पुष्टिमार्ग: पोषणं तदनुग्रह' इस सिद्धांत वाक्य के अनुसार भगवान के अनुग्रह को ‘पुष्टि’ कहते हैं और आनन्द कन्द श्रीकृष्णचन्द्र के उस अनुग्रह को प्राप्त कराने का मार्ग ‘पुष्टिमार्ग’ कहलाता है। श्री महाप्रभु जी ने अपनी 'सिद्धान्त मुक्तावली' में बतलाया है कि भगवान के अनुग्रह को प्राप्त करने के लिए उनकी सेवा करनी चाहिए। अपने चित्त को भगवान से जोड़ना ही सेवा है। इसीलिए पुष्टिमार्ग में- मंगला, श्रृंगार ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, सन्ध्या आरती एवं शयन, इस अष्टयाम की सेवा को भगवद् अनुग्रह का मुख्य साधन माना जाता है। पुष्टिमार्ग में भक्ति साधन भी है और साध्य भी। ‘पुष्टि प्रवाह’ में भक्ति के स्वरूप का तात्त्विक दृष्टि से निरूपण करते हुए महाप्रभु जी कहते हैं, ‘प्रभु से जब भक्तका राग धीरे-धीरे परिपक्व होकर अनुराग में परिणत हो जाता है, तब भक्त को न तो कोई आकांक्षा रहती और न ही किसी भी प्रकार की छटपटाहट। इस स्थिति में वह आनन्द के सागर में डुबकियां लगाने लगता है। अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होने पर विचलित नहीं होता।[2]
'कठोपनिषद' में कहा गया है कि परमात्मा जिस पर अनुग्रह करता है, उसे अपना साक्षात्कार कराता है। वल्लभाचार्य ने प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मा का अंश माना है। उनके अनुसार, परमात्मा ही जीव-आत्मा के रूप में संसार में छिटका हुआ है। यानी हर व्यक्ति परमात्मा का ही अंश है। इसी आधार पर वल्लभ ने किसी को भी कष्ट या प्रताड़ना देना अनुचित बताया है। जीव को भगवान के अनुग्रह या पोषण की आवश्यकता क्यों होती है, इसका उत्तर वल्लभाचार्य ने जीवसृष्टि का स्वरूप समझाते हुए दिया है। उनके अनुसार, ब्रह्म की जब एक से अनेक होने की इच्छा होती है, तब अक्षर-ब्रह्म के अंश रूप में असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। सच्चिदानंद अक्षर ब्रह्म के चित अंश से असंख्य निराकार जीव, सत अंश से जड़ प्रकृति तथा आनंद अंश से अंतर्यामी रूप प्रकट होते हैं। जीव में केवल सत और चित अंश होता है, आनंद अंश तिरोहित रहता है। इसी कारण वह भगवान के गुणों-ऐश्वर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- से रहित होता है। परिणामस्वरूप वह दीन, हीन, पराधीन, दुखी, अहंकारी, भ्रमित और आसक्तिग्रस्त रहता है। यही उसकी क्षीणता या दुर्बलता कही जाती है। जब भगवान अपने अनुग्रह से उस जीव को पुष्ट कर देते हैं, तब वह आनंद से भर जाता है।[1]