेशी सरकार की नीतियों के कारण किसान मजदूर बनने को विवश हो गये। इन नये बनते नगरों.महानगरों की चकाचौंध में भारत की पहचान माना जाने वाला सादा जीवन लुप्त लोने लगा और इस नयी महानगरीय यांत्रिक सभ्यता ने सारी भावनाओं को कुचल दिया, स्वार्थ और लोभ को बढ़ावा मिला और मनुष्य आत्म.केंæति होने लगा। संपन्नता के लालच से इस औधोगिक सभ्यता की शरण में आये मज़दूरों को भी निर्धनता और प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ा। प्रगतिवादी कवियों की पूरी सहानुभूति इन किसानों, मजदूरों के प्रति है। इसीलिए उनकी कविता में गाँवों की तरह नागरिक जीवन की विषमताएँ भी दिखार्इ देती हैं-
घाट, धर्मशालें, अदालतें,विधालय, वेश्यालय सारे,
होटल, दफ्तर, बूचड़खाने,मंदिर, मसिजद, हाट, सिनेमा
श्रमजीवी की उस हìी परटिके हुए हैं जिस हìी को
सभ्य आदमी के समाज नेटेढ़ी करके मोड़ दिया है।
(6) सौंदर्य के प्रति नवीन दृषिटकोण - प्रगतिवादी कविता में सौंदर्य के परंपरागत मापदंड टूट गये हैं। अभी तक की कविता में नायक और नायिका 'धीरोदात्त श्रेणी के, सुख-सुविधा संपन्न बड़े घरानों के, आदर्श हुआ करते थे। कभी वे राजा-रानी राजकुमार.राजकुमारी थे, तो कभी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी.देवता और अवतार पुरुष। प्रÑति का सौंदर्य कवियों को आÑष्ट करता था, कभी यमुना नदी, कभी कश्मीर सुषमा, कभी संèया सुंदरी और जुही की कली, कभी समुæ की लहरें और आकाश में चमकते चाँद-सितारे। किंतु प्रगतिवादी कवि की दृषिट जीवन के ठोस यथार्थ पर टिकी है, इसीलिए प्रÑति के उक्त उपकरण या नायक-नायिकाओं की परंपरागत अवधारणा उनकी कविताओं का विषय नहीं बनाते। उनकी कविता के विषय बनते हैं शासन और तंत्रा की मार झेलती साधारण जनता, किसान और मजदूर, गरीबी और शोषण के चक्र में पिसते लोग। मेघमय आसमान से उतरीसंèया सुंदरी परी सीधीरे-धीरे-धीरे! लिखने वाले निराला को अब गरीबी की मार झेलती पत्थर तोड़ती मजदूरनी और सामाजिक परंपराओं का अभिशाप झेलती 'विधवा सुंदर प्रतीत होती है। इन कवियों का विश्वास है कि श्रमिकों का श्रम ही दुनिया भर में फैली जड़ता को तोड़ सकेगा। भारत का भविष्य कहलाने वाले बच्चों के पास न तन ढँकने को पर्याप्त वस्त्रा हैं, न भरपेट रोटी और न शिक्षा प्राप्त करने के साधन। उन्हें पढ़ा-लिखा कर आदमी बनाने का संकल्प लिये शिक्षक भी साधनों के अभाव में अपने कर्तव्य की पूर्ति नहीं कर पाते। तोतारटन्त विधा को प्रश्रय देने वाली हमारी शिक्षा नीति भी इस जड़ता को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है-
घुन खाये शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बाँचे,
फटी भीत है, छत है चूती, आले पर विसतुइया नाचे,
लगा-लगा बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पाँच तमाचे,
इसी तरह से दुखरन मास्टर गढ़ता है आदम के साँचे।
(7) प्रगतिवादी कविता की भाषा - जैसा कि बार-बार कहा गया है, प्रगतिवादी दृषिट का आग्रह जीवन के यथार्थ के प्रति है। इस दृषिट का प्रभाव इस दौर की कविता की भाषा पर भी दिखार्इ देता है। छायावादी कविता की भाषा में संस्Ñत के तत्सम शब्दों की बहुलता है जबकि प्रगतिवादी कविता में आम बोल-चाल के शब्दों का प्रयोग अधिक है। प्रगतिवाद की विशेषताओं को स्पष्ट करने के लिए अभी जो उदाहरण दिये गये हैं उनकी तुलना प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की कविताओं की भाषा से करने पर यह अंतर स्वत: स्पष्ट हो जाएगा और यह अंतर केवल शब्द प्रयोग में ही नहीं, बिंबों और प्रतीकों में भी देखा जा सकता है। एक ओर वैयäकि प्रेम की अभिव्यä हिै, प्रÑति के सुंदर दृश्यों और उसकी गतियों के बिंब हैं, जीवन के रहस्यों को जानने की उत्कट उत्कंठा है, दूसरी ओर प्रगतिवाद में आम आदमी सुख-दुख हैं, भूख, गरीबी और शोषण के प्रति आक्रोश है, व्यवस्था को बदल डालने की चाह है और टूटे झोंपड़े, जीर्ण-शरीर भारतीय श्रम जीवियों के प्रति सहानुभूति है। प्रगतिवाद की कविता में व्यंग्यात्मकता का स्वर अत्यंत प्रबल है। सामाजिक विषमताओं की अभिव्यä कि इससे अच्छा और कोर्इ तरीका हो भी नहीं सकता-
धीरे बोलो शांत रहो जी, काम काज में खलल पड़ेगा,
व्यस्त देश के कर्णधार है।
तुम बेकार कि सच है भार्इ, पर अपनी सरकार व्यस्त है,
नेता की खातिरदारी में, लाला जी की कार व्यस्त है,
उदघाटन, भाषण, अभिभाषण, अधिवेशन, सेशन, देशाटन
डेपुटेशन, प्लान-कमीशन, उपचुनाव का हरदम सीजन
अमरीका से ट्रंककाल है, लंदन से आ रहा तार है
व्यस्त देश के कर्णधार हैं।
उपयर्ुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रगतिवादी दौर की कविता तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिसिथतियों की देन थी। छायावाद की व्यैकितकता की प्रतिक्रियास्वरूप इसका उदय हुआ था। पूँजीवादी सामंती व्यवस्था जो धन और शä किे केंद्रीकरण पर बल देती थी- उसके विरोध में श्रमजीवियों-किसानों-मजदूरी के प्रति सहानुभूति व्यä की गयी। अमानुषिक परिसिथतियों में जीने को विवश इन श्रमजीवियों के प्रति जनता का èयान आÑष्ट हुआ। राजनीति के घिनौनेपन को लोगों के सामने रखा और कल्पना की बजाय यथार्थ के अनुभवों को साहित्य में प्राथमिकता दी गयी। प्रगतिवादी कविता ने लोकचेतना को जागृत करने का काम किया। इस दौर की कविता पर सामयिक और सतही होने का आरोप भी लगाया गया किंतु आलोचकों के इस मत के समक्ष यह आरोप èवस्त हो गया कि कोर्इ भी साहित्य जीवन के यथार्थ से उदासीन होकर शाश्वत नहीं रह सकता। भविष्य में परिसिथतियाँ भले ही बदल जाएँ किंतु वंचितों के प्रति सहानुभूति और शोषण के प्रति आक्रोश सदा रहेगा। यही कारण है कि प्रगतिवादी कविता का दौर भले ही समाप्त हो गया हो, उसके बाद प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता आदि न जाने कितने आंदोलन आये और गये, किंतु आज भी कविता में प्रगतिवादी चेतना विधमान है।