प्रथम सोपान
इक्ष्वाकु वंश मानस मराल,
राजा दशरथ के नैनिहाल।
जन श्रुत मंगलमय राम नाम,
सौन्दर्य पूर्ण नयनाभि राम॥१॥
सम्पूर्ण गुणों से युक्त विमल,
सच्चरित समन्वित घी निर्मल
सदधर्म धुरी देदीप्यमान,
अवतरित हुआ ज्यों सर्वज्ञान॥२॥
है मानव की तो बात अलग,
सुसमर्पित श्वापद और विहग।
अतिशय आकर्षक रुप सुधर-
से खिंचे हुये सब सचर अचर॥३॥
उस महा यशस्वी पुरुषोत्तम-
का चरित मनोहारी अनुपम।
अतए सुनावा कथा अमर,
सुन जिसे तरे जन भवसागर॥४॥
अवधपुरी के नृपृ दशरथ की,
यश:चन्द्रिका स्वच्छ धवल।
फैली थी विश्व-भुवन भर में,
अलसाई सी विरज विमल॥५॥
महिमा मण्डित कान्त कलेवर,
रहते थे सत्कर्म निरत।
लोक समर्पण जीवन दर्शन,
अपने सुख से नित्य विरत॥६॥
सुख-वैभव विलसित जीवन था
कुछ भी दुर्लभ जम नही रहा।
समय-समय पर जय लक्ष्मी का-
होता प्राय: उदय रहा॥७॥
सुख सुविधाओ से था निर्मित,
जीवन के पथ का सुगम सेतु।
रह-रह विषाद की रेखा ज्यों,
नभ वैभव में धूम केतु॥८॥
चिन्ता कातर ह्र्दय कशकथी,
है मम पुत्र नही कोई।
लगता था भरपूर कोष से,
जैसे कोई निधि खोयी॥९॥
परामर्श से कुल गुरु के,
पुत्रोष्टि यज्ञ प्रारम्भ हुआ
हवन कुण्ड से चारु दिव्य तरु,
सहसा चम-चम प्रकट हुआ॥१०॥
ऋषि आज्ञा अनुसार नृपति ने,
चरु के दो सम भाग किये।
आधा-आधा कौशल्या औ,
कैकेयी को मुदित दिये॥११॥
अपने-अपने हिस्से का दो,
भाग रानियों ने कर के।
दिया सुमित्रा का हर्षित मन,
सारा दुख विषाद हर के॥१२॥
मनो कामना पूर्ण हुई नृप-
दशरथ के सुत चार हुये।
बहुत दिनों के संचित सपने,
सुखद आज साकार हुये॥१३॥
गुरु विशिष्ट ने नामकरण-
कौशल्या-सुत का प्रथम किया।
राम राष्ट्र-मर्यादा रक्षक,
जिसने जन उद्दार किया॥१४॥
भरत नाम केकयी सुवन का,
ऋषि ने सोच-विचार रखा।
मरण और पोषण के कारण,
जो जन-जन का सुह्रद सखा॥१५॥
और सुमित्रा-सुत का लक्ष्मण
नामकरण जो जग विख्यात।
चरित पवन पावन मंजुल तन,
प्रभु-सेवा रत जो दिन-रात॥१६॥
लखन-सहोदर के लक्षण पढ,
गुरुवर ने सोल्लास कहा।
शत्रु भयंकर कितना ही हो,
उसका भी यह काल यहा॥१७॥
अत: शत्रुधन नाम विभूषित,
ऋषिवर ने सानन्द किया।
करण चारों का करके,
भूरि-भूरि आशीष दिया॥१८॥
शिक्षा हेतु नृपति ने गुरु-गृह,
मे आराज कुमारों को।
अल्प समय में सब विद्याये,
प्राप्त हो गयी चारो को॥१९॥
भख विध्वंसक असुरों से हो,
विश्वामित्र मुनीश हताश।
सोचा चले अयोध्या नगरी,
महाराज दशरथ के पास॥२०॥
लायें राम और लक्ष्मण को,
जो ओजस्वी और अभय।
अत: चल दिये धीर तपस्वी,
ऐसा मन में कर निश्चय॥२१॥
पहुँचे ऋषि ऐश्वर्य समन्वित,
अवानिय दशरथ के मन्दिर।
सुन कर विश्वामित्र पधारे,
दौड़ पडे रह सके न थिर॥२२॥
स्वागत सुश्रूषा कर मुनि की,
बोले नर पाते सहित हुलास।
आज्ञा दे प्रभु नही अन्य हूँ,
मैं हूँ मात्र आप का दास॥२३॥
आस्वासन पा मुदित विश्वरथ-
ने माँगा राम लखन को।
कहा सुरक्षा पूरी होगी,
इन दो से ही प्राप्त यजन को॥२४॥
काँप उठे नृप आज्ञा सुनकर,
ह्रदय धड़कने अधिक लगा।
कहा,’’ बालको से बैरी कब
समय दूर भागने लगा॥२५॥
कर सकता हूँ एकाकी ही,
असुरों का संहार अभय।
पर सेना के साथ चलूँगा,
माने ऋषिवर एक विनय॥२६॥
`` हो कल्याण तुम्हारा राजन!
मैं आश्रय की ओर चला।
नहीं समझता था रघुकुला में।
कोई हा कह कर विचला॥२७॥
हो कर रुष्ट न मुझसे जायें,
हो अपराध क्षमा मुनिधीर
छोटे बालक कर सकते क्या?
पुत्र-मोह वश हुआ अधीर॥२८॥
होने दूँगा नहीं कालेकित,
रघु कुल की गौरव गरिमा।
ले जायें इनको यदि इस से,
रहे सुरक्षित भख महिमा॥२९॥
चलो अति हर्षित विश्वामित्र,
साथ ले दोनो राजकुमार।
पहुँच कर आश्रम पर निश्चिन्त,
यज्ञ करने का किया विचार॥३०॥
प्राप्त कर हवन धूम की गन्ध,
समुत्सुक दौड़ पडे दुर्दान्त ।
यज्ञ में विघ्र डालने हेतु,
विखेरा माया रुपी ध्वान्त॥३१॥
देखते ही मुस्क्याये राम,
उठाया धनुष बाण तत्काल।
गिराया मार धरा को गोद,
निशिचरो का ज्यों अन्तिम काल॥३२॥
॥ इति प्रथम सोपान॥
द्वतीय सोपान
पहुँच कर कुछ क्षण के उपरान्त।
किसी ने दिया निमंत्रण पत्र।
बाँच कर समझ पत्र का सार।
हुये आनन्दित विश्वा मित्र॥१॥
समय पर दोनो शिष्य समेत।
चल दिये मुनि मिथिला की ओर
पहुँच लख जनक-नगर-सौंदर्य।
हो गये तीनो भाव विभोर॥२॥
जनक ने कर स्वागत सत्कार।
विठाया दे कर उचित स्थान।
दृष्टि जब गयी बाल छबि ओर।
हो गये मुग्ध विदेह सुजान॥३॥
‘’ प्रतिज्ञा कर ली मैंने व्यर्थ ।
योग्य वर सीता के घनश्याम,
टूटता सा मेरा व्रत धर्म,
हाय क्या करुँ विधाता वाम॥४॥
कुतूहल बढा पूछने हेतु,
जनक ने खोला मुख का द्वार।
बनाये मुनिवर युगल किशोर,
कौन है? अनुपम अति सुकुमार॥५॥
बताया मुनि ने सहित हुलास,
अवध के नृप दशरथ विख्यात।
उन्ही के वीर यशस्वी सूनु,
राम अभिराम लखन मृदु गात॥६॥
दिखायें मिथिलाधिप को दण्ड,
देखना चाह रहे हैं राम।
‘’ हार बैठे जिससे सब वीर,
निराशा पूर्ण रहा परिणाम॥७॥
ओस-कण जलयुत नयन सरोज,
देख कर पूर्ण चंद्र की ओर।
झुके मुरझा कर दीन मलीन,
क्षुब्ध अति मानस चलित हिलोर॥८॥
किन्तु आज्ञा महर्षि की मान्य,
जनक ने दिखलाया को दण्ड।
कहा, ऋषि ने सस्मित हे राम,
विखण्डित कर दो धनुष प्रचण्ड॥९॥
देख कर सभा मध्य को दण्ड,
कठिन अति भीषण वज्र समान।
राम ने उसे उठा कर शीघ्र,
किया दो टूक सहित सन्मान॥१०॥
टूटते ही धनु जनक विदेह,
हुये पुलकित नयनों मे नीर।
ईश थी इच्छा के विपरीत,
नहीं मिट सकती जग की पीर॥११॥
कहाँ कोमलतम बालक राम,
कहाँ यह भीषण धनु विकराल।
सुमन ज्यों तोडे विटप विशाल,
अहो विधि की यह अद्भुत चाल॥१२॥
देख कर लोकोत्तर का यह दृश्य,
हुये लज्जित श्रीहत सवा वीर।
खिन्न लटका मुँह बैठे मौन,
मान मर्दित मन शिथिल शरीर॥१३॥
राम के गले डाल जय माल,
बिछाया ह्रदय बीच सुख सेज।
सीय की इच्छा के अनुकूल,
मिल गया आज तेज से तेज॥१४॥
जाय गी सीता पति के गेह,
तोड़ मृदु ममता की दृढ़ डोर।
हाय!मंजुल व्यवहार उदार,
हुई कोमलता विवश कठोर॥१५॥
हिचकियों साथ निकलते शब्द,
कण्ठ अवरुद्ध वाष्प का ताप।
पुत्रि तू जायेगी निज गेह,
विदा हो,दे असह्य संताप॥१६॥
लोग क्या कहते मुझे विदेह,
हुआ गृहस्थ सामान्य समान।
एक दुहिता के लिये विलाप-
एक दुहिता के लिये विलाप-
कर रहा त्याग स्वधर्म विधान॥१७॥
कभी हो विहल संज्ञा शून्य,
धराशायी होते भूपेश।
और जब होते फिर चैतन्य,
विदाई बनती हूक विशेष ॥१८॥
इधर सुनयना के नयनो में सावन छाया।
क्षण-क्षण वर्षा होती मानो दुर्दिन आया।
किन्तु चपलता चपला की थी नहीं दिखाती।
और गर्जना मेघो की भी नही सुनाती॥१९॥
हुई पराजित ममता ज्यों वियोग था रुठा।
मिथिला का था दृश्य करुण रस पूर्ण अनूठा।
माँ-दुहिता के बीच खडा वियोग इठलाता।
मोह-पाश में फँसे जीव को और सताता॥२०॥
किसी समय तो रानी की आँखो का पानी।
कहता भीषण प्रलय काल की करुण कहानी।
कभी हर्ष-शोक विद्युत रेखा आनन चारी।
दूर भागती प्रलय काल की हलहल सारी।।२१॥
पिसती हर्ष-शोक की चकिया में महरानी।
किसी तरह धर धीर रात जागते सिरानी।
तम चुरने दी प्रात सूचना जगे चराचर।
किन्तु उदासी की छाया सब के आनन पर॥२२॥
सभी शोक संतप छोड़ हमको वैदेही।
जायें गी ज्यों सुमन से उड़ मधुलेती।
जिसके रहते हाय! नही दुख देखा हमने।
जीवन था कृतकृत्य सभी सार्थक थे सपने॥२३॥
वातावरण उदास खिन्न थी दशो दिशायें
बैठे थे मन मार विहग पशु शीश झुकाये।
मिथिला में थी आग लगी सीता वियोग की।
सुधि न रही ऋषि मुनियों को भी तप सुयोग की॥२४॥
सुन कुक्कुट ध्वनि वैदेही,
उठ कर विसूरती मन में।
नयनों में नीर सजोये,
जा पहुँची मातृ सदन में॥२५॥
महरायी जनक नन्दिनी,
जननी के अंग विलखती,
शैशव मानो फिर आया।
माता के गले लिपटती॥२६॥
पत्थर सा कठिन कलेजा,
कर माँ सिय को समझाती।
लोचन बरसात छिपाती,
बेटी की आँख बचाती॥२७॥
ममता की गोद सुहानी,
स्मृतियाँ पूर्व सुखद थी।
जब-जब विछोह सुधि आती,
वे घडियाँ पूर्ण दुखद थीं॥२८॥
इस भाँति विलखते रोते,
आ गयी बिदा की बैला।
उपहार भेंट करने को,
लग गया जनक घर मैला॥२९॥
सुषमालकृंत रथ उतरा,
ज्यों स्वर्ग लोक से भू पर।
सौंदर्य मूर्त हो आया,
ज्यों नृप विदेह के घर पर ॥३०॥
जगमगा उठा मिथिला का,
कण-कण प्रकाश से रथ के।
आनंद हिलोर उठती,
मानस में नृप दशरथ के ॥३१॥
मधु ऋतु में सावन आया,
नयनों से जल बरसाता।
रस करुण उमड़ता लख कर,
नाहक आया पछताता॥३२॥
सीता ने वसुन्धरा के,
पद-रज को शीश चढाया।
दुख-दग्ध ह्रदय जननी को,
लोचन जल से नहलाया॥३३॥
फिर रुथारुढ सीता के
दर्शन करते विलखाते।
जन परिजन मूक खडे थे,
नयनों से नीर बहाते॥३४॥
रथ बढा वेग से आगे,
अद्भुत आलोक विखरता।
उल्का सा स्पंदन क्षण-क्षण,
दिखलायी पड़ता छिपता ॥३५॥
यों पहुचा अवधपुरी में,
राजा दशरथ के द्वारे।
पा समाचार पुरवासी,
भूपति के सदन पधारे॥३६॥
बजती थी अवध बधाई,
मिथिला में शोक समाया।
यह विधि विडम्बना कैसी?
कहुँ धूप कहीं पर छाया॥३७॥
जगमगा उठा अवधेश नगर,
घर-घर उत्सव की तैयारी।
उत्फुल्ल हुआ निवास देख
लक्ष्मी का शुभम रुपचारी॥३८॥
बज रहे मधुर मनोहर वाद्य,
श्रवण कर सारा नगर विमुग्ध।
उधर रजनीचर खिन्न उदास,
देख उत्सव थे अतिशय क्षुब्ध॥३९॥
हर्ष का सागर शुचि गम्भीर,
महोत्सव मूर्त हुआ साकार।
थिरकती नर्तकियाँ सानन्द।
प्राप्त करतीं अमूल्य उपहार॥४०॥
॥इति द्वितीय सर्ग॥
तृतीय सोपान।
श्री सम्पन्न राम की महिमा-
का विस्तार लगा होने।
कीर्ति कौमुदी लगी बिखरने,
भू मण्डल के कोने-कोने ॥१॥
मंजु मनोहर कान्त कलेवर,
जन,मन रंजन सुखदाई।
जो भी निकट राम के आया,
उसने निज सुधि बिसरायी॥२॥
परम तुष्ट राजा दशरथ थे,
सब चिन्ताएँ दूर हो गयी।
जीवन-पथ की सब बाधाएँ,
अब समूल थी चूर हो गयीं।३॥
किन्तु काल गति कौन जानता?
आगे क्या है होने वाला।
सुधा पान करने वाले को-
भी पीना पड़ता विष प्याला॥४॥
एक दिवस सुनसान सदन में,
नर पति सोच रहे थें मन में।
प्रजा और भी प्राप्त कर सुख,
करुँ उपाय शेष जीवन में॥५॥
इसी समय दर्पण ने अपना,
प्रति बिम्बित आकार निहारा।
कानों ने सित केशो को ज्यों,
वृद्धापन मे दिया सहारा॥६॥
चिन्तन बदल गया भूपति का,
देख जरा की हुई चढाई।
कैसे हो राज्याभिषेक शुभ,
राम चन्द्र का जन सुखदाई॥७॥
परामर्श ले गुरु वशिष्ट का,
नृप दशरथ निश्चिन्त भाव से,
करने लगी व्यवस्था सारी,
गुरु मंत्री के सद् सुझाव से॥८॥
समाचार कैकेयी को जब,
प्राप्त हुआ दासी के द्वारा
पुलकित रानी बोल उठी यों
यह तो है सौभाग्य हमारा॥९॥
समाचार के बदले तुझको,
मै दूँगी उपहार अनूठा,
किन्तु अभी तक प्यारा बेटा,
मिला न मुझसे क्या है रुठा॥१०॥
अथवा जाने दे ये बातें
तू उपहार मुझे क्या देती?
मेरा प्यारा , तेरा प्यारा,
राम, जिसे तू भी थी सेती॥११॥
मुँह लटकाये बोली दासी,
`` यह विनोद का नही समय है।
स्वामिनी जब दासी हो जाओ-
गी, उस क्षण का मुझको भय है॥१२॥
चुप-चुप,चुप-चुप नीच मन्थरे,
गल कर जीभ गिरेगी तेरी।
यह दुर्बुद्धि कहाँ से पायी,
किसने मति है तेरी फेरी॥१३॥
क्रोध अग्नि मे जलती रानी-
ने दो-चार लात भी मारे।
आग लगाने वाली पापिन।
हट जा दुष्टि! बिना विचारे॥१४॥
आयी है मति मंद कुदासी,
मुझको नीति –रीति समझाने।
क्षुद्र लोमसी चली सिहिंनी-
को अति सुगम राह दिखलाने॥१५॥
फटकारो जितना भी चाहे,
मारो जितना चाहों मारो।
किन्तु देवि! इस दुरभि सन्धि से,
अपने को स्वयमेव उबारो॥१६॥
महरानी! मंथरा रहेगी,
जीवन भर दासी की दासी।
किन्तु स्वामिनी के अपमानो-
से छायेगी घोर उदासी॥१७॥
चली गयी मंथरा वहाँ से,
कह कर जो उसको कहना था।
शीष विष दे गयी केकयी-
को प्रभाव उसको सहना था॥१८॥
कुछ ही क्षण के बाद केकयी-
जा कर के एकान्त भवन में
कहीं मंथरा थी वातों पर,
लगी सोचने रह-रह मन में॥१९॥
मूढ मंथरा के बहकावे-
में कब हूँ मै आनेवाली
क्योकि राम सा मेरे जग में,
प्यारा कौन और गुणशाली॥२०॥
यद्पि मूढ मंथरा ने आ,
घर मे भीषण आग लगा दी।
पर भूखी बातों की उसने,
फिर से आकर याद जगा दी॥२१॥
किसी समय जो बात हुई थी,
साथ राम के जन हितकारी।
उचित समय पर लेकर आयी।
वह संदेश मंथरा प्यारी॥२२॥
अत: रुप विकराल बना कर,
बैठ गयी वह कोप भवन में।
समाचार पा राजा दशरथ ,
पहुँचे कम्पित गुनते मन में॥२३॥
कहा, देवी! वह कौन शत्रु है?
जिसने कोमल ह्र्दय दुखाया।
कौन काल वश साहस करके,
प्रिये! तुम्हारे सम्मुख आया॥२४॥
कई बार पूछा दशरथ ने,
फिर भी मौन ही रही नारी
मुकुलित कमल झुक गये जब बन,
कैकेयी बोली मृदु वाणी॥२५॥
`` आर्य! करे शुभ कार्य सुनिश्चित,
मेरी चिन्ता करे ना स्वामी।
पुरुष सदा बलवान रहा है।
नारि वर्ग उसका अनुगामी॥२६॥
कहो देवि! जो भी अभीष्ट हो।
उसका मै निर्वाह करुँगा।
कितनी भी हो जटिल समस्या,
पर न तनिक भी आह भरुँगा॥२७॥
सरस प्रफुल्लित मृदु फूलो से,
ही,मधु लेहि प्यार करता है।
किन्तुनिरसता देख सुमन की।
धीरे से उडान भरता है॥२८॥
अत: देव! जा कर के देखे,
निज उत्सव की सकल व्यवस्था ।
अब कैकेयी के जीवन की,
बीत चुकी है सरस अवस्था॥२९॥
`` देवि आज क्या तुम्हे हो गया?
स्नेहिल सरिता आगे बढती ।
प्रणय वल्लरी धीरे-धीरे,
वृक्षोपरि चोटी पर चढ़ती ॥३०॥
अब न विलम्ब करो वतला दो,
क्या इच्छा है प्रिय तुम्हारी।
मैं अभिलाषा पूर्ण करुँगा,
देकर सुख-सुविधाएँ सारी॥३१॥
बोली रानी गरज सिंहिनी,
बचन निभाना खेल नहीं है।
प्राय: यह देखा जाता है,
कथन क्रिया में मेल नहीं है॥३२॥
यदि व्रत पालन करना है तो,
पिछली बाते याद कीजिये।
जो दो वर हैं धरे धरोहर,
उनको आज सहर्ष दीजिये॥३३॥
‘’ प्रिये! कह दिया वचन निभाना,
रघु कुल का श्रृंगार रहा है।
इच्छा पूरी करुँ तुम्हारी,
यह मेरा सौभाग्य यहा है॥३४॥
`` तो पहला वर माँग रही हूँ,
सुन ले कान खोल कर नृप वर ।
राज्य भारत को अर्पित कर के,
उसे बिठाये सिंहासन पर॥३५॥
एव मस्तु कह राजा दशरथ,
ने स्वीकार किया पहला वर,
और कहा,माँगो दिवतीय भी,
फिर भी न मिलेगा ऐसा अवसर॥३६॥
`` यदि अवसर उपयुक्त यही तो,
तापस वेश राम धारण कर।
चौदह वर्ष विताये वन में,
लौटे जीवन –लक्ष्य प्राप्त कर॥३७॥
`` अरी कलंकिन वार माँगा,
या मेरे प्राणों को माँगा ।
आज तुम्हारे कलुषित उस में,
यह दुर्भाव कहाँ से जागा?॥३८॥
हाय! आज मै इन आँखो से,
देख रहा वैधध्य तुम्हारा ।
अट्टाहास कर रहा सामने,
देख रुप यह नव्य तुम्हारा॥३९॥
पर विधि का विधान स्वाभाविक,
जो होना था वही हो रहा।
फिर इसमे क्या दोष तुम्हारा,
विधि विरुद्ध कुछ नही हो रहा॥४०॥
होनहार बलवान सोच कर,
भूपति ने संतोष कर लिया।
हाय राम कह गिरे भूमि पर,
जीवन का सब मोह तज दिया॥४१॥
धीरे-धीरे बीत चला दिन,
छाया रजनी की गहरायी ।
कभी चेतना-शून्य कभी चैतन्य,
नृपति ने रात बितायी॥४२॥
प्रात: कई घरी तक सब ने,
देखा, था सन्नाटा छाया।
राज तिलक के शुभ उतसव का,
चिह् मात्र भी नहीं दिखाया॥४३॥
चिन्तित सब थे क्या कारण है?
महाराज अब तक न आ सके।
तर्क वितर्क कर रहे थे सब,
पर निदान कोई न पा सके॥४४॥
तब कारण का पता लगाने,
नृप के पास सुमन्त चल पडे।
पहुँच देख कर दृश्य वहाँ का,
चकित रह गये, रहे खडे॥४५॥
इसी बीच बोली कैकेयी
राम समस्या का निदान है।
अत: ये जिये शीघ्र उसे ही,
जो नृप के प्राणों समान है॥४६॥
मुड़े तुरन्त सुमन्त वहाँ से,
जा पहुँचे राघव के पास।
माता का संदेश सुनाया,
राम चल पडे सहित हुलास॥४७॥
कोप भवन के द्वार राम ने,
जा जननी की ओर निहार।
मुस्कानो के साथ किया-
अभिवादन बीती बात विचार॥४८॥
सस्मित माता ने भी मन में,
आशीर्वाद दिया भरपूर।
द्रवित ह्र्दय यद्पि कैकेयी,
बाह्य रुप दिखला अति क्रूर॥४९॥
फिर बढे आगे पितृ पदों में,
शिर स्पर्श कर के कुलदीप।
बोले राम जननि क्यों ऐसी।
दीन दशा को प्राप्त महीप॥५०॥
सुत स्पर्श का ज्यों ही नृप को,
सहसा हुआ सुखद आभास।
आँखे खुलीं सामने देखा,
राम खडे चरणो के पास॥५१॥
पुलकित ललक लगाया उस से,
कहा, राम हे! प्राण धार।
बिना तुम्हारे अब तक जीवित,
हूँ ढोता गुरुतर तन भार॥५२॥
हाय राम! हा राम-राम कह,
संज्ञा-शून्य हुये भूपाल।
इसी बीच बोली कैकेयी,
सुनो राम क्यों विकल भुकाल॥५३॥
कभी तुम्हारे पूज्य पिता ने,
मुझे दिये थे दो वरदान।
माँगे मैंने व्याकुल सुनकर,
वचन निभाना दुष्कर जान॥५४॥
प्रथम माँग है राज्य भरत को,
करें,प्रदान देव सोल्लास।
और द्वितीय राम! तुमको दें,
चौदह वर्षो का वनवास॥५५॥
चाहो तो आज्ञा पालन कर,
हर को महाराज के क्रेश।
करो तुरत प्रस्थान विपिन को,
धारण कर तापस का वेश ॥५६॥
माँ!दोनो ही वर सुखदायी,
इनमें निहित सर्व कल्याण।
आज्ञा पालन का अवसर पा,
क्यों न करुँगा शीघ्र प्रयाण॥५७॥
क्षण भर मे ही समाचार वह,
गया नगर में वैसे फैल।
ज्यों जल में सर्वत्र फैलता,
अनायास ही छूता तैल॥५८॥
हठ कर सीता-लक्ष्मण ने भी,
अंगीकार किया वनवास।
देख दृश्य यह ह्रदय विदारक,
जन-परिजन सब विफल उदास॥५९॥
जनकजा और लखन के साथ,
पार कर करुणा सिंधु अपाह।
विलखते प्रिय लोगों को छोड़।
चल पडे राम विपिन की राह॥६०॥
॥इति तृतीय सोपान॥
चतुर्थ सोपान
राह की कठिनाइयो को,
राम करते पार।
जा रहे सामान्य नर से,
स्वयं जगदा धार।।१॥
पहुँच सुर-सारि के किनारे,
लखन सीय समेत।
स्नान वदन कर चले,
सब भरद्वाज-निकेत॥२॥
भरद्वाज के चरणो में जा,
किया राम ने अभिवादन।
दर्शन दिब्य प्राप्त कर ऋषि ने,
किया यथोचित अभिनन्दन॥३॥
वास-हेतु उपयुक्त भूमि को,
पूछ वहाँ से किया गमन।
ऋषि –मुनियो के दर्शन करते,
और पार कर गिरि कानन॥४॥
पहुँचे नैसर्गिक सुषमा युत,
चित्रकूट के क्षेत्र विमल।
मंदाकिनी स्वच्छ जल पूरित,
जहाँ प्रवाहित दुग्ध-धवल॥५॥
कुछ दिन रह सानन्द वहाँ पर।
पुन: चले आगे राघव।
पंचवटी में देखा जा कर,
सुख सम्पदा विपिन वैभव॥६॥
अत: सजल सरिता के तट पर,
पंच वटी की छाया में।
निर्मित पर्णकुटी कर के, जहे,
कोई लिप्त न माया में॥७॥
कुछ दिन के पश्चात राम को-
आये भरत मनाने को।
व्याकुल चारों ओर देखते,
प्रभु के दर्शन पाने को॥८॥
तब निषाद के सत्प्रयास से,
दिया दिखायी जम्बु रसाल।
पाकरि सघन तमाल मध्य था,
शोभित वट का वृक्ष विशाल॥९॥
जहाँ राम लक्ष्मण सीता संग,
वास कर रहे वना कुटीर।
ज्यों जल उतर उच्च पर्वत से,
वसता मध्य सिन्धु गम्भीर॥१०॥
पाकर के संकेत भरत ने,
किया उटज की ओर गमन।
देख अनुज अग्रज भाभी को,
पुलकित बरसे युगल नयन॥११॥
लोट भूमि पर चरण धूल ले,
किया भरत ने अभिवादन।
विहल प्रभु ने उठा अनुज को,
गले लगाया स्नेह मगन॥१२॥
कुछ क्षण रह कर मौन बिलखते-
हुये बताया पितृ मरण।
अब अनाथ की अवध प्रजा है,
चाह रही भवदीय शरण॥१३॥
अत: चले घर लौट सँभाले,
राज्य, सुखी हो सकुल प्रजा।
और मुझे मेरे अपराधो-
की दें जो हो घोर सजा॥१४॥
‘’ भरत न बोलो ऐसी बातें,
जिन पर हो विश्वास नही।
तुम सा शुद्ध ह्रदय जगती में,
कोई भी है नही कहीं॥१५॥
लौट चलू तो जग मे कैसे?
कलुषित मुख दिखलाऊँ गा।
कोई पुछे कैसे लौटे?
उससे क्या बतलाऊँगा॥१६॥
पिता प्रदत्त राज्य पाये हो,
अत:करो आज्ञा पालन।
न्याय पंथ पर चल करके तुम,
करो राज्य का संचालन॥१७॥
‘’ यही समस्या मय समक्ष भी,
नागिन सी फुफकार रही।
बीच डगर में खडी हुई यह,
गरल भयानक गार रही॥१८॥
मानो कहती सूर्य वश में,
जन्म तुम्हारा व्यर्थ रहा।
जेष्ठ भ्रातृ के रहते पापी।
राज्य चलाना पाप महा॥१९॥
लगता मिट्टी अयोध्या की अब,
यश गाथा गौरव शाली।
हम दोनो कुल-रीति निभायें,
रहे सुसिंहासन खाली॥२०॥
कहा राम ने बढे प्रतिष्ठा,
रघुकुल की नित जैसे भी।
हमे कार्य करना है निशि-दिन,
सत्य ह्र्दय से वैसे ही॥२१॥
देता हूँ आदेश तुम्हें मैं,
अग्रज होने का कारण।
अवधपुरी का राज्य चलाओ,
ह्रदय धैर्य कर के धारण॥२२॥
कुछ क्षण सोच-विचार भरत ने,
मांगी चरण पादुकाएँ।
ये ही मेरी प्रेरक होंगी,
और हरेंगी बाधाएँ॥२३॥
राम और कुछ बोल न पाये,
दिया उतार पादुकाएँ।
शीश चढा कर नयन लगाया-
भरत ने,मिटीं दुबिधाएँ॥२४॥
सिंहासन पर आप रहेगे,
तप से निरत मै रहूँगा।
राज्य कार्य जो करना होगा।
ले आदेश वह करुँगा॥२५॥
सुन कर के इस भरत वाक्य को,
जन –परिजन हत आश महा।
मुदित सुरो ने पुष्प-वृष्टि कर,
जय राघव,जय राम कहा॥२६॥
रघुनन्दन ने सब से मिलकर,
उनको बहु भाँति प्रबोध दिया।
जननी गुरु पूज्य सभी जन को,
कर दण्ड प्रणाम विराम लिया॥२७॥
सब डूब गये करुणा निधि में,
करुणा निधि से करुणा न मिली।
सब दीन दुखी इस भाँति चले,
तन में जिमि मार गयी बिजली ॥२८॥
||इति चतुर्थ सोपान||
पंचम सोपान
रात को श्रीराम ने जग कर बिताया।
प्रात उठ दिन भर भरत गुण गान गाया।
हो भरत!हा सुहद !हा! सम प्राण प्यारे।
हाय त्यागी! हा विरागी! मम सहारे॥१॥
हुआ समय धीरे-धीरे सामान्य जब।
फिर से होने लगा कार्य सम्पन्न सब।
राम-सीतानुज बैठे मुनि वृन्द सम्मुख।
सुना करते वेद-दर्शन भूल सुख-दुख॥२॥
एक दिवस रावण की भगनी,
सूर्पणखा ने आकर।
देखा अद्भुत रुप मनोहर,
खडी रही ठकरा कर॥३॥
मायाविन तुरत लौटी फिर,
सुन्दर रुप बना कर।
आयी सम्मुख रघुनन्दन के,
बोली कुछ इतरा कर॥४॥
हे कंदर्य आप की रति मैं,
अब न अधूरा जीवन-
व्यर्थ विताएँ नाथ! ग्रहण कर,
मेरा मधुर समर्पण॥५॥
मुस्कानों के साथ राम नें,
सीता को दिखलाया।
मेरी रति तो साथ-साथ है।
ज्यों शरीर संग़ छाया॥६॥
`` इस काँटे को अपने पथ से,
क्षण में दूर करुँगी।
फिर तो प्रियतम! तेरे उर में,
नव अनुराग मरुँगी॥७॥
‘’ वह मेरा भाई कुमार है,
चली वहाँ तुम जाओ।
लगता है तब कर्म उच्च है,
कल तुरन्त ही पाओ॥८॥
देख रुप लक्ष्मण का मोहित,
हुई निशिचरी नारी।
पहुँच वहाँ पर प्रणय याचना-
करते-करते हारी॥९॥
तब विकराल रुप धारण कर,
झपटी लक्ष्मण-ऊपर।
लक्ष्मण ने तब नाक काट ली,
चिल्लाई हा-हा कर॥१०॥
रक्त रंजिता भगी वहाँ से,
हाहाकार मचाती।
जीव-जंतु जो मिले मार्ग में।
उनको मार गिराती॥११॥
खर-दूषण के पास पहुँच-
अपना अपराध छिपाकर।
बतलाया दो कपट तपस्वी,
रहते कुटी बनाकर॥१२॥
अकस्मात मैं पहुँच गयी,
उनकी कुटिया के द्वारे।
देख मुझे वे अपशब्द को,
बोले बिना बिचारे॥१३॥
जब विरोध में क्रोध विवश-
मैंने उनको दी गाली।
छोटे तपसी ने बढ़ कर,
मेरी नाक कतर डाली॥१४॥
सच कहती वे नहीं तपस्वी,
छटा वेश धारी हैं।
बहका फुसला एक सुन्दरी,
साथ रखे नारी हैं॥१५॥
देख दुर्दशा भगनी की सुन ,
सारी बातें उसकी।
रक्त खौलने लगा और,
बोले तू अनुजा जिसकी॥१६॥
क्षमा नही कर सकता उन-
अपराधी बीच नरों को।
अभी चढाई करते है हम,
ले सैनिक निशाचरों को ॥१७॥
रण भेरी बज उठी राम पर हुई चढाई।
पहुँच कुटी के पास हुई घनघोर लडाई।
हर दूषण के शीश कटे भू पर भहराये।
राम-वाण से त्रस्त भगे निशिचर घबराये॥१८॥
ह्रदय विदारक दृश्य देख सूर्पखाभग कर।
जाँ पहुची लंका पति रावण के निवास पर।
पहले उसने बतलायी निज करुण कहानी।
फिर तपस्विनी की सुन्दरता खूब बरखानी॥१९॥
सब से दुख की वीर खर-दूषण रण में-
मारे गये ससैन्य युद्ध के प्रथम चरण में।
सूर्पणखा अब समाचार बतलाकर सारा।
लगी बहने नयनों की आँसू धारा॥२०॥
सुनते ही खर-दूषण के तनान्त दुखदायी।
भौचक्का लख दशा वहन की रावण आई।
आग बबूला हुआ तथा कर घोर गर्जना।
सूर्पणखा को दे आश्वासन और सांतवना॥२१॥
रावण ने प्रण किया हरण कर तापस नारी।
लाऊँगा तो लंकापति अन्यथा बिखारी।
धीर बँधा अब भगनी को मारीच निशाचर-
को, बुलवाया शीघ्र भेज द्रुतगामी अनुचर॥२२॥
आज्ञा पाकर मारीच वहाँ से चला तुरत ही,
झनानिल सा बिना रुके ही पहुँच शीघ्र ही।
बोला,`` क्या आदेश मुझे है हे लंकेश्वर।
हूँगा मैं कृत कृत्य प्रभो जिसका पालन कर॥२३॥
हेम हिरण बन पंचवटी तुमको जाना है।
बाण लगे तो हा लक्ष्मण कह चिल्लाना है।
`` मेरा क्या अपराध दण्ड जो इतना भारी।
बोला वचन विनीत भरे आँखो मे वारी॥२४॥
राजाज्ञा के उल्लंघन का वही दण्ड है।
देखो मेरी तीक्ष्ण बाण कितना प्रचण्ड है?
‘’ वही करुँ गा कार्य कि जिसमे निहित भलाई।
महाराज! किसमे साहस जो करे ढिढाई॥२५॥
मायावी मारीच पहुँच कर,
पंचवटी वन मे घबराता।
लगा भरने चौकडी जैसे,
दीपक घर पतंग मडराता॥२६॥
पडी दृष्टि जब सीता की उस-
अद्भुत हेम हिरण की छबि पर।
विस्मित बोली नम्र राम से,
विनती करती हूँ हे प्रभुवर॥२६॥
इस कंचन मृग का वध कर के,
लादें अद्भुत चर्म मनोहर।
चौदह वर्ष बिता कानन में,
हम लौटेंगे जब अवध नगर॥२८॥
माताओ नें भेंट रुप में,
मै दूँगी छाला यह सुनकर।
हुआ कण्ठ अवरुद्ध लोचनों-
से,अश्रु लगे गिरने भर-भर॥२९॥
हेम-हिरण का जन्म असम्भव,
फिर भी राम लुभाये मृग पर।
प्राय:जब विपत्ति आती है।
होती मालिन मनुज-मति सत्वर॥३०॥
धनुष-बाण ले राम चल दिये,
माया-मृग का पीछा करते।
थकित हुआ जब वह मायावी,
शिथिल चौकडी भरते-भरते॥३१॥
तब खर बाण राम ने मारा,
विद्ध कनक मृग गिरा भूमि पर ।
आहत रुप बदल राक्षस का,
चिल्लाया हा लक्ष्मण कह कर॥३२॥
सीता-प्रेरित लक्ष्मण ने तब,
वर्तुल रेखा खींच कर कहा।
इसके भीतर से बाहर को-
आना होगा,दुसह सुख महा॥३३॥
समझा चले वहाँ से आतुर,
जा कर पहुँचे जहाँ राम थे।
चकित निशाचर को मृत देखा,
जिसे दे रहे प्रभु स्वधाम थे॥३४॥
यती वेश में पंचकुटी पर,
रावण ने तत्काल पुकारा।
पहुँच कुटी के द्वार पुकारा।
देवि! भीख दो वनवासी को,
दैव करे कल्याण तुम्हारा॥३५॥
ले फल-मूल रेख के भीतर-
से ही बोली जानकी खडी।
ग्रहण कर यतिवर यह भिक्षा,
मैं किंचना दुख की घड़ी॥३६॥
कहा कपट मुनि ने विचका मुँह,
बँधी भीख क्यों देवि!दे रहीं?
बाहर-आकर भीख दीजिये,
चलूँ अन्यथा और कहीं॥३७॥
भिक्षु बिना पाये ही जाये,सिय ने रघुकुल रीति विचारा।
रेखा से बाहर ज्यों आयीं, विकट आसुर का रुप निहारा।
काँप मुडी जैसे ही पीछे,झपट विछा कर रथ पर रावण ।
उडा गमन पथ से चीखी सिय,आँखे बरस पडी ज्यों सावन॥३८॥
अति नाद सुन गृध राज ने, जान किया रघुकुल की नारी,
ललकारा रे नीच!ठहरजा, अब तेरे बिनाश की बारी।
वृद्ध जटायू तीक्ष्ण तुण्ड से,झपट-झपट के वार कर कहा।
खड्ग खींच आहत दश मुख ने, पक्ष काट ललकार कहा॥३९॥
उड़ कर जाओ राम तपस्वी-
से कह दो वह भी आ जाये।
लंका पति से लोहा लेकर,
जीत पुन: साकेत सिधाये॥४०॥
मतवाला सिर विजय गर्व से,
दश कंधर स्ववंदन हाँक चला।
थीं सीता कठिन रुद्रन करती,
जिससे पाहन उर भी पिघला॥४१॥
चलते-चलते किष्किन्धा के-
ऊपर मड़राया वह स्यंदन।
अति चकित वहाँ कुछ लोगो को-
देखा सिय ने करती क्रंदन॥४२॥
विह्ल वैदेही गिरा चलीं,
नीचें को कुछ वस्त्रा भूषण।
इस भाँति विलाप करुण करती,
हा राम-लखन रघुकुल भूषण॥४३॥
अति शीघ्र पहुँच कर लंका में,
भेजा शिव को अशोक वन में।
रण नीति समझ कर पूर्ण सफल,
अति हर्षि हुआ अहुर मन में॥४४॥
||इति पंचम सोपान||
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें