शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

नई कविता

हिंदी कविता में जिसे नयी कविता युग कहा जाता है, उसकी शुरुआत इलाहाबाद से शुरू पत्रिका ‘नयी कविता’ पत्रिका से जुड़ता है। वैसे नयी कविता को यह नाम अज्ञेय ने एक रेडियो वार्त्ता में दिया और यह ‘नये पत्ते’ के जनवरी-फ़रवरी 53 अंक में ‘ नयी कविता’ शीर्षक से प्रकशित हुई।

क्या आप जानते है ?

हिंदी में ‘नए पत्ते’ सन् 1953 में लक्ष्मीकांत वर्मा और रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादन में निकला था। इसके बाद 1954 में जगदीश गुप्त और रामस्वरुप चतुर्वेदी ने ‘नयी कविता’ का पहला अंक निकाला। सन् 1955 में धर्मवीर भारती और लक्ष्मीकांत वर्मा के सहयोगी संपादन में ‘निकष’ पत्रिका का सूत्रपात हुआ। यही वह समय है, जब ‘नयी कविता’ नाम ने जोर पकड़ा।…गिरिजाकुमार माथुर ने ‘नयी कविता : सीमाएँ और सम्भावनाएं’ नाम की पुस्तक ही लिख डाली। मुक्तिबोध ने ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’ की रचना की।[1]      

दरअसल छायावादोत्तर हिंदी कविता में विकसित होने वाली काव्यधाराओं में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के बाद नयी कविता का सूत्रपात हुआ। प्रामाणिक जीवन की अनुपस्थिति के कारण प्रगतिवाद एक नारे में तब्दील हो गयी थी तथा प्रयोगवादियों ने प्रयोग को ही कविता का साध्य मान लिया। नयी कविता स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विकसित होने वाली एक ऊर्जावान काव्यधारा है, जिसमें स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जीवन और व्यक्ति की संश्लिष्ट जीवन परिस्थितियों का रचनात्मक साक्षात्कार किया है। डॉ. जगदीशचंद्र गुप्त ने नयी कविता को अपने युग की वास्तविकता के अनुरूप बताया है, जबकि धर्मवीर भारती ने इसे पुराने और नए मानव मूल्यों के टकराव से उत्पन्न तनाव की कविता माना है। मुक्तिबोध के अनुसार-“नयी कविता मूलतः एक परिस्थिति के भीतर पलते हुए मानव हृदय के पर्सनल सिचुएशन की कविता है”। नयी कविता रचनाकार एवं समाज के नए संबंधों को धारण करने वाली है।  इसके काव्यभूमि के निर्माण में समकालीन पत्रिकाएँ जैसे नए पत्ते, निकष, प्रतिमान, क,ख,ग, इत्यादि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।  इसलिए नयी कविता में परंपरागत कविता से आगे नए भाव-बोध की अभिव्यक्ति के साथ-साथ नए शिल्प-विधानों का भी अन्वेषण किया गया है।

नयी कविता के सामयिक परिवेश पर बात करते हुए ललित शुक्ल लिखते हैं –“किसी कला विशेष का साहित्य उस काल की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना से, उसकी अनेक प्रकार की चढ़ाव-उतार की गतिविधियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।  नयी कविया के साथ भी ऐसा हुआ है, किन्तु प्रगतिवादी काव्य की तरह नयी कविता सीधे समस्याओं के मैदान में नहीं कूदी।  वैसा करना साहित्य के मंच से उसने ठीक नहीं समझा था।  यह दृष्टिकोण प्रयोगवाद का था, जो पूरी तरह से नयी कविता में आकर विकसित हुआ।  नयी कविता ने मार्क्स को, उसके सिद्धांत को कुछ एक अपवादों को छोड़कर, नहीं अपनाया। यह कदाचित् इसलिए कि मार्क्स का दर्शन साहित्य का दर्शन नहीं था। फ्रायड मन की गहराईयों में डूब चुके थे।  मनोवैज्ञानिकता का सिद्धांत साहित्य के अधिक समीप था, इसलिए उसे अपनाने में नयी कविता में मुख्यता नहीं प्राप्त कर सकी। मुक्तिबोध और शमशेर आदि की समझ का आधार मार्क्सवादी हो सकता है, किन्तु उनकी कविताएँ पार्टी राजनीति की गुलाम नहीं हैं”।[2]          

नयी कविता के उदय में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न अस्तित्ववादी दर्शन, पश्चिमी संस्कृति, राजनीति से उत्पन्न मोहभंग एवं नगरीकरण की प्रक्रिया में मध्यवर्गीय जीवन के सपने एवं दु:स्वप्न की निर्णायक भूमिका रही है। इसलिए इस कविता की मूल स्थापना में चार प्रमुख तत्व हैं –

(क)   इसका विश्वास आधुनिकता में है।

(ख)  जिस आधुनिकता को यह स्वीकारती है, उसमें वर्जनाओं और कुंठाओं के बदले अत्यंत मुक्त यथार्थ का समर्थन है। 

(ग)   मुक्त यथार्थ का का साक्षात्कार विवेक के आधार पर करना न्यायोचित मानती है।  तथा

(घ)   वह समसामयिकता के दायित्व को स्वीकार करती है। 

नयी कविता के सन्दर्भ में मुक्तिबोध ने लिखा है –“नई कविता वैविध्यमयी जीवन के प्रति आत्मचेतस व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। नई कविता का स्वर एक नहीं, विविध है” ।  इस परिभाषा से यह स्पष्ट है की नई कविता में जीवन का कोई भी विषय अकाव्योचित नहीं माना जाता। उसमें मानव जीवन के यथार्थ को उकेरने का सीधा प्रयत्न प्रबल आग्रह के साथ हुआ है। अशोक वाजपेयी का कहना है –“संभवतः नई कविता से पहले कभी मानवीय संबंधों को उतना गौरव नहीं मिला और न ही उनमें निहित करुणा, तनाव, अकेलापन, आतंक सीधे ढंग से काव्य में अवतरित हुए थे, जितने कि नयी कविता में हुए हैं।” स्पष्ट है कि नयी कविता अपने  समय-सन्दर्भों में मानवीय उपस्थिति और लगाव की कविता है। वह बहुआयामी जीवन की सच्चाईयों को बिना लाग-लपेट के रूपायित करती है। वह मताग्रही या मतवादी दृष्टिकोण की भी कायल नहीं। उसमें छायावादी कल्पनाशीलता का नामोनिशान ढूँढना भी कठिन है। दरअसल, वह जीवन की बहुपक्षी अनुभूतियों को कलमबद्ध करने की एक जटिल यथार्थवादी प्रक्रिया है। नयी कविता का सारा दृष्टिकोण आधुनिक है।

आधुनिक दृष्टिकोण का अर्थ – नए मूल्यों के लिए विकलता और संवेदना से है। इसी दृष्टिकोण के तहत नया कवि आज के तनावों, सार्वभौम संकट, मनुष्य की पीड़ा एवं उसकी नगण्यता तथा गरिमा से जुड़ता है है और इस सम्पृक्ति के दबाव में अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेषण के माध्यमों को पुनराविष्कृत करता है। यह दृष्टिकोण अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, श्रीकांत वर्मा, धूमिल, कुंवर नारायण, राजकमल चौधरी, विजयदेव नारायण साही, लीलाधर जगूड़ी जैसे नए कवियों के पास थी।

 नई कविता आधुनिक संवेदना के साथ मानवीय परिवेश के सम्पूर्ण वैविध्य को नए शिल्प में अभिव्यक्त करने वाली काव्यधारा है। प्रयोग एवं सिद्धांत के स्तर पर उसका संबंध प्रगतिवाद से भी है और प्रयोगवाद से भी। यहाँ कवि वादों की सीमाएँ लांघकर कला और जीवन के क्षेत्र में कुछ नया रचने के लिए उत्सुक नजर आते हैं। उनमें मनुष्य के बाहर-भीतर के संघर्ष एवं उससे उत्पन्न सच्चाईयों को वाणी देने की आतुरता है। इस लिहाजा से देखें तो नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है – कथ्य की व्यापकता। इसका कारण है कि वह कोई वाद नहीं है बल्कि एक व्यापक जीवन-दृष्टि है। कथ्य कहाँ नहीं है? प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद ने कथ्यों को बाँट लिया था, किंतु नई कविता ने मानव को उसके समग्र परिवेश में सही रूप में अंकित करना चाहा है। नई कविता की दृष्टि मानवतावादी है, किंतु यह मानवतावाद मिथ्या-आदर्शों की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। यथार्थ की तीखी चेतना, परिवेश से जुड़ाव, चिंतन एवं संवेदना के उलझे हुए अनेक स्तर उसके आधार हैं। सच कहा जाए तो नई कविता रचनाकार एवं समाज के नए संबंधों को धारण करने वाली है। इसलिए नई कविता में परंपरागत कविता से आगे नए भावबोध की अभिव्यक्ति के साठ-साठ नए शिल्प-विधानों का भी अन्वेषण किया गया है। परिणामतः नई कविता की व्यापकता में कविता ही नहीं वरन पूरे रचना-युग की प्रवृत्तियाँ व्यंजित होती है।

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