सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

'अन्तरात्मा की पुकार' एक विवेचन


'अन्तरात्मा की पुकार' एक विवेचन 

                                               आलोक मणि त्रिपाठी 
                                                       प्रवक्ता हिन्दी 
                                     पं यज्ञनारायण दूबे स्मारक पी.जी.
                                                 कॉलेज प्रयागराज


कवि और उसके काव्य का विवेचन और मूल्यांकन कई स्तरो पर किया जा सकता है और यह भी सच है कि विभिन्न समयों और युग-प्रवृत्तियो के प्रभाव से उक्त विवेचन और मूल्यांकन परिर्वतन भी होते रहते हैं। परन्तु इन अनिवार्य परिवर्तनों के रहते हुए भी कवि की मूल वस्तु के स्वरूप और उसके स्वरूप और उसके काव्योत्कर्ष के सम्बन्ध में कुछ स्थाई और अपरिवर्तनीय धारणाएं भी रहा करती है। इन धारणाओं की पुष्टि करना आवश्यक होता है अन्यथा किसी भी कवि के सम्बन्ध में राष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं का स्थिरीकरण नहीं हो पाता है।
पंडित श्री राम बरन त्रिपाठी का जन्म 7-जुलाई-1938 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के सुजानगंज ब्लॉक में दहेव ग्राम में हुआ था। पं त्रिपाठी जी की माता का नाम स्वर्गीय श्री मती इसराजी देवी और पिता का नाम स्वर्गीय श्री लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी था। जब त्रिपाठी जी की आयु दस वर्ष थी तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई। पंडित श्री लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी अपने पीछे दो पुत्रियां और एक पुत्र को छोड़ कर इस लोक से विदा हुए। 
पं रामबरन त्रिपाठी की शिक्षा गांव के ही प्रथमिक विद्यालय से आरंभ हुई थी। उन्होंने तत्कालीन संस्कृत साहित्य और हिन्दी साहित्य का अध्ययन किया था। वे एक अच्छे चित्रकार और बांसुरी वादक भी भी थे । रामलीला , कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर इनकी बनाई हुई कलाकृतियां सब को अपनी ओर आकृष्ट किए बिना नहीं रहती थी। बालकाल से ही कविता करने लगे थे । इनकी कविताओं में कबीर , जयशंकर प्रसाद सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की सी मिठास देखने को मिलता है। वे आरम्भ से ही विद्रोही कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। गतानुगतिकता के प्रति तीव्र विद्रोह उनकी कविताओं में आदि से अंत तक बना रहा है। व्यक्तित्व की जैसी निर्बाध अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में हुआ है वैसा आज के आधुनिक कवियों कम दिखाई देता है। त्रिपाठी जी ने भावनाओं को कोमलता प्रदान करने का प्रयत्न नहीं किया है फिर भी इनकी रचनाओं में भाव कोमलता सर्वत्र व्याप्त है।
 सर्वत्र अभिव्यक्ति की अत्यंत निर्बाध रूप प्रदर्शित होता है। त्रिपाठी जी की प्रतिभा बहुमुखी है। उन्होंने कविताएं तो लिखी ही है, निबंध , आलोचना, उपन्यास , कहानी आदि भी लिखा है। व्यंग और कटाक्ष को वे नहीं भूलते लेकिन कथा काव्य के प्रति उनका झुकाव अधिक है। उनका महाकाव्य 'दिव्यालोक 'और 'क्रौंचवध ' कथानक उनके अंतरात्मा की उमड़ती हुई आवेगों को प्रदर्शित करती है। अनुभूति की तीव्रता के कारण उनके अंदर के आवेग बहुत वेगवान होकर प्रकट हुए हैं , कोमलकांत पदावली, छंदोबद्ध योजना,विशुद्ध गीतिकाव्यात्मकता और अलंकार योजना ने उनके काव्य को सहृदय विद्वानों के द्वारा सदैव ही सम्मान मिलता रहा है।
त्रिपाठी जी की कविताएं साधारण पाठकों को दुर्बोध मालूम नहीं होती है। इसका कारण यह है कि कवि अपने आवेगों को संयत रखकर लिखता है। कवि को एक बात कहते - कहते कभी - कभी दूसरी बात याद आ जाती है तब वहां कवि अपने आयोगों को अंकुश नहीं रख सका है। अंकुश वह रख सकता है जो भावो को सजाने का प्रयास करता है। कवि त्रिपाठी जी यह नहीं करते इसलिए उनके भावों की अविरल धारा में प्रायः सभी प्रसंग आ जाते हैं जो पाठक की दृष्टि में प्रासंगिक है। कवि की इसी प्रतिभा ने उसे अधिक लोकप्रिय बना दिया।
इस पुस्तक में कवि की पहली रचना -'वाणी वंदना' में मानवतावादी राष्ट्रप्रेम का भाव दिखाई देता है । कवि मां शारदे से आग्रह करता है -
कृषकों के कुदाल खुरपी पर 
अम्ब!फेर अपने सशक्त कर
श्रमिक वर्ग में नवल तेज भर
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   भारत के वीरों में जाकर ।
   मां शस्त्रास्त्रों में प्रलयंकर
   भर दे ओज अपूर्व प्रखरतर
जिससे कांपे अरि दल थर -थर।।
कवि का सम्पूर्ण जीवन ग्रामीण परिवेश में बीता है गांव के प्राकृतिक स्वरूप सहज सामान्य वातावरण ने कवि को अपने में डुबा लिया है। कोयल , पपीहा, मोर ,मैना, तोता पीपल ,बरगद,टेंसू के साथ - साथ उदित और अस्ताचल सूर्य का पूर्ण विम्ब ये सब मिलकर कवि को सौन्दर्य की नवीन अनुभूति तथा दीप्ति प्रदान करते हैं। कवि प्रकृति के समक्ष नतमस्तक होकर स्वयं को कृतार्थ अनुभव करता है। इसी यथार्थ बोध ने कवि में एक नवीन आस्था को जन्म दिया है इसी नवीन आस्था के वशीभूत होकर कवि उस थोपी हुई तथाकथित पर व्यंग करता है।

"बालारूण निरख-निरख कर , वह कल कपोल की लाली ।
अपमानित हो छिप जाता, खो अपनी छंटा निराली।।
टेसू -प्रसून खिल-खिलकर, लालिमा गर्व से ऐंठें।
अधरोष्ठ राग रंजित लख, लज्जित मुख नत से बैठा।।"
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"कोकिल की सरस काली,
चातक का मधुर -मधुर स्वर।
मधुकर का मधुमय गुंजन,
न्योछावर तब वाणी पर।।"
प्रेम जीवन की उर्जा शक्ति का श्रोत है प्रेम ही जीवन में कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देता है। प्रेम सम्पूर्ण सृष्टि का मूल रहस्य है। इसी के कारण सृष्टि की रचना हुई है। अन्तर्मन में प्रेम उत्पन्न होते ही सब कुछ रूपान्तरित हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो अंधकार को चीरता हुआ कोई प्रकाश किरण उदित हुई है। यही प्रेम निराशा और निष्क्रियता के अंधकार को समाप्त करके जीवन में नवीन प्रकाश धारण करता है।
"जीवन के प्रथम पहर में,
तुम अरूणोदय से आए ।
धीरे धीरे रग - रग में ,
आलोक मधुर बिखराए।।"
कवि का प्रारम्भिक जीवन कष्टों और संघर्षों में व्यतीत हुआ था। 'मेरा बचपन ' कविता के माध्यम से कवि समसामयिक परिवेश के प्रति ईमानदारी उनके आत्मपरिचय से आरंभ होता है, कवि त्रिपाठी जी अपने विषय में बिना कुछ छिपाए हुए कहते हैं -
"अनुबंधित था अंधियारों से बचपन मेरा।
एक किरण के लिए तरसता रहा सबेरा।।"
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"जिधर देखता विपदाओं ने डाला डेरा ।"
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"जाऊं कहां और किस पथ से समझ न पाता।
किस करनी का दंड मिल रहा हाय विधाता।।"
भारत के समाज का वास्तविक चित्र गांवों में ही देखा जा सकता है आज भी गांवों में शोषण ,अशिक्षा , बेकारी , अंधविश्वास, भूखमरी विद्यमान है। कवि मूलतः गांव का निवासी है। प्रगतिशील और सर्वहारा का समर्थक होने के कारण गांवों की दशा का बहुत बारीकी से अवलोकन किया है । 
' निर्धन बाला ' कविता में कवि ने बाल मनोविज्ञान और ममतामयी मां के कोमल हृदय का जो चित्रण प्रस्तुत किया है , वह पाठक मन को करूणाकलित कर देता है। सहृदय पाठक ' निर्धन बाला ' कविता पढ़कर अश्रुविलगित हुए बिना नहीं रह पाता -
"किसी तरह पा सकी एक रोटी का टुकड़ा,
बड़े प्रेम से, जर्जर वसना, प्रसन्न वदना, 
बैठी घर के द्वार।
और ज्यों ही चाहा खाना उसने।
झपट कहीं से श्वान ले गया।।"
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"गीली मिट्टी लाकर के , लगी बनाने मधुर रोटियां।
कहती जाती अन्य साथियों से ..........
अभी मिलेगी रोटी 
किन्तु याद रखना मारूंगी 
यदि कुक्कुर छीनेगा रोटी।‌"
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"अपने हिस्से की रोटी को , दिया सुता को ।
खा ले इसको कहते ही नेत्रों से मोती,
अकिंचना के , टपक पड़े भू-तल पर बिखरे।।"

आज सम्पूर्ण भारत में पाश्चात महानगरीय सभ्यता का बोलबाला है। गांव कस्बें बन रहें हैं, कस्बें शहर बन रहें हैं । गांव से लेकर शहर तक का मानव दिखावे के अंधानुकरण में फंसाता जा रहा है, जिसके कारण वह बह बहुत परेशान और दुखी हैं। जिसके कारण चोरी डकैती लूट मार अपहरण बलात्कार जैसी घटनाओं से समाचार पत्र भरें पड़े हैं। समाज के इस अवनति का कारण कवि पाश्चात्य और महानगरीय सभ्यता को ही मानता है। जिसके कारण कवि को हर व्यक्ति में अब उसको रावण दिखाई देता है । राम की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है -
"जितने रावण आज धरा पर, उतने राम कहां से आए?
त्रेता में कुबेर लूटते थे,
आज लूट रही निर्धन टोली,
सीता आग मांगते हारी, 
आज रूप की जलती होली।।"

कवि अत्यंत संवेदनशील प्राणी होता है। युगीन चेतना की जितनी गहरी और व्यापक अनुभूति उसे होती है शायद ही और किसी जीव में देखने को मिलें। उसका व्यक्तित्व जितना गरिमामय होंगा उसकी अनुभूति भी उतनी ही ज्यादा गौरवपूर्ण होगी। अनुभूतियों का मूल स्त्रोत यथार्थ में निहित है और किसी अन्य की अपेक्षा कवि यथार्थ के अधिक निकट सम्पर्क में रहता है। त्रिपाठी जी ने 'मुक्त छंद वाटिका' में समाज और संस्कृति का जो आइना चित्रण किया है, वह पूर्ण यथार्थ है । त्रिपाठी जी ने समाज को सिर्फ देखा ही नहीं है बल्कि क्रियात्मक रूप से अनुभव भी किया है। एक उदाहरण देखिए -
" भारत वासी कुछ अधर्म सापेक्ष हो गये,
 बचे खुचे कुछ लोग , धर्म निरपेक्ष हो गये।
 कौन निभाये धर्म-कर्म की रीति निराली,
  जिसके कारण देश रहा ये गौरवशाली।।"

"वैज्ञानिक बना रहे हंस -हंस कर विष के वाण,
जिससे जा सकतें हैं भू के सारे जीवों के प्राण।।"
 
काव्य पाठक मर्म को छूता है, वह उसके आवेग को जगाता है, उसकी संवेदना को दर्द देता है और उसकी बुद्धि को झकझोरता है। बौद्धिकता नई कविता की देन है, किन्तु आवेग और संवेदना तो काव्य के सर्वकालिक गुण हैं। संवेदनशील कवि स्वयं उस पीड़ा का भोक्ता होता है, जिसका वह वर्णन करता है। ' अन्तरात्मा की पुकार ' में जो भी कविता और छंद है वह कवि का भोगा हुआ अतीत है, वर्तमान है और भविष्य भी है। अतीत का एक उदाहरण -
"तन पुलकित मन हर्षित था, सम्पर्क हुआ जब तेरा।
 अब बीत रही क्या मुझ पर , यह हृदय जानता मेरा।।
      ये विरह -व्यथा की बातें, छंदों में नहीं समातीं।
     स्वच्छंद हुई सी आकर, नित अश्रुधार बरसातीं।।"
कवि के आशय की अभीसिप्त व्यंजना काव्य भाषा का प्रयोजन है आशय की अनुरूपता के साथ भाषा का स्वरूप-विधान कविता की भाषा -योजना का प्रमुख नियामक तत्व हैं। दूसरे शब्दों में भाव और भाषा का बहुत गहरा सम्बन्ध है। कालिदास ने 'वागर्थाविव सम्पृक्ति वागर्थ प्रतिपत्तये ' कहकर काव्य की भाषा और उसके आशय के सम्पृक्त होने का उल्लेख किया है। 'गिरा अरथ जल बीचि समय कहियत भिन्न न भिन्न ' के द्वारा तुलसीदास ने वाणी और अर्थ की अभिन्नता द्योतित की है। अर्थात काव्य -भाषा का आदर्श स्वरूप वहीं है जो कवि के वक्तव्य को उत्कृष्ट रूप में अभिव्यक्त कर सके। त्रिपाठी जी की भाषा में भाव , वाणी और वक्तव्य को सरल तरीके से प्रस्तुत किया गया है, सरल व्यवहारिक भाषा,व्यंग्यात्मकता, यथार्थ के कारण कविता की भाषा में तीखापन है, साथ ही आध्यात्मिक और विनयपरक कविताओं में भाषा का वही मधुर और प्रौढ़ रूप मिलता है। समष्टि रूप से यह कहा जा सकता है कि त्रिपाठी जी की भाषा में कोमलता और माधुर्य के साथ ओज का प्रान्त रहा है।
अन्त में यह कहना चाहता हूं कि त्रिपाठी जी की रचना 'अन्तरात्मा की पुकार ' अत्यंत सशक्त रूप में पाठकों को प्रभावित करती है। यही त्रिपाठी जी के काव्य की महानता है किन्तु इतने पर भी हमें यह ध्यान रखना होगा । किसी भी काव्य का अभिशंसात्मक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, क्योंकि काव्य सभी 'गरिमामावाची '
अयथार्थ तत्वों से परे है। हम कह सकते हैं कि -
अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः |
यथा वै रोचते विश्वं तत्थेदं परिवर्तते ||
'यह अपार काव्य संसार में कवि सृष्टा ब्रह्म के
समान आचरण करता है |'
यूपी टीजीटी पीजीटी हिन्दी साहित्य