श्रद्धा सर्ग की व्याख्या
एक दिन जब मनु विभिन्न विचारों में लीन थे तब अचानक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि कोई उनसे यह कह रहा है—“जिस प्रकार समुद्र की लहरें समुद्र में भीषण उथल-पुथल मचाकर सतह से मणियों को निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार इस संसार रूपी समुद्र की लहरों अर्थात् सांसारिक आघातों से ठुकराए हुए मणि के समान तुम कौन हो? साथ ही जिस प्रकार समुंदर तट पर पड़ी हुई वह मणि अपनी आभा से समीपवर्ती प्रदेश को पूर्णत: जगमगा देती है और उस शून्य स्थान में उसका प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार इस सागर के समीप चुपचाप बैठे, अपने अपूर्व व्यक्तित्व की आभा प्रकट करने वाले तुम कौन हो।”
कवि का कहना है कि उस आगंतुक ने मनु से यह पूछा कि “तुम इस एकांत स्थान में क्यों बहुत थके हुए और आलस्य से भरे हुए बैठे हो तथा तुम्हारी शांतिपूर्ण मनोहर आकृति पर जो एक अपूर्व माधुर्य-सा दीख पड़ता हे उससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो तुमने इस जगत का रहस्य भली भाँति जान लिया है। साथ ही तुम्हारी मौनता न केवल तुम्हारे बाह्य सौंदर्य का बोध कराती है बल्कि उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है तुम्हारा हृदय करुणाशील है, अर्थात् कोमल भावनाओं से पूर्ण है और उसमें चंचलता का लेश मात्र भी नहीं है।” वास्तव में इन पंक्तियों में कवि ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि मनु वहाँ एकाग्र-चित्त हो किसी बात पर विचार कर रहे थे और उनकी मुखाकृति से व्यग्रता झलक उठती थी तथा यह भी आभास होता था कि उनके अतरतम में कोई व्यथा छिपी हुई है।
कवि कह रहा है कि जब उस आगंतुक ने कमल के समान कोमल मुख को झुकाए हुए भ्रमरी की मधुर गुँजार की भाँति वाणी में ये पंक्तियाँ मनु से कहीं तब मनु का हृदय स्वाभाविक ही आनंदित हो उठा। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने अभी तक इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दो पंक्तियों से यह अनुभव हो जाता है कि वह कोई सुंदर, मृदुभाषिणी, लज्जाशील, करुणामयी नारी ही है क्योंकि उसका मुख कमल के समान तथा वाणी भ्रमरी की गुँजार जैसी मधुर कहीं गई है और साथ ही कवि यह भी कहता है उसने अपना सिर नीचे झुका लिया था। इन पंक्तियों में स्वाभाविकता भी है क्योंकि जब आगंतुक के मुख को कमल माना गया है तब उसकी वाणी को भ्रमरी की गूँज मानना युक्तिसंगत ही है। कवि पुन: कहता है कि आगंतुक की वाणी मनु को उसी प्रकार अनायास निकली हुई जान पड़ी जैसा कि आदि कवि के मुख से अनायास ही मधुर छंद निकल पड़ा था।
कवि कह रहा कि आगंतुक की मधुर वाणी को सुनते ही मनु के रोम-रोम में हर्ष की विद्युत लहर-सी प्रवाहित होने लगी और वे अत्यधिक प्रसन्न हुए तथा उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मानो कोई उनके हृदयरूपी धन को लूट लिए जा रहा है। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि मनु को अपना हृदय उस ओर आकृष्ट होता सा जान पड़ने लगा और वे मुग्ध तथा आश्चर्यचकित हो उसी की ओर देखने लगे जिस ओर उन्हें यह वाणी सुनाई पड़ी थी। मनु का मन यह जानने को उत्सुक हो उठा कि आख़िर किस कोमल कंठ से यह वाणी निवृत हुई है पर उन्हें अपने मन की कौतूहलता अधिक देर तक दबाकर नहीं रखनी पड़ी।
कवि का कहना है कि मनु को अपने सामने एक सुंदर नारी मूर्ति दिखाई दी जो कि उनके नेत्रों पर मोहक जादू-सा डाल रही थी अर्थात् उन्हें अत्यधिक आवश्यक प्रतीत हो रही थी और यही कारण है कि ज्योंही उन्होंने उसे देखा त्योंही ये उसकी ओर आकृष्ट हो गए। कवि कहता है कि उस रमणी का शरीर ऐसा जान पड़ता था कि मानो यह फूलों से पूर्ण कोई लता हो या फिर काले-काले बादलों से घिरी हुई श्वेत शुभ्र चाँदनी हो। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने जो ‘चंद्रिका से लिपटा घनश्याम’ कहा है उसका अर्थ यह नहीं कि वह बाला श्यामवर्ण की थी और इसलिए इसका अर्थ यह करना कि ‘कोई श्याम बादल जो कि चाँदनी से लिपटा हुआ हो’ उचित नहीं है। वस्तुत: कवि यह कहना चाहता है कि वह रमणी नीला परिधान धारण किए हुए थी और इसलिए यहाँ नीले वस्त्र की उपमा मेघ से तथा उसके गौर-वर्ण की उपमा चाँदनी से दी गई है।
कवि कह रहा है कि रमणी का बाह्य तन उसके हृदय की ही अनुकृति था अर्थात् उसका शरीर बाहर से जितना मनोहर जान पड़ता था उतना ही उसका हृदय भी उदारता से ओतप्रोत था। कवि का कहना है कि यदि उस रमणी का शरीर लंबा एवं कोमल था तो हृदय भी विशाल और सुकुमार ही था अर्थात् उसका बाह्य तन और अंतर्मन दोनों ही सरल एवम् संकीर्णता रहित थे। कवि कह रहा है कि जिस प्रकार कोई लघु शाल वृक्ष सुंदर सुरभि युक्त पवन के झोकों से हिलारें-सी लेता हमेशा प्रिय लगता है उसी प्रकार उस बाला के शरीर से भी अत्यंत भीनी-भीनी गंध आ रही थी। वह लावण्यता की प्रतिमा सहज-सी प्रिय जान पड़ती थी। कवि ने इन पंक्तियों में उस रमणी को अपूर्व रूपवती कहा है और ‘मधुपवन क्रीडित’ कहने से संभवत: उसका अभिप्राय यही है कि उस रमणी के शरीर से समुधुर वायु अठखेलियाँ सी कर रही है। साथ ही यह भी कह सकते हैं कि उसके हृदय में मधुर भावनाएँ विद्यमान थी और वह अनेक उत्तम गुणों से पूर्ण भी जान पड़ती थी।
कवि का कहना है कि उस नारी का कोमल सुंदर शरीर गांधार देश के चिकने नीले रोम वाले भेड़ो के चमड़े से आच्छादित था अर्थात् युवती ने जो वस्त्र अपने शरीर पर धारण किया था वह गांधार देश की नीले रोयें वाली भेड़ों के चिकने चमड़े से बना था। इस प्रकार वह वस्त्र उसके सुंदर शरीर पर सुकोमल आवरण के समान था।
कवि मनु से प्रश्न करने वाली आगंतुक रमणी (श्रद्धा) का रूप वर्णन करते हुए कह रहा है कि उस रमणी के नीले वस्त्र में से उसका सुकुमार एवं सुंदर शरीर कहीं खुला हुआ था अर्थात् परिधान युक्त स्थानों के अतिरिक्त उसके शरीर के अन्य अंग खुले हुए थे और वे ऐसे जान पड़ते थे कि मिनो काले बादलों रूपी वन में गुलाबी रंग के बिजली के फूल खिले हुए हों। इन पंक्तियों में कवि ने नीले परिधान के लिए बादलों और रमणी के अधखुले अंगों के लिए बिजली के फूल नामक उपमाओं का प्रयोग कर यह स्पष्ट करना चाहा कि उसका शरीर अपूर्व सौंदर्यशाली या और उसका वर्ण गुलाबी रंग का था।
कवि अब उस बाला के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि उसका मुख इतना अधिक सुंदर था कि उसका वर्णन करना सहज नहीं है। इस प्रकार कवि प्रारंभ में ही यह स्वीकार कर लेता है कि उस रमणी अर्थात् श्रद्धा के मुख की तुलना किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती और उसकी सुंदरता अवर्णनीय है। कवि कह रहा है कि उस रमणी के मुख की शोभा वैसी ही थी जैसी की संध्या के समय आकाश के पश्चिमी भाग में काले-काले बादलों से घिरे हुए लाल सूर्यमंडल की रहती है।
कवि श्रद्धा के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि जिस प्रकार नवीन नीलम के छोटे से पहाड़ की चोटी पर वसंत की रात में ज्वालामुखी की लपटें अंदर ही अंदर धधकती रहती हैं उसी प्रकार उसका मुख भी शोभायमान है। चूँकि आगंतुक रमणी अभी युवा ही थी और नीला परिधान पहने हुए थी अत: कवि ने यहाँ लघु आकार के नीलम की कल्पना की है। यहाँ यह स्मरणीय है कि पुराने नीलम में धब्बे पड़ जाते हैं और वह उतना आकर्षक नहीं जान पड़ता इसलिए कवि ने यहाँ ‘नव इंद्रनील’ शब्द का प्रयोग किया है। साथ ही यह उस रमणी की यौवनावस्था ही है अत: उसे वसंत की रात्रि में धधकता हुआ ज्वालामुखी कहा गया है और उसकी मुख कांति को ज्वालामुखी की लपटें माना गया है परंतु पूर्णानुराग की भावना से रहित होने के कारण उसके अंतर के ज्वालामुखी को उचित माना गया है।
कवि का कहना है कि उस नवयुवती के मुखड़े पर घुँघराले बाल इस प्रकार बिखरे हुए थे कि मानो काले बादलों के सुकुमार शिशु ही चंद्रमा के समीप पीयूष पान करने के लिए पहुँच गए हों। कवि यहाँ घुँघराले बालों की उपमा बादलों के छोटे-छोटे सुकुमार बच्चों से दे रहा है तथा मुख को चंद्रमा मानता है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में जिस तरह काले-काले बादल चंद्रमा के समीप एकत्र हो जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे उसका सुधा रस पान करना चाहते हो उसी प्रकार उस बाला के कंधे तक लटकने वाले घुँघराले केशों को देखकर यही आभास होता था कि मानो वे भी उसके चंद्रमा सदृश्य मुख का पीयूष पान करने के लिए एकत्र हुए हों।
कवि कह रहा है कि उस नवयौवना के मुख पर मंद-मंद हँसी को देख यही अनुमान होता था कि संभवत: प्रभातकालीन बालारूण अर्थात् बाल रवि की कोई आभायुक्त किरण ही किसी लाल कोपल पर विश्राम करती हुई वहीं टिक गई है और इस दशा में यह अत्यंत सुंदर जान पड़ती है।
कवि उस आगंतुक रमणी का रूपवर्णन करते हुए कह रहा है कि उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो संपूर्ण सृष्टि की करुण भावना ने ही एकत्र होकर शरीर धारण कर लिया हो अर्थात् वह बाला अनंत करुणामयी ही जान पड़ती थी। साथ ही उसका यह यौवन शाश्वत ही है अर्थात् हमेशा बना रहने वाला है और उसकी देह द्युति जिस तरह आज आभायुक्त है उसी तरह हमेशा ऐसी बनी रहेगी तथा उसके शरीर की शोभा कभी भी कम न होगी। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि वह बाला न केवल अपूर्व सुंदरी है अपितु करुणामयी भी है और उसके इस लौकिक सौंदर्य को देखते ही मन इस प्रकार उसकी ओर आकृष्ट हो उठता है कि स्वाभाविक ही उसे स्पर्श करने की आकांक्षा होने लगती है। इतना ही नहीं वह इतनी सुंदर थी कि जड़ पदार्थों में भी स्फूर्ति जागृत करने की अर्थात् चेतना उत्पन्न करने की शक्ति रखती थी।
कवि का कहना है कि जिस प्रकार प्रभातकालीन तारे की अपूर्व शोभा युक्त अकशय्या से मधुरिमा में ओत-प्रोत उल्लास पूर्ण अपूर्व मादकता भरी और लज्जायुक्त उषा की पहली सुनहली किरण उठती है उसी प्रकार उस बाला के सुंदर मुख पर हल्की-सी मुस्कराहट छा रही थी। कवि ने यहाँ प्रियतम की गोद में रात्रि भर सोने के पश्चात् प्रभातकाल में उठने वाली किसी नारी की कल्पना की है और उसका कहना है कि उस नारी के मुख पर जो हर्ष, मादकता एवं लज्जा दीख पड़ती है वही उस बाला के मुख पर भी दिखाई देती थी।
कवि कह रहा है कि वह सुकुमार नारी इतनी सुंदर जान पड़ती थी कि मानो फूलों की वाटिका में मंद पवन के झकोरो से प्ररित हो मकरंद का आधार लिए हुए फूलों के इस अर्थात् पराग के कणों का समूह ही साक्षात् देह धारण कर शोभायमान प्रतीत हो रहा हो और उन कणों पर मन को रुचिकर प्रतीत होने वाली सुंदर स्वच्छ नव बसंत की पूर्ण चाँदनी रात का प्रकाश पड़ रहा हो। इतना ही नहीं उस बाला के सुंदर मुखड़े पर रम्य क्रीड़ायुक्त अर्थात् मधुरता से ओत-प्रोत मंद-मंद उठने वाली मुस्कराहट की स्वाभाविक झलक भी दीख पड़ती थी।
कवि कह रहा है कि उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा की बातें सुनकर मनु ने उससे कहा कि इस आकाश और पृथ्वी के मध्य उनका जीवन एक रहस्य बनकर रह गया है अर्थात् वे इस प्रकार अनगिनती उलझनों से घिरे हैं कि उन्हें यही नहीं समझ में आता कि इन उलझनों को कैसे सुलझाया जाए। मनु का कहना है कि जिस प्रकार अंतरिक्ष से टूटा हुआ तारा जलते-जलते शून्य में असहाय-सा हो इधर-उधर भटकता फिरता है उसी प्रकार उन्हें भी अब व्यथा रूपी जलन को लेकर इस निर्जन प्रदेश में बिना किसी सहारे के इधर-उधर भटकना पड़ रहा है।
मनु कह रहे हैं कि उनका जीवन तो अब एक प्रकार से पाखंड मात्र ही रह गया है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की वास्तविकता या गति के चिन्ह नहीं रहे तथा उन्हें यह जीवन बिल्कुल व्यर्थ बिताना पड़ रहा है। इस प्रकार मनु का यही कहना है कि जिस प्रकार पर्वत के अस्तित्व की सार्थकता झरनों के रूप में प्रवाहित होने में ही है अन्यथा वह तो जड़ ही कहा जाता है उसी प्रकार मेरा जीवन भी उसी पर्वत खंड के समान ही है कारण कि उससे अभी तक किसी भी प्रकार का स्त्रोत निर्झरित नहीं हो सका। इतना ही नहीं मनु अपने जीवन को उस हिमखंड जैसा मानते हैं जो कि सरिता बनकर सागर में नहीं मिल सका।
मनु उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा से कह रहे हैं कि मेरा जीवन तो पहेली के समान उलझा हुआ है और मैं उसे भरसक प्रयत्न करके भी सुलझा नहीं पाता और यह भी समझ में नहीं आता कि आख़िर उसका क्या कारण है? मनु का कहना है कि इस प्रकार मैं बिना सोचे समझे अनजान-सा बनकर अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।
मनु कहते हैं कि मैं दिन-रात अपने कोमल अभिलाषाओं से पूर्ण विगत युग को भुलाने का प्रयत्न कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अब वैसा उल्लास और आनंद शायद ही मिल सके। मनु का कहना है कि मैं तो यही चाहता हूँ कि जिस प्रकार घोर अंधकारपूर्ण गुफा में संगीत की मधुर स्वर लहरी दूर तक गूँजकर नही रह जाती है उसी प्रकार अब उनके व्यथापूर्ण जीवन की सभी सुखद कल्पनाएँ शनै शनै निराशा रूपी अंधकार में मिटती-सी जा रही हैं।
मनु कह रहे हैं कि चारों ओर निरुद्देश्य भटकने के कारण मैं यह भी नहीं कह पाता कि आख़िर में स्वयं क्या हूँ क्योंकि मुझे अपने जीवन में सार्थकता के कुछ भी अंश नहीं दीख पड़ते। मनु का कहना है कि मुझे तो यही जान पड़ता है कि मानो मैं नीले आकाश के रिक्त स्थानों से भटकी हुई वायु की एक तरंग के समान हूँ और मेरा जीवन उस उजड़े हुए राज्य की भाँति है जिसमें शून्यता-सी व्याप्त है।
मनुष्य अपने जीवन को जड़ता से पूर्ण विस्मृतियों का स्तंभ भी कहते हैं और उन्हें वह ज्योति की धुँधली-सी छाया जैसा लगता है। इसका अर्थ यह है कि मनु अपने आपको कीर्तिमान देवजाति का क्षुद्र वंशज ही समझते हैं और वे रह-रह कर यही सोचते हैं कि सफलता प्राप्त करने में न जाने अभी कितना समय और लगे क्योंकि उन्हें चारों ओर विलंब ही बिलंब देखना पड़ रहा है।
कवि कह रहा है कि आगंतुक को अपने दयनीय एवं अभावग्रस्त जीवन से परिचित कराने के पश्चात् मनु ने यह जानना चाहा कि आख़िर वह रमणी कौन है? इस प्रकार मनु आगंतुक से कहते हैं कि वे तो अपने जीवन को पतझड़ के समान मानते हैं और उस नारी को वसंत का दूत समझते हैं तथा यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उन्हें उसकी बातें सुनकर यह आशा हो चली है कि उसके जीवन से शीघ्र ही सरसता और मधुरता का आगमन होगा। मनु उस आगंतुक से कह रहे हैं कि उनके जीवन में वसंत के समान उल्लासमय वातावरण प्रस्तुत करने की आशा उत्पन्न करने वाले तुम कौन हो?
मनु कहते हैं कि जैसे सघन अंधकार में विद्युत की क्षीण रेखा चमक उठती है वैसे ही आज उनके निराशारूपी अंधकारपूर्ण जीवन में वह आगंतुक आशा की सुनहली किरण के समान जान पड़ता है और उसे देखकर उन्हें वैसी ही शांति प्राप्त होती है जैसी ग्रीष्म ऋतु में शीतल मंद पवन के प्रवाहित होने से मानव मात्र को प्राप्त होती है। इतना ही नहीं मनु उस आगंतुक को अंधकार में नक्षत्र की किरण के समान मानते हैं अर्थात् उनकी दृष्टि में वह रमणी उनके नैराश्यपूर्ण हृदय में आशा की किरण के समान है। इसलिए उसका आगमन होते ही उनके मानस प्रदेश की समस्त हलचल शांत हो गई है और उन्हें वैसी ही अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त हो रहा है जैसा कि किसी कोमल भावनाओं वाले कवि को दिव्य मनोहर कल्पना के उदय होने पर प्राप्त होता है।
कवि का कहना है कि मनु के उद्गारों को सुनने के पश्चात् वह आगंतुक व्यक्ति, उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए अपनी मधुर वाणी से अपना परिचय उसी प्रकार देने लगा जिस प्रकार कोयल प्रसन्न होकर फूल को वसंतागमन की सूचना देती है। वस्तुत: इन पंक्तियों से फूल और मधुमय नामक दोनों ही शब्द श्लिष्ट हैं तथा सुमन का अर्थ फूल के साथ-साथ सुंदर मनवाला और मधुमय का अर्थ वसंतमय एवं मधुर दोनों ही माना जाना चाहिए। इस दूसरे अर्थ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उस आगंतुक ने सुंदर मन वाले मनु को भावी जीवन की मधुर आशा बँधाई।
वह आगंतुक रमणी अपना परिचय देते हुए कह रही है कि मैं अपने पिता को अत्यंत प्यारी संतान हूँ और मेरे मन से हमेशा से ललित कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा रही है। इस प्रकार मैं इधर गंधर्वों के देश में रहकर अपनी अभिलाषा पूर्ण कर ही हूँ।
उस आगंतुक रमणी का कहना है कि स्वच्छंद प्रकृति की होने के कारण मैं इस विस्तृत उन्मुक्त आकाश के नीचे दिन-प्रतिदिन इधर-उधर घूमती रहती थी और इस प्रकार मेरी यह आदस-सी पड़ गई कि चारों ओर घूमकर प्रकृति की सुंदर छवि देखी जाय। वह बाला कहती है कि इस प्रकार प्रकृति के विभिन्न दृश्यों की मनोहर सुषमा को देख, आश्चर्यकित हो मैं अपने हृदय से उठने वाले रहस्यों को सुलझाने की चेष्टा करती और हमेशा यह जानने को उत्सुक रहती कि आख़िर इन सुंदर वस्तुओं में विद्यमान सत्य क्या है?
वह आगंतुक रमणी कह रही है कि मेरा मन प्राकृतिक दृश्यों की सुषमा निहार कर रहस्य से पूर्ण हो जाता था और कुतूहल मिटाने के लिए भी वह स्वभाविक ही अधीर हो उठता था अतएव हिमालय पर्वत को देखकर ही कभी-कभी मैं यह सोचने लगती कि आख़िर धरती के हृदय में ऐसी कौन-सी पीड़ा है या उसे कौन-सा कष्ट है कि इसके कारण उसके मस्तक पर चिंता की सिकुड़न पड़ गई है। यहाँ यह स्मरणीय है कि जब कोई भी प्राणी किसी व्यथा से पीड़ित होता है और उसके मन में चिंताएँ-सी उठने लगती है उस समय स्वाभाविक ही उसके मस्तक पर सिकुड़न-सी आ जाती है। अत: इन पंक्तियों में वह बाला हिमालय को धरती के ललाट की सिकुड़न ही मानती है और उसका अनुमान है कि कदाचित् किसी आंतरिक व्यथा के कारण पृथ्वी के मस्तक पर सिकुड़न-सी पड़ गई है और यही सिकुड़न हिमालय के रूप में दीख पड़ती है।
वह आगंतुक बाला कहती है कि हिमालय पर्वत के मौन सौंदर्य की ओर देखने पर कभी-कभी यह भी आभास होने लगता कि उसकी इस नीरव सुषमा में कोई न कोई महान और गुप्त संदेश अवश्य है। इस प्रकार मेरे मन में यह जानने की इच्छा बलवती हो उठी कि आख़िर वह संदेश क्या है।
उस रमणी का कहना हे कि ज्यों ही मेरे मन में हिमालय के मौन सौंदर्य में विद्यमान गुप्त संदेश को जानने की उत्सुक्ता जागृत हुई त्यों ही मेरे चरण भी आगे बढ़ चले। इस प्रकार रमणीय पर्वत शृंखलाओं में अनेक मनोहर दृश्यों को देख मेरे नेत्रों की प्यास बुझ गई और मैं इसी निष्कर्ष में पहुँची कि यह पर्वत ऊपर वैभवशाली है तथा उनकी साज-सज्जा भी मनोहरिणी है।
उस बाला ने मनु से पुन: कहा कि एक दिन अचानक इसी हिमालय पर्वत के नीचे अपार सागर अपने पूरे वेग से उमट उठा और वह गरजता हुआ पर्वत की तलहटी से टकराने लगा। वस्तत: इन पंक्तियों में उस रमणी ने भीषण जल प्रलय की ओर संकेत किया है और उसका कहना है कि एक दिन हिमालय पर्वत के चारों ओर जल ही जल दीख पड़ने लगा तथा उसी समय से मैं नित्प्राय-सी हो इधर-उधर अकेली निश्चिंत घूम रही हूँ।
वह आगंतुक रमणी मनु से कह रही है कि अकेले घूमते-घूमते मैं इस ओर निकल आई और मैंने जब यहाँ पास में ही यज्ञ से बचा हुआ कुछ अन्न देखा तब मुझे यह अनुमान-सा होने लगा कि प्राणियों के हित साधन में तत्पर कोई न कोई प्राणी अवश्य जीवित है। इस प्रकार मुझे यह विश्वास हो गया कि जल प्रलय के पश्चात् मेरे समान कोई दूसरा प्राणी भी जीवित बच रहा है अन्यथा यह अन्न यहाँ न दिखाई देता।
कवि का कहना है कि उस आगंतुक ने मनु से यह पूछा कि “तुम इस एकांत स्थान में क्यों बहुत थके हुए और आलस्य से भरे हुए बैठे हो तथा तुम्हारी शांतिपूर्ण मनोहर आकृति पर जो एक अपूर्व माधुर्य-सा दीख पड़ता हे उससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो तुमने इस जगत का रहस्य भली भाँति जान लिया है। साथ ही तुम्हारी मौनता न केवल तुम्हारे बाह्य सौंदर्य का बोध कराती है बल्कि उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है तुम्हारा हृदय करुणाशील है, अर्थात् कोमल भावनाओं से पूर्ण है और उसमें चंचलता का लेश मात्र भी नहीं है।” वास्तव में इन पंक्तियों में कवि ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि मनु वहाँ एकाग्र-चित्त हो किसी बात पर विचार कर रहे थे और उनकी मुखाकृति से व्यग्रता झलक उठती थी तथा यह भी आभास होता था कि उनके अतरतम में कोई व्यथा छिपी हुई है।
कवि कह रहा है कि जब उस आगंतुक ने कमल के समान कोमल मुख को झुकाए हुए भ्रमरी की मधुर गुँजार की भाँति वाणी में ये पंक्तियाँ मनु से कहीं तब मनु का हृदय स्वाभाविक ही आनंदित हो उठा। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने अभी तक इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दो पंक्तियों से यह अनुभव हो जाता है कि वह कोई सुंदर, मृदुभाषिणी, लज्जाशील, करुणामयी नारी ही है क्योंकि उसका मुख कमल के समान तथा वाणी भ्रमरी की गुँजार जैसी मधुर कहीं गई है और साथ ही कवि यह भी कहता है उसने अपना सिर नीचे झुका लिया था। इन पंक्तियों में स्वाभाविकता भी है क्योंकि जब आगंतुक के मुख को कमल माना गया है तब उसकी वाणी को भ्रमरी की गूँज मानना युक्तिसंगत ही है। कवि पुन: कहता है कि आगंतुक की वाणी मनु को उसी प्रकार अनायास निकली हुई जान पड़ी जैसा कि आदि कवि के मुख से अनायास ही मधुर छंद निकल पड़ा था।
कवि कह रहा कि आगंतुक की मधुर वाणी को सुनते ही मनु के रोम-रोम में हर्ष की विद्युत लहर-सी प्रवाहित होने लगी और वे अत्यधिक प्रसन्न हुए तथा उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मानो कोई उनके हृदयरूपी धन को लूट लिए जा रहा है। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि मनु को अपना हृदय उस ओर आकृष्ट होता सा जान पड़ने लगा और वे मुग्ध तथा आश्चर्यचकित हो उसी की ओर देखने लगे जिस ओर उन्हें यह वाणी सुनाई पड़ी थी। मनु का मन यह जानने को उत्सुक हो उठा कि आख़िर किस कोमल कंठ से यह वाणी निवृत हुई है पर उन्हें अपने मन की कौतूहलता अधिक देर तक दबाकर नहीं रखनी पड़ी।
कवि का कहना है कि मनु को अपने सामने एक सुंदर नारी मूर्ति दिखाई दी जो कि उनके नेत्रों पर मोहक जादू-सा डाल रही थी अर्थात् उन्हें अत्यधिक आवश्यक प्रतीत हो रही थी और यही कारण है कि ज्योंही उन्होंने उसे देखा त्योंही ये उसकी ओर आकृष्ट हो गए। कवि कहता है कि उस रमणी का शरीर ऐसा जान पड़ता था कि मानो यह फूलों से पूर्ण कोई लता हो या फिर काले-काले बादलों से घिरी हुई श्वेत शुभ्र चाँदनी हो। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने जो ‘चंद्रिका से लिपटा घनश्याम’ कहा है उसका अर्थ यह नहीं कि वह बाला श्यामवर्ण की थी और इसलिए इसका अर्थ यह करना कि ‘कोई श्याम बादल जो कि चाँदनी से लिपटा हुआ हो’ उचित नहीं है। वस्तुत: कवि यह कहना चाहता है कि वह रमणी नीला परिधान धारण किए हुए थी और इसलिए यहाँ नीले वस्त्र की उपमा मेघ से तथा उसके गौर-वर्ण की उपमा चाँदनी से दी गई है।
कवि कह रहा है कि रमणी का बाह्य तन उसके हृदय की ही अनुकृति था अर्थात् उसका शरीर बाहर से जितना मनोहर जान पड़ता था उतना ही उसका हृदय भी उदारता से ओतप्रोत था। कवि का कहना है कि यदि उस रमणी का शरीर लंबा एवं कोमल था तो हृदय भी विशाल और सुकुमार ही था अर्थात् उसका बाह्य तन और अंतर्मन दोनों ही सरल एवम् संकीर्णता रहित थे। कवि कह रहा है कि जिस प्रकार कोई लघु शाल वृक्ष सुंदर सुरभि युक्त पवन के झोकों से हिलारें-सी लेता हमेशा प्रिय लगता है उसी प्रकार उस बाला के शरीर से भी अत्यंत भीनी-भीनी गंध आ रही थी। वह लावण्यता की प्रतिमा सहज-सी प्रिय जान पड़ती थी। कवि ने इन पंक्तियों में उस रमणी को अपूर्व रूपवती कहा है और ‘मधुपवन क्रीडित’ कहने से संभवत: उसका अभिप्राय यही है कि उस रमणी के शरीर से समुधुर वायु अठखेलियाँ सी कर रही है। साथ ही यह भी कह सकते हैं कि उसके हृदय में मधुर भावनाएँ विद्यमान थी और वह अनेक उत्तम गुणों से पूर्ण भी जान पड़ती थी।
कवि का कहना है कि उस नारी का कोमल सुंदर शरीर गांधार देश के चिकने नीले रोम वाले भेड़ो के चमड़े से आच्छादित था अर्थात् युवती ने जो वस्त्र अपने शरीर पर धारण किया था वह गांधार देश की नीले रोयें वाली भेड़ों के चिकने चमड़े से बना था। इस प्रकार वह वस्त्र उसके सुंदर शरीर पर सुकोमल आवरण के समान था।
कवि मनु से प्रश्न करने वाली आगंतुक रमणी (श्रद्धा) का रूप वर्णन करते हुए कह रहा है कि उस रमणी के नीले वस्त्र में से उसका सुकुमार एवं सुंदर शरीर कहीं खुला हुआ था अर्थात् परिधान युक्त स्थानों के अतिरिक्त उसके शरीर के अन्य अंग खुले हुए थे और वे ऐसे जान पड़ते थे कि मिनो काले बादलों रूपी वन में गुलाबी रंग के बिजली के फूल खिले हुए हों। इन पंक्तियों में कवि ने नीले परिधान के लिए बादलों और रमणी के अधखुले अंगों के लिए बिजली के फूल नामक उपमाओं का प्रयोग कर यह स्पष्ट करना चाहा कि उसका शरीर अपूर्व सौंदर्यशाली या और उसका वर्ण गुलाबी रंग का था।
कवि अब उस बाला के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि उसका मुख इतना अधिक सुंदर था कि उसका वर्णन करना सहज नहीं है। इस प्रकार कवि प्रारंभ में ही यह स्वीकार कर लेता है कि उस रमणी अर्थात् श्रद्धा के मुख की तुलना किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती और उसकी सुंदरता अवर्णनीय है। कवि कह रहा है कि उस रमणी के मुख की शोभा वैसी ही थी जैसी की संध्या के समय आकाश के पश्चिमी भाग में काले-काले बादलों से घिरे हुए लाल सूर्यमंडल की रहती है।
कवि श्रद्धा के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि जिस प्रकार नवीन नीलम के छोटे से पहाड़ की चोटी पर वसंत की रात में ज्वालामुखी की लपटें अंदर ही अंदर धधकती रहती हैं उसी प्रकार उसका मुख भी शोभायमान है। चूँकि आगंतुक रमणी अभी युवा ही थी और नीला परिधान पहने हुए थी अत: कवि ने यहाँ लघु आकार के नीलम की कल्पना की है। यहाँ यह स्मरणीय है कि पुराने नीलम में धब्बे पड़ जाते हैं और वह उतना आकर्षक नहीं जान पड़ता इसलिए कवि ने यहाँ ‘नव इंद्रनील’ शब्द का प्रयोग किया है। साथ ही यह उस रमणी की यौवनावस्था ही है अत: उसे वसंत की रात्रि में धधकता हुआ ज्वालामुखी कहा गया है और उसकी मुख कांति को ज्वालामुखी की लपटें माना गया है परंतु पूर्णानुराग की भावना से रहित होने के कारण उसके अंतर के ज्वालामुखी को उचित माना गया है।
कवि का कहना है कि उस नवयुवती के मुखड़े पर घुँघराले बाल इस प्रकार बिखरे हुए थे कि मानो काले बादलों के सुकुमार शिशु ही चंद्रमा के समीप पीयूष पान करने के लिए पहुँच गए हों। कवि यहाँ घुँघराले बालों की उपमा बादलों के छोटे-छोटे सुकुमार बच्चों से दे रहा है तथा मुख को चंद्रमा मानता है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में जिस तरह काले-काले बादल चंद्रमा के समीप एकत्र हो जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे उसका सुधा रस पान करना चाहते हो उसी प्रकार उस बाला के कंधे तक लटकने वाले घुँघराले केशों को देखकर यही आभास होता था कि मानो वे भी उसके चंद्रमा सदृश्य मुख का पीयूष पान करने के लिए एकत्र हुए हों।
कवि कह रहा है कि उस नवयौवना के मुख पर मंद-मंद हँसी को देख यही अनुमान होता था कि संभवत: प्रभातकालीन बालारूण अर्थात् बाल रवि की कोई आभायुक्त किरण ही किसी लाल कोपल पर विश्राम करती हुई वहीं टिक गई है और इस दशा में यह अत्यंत सुंदर जान पड़ती है।
कवि उस आगंतुक रमणी का रूपवर्णन करते हुए कह रहा है कि उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो संपूर्ण सृष्टि की करुण भावना ने ही एकत्र होकर शरीर धारण कर लिया हो अर्थात् वह बाला अनंत करुणामयी ही जान पड़ती थी। साथ ही उसका यह यौवन शाश्वत ही है अर्थात् हमेशा बना रहने वाला है और उसकी देह द्युति जिस तरह आज आभायुक्त है उसी तरह हमेशा ऐसी बनी रहेगी तथा उसके शरीर की शोभा कभी भी कम न होगी। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि वह बाला न केवल अपूर्व सुंदरी है अपितु करुणामयी भी है और उसके इस लौकिक सौंदर्य को देखते ही मन इस प्रकार उसकी ओर आकृष्ट हो उठता है कि स्वाभाविक ही उसे स्पर्श करने की आकांक्षा होने लगती है। इतना ही नहीं वह इतनी सुंदर थी कि जड़ पदार्थों में भी स्फूर्ति जागृत करने की अर्थात् चेतना उत्पन्न करने की शक्ति रखती थी।
कवि का कहना है कि जिस प्रकार प्रभातकालीन तारे की अपूर्व शोभा युक्त अकशय्या से मधुरिमा में ओत-प्रोत उल्लास पूर्ण अपूर्व मादकता भरी और लज्जायुक्त उषा की पहली सुनहली किरण उठती है उसी प्रकार उस बाला के सुंदर मुख पर हल्की-सी मुस्कराहट छा रही थी। कवि ने यहाँ प्रियतम की गोद में रात्रि भर सोने के पश्चात् प्रभातकाल में उठने वाली किसी नारी की कल्पना की है और उसका कहना है कि उस नारी के मुख पर जो हर्ष, मादकता एवं लज्जा दीख पड़ती है वही उस बाला के मुख पर भी दिखाई देती थी।
कवि कह रहा है कि वह सुकुमार नारी इतनी सुंदर जान पड़ती थी कि मानो फूलों की वाटिका में मंद पवन के झकोरो से प्ररित हो मकरंद का आधार लिए हुए फूलों के इस अर्थात् पराग के कणों का समूह ही साक्षात् देह धारण कर शोभायमान प्रतीत हो रहा हो और उन कणों पर मन को रुचिकर प्रतीत होने वाली सुंदर स्वच्छ नव बसंत की पूर्ण चाँदनी रात का प्रकाश पड़ रहा हो। इतना ही नहीं उस बाला के सुंदर मुखड़े पर रम्य क्रीड़ायुक्त अर्थात् मधुरता से ओत-प्रोत मंद-मंद उठने वाली मुस्कराहट की स्वाभाविक झलक भी दीख पड़ती थी।
कवि कह रहा है कि उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा की बातें सुनकर मनु ने उससे कहा कि इस आकाश और पृथ्वी के मध्य उनका जीवन एक रहस्य बनकर रह गया है अर्थात् वे इस प्रकार अनगिनती उलझनों से घिरे हैं कि उन्हें यही नहीं समझ में आता कि इन उलझनों को कैसे सुलझाया जाए। मनु का कहना है कि जिस प्रकार अंतरिक्ष से टूटा हुआ तारा जलते-जलते शून्य में असहाय-सा हो इधर-उधर भटकता फिरता है उसी प्रकार उन्हें भी अब व्यथा रूपी जलन को लेकर इस निर्जन प्रदेश में बिना किसी सहारे के इधर-उधर भटकना पड़ रहा है।
मनु कह रहे हैं कि उनका जीवन तो अब एक प्रकार से पाखंड मात्र ही रह गया है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की वास्तविकता या गति के चिन्ह नहीं रहे तथा उन्हें यह जीवन बिल्कुल व्यर्थ बिताना पड़ रहा है। इस प्रकार मनु का यही कहना है कि जिस प्रकार पर्वत के अस्तित्व की सार्थकता झरनों के रूप में प्रवाहित होने में ही है अन्यथा वह तो जड़ ही कहा जाता है उसी प्रकार मेरा जीवन भी उसी पर्वत खंड के समान ही है कारण कि उससे अभी तक किसी भी प्रकार का स्त्रोत निर्झरित नहीं हो सका। इतना ही नहीं मनु अपने जीवन को उस हिमखंड जैसा मानते हैं जो कि सरिता बनकर सागर में नहीं मिल सका।
मनु उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा से कह रहे हैं कि मेरा जीवन तो पहेली के समान उलझा हुआ है और मैं उसे भरसक प्रयत्न करके भी सुलझा नहीं पाता और यह भी समझ में नहीं आता कि आख़िर उसका क्या कारण है? मनु का कहना है कि इस प्रकार मैं बिना सोचे समझे अनजान-सा बनकर अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।
मनु कहते हैं कि मैं दिन-रात अपने कोमल अभिलाषाओं से पूर्ण विगत युग को भुलाने का प्रयत्न कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अब वैसा उल्लास और आनंद शायद ही मिल सके। मनु का कहना है कि मैं तो यही चाहता हूँ कि जिस प्रकार घोर अंधकारपूर्ण गुफा में संगीत की मधुर स्वर लहरी दूर तक गूँजकर नही रह जाती है उसी प्रकार अब उनके व्यथापूर्ण जीवन की सभी सुखद कल्पनाएँ शनै शनै निराशा रूपी अंधकार में मिटती-सी जा रही हैं।
मनु कह रहे हैं कि चारों ओर निरुद्देश्य भटकने के कारण मैं यह भी नहीं कह पाता कि आख़िर में स्वयं क्या हूँ क्योंकि मुझे अपने जीवन में सार्थकता के कुछ भी अंश नहीं दीख पड़ते। मनु का कहना है कि मुझे तो यही जान पड़ता है कि मानो मैं नीले आकाश के रिक्त स्थानों से भटकी हुई वायु की एक तरंग के समान हूँ और मेरा जीवन उस उजड़े हुए राज्य की भाँति है जिसमें शून्यता-सी व्याप्त है।
मनुष्य अपने जीवन को जड़ता से पूर्ण विस्मृतियों का स्तंभ भी कहते हैं और उन्हें वह ज्योति की धुँधली-सी छाया जैसा लगता है। इसका अर्थ यह है कि मनु अपने आपको कीर्तिमान देवजाति का क्षुद्र वंशज ही समझते हैं और वे रह-रह कर यही सोचते हैं कि सफलता प्राप्त करने में न जाने अभी कितना समय और लगे क्योंकि उन्हें चारों ओर विलंब ही बिलंब देखना पड़ रहा है।
कवि कह रहा है कि आगंतुक को अपने दयनीय एवं अभावग्रस्त जीवन से परिचित कराने के पश्चात् मनु ने यह जानना चाहा कि आख़िर वह रमणी कौन है? इस प्रकार मनु आगंतुक से कहते हैं कि वे तो अपने जीवन को पतझड़ के समान मानते हैं और उस नारी को वसंत का दूत समझते हैं तथा यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उन्हें उसकी बातें सुनकर यह आशा हो चली है कि उसके जीवन से शीघ्र ही सरसता और मधुरता का आगमन होगा। मनु उस आगंतुक से कह रहे हैं कि उनके जीवन में वसंत के समान उल्लासमय वातावरण प्रस्तुत करने की आशा उत्पन्न करने वाले तुम कौन हो?
मनु कहते हैं कि जैसे सघन अंधकार में विद्युत की क्षीण रेखा चमक उठती है वैसे ही आज उनके निराशारूपी अंधकारपूर्ण जीवन में वह आगंतुक आशा की सुनहली किरण के समान जान पड़ता है और उसे देखकर उन्हें वैसी ही शांति प्राप्त होती है जैसी ग्रीष्म ऋतु में शीतल मंद पवन के प्रवाहित होने से मानव मात्र को प्राप्त होती है। इतना ही नहीं मनु उस आगंतुक को अंधकार में नक्षत्र की किरण के समान मानते हैं अर्थात् उनकी दृष्टि में वह रमणी उनके नैराश्यपूर्ण हृदय में आशा की किरण के समान है। इसलिए उसका आगमन होते ही उनके मानस प्रदेश की समस्त हलचल शांत हो गई है और उन्हें वैसी ही अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त हो रहा है जैसा कि किसी कोमल भावनाओं वाले कवि को दिव्य मनोहर कल्पना के उदय होने पर प्राप्त होता है।
कवि का कहना है कि मनु के उद्गारों को सुनने के पश्चात् वह आगंतुक व्यक्ति, उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए अपनी मधुर वाणी से अपना परिचय उसी प्रकार देने लगा जिस प्रकार कोयल प्रसन्न होकर फूल को वसंतागमन की सूचना देती है। वस्तुत: इन पंक्तियों से फूल और मधुमय नामक दोनों ही शब्द श्लिष्ट हैं तथा सुमन का अर्थ फूल के साथ-साथ सुंदर मनवाला और मधुमय का अर्थ वसंतमय एवं मधुर दोनों ही माना जाना चाहिए। इस दूसरे अर्थ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उस आगंतुक ने सुंदर मन वाले मनु को भावी जीवन की मधुर आशा बँधाई।
वह आगंतुक रमणी अपना परिचय देते हुए कह रही है कि मैं अपने पिता को अत्यंत प्यारी संतान हूँ और मेरे मन से हमेशा से ललित कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा रही है। इस प्रकार मैं इधर गंधर्वों के देश में रहकर अपनी अभिलाषा पूर्ण कर ही हूँ।
उस आगंतुक रमणी का कहना है कि स्वच्छंद प्रकृति की होने के कारण मैं इस विस्तृत उन्मुक्त आकाश के नीचे दिन-प्रतिदिन इधर-उधर घूमती रहती थी और इस प्रकार मेरी यह आदस-सी पड़ गई कि चारों ओर घूमकर प्रकृति की सुंदर छवि देखी जाय। वह बाला कहती है कि इस प्रकार प्रकृति के विभिन्न दृश्यों की मनोहर सुषमा को देख, आश्चर्यकित हो मैं अपने हृदय से उठने वाले रहस्यों को सुलझाने की चेष्टा करती और हमेशा यह जानने को उत्सुक रहती कि आख़िर इन सुंदर वस्तुओं में विद्यमान सत्य क्या है?
वह आगंतुक रमणी कह रही है कि मेरा मन प्राकृतिक दृश्यों की सुषमा निहार कर रहस्य से पूर्ण हो जाता था और कुतूहल मिटाने के लिए भी वह स्वभाविक ही अधीर हो उठता था अतएव हिमालय पर्वत को देखकर ही कभी-कभी मैं यह सोचने लगती कि आख़िर धरती के हृदय में ऐसी कौन-सी पीड़ा है या उसे कौन-सा कष्ट है कि इसके कारण उसके मस्तक पर चिंता की सिकुड़न पड़ गई है। यहाँ यह स्मरणीय है कि जब कोई भी प्राणी किसी व्यथा से पीड़ित होता है और उसके मन में चिंताएँ-सी उठने लगती है उस समय स्वाभाविक ही उसके मस्तक पर सिकुड़न-सी आ जाती है। अत: इन पंक्तियों में वह बाला हिमालय को धरती के ललाट की सिकुड़न ही मानती है और उसका अनुमान है कि कदाचित् किसी आंतरिक व्यथा के कारण पृथ्वी के मस्तक पर सिकुड़न-सी पड़ गई है और यही सिकुड़न हिमालय के रूप में दीख पड़ती है।
वह आगंतुक बाला कहती है कि हिमालय पर्वत के मौन सौंदर्य की ओर देखने पर कभी-कभी यह भी आभास होने लगता कि उसकी इस नीरव सुषमा में कोई न कोई महान और गुप्त संदेश अवश्य है। इस प्रकार मेरे मन में यह जानने की इच्छा बलवती हो उठी कि आख़िर वह संदेश क्या है।
उस रमणी का कहना हे कि ज्यों ही मेरे मन में हिमालय के मौन सौंदर्य में विद्यमान गुप्त संदेश को जानने की उत्सुक्ता जागृत हुई त्यों ही मेरे चरण भी आगे बढ़ चले। इस प्रकार रमणीय पर्वत शृंखलाओं में अनेक मनोहर दृश्यों को देख मेरे नेत्रों की प्यास बुझ गई और मैं इसी निष्कर्ष में पहुँची कि यह पर्वत ऊपर वैभवशाली है तथा उनकी साज-सज्जा भी मनोहरिणी है।
उस बाला ने मनु से पुन: कहा कि एक दिन अचानक इसी हिमालय पर्वत के नीचे अपार सागर अपने पूरे वेग से उमट उठा और वह गरजता हुआ पर्वत की तलहटी से टकराने लगा। वस्तत: इन पंक्तियों में उस रमणी ने भीषण जल प्रलय की ओर संकेत किया है और उसका कहना है कि एक दिन हिमालय पर्वत के चारों ओर जल ही जल दीख पड़ने लगा तथा उसी समय से मैं नित्प्राय-सी हो इधर-उधर अकेली निश्चिंत घूम रही हूँ।
वह आगंतुक रमणी मनु से कह रही है कि अकेले घूमते-घूमते मैं इस ओर निकल आई और मैंने जब यहाँ पास में ही यज्ञ से बचा हुआ कुछ अन्न देखा तब मुझे यह अनुमान-सा होने लगा कि प्राणियों के हित साधन में तत्पर कोई न कोई प्राणी अवश्य जीवित है। इस प्रकार मुझे यह विश्वास हो गया कि जल प्रलय के पश्चात् मेरे समान कोई दूसरा प्राणी भी जीवित बच रहा है अन्यथा यह अन्न यहाँ न दिखाई देता।