प्रगतिवाद के बाद जो नया काव्यान्दोलन उभरा वह था 'प्रयोग-वाद। सन 1943 में 'तार सप्तक का प्रकाशन हुआ जिसके संपादक थे सचिचदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय। इस में सात कवियों की कविताएँ संगृहीत थीं। इस संग्रह को प्रयोगवाद का आरंभ माना जाता है। इन कवियों ने स्वयं को 'नर्इ राहों का अन्वेषी कहा। उनके अनुसार इस नर्इ राह की खोज भाव के स्तर पर भी थी और शिल्प के स्तर पर भी। यह आंदोलन छायावाद की वैयäकिता और प्रगतिवाद के माकर््सवाद के प्रति अतिशय आग्रह के विरोध में थी। जैसा कि पहले भी कहा गया है, छायावाद में वैयäकि अनुभूतियों संस्Ñतनिष्ठ भाषा, कल्पना, बिंब-योजना, छंद इत्यादि पर बहुत बल दिया गया था। प्रगतिवादी कवियों ने आम आदमी की समस्याओं को आम जन की भाषा में अभिव्यä करने पर बल दिया, शिल्प के प्रति उनमें कोर्इ मोह नहीं दिखार्इ देता। प्रयोगवाद में 'क्या कहना है के साथ-साथ कैसे कहना है भी महत्वपूर्ण था, अर्थात नये उपमान, नये प्रतीक, नये चित्रा, नये बिंब और नये छंद। प्रगतिवाद के बाद की इस कविता में रचनाकार की स्वतंत्राता और रचनाकार की वैयäकिता को भी महत्त्वपूर्ण माना गया। 'तार सप्तक के बाद 'दूसरा सप्तक ओर फिर 'तीसरा सप्तक प्रकाशित हुए। बाद के इन संकलनों में संगृहीत कविताएँ 'तार सप्तक की कविताओं से थोड़ी भिन्न थीं। 1953 में प्रयाग से नये पत्ते का प्रकाशन हुआ, और 1954 में डा. जगदीश गुप्त और डा. रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादकत्व में 'नयी कविता नामक पत्रिका प्रकाशित हुर्इ और इस नयी काव्यधारा के लिए 'नयी कविता नाम प्रचलित हो गया। हालाँकि यह नाम आलोचकों के मध्य चर्चा और विवाद का विषय रहा क्योंकि हर आने वाली कविता अपनी पूर्ववत्र्ती कविता से नयी होती है फिर इस नयी कविता में ऐसा क्या था जिसे 'नयी कविता का नाम ही दे दिया गया?। 'नयी कविता, 'नये पत्ते और 'आलोचना के कुछ अंकों में इसी नाम को अपनाया गया और बाद में इस विशिष्ट काव्यान्दोलन के लिए 'नयी कविता नाम ही रूढ़ हो गया। हिन्दी साहित्य.कोश में डा0 लक्ष्मीकांत वर्मा 'नयी कविता के विषय में लिखते हैं- ''..... इस नयी काव्यधारा को उस वैयäकि यथार्थ और सामाजिक यथार्थ के साथ उन प्रतिमानों को लेकर विकसित किया जाए, जो आज के भाव बोध को वहन करते हुए सर्वथा नयी दृषिट के साथ विकसित हो गयी है। नयी कविता का मूल स्रोत आज के युग सत्य और युग यथार्थ में निहित है। इसीलिए उसमें गध का यथार्थ और काव्य की संवेदनशील अभिरुचि, दोनों एक साथ सर्वथा नयी भावभूमि पर अनुभूति को प्रस्तुत करती है।......
''अस्तु, नयी कविता आज की मानव-विशिष्टता से उदभूत उस लघु मानव के लघु परिवेश की अभिव्यä हिै, जो एक ओर आज की समस्त तिक्तता और विषमता को तो भोग ही रहा है, साथ ही उन समस्त तिक्तताओं के बीच वह अपने व्यäतिव को भी सुरक्षित रखना चाहता है। वह विशाल मानव-प्रवाह में बहने के साथ-साथ असितत्व के यथार्थ को भी स्थापित करना चाहता है, उसके दायित्व का निर्वाह भी करना चाहता है। (हिन्दी-साहित्य कोश, पृ. 401)
उपयर्ुक्त उद्धरण के रेखांकित अंशों से नयी कविता की विशेषताओं को समझा जा सकता है-
1. नयी कविता में वैयäकि यथार्थ और सामाजिक यथार्थ दोनों को महत्त्व दिया गया है। वस्तुत: व्यä अिैर समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है, और नयी कविता इस संबंध को स्वीकारती है। इसीलिए नयी कविता में वैयäकि यथार्थ का अर्थ आत्मरति अथवा समाज के प्रति विæोह नहीं है, अपितु उन मूल्यों और सिथतियों की स्थापना-पुनस्र्थापना पर बल है जो या तो किन्हीं कारणों से समाज से लुप्त हो गये हैं या जिनकी स्थापना समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। डा. धर्मवीर भारती के अनुसार, ''कोर्इ भी विकासशील समाज नीतिवान, दायित्वयुक्त, स्वतंत्राचेता व्यäयिें का संगठन होता है। इसीलिए नर्इ कविता उन मूल्यों के पुनरन्वेषण और पुन: स्थापना के लिए अग्रसर होती है। (सामाजिक आग्रह, (संकलित) नर्इ कविता, पृ. 34)
2. नयी कविता के संदर्भ में 'लघु मानव और उसके 'लघु परिवेश की बात प्राय: की जाती है। 'लघु मानव का तात्पर्य है वह आम आदमी जो अपनी वैयäकि सबलताओं दुर्बलताओं, इच्छाओं- आकांक्षाओं के साथ जीता है, और 'लघु परिवेश का अर्थ है वे सामाजिक राजनैतिक परिसिथतियाँ, वे विषमताएँ अन्याय, शोषण, संघर्ष, जिनसे जूझना, संघर्ष करना इस 'लघु मानव की नियति है। नयी कविता में आम आदमी की इच्छाओं आशा-निराशाओं की अभिव्यä भिी है और सामाजिक राजनैतिक विæूपताओं विषमताओं को भी विभिन्न कोणों से प्रस्तुत किया गया है। भारतीजी की ये पंäयिँ इस संबंध में æष्टव्य हैं-
मैं रथ का टूटा पहिया हूँलेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गतिसहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जानेसच्चार्इ टूटे पहियों का आश्रय ले।
वे लिखते हें- हारो मत, साहस मत छोड़ो,
इससे भी अथाह शून्य में
बौनों ने तीन पगों में धरती नापी।
स्पष्टत:, नयी कविता समाज के कठोर यथार्थ और उससे टकराते मानव की कविता तो है किंतु निराश होकर, अकर्मण्य होकर बैठ जाने की नहीं अपितु साहस और विश्वास के साथ उनसे संघर्ष करने की है।
3ण् नयी कविता में समाज को बदल डालने की ललक है, प्रगति की राह में आने वाले सभी अवरोधों को उखाड़ फेंकने की चाह है, सड़ी-गली परंपराओं और रुढि़यों के प्रति अनास्था और अविश्वास का भाव भी है, किंतु यह किसी राजनैतिक विचारधारा के प्रति पूर्वाग्रह के कारण नहीं, और न ही विवेक और बुद्धि को तिलांजलि देकर किसी फ़ैशन के तहत। वस्तुत: यह अनास्था और अविश्वास का भाव युगीन परिसिथतियों की देन है, उसके प्रति प्रतिक्रिया है-
ये किसी निशिचत नियम, क्रम की सरासर सीढि़याँ हैं,
पाँव रख कर बढ़ रहीं जिस पर कि अपनी पीढि़याँ हैं,
बिना सीढ़ी के चढ़ेंगे तीर के जैसे बढ़ेगे। (भवानी प्रसाद मिश्र)
किन्तु जब सिथतियों में बदलाव दिखार्इ नहीं देता, तो वह हताश और कुंठित होने लगता है। धर्मवीर भारती की निम्नांकित पंäयिँ युवा मन की इसी सिथति की अभिव्यä किरती हैं-
अपनी कुंठाओं कीदीवारों में बंदीमैं घुटता हूँ।
भारती जी के 'अंघायुग में जिस अंधकार का वर्णन है वह इन्हीं विषमतापूर्ण परिसिथतियों की देन है जिसमें भूख, गरीबी, असमानता के संकट तो हैं ही, मूल्यों, आस्था और विश्वास का संकट भी है। यह अंधकार असितत्व का संकट उत्पन्न कर रहा है, नये कवि को भयभीत कर रहा है-
यह है मेरा कुटुंब
Ðासोन्मुख कुटुंब
जिसे कुछ ही वषो± में बाहर घिरा हुआ
अंधेरा निगल जाएगा।
4. नयी कविता में एक ओर मूल्यों के विघटन, अनास्था और अविश्वास से उत्पन्न अंधकार का चित्राण है, निराशा और कुंठा का भाव है, परंपराओं और रूढि़यों का अस्वीकार है, दूसरी ओर भविष्य के प्रति आस्था के संकेत भी मिलते हैं। नरेश मेहता, रधुवीर सहाय, हरिनारायण व्यास, गिरिजाकुमार माथुर और अज्ञेय की कविताओं में भविष्य के प्रति इस आस्था के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। अज्ञेय और गिरिजा कुमार माथुर की कविताओं की कुछ पंäयिें से यह बात स्पष्ट हो जाएगी-
अभी न हारो, अच्छी आत्मा,
मैं हूँ, तुुम हो और अभी मेरी आस्था है। (अज्ञेय)
विश्व में जब कुटिलता है, त्राास है
सत्य शिव का तब हमें विश्वास है। (गिरिजा कुमार माथुर)
5ण् भारत भूषण अग्रवाल लिखते हैं-
पर न हिम्मत हार;
प्रज्ज्वलित है प्राण में अब भी व्यथा का दीप
ढाल उसमें शä अिपनी
लो उठा।
उपयर्ुक्त पंäयिें में जिस 'व्यथा की बात है, इस व्यथा, पीड़ा या वेदना की चर्चा नये कवियों की कविताओं में भी हुर्इ है और उनके लेखों-वक्तव्यों में भी। यह व्यथा ही व्यä किी पीड़ा को समाज की पीड़ा से जोड़ती है। इस संदर्भ में अज्ञेय की ये पंäयिँ बार-बार उदधृत की जाती हैं-
दर्द सबको मांजता है
और जिन्हें वह मांजता है
उन्हें वह यह सीख देता है
कि सबको मुक्त रखे।
इसीलिए नयी कविता को 'अर्पित रसना का विशेषण प्रदान किया गया- ''इस प्रकार नर्इ कविता एक अर्थ में 'अर्पित रसना भी है। पर उसका यह अर्पण किसके प्रति है? निस्संदेह मानव-मूल्यों के प्रति। उसके व्यä सिे मानव मूल्य बड़े हैं, और पीड़ा के माèयम से वह उन्हीं को उपलब्ध करना चाहता है, उनकी उपलबिध के लिए अपने अहम को अर्पित भी करता है, क्योंकि वह दर्द उससे बड़ा है। (सामाजिक आग्रह : धर्मवीर भारती, संकलित नयी कविता, पृ. 36) कुँवर नारायण की निम्नलिखित पंäयिें में आस्था का आधार इस वेदना का स्वीकार स्पष्ट èवनित है-
है मुझे स्वीकारमेरे वन, अकेलेपन, परिसिथति केसभी काँटे
ये दघीची हìयिँहर दाह में तप लें
न जाने कौन दैवी आसुरी संघर्ष बाकीहों अभी
जिसमें तपायी हìयिँ मेरी यशस्वी हों।
6. नयी कविता के उत्तराद्र्ध में भय, आंतक, ऊब, अकेलापन, अजनबीपन, मृत्युबोध, व्यर्थताबोध, यातना, शून्यता आदि की बात भी की गयी है। वस्तुत: ये सभी प्रवृत्तियाँ उन पशिचमी देशों की रचनाओं को प्रभाव हैं जिन्होंने द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका को प्रत्यक्ष देखा और भोगा था। सामूहिक नाश और अनिशिचत भविष्य के भय और आंतक से उन देशों के रचनाकारों की मानसिकता इस प्रकार की हो गयी थी। पशिचम में ही उभरा असितत्ववादी दर्शन (म्गजपेजमदजपंसपेउ) इसी मानसिकता की उपज था जिसमें र्इश्वर के असितत्व को नकारा गया, और अकेलापन, मृत्युबोध, यातनाबोध, व्यर्थता बोध आदि को मान्यता दी गयी। नयी कविता और बाद में अकविता में इस असितत्ववादी दर्शन का प्रभाव दिखार्इ देता है। हिन्दी साहित्य में रचनाकारों ने इस प्रवृत्तियों को कुछ तो फ़ैशन और आधुनिकता के नाम पर अपनाया, और कुछ स्वातंत्रयोत्तर परिसिथतियों और महानगरीय जीवन के प्रभाववश। पशिचम के प्रतीकवाद मनोविश्लेषणवाद, अंग्रेजी कवियों एज़रापाउंड, इलियट आदि से भी इन कवियों ने प्रभाव ग्रहण किया- भाव के स्तर पर भी और अभिव्यä किे स्तर पर भी।
7. अभिव्यä किी दिशा में भी नयी कविता पूर्ववर्ती कविता से भिन्न और विशिष्ट दिखार्इ देती है। प्रयोगवाद में 'शिल्प ही शिल्प प्रधान था, किंतु नयी कविता के रचनाकारों का मत था कि 'बात बोलेजी हम नहीं (शमशेर बहादुर सिंह), और भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा 'जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख। अर्थात कविता में संप्रेषणीयता तो हो, किंतु जटिलता न हो। बलिक सहज अभिव्यä पिर अधिक बल दिया गया। भाषा, èवनि और छंद-विधान में उन्होंने नये प्रयोग किये। छंदों के बंधन से मुä किी बात की गयी, पर अंतर्लय को महत्त्व दिया गया। दुष्यंत कुमार ने उदर्ू में लिखी जाने वाली ग़ज़लों को हिंदी में अपनाया। गीतों का प्रयोग भी हुआ। पुराने उपमानों का नये ढंग से प्रयोग किया गया, नये उपमानों की खोज की गयी। उदाहरणार्थ-
कैमरे की लैंस सी हैं आँखें बुझी हुइ,
बिगड़े, कम्बख्त लाउडस्पीकर से
जिनके मुख निश्शब्द खुले हैं
दांतेदार पहिया सा घूमे जाता है
टाइपराइटर की 'की की तरह
सबके पैर बारी बारी से उठते हैं। (भारत भूषण अग्रवाल)
उपयर्ुक्त पंäयिें में रेखांकित सभी उपमान हमारे दैननिदन के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के हैं। जो अपने नयेपन के कारण ताजगी भरे तो हैं ही, अभिव्यä सिमथ्र्य में भी कम नहीं। नरेश मेहता की निम्नलिखित पंäयिें में गोमती नदी के तट का बिंब प्रस्तुत किया गया है। इस बिंब में गोमती का तट अपनी समस्त विशिष्टताओं, दृश्यों, èवनियों, गतियों के साथ पाठकों के सम्मुख मूर्तिमान हो जाता है-
गोमती तट
दूर पेंसिल रेखा-सा वह बाँस झुरमुट
शरद दुपहर के कपोलों पर उड़ी वह धूप की लट
जल के नग्न ठंडे बदन पर कुहरा झुका
लहर पीना चाहता है।
सामने के शीत नभ में
आयरन बि्रज की कमानी, बांह मसिजद की बिछी है।
धोबियों का हांक,
वट की डालियाँ दुहरा रही हैं।
'नयी कविता आंदोलन के प्रमुख कवि हैं- कुँवर नारायण, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, मुäबिेध, जगदीश गुप्त, अज्ञेय, दुष्यंत कुमार, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, नागजर्ुन, प्रभाकर माचवे, भारतभूषण अग्रवाल, रधुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकंस वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन आदि।
उक्त विवेचन से 'नयी कविता की विशेषताएँ आपके सामने स्पष्ट हो गयी होंगी। इस दौर की कविता में वैयäकि अनुभूतियाँ भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं जितना सामाजिक आग्रह, एक ओर परंपराओं के प्रति अविश्वास और अनास्था का भाव है दूसरी ओर भविष्य के प्रति आशा और उत्साह भी है। नयी कविता में भूतकाल की प्रगतिविरोधी मान्यताओं.विश्वासों और वर्तमान की असमानताओं, विæूपताओं और आमनुषिक परिसिथतियों से टकराने का भाव है, विपरीत सिथतियों के कारण कुंठा और संत्राास के भाव भी दिखार्इ देते हैं, परंतु वह थकहार कर बैठ जाने की कविता नहीं वरन इस अंधकार को चीर प्रकाश की ओर बढ़ने को वरीयता देती है। इसीलिए नयी कविता में गध और पध की विशेषताओं का मिश्रण दिखार्इ देता है- गध की यथार्थ परकता और पध की संवेदनशीलता। पशिचम के असितत्ववादी दर्शन का प्रभाव उस पर है। भाषा, छंद, प्रतीक, उपमान और बिंबयोजना आदि की दृषिट से भी नयी कविता में ताजगी दिखार्इ देती है। पर बाद में इन्हीं विशेषताओं को आधुनिकता और फ़ैशन के नाम पर अपनाया जाने लगा, सामाजिक आग्रहों और दायित्वों को तिलांजलि देकर केवल वैयäकि अनुभूतियों, कुंठाओं और संत्राास, अनास्था और अविश्वास की ही कविता लिखी जाने लगी। परंपराओं, मूल्यों, आस्था, विश्वास, समाज, संस्Ñति सभी के निषेध पर बल दिया जाने लगा, नये बिंबों-प्रतीकों-उपमानों का प्रयोग केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए होने लगा। ऐसे में नयी कविता का अवसान और 'अकविता आंदोलन का जन्म हुआ।