संवेदना की अखंड ज्योति : अन्तरात्मा की पुकार
राम बरन त्रिपाठी जी के काव्य संग्रह 'अन्तरात्मा की पुकार ' की कविताओं को पढ़कर कविता के सम्प्रेषण शक्ति पर विश्वास जमता है। आज के इस जटिल जीवन शैली में हमारे जीवन दृश्यों को इतने सहज -सरल व आकर्षक ढंग से उभार कर हमारे समक्ष रख देते हैं कि हमारा जीवन हमारे समक्ष एक नये दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत हो जाता है।
समय के साथ प्रत्येक युग अपनी अर्थवत्ता खो देता है या जिस युग की जड़ें अपने परिवेश से जुड़ी नहीं होती वह युग हमारे लिए या समाज के लिए सार्थक नहीं हो सकता । इसी के चलते वर्तमान काल में पहुंच कर ढेर सारी काव्य प्रवृत्तियां बेहद कम समय में अपने निर्धारित उद्देश्य से विमुख होकर काल के गाल में समाती जाती है। वहीं नवगीत परम्परा अपनी गीतात्मकता के कारण आदिकाल से लेकर आज तक अपनी सार्थकता बनाएं हुए हैं । इन नवगीतकारों में जिन गीतकारों ने अपने गीतों की विषय वस्तु लोक से उठाया है, या लोक से जुड़कर गीत प्रस्तुत किया उनके गीत चिरस्थायी हो गये है ।ऐसे लोक गायक रामबरन त्रिपाठी जी लोक के जुड़ाव के साथ अपने 'अन्तरात्मा की पुकार ' में जो। मुक्त छंद वाटिका प्रस्तुत की है वह एक तरह से उनके 'अन्तरात्मा की पुकार 'का 'उत्तर काण्ड' है। वर्तमान कालीन प्रत्येक मानवीय मनोभावों को त्रिपाठी जी ने अपने सूक्ष्म पर्यवेक्षण के साथ प्रस्तुत किया है ।
इस काव्य संग्रह से -
"पनघट पर भीड़ लगीं हैं
आती न हमारी बारी
यह हृदय पात्र खाली है
रोती बेबस लाचारी।।"
वर्तमान कालीन मानवीय संवेदना को पूरी तरह उभार कर प्रस्तुत कर देते है। जहां समूचे प्रदेश से कटा मानव एकाकी जीवन दृष्टि के साथ उपस्थित हैं। वेदना जब संवेद्य होती है तभी हमारे हृदय तल को स्पर्श कर सकती है और जब संवेद्य होकर हमारे अंतर्मन तक पहुंच जाती है तो सामने वाले के दुःख , पीड़ा , वेदना से हमारा अंतर्मन चित्कार कर उठता है।यह सब सहज आंतरिक प्रक्रिया है जो हमारे जीवन के साथ सहजात हैं । हम जितना ही परदुख कातर होते हैं उतने ही संवेदनशील भी होते हैं। मानव के इसी एकाकीपन व अदृष्ट वेदना से छुटकारा दिलाने के लिए कवि की बेचैनी इस काव्य संग्रह के मंगलाचरण में देखी जा सकती है -
"मातु शारदे!वर दे!
कृषकों के कुदाल, खुरपी पर ,
अम्ब फेर अपना सशक्त कर।।"
*** ***** *****
भारत के वीरों में जाकर
मां शस्त्रास्त्रों में प्रलयंकर
भर दे ओज अपूर्व प्रखरतर।।"
यहां कवि का लोक-मंगलकारी भावना देखने को मिलता है , कवि दृष्टि मजदूर, कृषक और सैनिक समाज के हर वर्ग तक जाती है और कवि सब के मंगल की कामना करता है ।
लोक सम्पृक्ति और मानवीय दृष्टिकोण के साथ ही कवि अपनी दार्शनिक दृष्टि बड़े सहज रूप से हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर देता है। काव्य रस से भीगा हमारा मन बड़े सहज ढंग से काव्यमयता में डूबी दार्शनिकता को ग्रहण कर लेता है।
"माया की डोर अनूठी , आनंद सिंधु को खींचे।
ज्यों नभ के मेघ निराले, ऊपर से भू को सींचे।।"२७५
""कण कण में बास तुम्हारा, पर देते नहीं दिखाई,
आंखों का दोष हमारा, अथवा प्रभु की प्रभुताई।।"२७६
अस्तु काव्य रस से सिक्त मन को लगाम खींचकर रोकना होगा नहीं तो काव्य के इस गतिशील प्रवाह में मन सहज ही प्रवाहमान रहेगा। ऐसी सरस और सहज काव्य कृतियां काव्य समय में उपस्थित होकर काव्य सामर्थ्य को प्रस्तुत करती है।
संजय प्रताप सिंह
प्रवक्ता हिन्दी
राजकीय विद्यालय
अमेठी उत्तर प्रदेश