दिव्यालोक
(प्रबन्ध काव्य)
रामवरन त्रिपाठी
ग्रा0-दहेव
पो0-बालवरगंज
जिला-जौनपुर
मरीचि माली सुर के प्रसाद से
अतीव आलोकित मार्ग हो गया।
अपूर्व आभा जिनसे मिली मुझमे।
नमामि ऐसे गुरुदेव को सदा।
‘’ जो कुछ है सीमा उसकी ही
जो कुछ नही असीम वही ॥
प्रथम आलोक
भारति।दो ऐसा वरदान
जीवन का जो ध्येय महान।
प्राप्त करे सुसिद्ध सम्मान ।
मॉ के चरणो मे नादान ।।१॥
क्या है मॉ ! बतलाना शेष ?
है मेरा क्या ध्येय विशेष?
मॉ को रहता शिशु ध्यान !
बिना बताये देती दान ॥२॥
चंचल शिशु का सहज स्वभाव ।
हठ वश करता सृजित भाव।
जननी मुस्क्यानो के साथ।
फेरे सिर पर स्नेहिल हाथ।।३॥
झकृत करो जर्मन हृसार ।
हो जागृत सत सुप्त विचार।
हो मति मन्द सुवन उद्दार ।
अम्बे! भर दो शक्ति अपार॥४॥
नाविक थाम-थाम पतवार।
मुझको जाना है उस पार।
उत्सुकता की यही पुकार।
ले चला धीवर मुझे उतार ॥५॥
नगरी एक रम्य रमणीय।
छटा दिखाती खडी स्वकीय।
सुख देती है दुख अपकीय।
कार्य वही जो कर करणीय॥६॥
देवो का है वह संसार।
स्नेह भरा जिसमे सुविचार।
जग का कर्ता जो कर्तार।
उसकी महिमा का विस्तार्॥७॥
सुर गंगा सी नदियॉ नेक।
करती है सबका अभिषेक।
जिनका जीर सदा सविषेक।
अपनाते जन वहॉ अनेक॥८॥
जिसमे नित्य चॉदनी रात।
होती सदा प्रेम की बात।
होता नही किसी का घात ।
पुलकित सब के सुखमय घात॥९॥
सर्प विषैले जो अतिकर ।
वे थी हिंसा से रह दूर ॥
करते प्रकट प्रेम भरपूर्।
रहते सब से नित्य अदूर्॥१०॥
मछुओ का न वहॉ है नाम।
खेले मीर नीर अभिराम।
प्राप्त उन्हे जीवन सुख धाम।
होता कभी नही विधि धाम॥११॥
झरने वहॉ सहसो गीत।
गा गा लेते मन को जीत।
दिखते नही भाव विपरीत।
देख भागता दुखा तीत॥१२॥
पर्वत पुंज वहॉ छवियान।
कविजन को देते वरदान।
जिनसे उनके जगते गान।
हृदय के भाव उच्च विज्ञान॥१३॥
मन्यथ का न वहॉ अधिकार।
जीवन का जो हमाधार।
जन जन उसकी करे पुकार।
तब वजते मानस के तार॥१४॥
जिनका कभी नही अवसान।
हरे भरे ऐसे उधान।
दे कर मधुपो को मधु दान।
अकर्षित कर लेते ध्यान॥१५॥
पुष्प खिले बहु रंग बिरंग ॥
अलि गण मत् पान कर भंग।
इहलाते समीर के संग।
उठता मचला देख कर अंग॥१६॥
विछते शैया सदा प्रसून।
इससे उनकी शोभा दून।
किन्तु न होते उपवन सून।
होते क्यो प्रसून ही ऊन॥१७॥
सागर छिन वहॉ स्वाधीन ।
लहराता गम्भीर प्राचीन।
रहता नित परार्थ मे लीन ॥१८॥
बहती वहॉ सुधा की धार।
अमरो का जो पेयाधार।
कुछ भी नही वहॉ विस्तार।
जीवन सदा शुद्ध साकारा॥१९॥
सर्प सहर्ष करे मणिदान।
मृग कस्तूरी कान विधान।
फलता वृक्ष विशेष महान।
गज सुभता तरुफल ही जान॥२०॥
सुर तरु कल्पद्रुय मन्दार।
ये ही वृक्ष वहॉ के सार।
देते फल जो करे विचार।
कितना सुन्दर वह संसार॥२१॥
कामधेनू का वही निवास।
पूर्ण करे जो मन का अभिलाष ।
दुग्धामृत रोगो का नाश।
कर देता है बिना प्रयास॥२२॥
जब से सुना वहॉ का हाथा।
उस नगरी का विभव विशाल।
हृदय देखने को हर काल।
उत्सुक नाविक!युक्ति निकाल।।२३॥
है तुम्हे और कुछ कहना।
या वर्णन पूर्ण हो गया?
है तुममे और चेतना?
या मन तव शून्य हो गया॥२४॥
कहना है जो कुछ कह लो।
कहने से मुह मत मोडो।
अभिलाषा जो मन मे हो।
उसको कह कर ही छोडो।।२५॥
तुम यहॉ पथिक हो गये ।
कुछ नयी वस्तु ले आये।
जो कुछ तुमने बतलाया।
किसने यह तुम्हे सुकाया॥२६॥
रे नाविक!शेष बचा जो।
वह भी सब कुछ सुन लो मुझसे।
कुछ गीत गा रहा फिर से।
जो कभी सुना स्वजनो से ।।२७॥
उस स्वर्ग लोक का गौरव ।
जो मैंने कभी सुना था।
उसकी उस कीर्ति लता से ।
मैंने कुछ सुमन चुना था॥२८॥
उस नगरी के जो जन है।
उनकी है बात निराली।
वे मग्न हृदय दिखते है।
यी कर पियूष थी प्याली।२९॥
सुर परियॉ थिरक थिरक कर,
उनको सुरता दिखलाती।
वे गीत मग्न हो जाती।
बहु हाव भाव दर्शाती॥३०॥
फूलो की शैया सजती,
मन्यथ आमंत्रित होता।
जीवन की केलि कला मे,
तब अमर वेलि वह बोला॥३१॥
नित शान्ति बरसती है उस-
नगरी के कोने –कोने।
जो जीव वहॉ रहते है।
वे सज्जन और सलोने॥३२॥
सब मे गौरव गरिमा है,
कोई न हीन उनसे है।
जो क्षुद्र जीव भी दिखता,
वह प्रेम भाव धुन मे है॥३३॥
कोई न नीच ऊँचा है,
समभाव वहॉ रहता है,
जो कहता नीव किसी को,
प्रर्याप्त दण्ड सहता है॥३४॥
सन्तान एक सत्ता की।
सब उस नगरी के वासी।
यह भाव हृदय मे सब के।
सब के मानस विश्वासी॥३५॥
जब पंच तत्व से ही सब-
जन की रचना कहलाती।
तब चित्त-वृत्ति उनकी क्यो,
मन पक्ष पात को लाती॥३६॥
पर बुद्धि एक सी सब मे।
कोई न वहॉ पामर है।
इससे न वहॉ ईर्ष्या है,
सम भाव सिद्धि सागर है।।३७॥
जो लोक नभ मण्डल मे।
सब के रहस्य वे जाने ।
जिसमे भी जाना चाहे,
जा सकते है मन माने॥३८॥
पशुओ पर भी है उनकी ।
ममता जितनी स्वजनो पर।
ज्यो भृंग न कुतरा करते।
पाते पराग सुमनो पर॥३९॥
जितने थापक पक्षी है।
सब वहॉ सौम्य दिखलाते।
फल फूल भरी नगरी मे।
अपना जीवन बहलाते।।४०॥
खग जितने वहॉ विचरते।
उनका भी सात्विक जीवन।
लहराते शस्य पटल मे,
खा कर जीते सुअखन्न॥४१॥
दो ही ऋतुओ का आगम।
शुचि वहॉ हुआ करता है।
मधुमास श्रेष्ट है उनमे,
जन मानस मे रमता है॥४२॥
पावस ऋतु भी अनुपम है।
बहु दृश्य दृष्टि मे आते।
शीतन फहार पडती है,
जब तब प्राणी हर्षाने ॥४३॥
मधु ऋतु मे किन्तु न होती ।
केवला अनंग की फेरी।
जब उसे बुलावा जाता,
तब वह न लगता देरी॥४४॥
हिंसा न वहॉ होती है,
सब अभय वहॉ रहते है,
कोई न किसी कारियु है,
चिर स्नेह दीप जलते है॥४५॥
रमणीय कुंज ये अपने,
कलरव से ये जन मन हरता
खग कुल प्रसन्न मन रह कर,
सारस्य हृदय ये भरता॥४६॥
कुछ भी न वहॉ बिकता है,
सब योग्य वस्तुये मिलती।
मुद्रा न वहॉ चलती है,
व्यवहार लताये खिलती॥४७॥
दिन से न रात होती यदि,
आज्ञा न सूर्य को होती ।
निशि से न कहा जाता यदि
वह भी न कौमुदी खोती॥४८॥
कोई न वहॉ शासक है,
सब स्वतंत्रता से रहते।
उपकार सभी कर सकते,
अपकार न कोई सहते॥४९॥
मंदिर सुवर्णा ही के है,
उसकी महिमा बतलाते।
जिस पर बहु कलित कलाये
पटु चित्रकार दर्शाते॥५०॥
नित रात कौमुदी पड्ती ,
जब प्रसादो के ऊपर।
सौंदर्य छलक पडता है,
तब सारी उस नगरीभर॥५१॥
भय ताप पूर्ण अधिकारी,
बन कर न वहॉ आती है,
सुख सदा भरा रहता है।
दुख से न कभी नाता है॥५२॥
यदि कोई अतिथि वहॉ पर।
आ जाता साझ सवेरे।
स्वागत सप्रेम होता है,
बैठे रहते सब घेरे॥५३॥
माया प्रपंच लम्पटता,
कायरता झोखा धूल भी,
अज्ञान असत्य व चकमा,
आते न किसी युग मे भी॥५४॥
पी कहॉ न बोज चातकी
पी अहा। सदा कहती है।
दुख व्यक्त न करता कोकिला
कुछ न मन मे रहती है॥५५॥
वह अमर लोक प्रति क्षण है,
आनन्द हिलोर लेता
जो वहॉ पहुच जाता है।
वह अनुपम सुख पाता ||५६॥
आलोक,अलौकिक अपना,
दिखलाती दिव्य नगरी।
दिन की तो बात निराली,
रजनी भी सुछवि आगरी॥५७॥
मणियो के दीपक जलते,
मन्दिर मे सजे सजाये,
जो चित्ताकर्षित करते,
करव चपला भी छिप जाते॥५८॥
सुमहोत्सव,भूर्तमान हो-
जाति है, वहॉ अनूठे।
जिनमे लुठते मणि मौक्तिक,
जो अन्य लोक से रुठे॥५९॥
रे नाविक! शीघ्र सिन्धु को,
चल पार कर ले तरणी।
वह स्वर्ग लोक का सुख है,
यह नरक पूर्ण है धरणी॥६०॥
मन उत्सुकता से पूरति,
जिह्वा से पानी गिरता।
अविलम्ब वहॉ पहुचाये,
नाविक!न हृदय मे थिरता॥६१॥
‘’सुन तुम्हारी बात सारी,
हो रेहा आह्राद मुझको।
पथिक!पर वह भूल जाओ,
मै बताऊ युक्ति तुमको॥६२॥
यह तुम्हारी कल्पना हो,
या बताते सुन किसी से,
मै बताता हूँ तुम्हे जो,
तुष्ट होंगे तुम उसी से॥६३॥
इति प्रथम आलोक
२ आलोक
मेदिनी का इक छोटा भाग,
बना है जो जग का आदर्श।
दिखाता सब के प्रति अनुराग,
अहो,अनुपम यह भारतवर्ष॥१॥
यही है विधी का कला निधान,
यही है जन सात्विक साकार,
यही ऋतुओ का अमर विधान,
यही मानवता करे विहार॥२॥
यही ऋषियो का जमघट शुद्ध,
यही प्रज्ञो का देश महान।
यही के राम कृत्या जिन बुद्ध,
यही का शुद्ध ज्ञान विज्ञान॥३॥
अहिंसा व्रत जो कठिन अतीव,
निभाया जाता यह सहर्ष।
दया जो उठती स्वयं सजीव,
बचाती जो जीवन सहर्ष॥४॥
जाह्वी इसी देश का गर्व,
व्यक्त करती वह नीर पियूष।
यही रहता अनूप शुचि पर्व,
मिटाता हृदय कलुष सब चूस॥५॥
यहॉ झरनो के कल-कल नाद,
खींच लेते मन बिना प्रयास।
रजत गला करके मानो याद,
कर रहा भारत का इतिहास॥६॥
यही से है वेदो की ख्याति,
यही के जन दीर्घायु महान।
यही के लोग सुरो की भांति।
जगत मे पाते है सम्मान॥७॥
सुहाता मोद भरा मधुमास , हृदय मे भरता प्रणय अपार,
मदन फैलाकर अपना पाश,
फँसाता जीवो का सुकुमार॥८॥
शिकारी मार पुष्प के बाण,
मार जीवो को कर हैरान,
किसी के किन्तु न लेता प्राण,
मूर्छना का केवल आहान॥९॥
सुरभि मय दशो दिशाये मौन,
भर रही रग रग मे उन्माद।
बह रहा भीना भीना पौन,
चराचर पति अनुपम स्वाद॥१०॥
बढा कर जग जीवन आलोक ,
मंजरी जिसने किया प्रदान।
प्रफुल्लित जिसमे नित्य अशोक,
और जो सुन्दरता की खान॥११॥
चातकी जिसमे गाती गीत,
प्रकटती अथवा दु:खागीत।
कुछू-कुछू कलकंठ पुनीत,
बनाता मानव को बिज गीत॥१२॥
तितलियॉ रंग विरंगे साज,
सजी आती उपवन के पास,
जहॉ पुष्पो का दिब्य समाज,
किया करता समीर संग लास॥१३॥
विभाकर से प्रात:काल,
दीप्त होती जब किसलय पंक्ति ।
उच्च हो उठता उपवन भाल,
बढाता जो रग रग मे शक्ति॥१४॥
मेदिनी पर मधूक सुकुमार,
विछे मानो मोती बहु प्रात।
बना ग्रामीण हस्त अपार,
विभत्रमय किन्तु न भूपति गात॥१५॥
भरा अमराई मे उन्माद
मधुय आते करने मधु पान।
दिवस के द्वादश भागो नाद,
किया करते न सोच अवसान॥१६॥
आम्र मंजरिया शिशु सुकुमार,
भ्रमर कज्जल जिनके मृदुगात।
किसी की दृष्टि न देय बिदार,
इसी से डीठ-डिठौना,जात॥१७॥
कही झुरमुट मे बैठे बिहंग
सजे जिनके पर रंग बिरंग। मृदुल भरवमल से जिनके अंग
गा रहे गीत एक ही संग॥१८॥