चतुर्थ सर्ग
रात बीतने वाली थी निशिचर घबराये।
तारे थे भयभीत खोजते राह न पाये।
बहता शीतल मंद सुगन्ध पवन सुखराई।
कण-कण में उल्लास,चेतना नयी समाई॥१॥
तमचुर ने दी प्रात-सूचना खेचर बोले।
कलरव करते कर्म हेतु निज-निज पर खोले।
जीव जन्तु सब कर्म लोक के क्रमश: जागे।
पर अति खिन्न मलीन ,तिमिर के भक्त अभागे॥२॥
दिखी सरसिजों के आगन, पर छटा निराली।
गुंजा रव कर यशो गान करती भ्रमराली।
किन्तु कुमुद मन मान , हृदय में शोक समाया।
झाँक चतुर्दिक मौन देखता विधि की माया॥३॥
विहस लताओं ने समोद, रस कलश सजाकर।
अभिनन्दन करती प्रभात का शीश झुका कर।
नर्तन करतीं थिरक, घूम झुक विविध तितलियाँ।
मानो आयी स्वर्ग लोक से भू पर परियाँ॥४॥
कलियों ने मुस्करा सुरभि का कोष लुटाया।
यह-यह महके उठी , धरती की मधुमय काया।
प्राची ने बालरुणा को रेंगते निहारा।
आनु-पणि चलता शिशु जैसे माँ को प्यारा॥५॥
धीरे-धीरे बीत, चला अब रवि का शैशव।
प्रखर तेजमय हुआ जवानी का पा वैभव।
कई लोक के जीव सभी निज लक्ष्य प्राप्त कर।
हुये कर्म मे लीन बढा उत्साह दिखा कर॥६॥
दस्यु राज ने सब कुछ देखा एक-एक कर।
किंतु नही कोई प्रभाव था उसके ऊपर।
पूर्व दिनो की भाँति आज भी कर तैयारी।
लुंठन-हत्या हेतु चला दुष्कर्म पुजारी॥७॥
कर प्रवेश कानन में भीषण वेश बना कर
दस्यु सहचाये को जाने क्या-क्या समझाकर।
जा कर बैठा उस पथ में लक ध्यान कमाये पर।
जहाँ भटक कर प्राय:कोई मानव आये॥८॥
बहुत समय तक रहा प्रतीक्षा में अन्यायी।
पर न अभागा कोई अब तक दिया दिखा में
हो निराश अब लगा सोचने मन में अपनी।
धत् देरी की! नष्ट हो गये सारे सपने॥९॥
चौंका सहसा नभ ध्वनि सी कानो में आयी ।
आशा की नव किरण दिखी मन खुशी समायी ।
जैसे कोई कहता हो-धीरज मत त्यागो।
होगा लाभ महान नही सोओ अब जागो॥१०॥
समझ न सका विवेक-हीन नर प्रभु की माया।
`होगा लाभ महान, सोच फूला न समाया।
इधर-उधर वह लगा देखने टहल-टहल कर।
रुका अचानक किसी ओर से आहट पाकर॥११॥
इसी समय कुछ भटके मानव दिये दिखायी।
उछल पडा वटमार खुशी मन में न समायी।
होगा लाभ महान , अहा प्रत्यक्ष दिखाया।
चलूँ करुँ अब सिद्ध, सुअवसर ऐसा पाया॥१२॥
कुछ ही क्षण में निकट आ गये पथिक अभागे।
देखा नर खूंखार ,खडा था उनके आगे।
विकट वेश को देख चिहुँक कर भगे वटोही।
अदृहास करता दौडा निर्मम-निर्मोही॥१३॥
कुछ बधिक ने कहा,रुको मत परग बढाना।
अब तुमको है प्राण सहित सब कुछ दे जाना।
मूर्खो मेरे चंगुल से बचने की आशा।
होगा लाभ महान आज पलटे गा पासा॥१४॥
हुये पथिक असहाय , शक्ति भग गयी हार कर।
अत: धड़कते हृदय गिरे भू पर आहें भर।
पास पहुँचा अति उग्र बधिक ने कहा डाट कर।
सब कुछ लूँगा मूढ, तुम्हारे शीश काटकर॥१५॥
कैसे साहस हुआ तुम्हें मुझसे बचने का
पाओ गे उपहार ब्यूह ऐसा रचने का।
देख दनुज को पास खडा सुन कर ककेश स्वर।
हुये पथिक निश्चेष्ट चेतना भगी छोड़ कर॥१६॥
कुछ क्षण के उपरान्त चेतना लौटी फिर से।
हाथ जोड़ झुका पथिक कुछ कम्पित स्वर से।
बोले वचन विनीत,नाथ यह भूल हमारी।
क्षमा करें,हम और नही कुछ,मात्र भिखारी॥१७॥
क्षमा शब्द दे नीचा, नही मैंने अपनाया।
दिया दण्ड निर्वाध , यहाँ पर जो भी आया।
अत: न आशा करो कि मै जीवित छोडूँगा।
और स्व कर्तब्यो से अपना मुख मोडूँगा॥१८॥
समय नही,अब दे उपहार तुम्हे चलना है।
अन्य ..............से भी मुझे अभी मिलना है।
कर के काम तमाम रुधिर धरती पर लौटा।
आद्योपान्त टटोल, वहाँ से वापस लौटा॥१९॥
चला सोचते हुये बधिक यह किसकी माया।
मलालय का मधुर प्रलोभन दे भरमाया।
अवसर मिला तुरंत , किन्तु कुछ हाथ न आया।
आज हृदय क्यो क्षुब्ध, हाय कुछ समझ न पाया॥२०॥
कुछ ही पग चल ठमका सहसा आहट पाकर।
लगा देखने चकित चतुर्दिक दृष्टि डालकर।
कहीं दूर से अस्फुट ध्वनि रह-रह कर आती
पडी सुनायी मनो मृत्यु को पास बुलाती॥२१॥
मुडा लक्ष्य की ओर , शीघ्र ही अति प्रसन्न मन।
कब पहुँचे उस ओर, कुतूहल बढ्ता छन-छन।
ध्वनि का पीहल कर के बढा, तो वह जन द्रोही।
पहुँच गया अति शीघ्र, जहाँ निरुपाय वटोही॥२२॥
झपटा श्येन समान क्रूर पथिको के ऊपर।
कर के वे चीत्कार,गिरे मूर्छित हो भू पर।
जो कुछ करना था करके फिर हाथ मीजता।
चला वहाँ से भी मन में अत्याधिक खीजता॥२३॥
दो-दो मिले शिकार किन्तु कुछ नही मिल सका।
आयी मधुर बहार फूल कोई न खिल सका।
यहा लाभ का लोभ अनूठा मुझे सुहाया।
पर उसके विपरीत ,आज फल मैने पाया॥२४॥
कभी मिली थी इसी जगह , वह जादूगरनी।
उसकी ही थी यह शायद मायावी करनी।
अब मारुँगा नही, तुरत, बाँधू गा कसकर।
दे ताड़ना अनेक,प्राण लूँगा हँस-हँस कर॥२५॥
सिर नीचा करके हताश चिन्ता में डूबा ।
बैठा हो कोई जैसा जीवन से ऊबा ।
फिर भी तृष्णा बैठी थी, मन में धर करके।
प्रेरित करती थी, प्राय: चिन्ताएँ हर के ॥२६॥
सिर ऊपर करके लगा देखने कान उटेरे।
सहसा उठ कर खडा हो गया आँख तरेरे।
पहले से भी अधिक क्रोध से विकृत कलेवर।
लगा काँपने महा प्रभंजन से ज्यो तरुवर॥२७॥
इसी समय अनजान पथिक मानव का क्रंदन।
पडा सुनायी खिला बधिक का मानस-नंदन।
पहुँचा दौड़ समीप,जहाँ से ध्वनि थी आयी।
इधर-उधर हो चकित दृष्टि उसने दौडायी॥२८॥
मुडा हार कर क्योकि नहीं कुछ दिया दिखायी।
इस भ्रामक धटना से मन में व्यथा समायी।
मुख मलीन तन शिथिला विफलता हुई सहचरी।
ह्र्दय हुआ दो टूक यथा फटती कटु ककरी॥२९॥
डगमग पग पड़ते चलता आशा को त्यागो।
दिखे पथिक दो अकस्मात ऋषि उसके आगे।
बिखर रही थी सुरभि अलौकिक उनके तन सें।
छिटक रही थी,अति अद् भुत आया आनन से॥३०॥
दृष्टि पडी जब दुर्जन की ऋषियो के ऊपर।
चका चौध से बंद हुये लोचन आये भर।
किन्तु सभल कर धीरे-धीरे नयन खोल कर।
दस्यु राज बोला पथिकों से कुछ साहस कर॥३१॥
`` कहाँ चले निर्भीक यहाँ मेरा शासन है।
मेरे भय से हिलता , रहता इंद्रासन है।
जो कुछ भी हो पास,उसे देकर ही जाओ।
इस प्रकार हो अभय प्राण अनमोल बचाओ॥३१॥
आज प्रतिज्ञा तोड़ अभय कर दूँगा तुमको।
यदि अपना सब कुछ अर्पित करते ही मुझको।
अभी अन्यथा कुछ पहले जो किया करूँगा।
और घाव अपने डर अति शीघ्र मारुँगा॥,,३३॥
‘’ क्यों हे तात महान ! स्वपथ से भटक गये हो।
दानवता के जंजालो में अटक गये हो।
क्यों गार्हित यह कर्म,कर रहे तज मानवता।
देख तुम्हारे कर्म काँप उठती दानवता॥३४॥
छोड़ आसुरी वृत्ति महा मानव हो जाओ
भूले-भटके मानव को सन्मार्ग दिखाओ।
जिसमें हो उद्दार विश्व का और तुम्हारा।
पापों का हो शमन बहे कल्याणी धारा॥३५॥
सुन कर यह उपदेश क्रोध ही अधिक उमरता।
कौन अभागा नाव छोड़ तिर पार उतरता।
शिक्षा –दीक्षा उसे चाहिये जो निर्बुता हो।
उसे न दो उपदेश बाहु में जिसके बल हो॥३६॥
रख अपनी सम्पूर्ण सम्पदा सम्मुख मेरे।
अभयदान ले पुन: लगाओ घर-घर फेरे।
पहले निज उदधार करो फिरता जग का चिन्तन-
करना,अधिक उदार भाव से देकर तन-मन॥३७॥
`` हम त्यागी वैरागी है क्या पास हमारे।
जो दे कर संतुष्ट करे,हर कष्ट तुम्हारे।
वल्कल वसन और हाथों में मात्र कमण्डल।
यही हमारे जीवन अधिकाधिक सम्बल॥३८॥
`` जितना भी है,मुझे चाहिये केवल इतना।
और अधिक की इच्छा करना मात्र कल्पना।
तुम दरिद्र से महा लाभ की आशा करना ।
मात्र मरुस्थल में जा कर के गागर भरना॥३९॥
नहीं चाहता तुम मुझको सौपो सिंहासन।
विश्व सम्पदा प्राप्त करूँ मै जग का शासन।
अब मत करो विलम्ब, कमण्डल ही रख जाओ।
मृत्यु द्वार से वापस जा कर खुशी मनाओ॥४०॥
बेबश से उन ऋषियो ने रख दिये कमण्डल।
आया ज्यों भूचाल कँपा सारा भू मण्डल।
बोल उठे तत्काल महा ऋषि अन्तर्यामी ।
क्यों करते यह महा पाप हे कानन स्वामी॥४४॥
क्या न तुम्हारे उदर-पूर्ति का कोई साधन?
शेष बचा, यह कर्म कर रहे जिसके कारण।
यदि कोई सत्कर्म कहीं पर भी तुम करते।
तो निश्चित ही निज जीवन सुख पूर्वक भरते॥४५॥
`` प्रश्न नहीं है केवल मेरे ही जीवन का।
अपितु भार मेरे ऊपर परिवार मरण का।
य दिन जीविका हेतु करूँ मै यह जन शोषण।
तो कैसे हो मेरे प्रिय परिजन का पोषण॥४६॥
`` एक प्रश्न है तुमसे हें परिजन-अनुरागी।
क्या होंगे प्रिय लोग पर तकों मे भी मागी?
जा कर पूछो देखो क्या देते है उत्तर।
सुन कर उनके कथन पुन: आ जाओ सत्वर॥४७॥
`` कोई वस्तु तुम्हारे पास अमूल्य बची।
जिससे तुमने भग जाने की चाल रची है।
मुझे पूछने भेज इधर तुम करो पलायन।
प्राणों के ही साथ-साथ बच जाय अतुलधन॥४८॥
मैं न तुम्हारे बहकावे में आ सकता हूँ।
नही छोड़ कर तुम्हे यहाँ से जा सकता हूँ।
अब तक तो मैं यही समझता था हो निर्धन।
किन्तु समझ में अब आया हो कपटी दुर्जन॥४९॥
अब न तलासी लिये बिना तुमको छोडूँगा।
और प्रतिज्ञा पूर्व नहीं अपना तोडूँगा।
अभय दान दूँगा पहले मन में आयो था।
क्यों कि तुम्हारा कपट वेश मुझको भाया था॥५०॥
‘’ नही चाहते वत्स!हमें तुम अभयदान दो।
किन्तु विश्व –वेदना नाश का समाधान दो।
यदि धन ही सर्वस्व तुम्हारे जीवन में है।
और प्रलय अभिलाषा उसकी यदि मन में है॥५१।।
तो वर्षा अपार वैभव की कर दूँ नभ से।
जिसके लिये जूझते मानव ललक शलभ से।
कही बात जो तात! प्रथम निर्णय कर आओ।
होगा लाभ महान पुन: मुद मंगल गाओ॥५२॥
सोचा मन में दस्यु राज ने यह भी छल है।
बाहर सात्विक रुप हृदय में भरा गरल है।
होगा लाभ महान वास्य कितना सुखदायी।
किन्तु वना है प्रात: से अब तक दुखदायी॥५३॥
असमंजस में पडा बधिक , पहुँचा निर्णय पर।
‘’ यद्पि हैं विश्वास पात्र ये नही कपट नर।
फिर भी इनकी बात मान, मै घर जाऊँगा।
पाप-पुण्य का निर्णय कर वापस आऊँगा॥५४॥
इससे अधिक और क्या होगा,धोखा देंगे।
झूठ बोल बहका कर मेरा क्या ले लेंगे।
डाल-डाल यदि तुम हो सो मै पात-पात पर।
नहीं लगेगी चाह तुम्हारी यहाँ पहुँच कर॥५५॥
लख ऋषियों की ओर कहा उसने साहस कर।
गमन हेतु मैं प्रस्तुत हूँ पर तुम्हे बाँध कर।
‘’ है हमको स्वीकार बाँध दो चाहे जैसे।
बंधन जैसे एक , सभी बंधन है वैसे॥५६॥
अति प्रसन्न ऋषियो को बाँधा उसने कसकर।
विजय गर्व में चूर चल पडा घर को सत्वर।
आज हौसला बढा हुआ था सोच-सोच कर।
अब हूँगा धनवान बडा सब से भूतल पर॥५७।।
यदि होंगे ये सच्चे और वचन के पालक।
तो निश्चित ही हो जाऊँगा मैं जन पालक।
बडे-बडे धनवान और विद्वान यशस्वी।
ज्ञानी,चिंतक,विज्ञानी शुचि यती तपस्वी॥५८॥
सब आ कर नत मस्तक होंगे सम्मुख मेरे।
और करेंगे पूजा मेरी साँझ सबेरे।
अब दुष्कर्मो से मिल जायेगा छुटकारा।
आज भाग्य का कुछ क्षण में होगा निपटारा॥५९॥
दस्युराज निश्चित हो, मन में सोच विचार।
घर जान के हेतु अब, मुदित हुआ तैयार॥६०॥
॥इति चतुर्थ सर्ग||
पंचम सर्ग
आज मन में था अधिक उत्साह।
भूप होने की ह्र्दय में चाह।
प्राप्त करने परिजनो का स्नेह।
जा रहा था शीघ्रता से गेह॥१॥
वेग से बढता रहा अविरक्त ।
स्वप्न के संसार में अनुरक्त।
थी ललक कब पहुँच जाये गाँव।
प्राप्त उत्तर पुन: आ उस ठाँव॥२॥
ऋषि युगल से बता उत्तर सार।
फिर कमाऊँ धन अपूर्व अपार।
सोचता था पहुँच कर निज गेह ।
दूर कर दूँ मै ह्र्दय-संदेह॥३॥
मृदु सपनों में मग्र शीघ्र ही पहुँचा घर पर।
कहा, बुला कर स्वजनों से उसने मुस्काकर।
एक बात मै पूछ रहा, तुम लोग बताओ।
नि:संकोच भाव मन के सब प्रकट जताओ॥४॥
मैं प्रतिदिन दुष्कर्म करुँ, जीविका कमाऊँ।
और किसी दिन एक घरी भी चैन न पाऊँ।
सो कर ले सुख नीद, जाग आनन्द मनाओ।
हो करके निश्चिन्त कमाई मेरी खाओ॥५॥
तो क्या मेरे पापों मे भी भागी होंगे॥
जो भी दण्ड मिलेगा, उसको बँटवा लोगे |
यदि है यह स्वीकार ,भार कुछ भी तो ढोलो।
झूठ बोलना पाप इसलिये झूठ न बोलो॥६॥
यदि स्वीकृति मिल जाय मुझको आज तुम्हारी।
तो मै करता रहूँ पाप भारी से भारी।
माँ की ममता बोल उठी हे पुत्र! समागे।
यह क्यो छोटी बात रख रहे मेरे आगे॥७॥
प्रस्तुत हूँ मै पाप-ताप सब कुछ बाटूँगी।
निशि-दिन दुख-सुख साथ तुम्हारे मै काटूँगी।
किन्तु वत्स ! यह अधम कमाई क्यो करते हो।
जड़ पदार्थ के लिये चेतना क्यों हरते हो॥८॥
बार-बार कहती आयी कुछ पुण्य कमाओ।
मानवता की रक्षा कर जीवन सुख पाओ।
पर आश्चर्य ! आज बाते करते ज्यों त्यागी।
पाप-पुण्य की कैसे मन में इच्छा जागी॥९॥
‘’ होगा लाभ महान आज अवलम्बे।
उसी के लिये आना पडा पूछने अम्बे।
बोल उठे इस बीच पिया जैसे घबराये।
तात! तुम्हारी बात आज मुझको न सुहाये॥१०॥
वत्स! पाप मे तो भागी मैं हो सकता हूँ ।
किंतु दण्ड में कभी न साझी हो सकता हूँ।
चाहो तो तुम करो उपार्जन त्याग भाव से।
अथवा दूर हटो कर्कश पहले स्वभाव से॥११॥
बोली पली, साधिकार,हे भाग्य विधाता।
पाप –पुण्य तो स्वयं दम्पती मे बँट जाता।
किंतु दण्ड तो वही भोगता मिलता जिसको।
उसके सुख-दुख की चिन्ता होती है किसको॥१२॥
दुष्कर्मो को त्याग सुपथ पर यदि आ जाये।
तो निश्चित कि अनमोल रस बिन माँगे पायें।
विनती मेरी यही पाप कर्म से हट कर।
करें विश्व कल्याण मनोबल तन से डट कर॥१३॥
बोले अन्य सदस्य निकट आ रलाकर के।
चाह रहे हो जो बतलाओ समझकर के।
पडा सुनाई हमे चले हो पाप बाँटने।
यदि इतनी ही बात तो चले सिंधु पाये॥१४॥
जैसे सम्भव नहीं कभी सागर का पटना।
तथा असम्भव पाप-पुण्य का भी सम बँटना।
कान खोल कर सुनो क्षमा हो अधिक ढिठाई।
नही चाहिये हमें तुम्हारी अधम कमाई॥१५॥
हम हैं भाई सत्य,नहीं पर दास क्रीत है।
यह जग की है रीति, विभव के सभी मीत है।
अत: न आशा करो,दण्ड हम सब भोगेंगे।
और कलंक तुम्हारा सारा हम धो देंगे॥१६॥
खडा रहा रलाकर कुछ क्षण मन में गुनता।
फिर चल पडा सग्लानि साश्रु चिंतित सर धुनता।
माँ ने देखा सजल नयन सुत को जब आते।
ममता उठी पुकार पुत्र क्यों मुझे भुलाते॥१७॥
ठमक गया रलाकर सुन माता की वाणी।
अब क्या शेष रह गया है? अम्बे कल्याणी।
किंतु भूल गयी जननि ! मैंने व विचारा।
विना लिये आशीष चला यह अधम तुम्हारा॥१८॥
कुक्षि-सीप में माँ तूने मोती था पाला।
जो कि गरल से भरा नहीं वह पानी वाला।
उसने सब आशाओं पर पानी है फेरा।
पर पानी के लिये जा रहा मोती तेरा॥१९॥
मेरी ममता छोड़ और तब पुत्र कई हैं।
मैं चलता उत्तान किन्तु बे सब विनयी हैं।
मुझको दे आशीष, अकंटक हो पथ मेरा।
नूतन मिले प्रकाश, नष्ट हो घना अँधेरा॥२०॥
सजल नयन माँ बोली , सुत को गले लगा कर।
‘’ क्यों करते आघात पुत्र मानस दर्पण पर।
पहले कभी नही देखा था तुमको ऐसा।
आज खिन्न, मन मात्र वदन दिखते हो जैसा॥२१॥
मेरा यह आशीष अकंतक राहे पाओ।
त्याग आसुरी वृत्ति,महा मानव हो आओ।
‘’ आने का अब नाम न लो, मुझको जाना है।
ऋषियो का आदेश आज मुझको पाना है॥२२॥
माँ के चरण पखार नयन जल से उदास मन।
जन्म भूमि का शीश झुका करके अभिवादन।
हो कर भाव विभोर, भूमि को फिर-फिर चूमा।
पुन: विपिन की ओर लगा रज सिर पर घूमा॥२३॥
जाते हुये कनखिओ देखा रोती माल।
फिर भी पत्थर जमा हृदय पर तोडा नाता।
अब स्वतंत्र था भार रहित थी उसकी काया।
पर भीतर था पाप कर्म का ताप समाया॥२४॥
पिछ्ली बातें सोच-सोच सिर धुनता जाता।
ज्यों अपने कर काट पैर कोई पछताता।
जीवन का अनमोल समय बिन मोला गँवाया।
कर का हीरा फेंक राख पर अधिक लुभाया॥२५॥
अब तक जिनके पास पापकर मूल गँवाया।
आज उन्हों ने ही लख मुझको मुँह विचकाया।
नहीं किसी का दोष जगत व्यवहार यहीं है।
केवल फल से काम विटप से प्यार नही है॥२६॥
जग में जितने जीव सभी के भिन्न मनोरथ ।
चिंतन सब के अलग-अलग सब के विभिन्न पथ।
‘’ अत: नही जग-जंजालो में मुझको फँसना।
और नही भौतिक वैभव से निज को लसना॥२७॥
देव शक्तियों के सम्मुख अब कैसे जाऊँ?
जा कर उनके पास , कौन सा मुँह दिखलाऊँ?
अथवा अब किस भाँति करुँ मै क्षमा याचना।
साहस नही हो रहा जा कर करुँ प्रार्थना॥२८॥
जिस मेरे सम्मुख भीषणता भी मय खाती।
ऊपर को सिर उठा नहीं बातें कर पाती।
वही आज मैं साहस शक्ति विहीन हो गया।
भीतर का अभिमान और उत्साह खो गया॥२९॥
जिनको मैंने अपराधी कह कर दण्ड दिया है।
मात्र नही अपराध महा अपराध किया है।
हाय उन्ही के सम्मुख अपराधी हो जाता
माँगूजा कर क्षमा नही साहस हो पाता॥३०॥
साहस हो या नहीं किन्तु अब क्षमा माँगने-
के अतिरिक्त न मार्ग दूसरा रहा सामने।
अत: क्षमा की भीख , माँग कर पाया शमन का-
पूछूँ सहज उपाय,जीव संताप हरण का॥३१॥
हरता-गुनता पहुँच गया,अति व्यथित वहाँ पर।
बाँधा था ऋषियो को उसने मुदित जहाँ पर।
अदभुत दृश्य विलोक हो गया छक्का-वक्का।
जिससे लगा ह्रदय पर उसके,गहरा धक्का॥३२॥
वृक्ष सहित ऋषि नही दिखायी दिये कही पर।
धड़कने बढी ह्रदय की, मूर्छित गिरा वहीं पर।
कुछ क्षण तक वह पडा रहा वेसुध भूतल पर।
धीरे-धीरे जगी चेतना उठा सँभल कर ॥३३॥
आँखे खुली देव ऋषियों को देख सामने।
अति आश्चर्य चकित हो थर-थर लगा काँपने।
भूला सब संसार और सुध तन की खोयी।
जैसे जादूगर का खेल देखता कोई॥३४॥
समय बढा ऋषि-चरणो में आँसू वरसाता।
व्याकुल अधम अधीर माँगते क्षमा लजाता।
किंतु ह्रदय के मूल भाव थे क्षमा माँगते।
रलाकर था सुप्त शान्त,पर ज्वार जागते॥३५॥
तुष्ट हुये ऋषि देख ह्रदय का यह परिवर्तन।
उठा लगाये ह्रदय दिये आशीष मुदित मन।
पा कर अनुपम स्नेह ह्रदय की कली खिल गयी।
मानो उसे अपार दिब्य सम्पदा मिल गयी॥३६॥
पृष्ठ भाग पर एक, हाथ दूसरा शीष पर।
फेर स्नेह की वर्षा करके शुचि मुनीश वर।
बोले वचन सस्नेह,`तात अब चिन्ता त्यागो।
और ह्रदय में जो भी इच्छा हो वह माँगो॥३७॥
किंतु हुये तुम वत्स आज क्यों इतने कातर?
और ह्रदय की गति इतनी क्यों हुई तीव्रतर?
क्या कोई अनहोनी हुई तुम्हारे घर पर?
जिससे हुआ तुम्हारे जीवन तरु में पतझर?॥३८॥
घर वालों से जो उत्तर पाये न बताये।
बतलाओ संदेश तात! क्या ले कर आये।
बोलो यदि लालसा विभव की तो बरसाऊँ।
और तुम्हारे जन परिजनो को खुशी बनाऊँ॥३९॥
‘’ नही-नही गुरुदेव ! नही अब धन की इच्छा
अपराधो के लिये क्षमा की दें प्रभु भिक्षा।
अहंकार वश समझ न सका मूल्य जीवन का।
जिससे दिशा विहीन हुआ मै लोभी धन का॥४०॥
नही दूसरी चाह ,नाथ कोई भी मेरी।
ऐसा करें उपाय, कटे पापों की वेरी।
एक लालसा शेष,दनुज से मनुज कहाऊँ।
भटक रही मानवता , को सन्मार्ग दिखाऊँ॥४१॥
अब तक तो मैं वाम पंथ का था अनुयायी।
लम्पट, कपटी,कुटिल क्रूर दुर्जन अन्यायी।
हटा आवरण आँखो का कुछ दिया दिखायी॥४२॥
प्रभुवर करे शीघ्रता दक्षिण पथ दिखलाये
मेरे पापो का प्रायश्चित नाथ बतायें।
और लगी जो आग पाप की उसे बुझायें।
जिससे उजडा जीवन उपवन फिर लहराये॥४३॥
‘’ हम न तुम्हारे अपराधो से वत्स ! रुष्ट हैं।
अपितु ह्रदय परिवर्तन से अत्यन्त तुष्ट है।
राम-नाम ही पाप-मुक्ति का केवल साधन।
अत: लगाओ राम नाम से अपना तन मन॥४४॥
राम नाम की नौका पर सवार हो प्यारे।
भव सागर कर पार ,छोड़ कर सभी सहारे।
राम-राम कह यही हमारी अन्तिम दीक्षा।
पूर्ण हो गयी पुत्र तुम्हारी आज परीक्षा ॥४५॥
आँखे कर के वन्द , रस्म में ध्यान लगाओ।
भुला सकल संसार राममय तुम हो जाओ।
नेत्र निमीलित हुये दिखी ऋषियो को छाया।
छाया के अतिरिक्त और कुछ देख न पाया॥४६॥
भरा महा अभिमान , भरी मन की पंचलता॥
जरा-मरण मर गया, मरी हार्दिक दुर्बलता।
भरा भमत्व मोह मद मत्सर भरी कुटिलता।
भरा मनोहर भौतिक सुख मिट गयी जटिलता॥४६॥
अत: कुछ समय ध्यानावस्थित रहन सका वह श्रद्धावान।
आँखे खुली सामने देखा वही युगल ऋषि अन्तर्धान।
मौ चक्का सा खडा वही पर रहा देखता कुछ क्षण मौन।
धीरे-धीरे चला वहाँ से मन में गुनता ये थे कौन॥४८॥
॥इति पंचम सर्ग॥
षष्ठ सर्ग
थी विदुत की शक्ति अभी तक जिन बाहों में
करती वज्राघात विज्ञायिनी वन-राहों में।
वही आज असहाय पडी चिन्ता में डूबी।
मृत भुजंग सी शिथिल पूर्व जीवन में उठी॥१॥
वही ह्रदय जो पवि से भी लोहा लेता था।
प्रवल शक्तियों को चुनौतियों जो देता था।
आज मोम सा चक्षु-द्वार से मृदुल पिघल कर।
निकल प्रलय का दृश्य दिखाता जैसे बाट्टर॥२॥
झंझा वात समान जो चरण मानो उड़कर
पहुँचा करते थे स्वलक्ष्य तक कभी मोद भर।
वे ही पक्षाघाताहत से शक्ति-हीन हो।
दिखते है असमर्थ शिथिल अत्यन्त दीन हो॥३॥
जिन आँखो से फूटा करती भीषण ज्वाला।
हो जाता था भस्म सामने आने वाला।
वही नेत्र हो गये आज सावन के जलधर।
करते अविरल वृष्टि उमड़ता करुणा सागर॥४॥
आहत पक्ष हीन पक्षी सा आहें भरता।
पश्चाताप पूर्व करनी पर रह-रह करता।
किं कर्तब्य विमूढ,कौन सा पथ अपनायें।
जो दे सके सुशान्ति, ह्रदय की जलन बुझाये॥५॥
या कि विविध जंजालो वाले पथ पर चलकर।
करुँ अधिक दुष्कर्म रुप धर विकट भयंकर।
किन्तु नही वह पंथ ग्राह्य जो त्याग चुका हूँ।
अपनाना ऋषि मंत्र जिसे स्वीकार चुका हूँ॥६॥
दृढ निश्चय कर उठा महौषधि यथा मिल गयी।
रग-रग में उत्साह ह्रदय की कली खिल गयी।
वह विहार का क्षेत्र, परम पावन मन भावन।
जहाँ तपस्वी ऋषि-मुनि करते प्राय: चिन्तन ॥७॥
तमसा-तीर गहन कानन में टहल-टहल कर।
लगा खोजने तपोभूमि ,रमणीय कलुष हर।
कितना समय व्यतीत,हो गया किन्तु न पाया।
स्थान तपस्या योग्य, ह्रदय नैराश्य समाया॥८॥
फिर भी कृत संकल्प खोज में था वह तत्पर।
था अद्भुत उत्साह, प्रकाशित उसका अन्तर।
दृढ निश्चय कर जो बढता है कर्म रेख पर
दूरस्थ भी सिद्धि रीझती उसे देखकर॥९॥
एक दिब्य आलोक मची मोहक मनमायी।
दिखी सामने शिला,तपस्या सी सुखदायी।
मन में अधिक प्रसन्न,चतुर्दिक दृष्टि डालकर।
देखा अद्भुत भाव ह्रदय में प्रभा भाल पर॥१०॥
सुन्दर वह था वृक्ष, सुखद थी जिसकी छाया।
मानो तप के लिये तपस्वी तरुवर आया।
विटप नेक गुरु वट से दीक्षा लेने आ कर।
प्रस्तुत निशि-दिन चरणो में ज्यों शीश झुका कर॥११॥
ललित लताओ ने वृक्षो कलिये सहारा।
रंग बिरंगे सुमनो को चरणों पर वारा।
शिष्य मण्डवी सहित खुआश्रम अक्षय वट का।
देख हो गया मुग्ध तपस्वी वीता खटका॥१२॥
पूर्ण व्यवस्थित वट महर्षि का आश्रम पाकर।
बैठ शिला पर हुआ तपस्या-रत रलाकर।
ऋषियों का आदेश मुखरहो उठा अचानक।
राम नाम ही शमित करेगा पाप भयानक॥१३॥
राम नाम की अद्भुत नौका पर सवार हो।
चला नया जीवन पाने भव सिन्धु पार हो।
ध्यानावस्थित मन में माला राम नाम की।
जपने लग गयी बढ शुचिता ह्रदय धाम की॥१४॥
पहले तो मन उचट-उजट जाया करता था।
मोह यान पर बैठा मड़राया करता था।
धीरे-धीरे रमा राम में मन मतवाला।
मिटा धोरतम तिमिर ह्रदय मे हुआ उजाला।।१५॥
घोर तपस्या लीन हुये मति-मुक्ता निखरी।
जगी ज्योति मानस में अदभुत तन सुधिविसरी।
वल्मीकि का बना घरौदा ऋषि-तन ऊपर।
बाहर ढूहे सा दिखता पर नर वषु भीतर॥१६॥
तप करते दिन बीते कितने,रावे कितनी।
कुछ भी रहा न ध्यान,तपी थी धुन मे अपनी।
एक दिवस आ गये टहलते हुये प्रचेता।
रुके अचम्मित दृश्य देख जो मन हरलेता॥१७॥
कौतूहल वश उस ठूहे के पास पहुँच कर ।
लगे निरीक्षण करने श्रेष्ठ ध्यान लगाकर।
देखा दो विवरो से नि:सृत ज्योति विलक्षण।
प्राणि-चक्षुरो का अनुमान कर लिया तत्क्षण॥१८॥
अत: सुनिश्चित समझ तपी कोई तपरत है।
ब्रह्मानन्द विलीन क्षणिक तन-सौख्य विरत है।
सोचा मन में ऋषि समाधि अब कैसे टूटे।
सूझा एक उपाय मृत्तिका जैसे छूटे॥१९॥
ला तमसा से नीर कमण्डल भर-भर निर्मल।
उस ढूहे पर डाल सलिल धोते थे मल-मल।
धीरे-धीरे प्रकट हुई मानव की काया।
देख प्रचेता के मन में संतोष समाया॥२०॥
कुछ क्षण के पश्यात तपी ने नेत्रोन्मीलन।
कर के देखा खडे प्रचेता अति प्रसन्न मन।
अत: किया सम्मान प्रचेता का ऋषिवर ने।
उमडी ममता गले लगाया करुणाकर ने॥२१॥
फैली आभा ऋषि आश्रम में छटा निराली।
आज मानती प्रकृति यथा स्वयमेव दिवाली।
सुर-मानव का मिलन देख अतिशय सुखदायी।
सिहर उठा कण-कण में थी खुशी समायी॥२२॥
स्वच्छ गगन था मग्न मग्न थी सकल दिशाएँ।
गिरि-कानन के तरु प्रसन्न सब ललित लताएँ।
शीतल, मन्द सुगंध समीर मुदित मन भावन।
रमता चारो ओर भाव भरता अति पावन॥२३॥
बहती तमसा कल-कल करती मुस्क्याती सी।
हर्ष व्यक्त कर चली जा रही इठलाती सी।
कहीं गूँजती विविध खगो की साम रागिनी।
प्रमुदित मृग कुल की क्रीडाएँ मनो हरिणी॥२४॥
उठती चारो ओर हर्ष की विविध तंरगे।
जड़ चेतन सब में छाई थी प्रबल उमंगे।
स्वागतार्थ रलाकर के सब ऋषि-मुनि आये।
देख रहे थे विधि-विधान टक टकी लगाये॥२५॥
धो वल्मीकि जगाये गये प्रचेता द्वारा।
अत: हुआ विख्यात नाम प्राचेवस प्यारा।
प्रकट हुये वल्मीकि गर्भ से महा तपस्वी।
अत: कहाये वाल्मीकि जग विदित मनस्वी।।२६॥
प्राचेतस-सर्वज्ञ प्रचेता कुछ विषयो पर।
कर के वार्तालाप हुये संतुष्ट परस्पर।
पा कर नेक जटिल प्रश्नो के समुचित उत्तर।
भाव विभोर तपस्वी ने फिर कहा सोचकर॥२७॥
देव सुनाये राम नाम माहात्भ्य मनोहर।
जिससे इन जीवन की नौका पहुँचे तट पर।
महामंत्र वह राम नाम मेरा आवलम्बन
अत: प्रबल जिज्ञासा से प्रेरित मेरा मन॥२८॥
जो देने का भाव प्रचेता मे था जागा।
था ऐसा संयोग वही ऋषिवर ने माँगा।
अत: हुये तत्काल सुनने मे विधि तत्पर।
राम नाम की महिमा पावन और सुरुचिकर॥२९॥
ध्यान मग्न हो वाल्मीकि ने अन्तर्मन से।
सुन महिमा कमनीय जुडी जो जम जीवन से।
परमानन्दित हुये श्रवण कर विधि की वाणी।
जगती मे जो मानवता के हित कल्याणी॥३०॥
देकर राम नाम महिमा का,
महा मंत्र स्रष्टा महिमान।
स्नेहिल दृष्टि डाल ऋषिवर पर
हुये अचानक अन्नतर्धान॥३१॥
॥इति षष्ठ सर्ग॥
सप्तम सर्ग
बीतराग वाल्मीकि महामुनि के जीवन का।
लगा बीतने समय यथा क्रम नव्य सृजन का।
राम नाम के महामंत्र का जाप निरन्तर।
करते रहे समोद त्याग भौतिक सुख नश्वर।।१॥
पावन सलिला तमसा के तट नित प्रति जाते।
कर के मंजन पान ह्रदय का कलुष मिटाते।
संध्या ,वन्दन, ध्यान,आदि जीवन अवलम्बन।
था संतोष अपार शान्ति सुख से पुलकित तन॥२॥
लगता जीवन में जैसे कुछ शेष अब नहीं।
लक्ष्य हो गया पूर्ण भटकना व्यर्थ अब कहीं।
इस प्रकार दिन-रात स्वयं को मुक्त मानते।
जीवन का बहुमूल्य समय सामान्य जानते॥३॥
लगे बिताने दुर्लभ नर-जीवन का क्षण-क्षण।
दिखता अब उत्साह का नही कोई लक्षण।
अत: हुये निश्चिन्त नहीं तृष्णा कोई थी।
और सृजन की शक्ति, नयी अब भी सोई थी॥४॥
देख पूर्ण सन्तुष्ट और निष्क्रिय मुनिवर को।
चिन्ता हुई विशेष , आज यह सर्वेश्वर को।
जटिल समस्या सोच लगे अब करने चिन्तन।
कैसे होगा छिन्त , मनुज जीवन-भव-बन्धन॥५॥
जैसे भी हो फिर उपाय मुझको करना है।
सुप्त शक्ति जग जाय, भाव ऐसा भरना है।
कृत संकल्प ब्रह्म ने माया का आवाहन-
किया और योजना बनायी एक खिन्न मन॥६॥
जीव साथ फिर मर्त्यलोक हमको चलना है।
उदासीन संतुष्ट , पुरुष को ये छलना है।
द्रवित हो जाय बहे करुणा की धारा।
मिटे उदासी विहँस उठे जग जीवन सारा॥७॥
माये! तुमको क्रौची का अभिनय करना है।
जीव! क्रौच हो तुम्हें हाथ मेरे भरना है।
करके धारण रुप बधिक का बाण भयंकर।
तुम्हें बना कर लक्ष्य उसे छोडूगा सत्वर॥८॥
उड़ कर चलो सवेग पहुँच कर कुछ ही पल में।
क्रीडा करो समोद, उतर तमसा के जल में।
बना मनोहर रुप, विमल छबि अधिक बिखेरो।
हों विमुग्ध सब जीव, दृष्टि सब की यों फेरो॥९॥
त्रिगुण मयी साकार मूर्तियों तीनो चल कर।
करती पार अपार पंथ पहुँचीं भूतल पर।
देखा तमसा तट की मनोहरिणी छबि को।
जो कर सकती है प्रदान प्रेरणा सुकवि को ॥१०॥
फिर देखा मोहक , सरिता का अति निर्मल जल।
बहता जो अविराम मनोरम झलमल झलमल।
क्रौंच दम्पती अति हर्षित जल में प्रवेश कर।
रति क्रीडा में मग्न हो गये प्रभु निदेश पर॥११॥
देख अलौकिक रुप, मुग्ध हो गये चराचर।
अन्य विहग जल-जन्तु चकित थे नवल दृश्य पर।
सव स्वकर्म से विरत देखते निनिमेष थे।
क्रौंच मिथुन के रुप तथा जो कुछ विशेष थे॥१२॥
टूटा मुनि का ध्यान कुटी से बाहर आये।
देख प्रकृति के भाव चतुर्दिक चकित दिखाये।
पूर्व भाव सब लुप्त रहे नूतनता छायी।
मानो सब ने मुक्ति स्वकर्मो से है पायी॥१३॥
फिर स्नान के लिये उठा कौपी न कमण्डल।
किया तुरत प्रस्थान हुये बहु शकुन सुमंगल।
करते तर्क-वितर्क आज क्यों होने वाला।
ऐसा होता मान, दिखेगा दृश्य निराला॥१४॥
हरते-गुनते पहुँचे गये तमसा के तीरे।
देख सुअवसर बधिक चल पडा धीरे-धीरे।
मुनि ने किये प्रवेश शुभम तमसा के जल में।
उधर कौंच के निकट व्याध पहुँचा कुछ पल में॥१५॥
अभी स्नान में व्यस्त रहें मुनि जल के भीतर।
तभी दृष्टि जा पडी क्रौंच-क्रौंची के ऊपर।
अद्भुत रुप निहार मुग्ध हो गये मुनीश्वर।
करते विविध विचार मुदित भीतर ही भीतर॥१६॥
अवगाहन कर आये निकल सलिल से बाहर।
उधर बधिक ने बाण चढाया प्रत्यंचा पर।
किया विशिष संघान लक्ष्य था क्रौंच निराला।
भीषण ध्वनि के साथ बाण से निकली ज्वाला॥१७॥
हुआ चेतना-शून्य विहग का मसृण कलेवर।
देख करुण यह दृश्य , तपी का बदला तेवर।
आग बबूला हुये देख यह कुत्सित घटना।
उन्हे क्या पता परम ब्रह्म की यह रचना॥१८॥
क्रूर कर्म दुर्दान्त देख यह,
मुनि ने विष का घूट पिया।
मंत्र-पूत जल लें अंजलि में,
हिंस्र व्याध को शाप दिया॥१९॥
रे निषाद! शत-शत वर्षो तक,
तू न प्रतिष्ठा प्राप्त करे।
काम मुग्ध जो क्रौंच मिथुन से।
एक जीव से प्राण हरे॥२०॥
वेद गिरा से भिन्न, देववाणी में नि:सृत।
कवि मुख से यह नूतन भाषा वृत्त अनुष्टुप।
मुनि के अभ्यन्तर से निकला जो छन्द था।
उसका भी उल्लेख यहाँ अनिवार्य है॥२१॥
या निषाद प्रतिष्ठां त्वम गम:
शश्वती समा:।
यत क्रौंच मिथुना देकमवधी:
काम मोहितम्॥२२॥
यद्पि थी गौरव की बात ।
नवल छन्द भाषा जन जात।
फिर भी कवि को था आश्चर्य।
मन में था भय अति कादर्य॥२३॥
आह!वेदों का उल्लंघन।
हुआ मुझसे उदेलित मन।
हो कैसे मेरा उद्धार।
मन में था यह दु:ख अपार॥२४॥
इसी समय देखा क्रौंची को,
करती हुई करुण क्रंदन।
भूल गये दुख पाप ताप का,
भूल गये संध्या वन्दन॥२५॥
उमड़ी करुणा ह्र्दय द्रवित था।
मिटी आन्तरिक दुर्बलता।
बहुत समय तक रहे देखते,
क्रौंची की वह विह्लता॥२६॥
फिर से अंजलि में पावन जल,
उसको यह वरदान दिया।
जा तू अमर रहेगी युग-युग।
क्रौंच साथ कर नेक क्रिया॥२७॥
वधिक,मिथुन की ही इच्छा पर,
नाचे गानित इधर-उधर।
कभी प्रतिष्ठा पान सकेगा,
जैसे अपराधी अनुचर॥२८॥
दिया शाप ऋषि ने, निषाद को,
भक्ति विजयिनी सफल रही।
ब्रह्म-प्रतिष्ठा में अब तक भी
इसी लिये मत,एक नहीं॥२९॥
कोई कहता राम रुप में,
ब्रह्म स्वयं आया भू पर।
धर्म सुजन की रक्षा की है।
विविध भाँति नर लीला कर॥३०॥
कोई कहता परशु राम को,
मनुज नहीं अवतार लिया।
दंमी अन्यायी राजाओं-
का: जिसने मद चूर्ण किया॥३१॥
कोई कहता कृष्शा न मानव,
निराकार साकार बना।
सर्व नाश कर दुष्प्रवृत्ति का,
सुजनो का आधार बना॥३२॥
महावीर को कुछ लोगों ने,
स्वयं ब्रह्म साकार कहा ।
जिसके द्वारा जन-जीवन में,
करुणा का नव स्त्रोत बहा॥३३॥
वुद्ध देव गांधी तक मे भी,
कुछ ने ब्रह्म रुप देखा।
जिनसे सत्य,अहिंसा,व्रत की,
खिची जन ह्र्दय में रेखा॥३४॥
कोई कह अद्वैत ,द्वैत कहता है कोई।
और विशिष्टा दैत वाद का पोषक कोई।
द्दैता द्दैत वाद का कोई हुआ पक्षधर।
कोई कहता सर्वशक्ति युत है एकेश्वर॥३५॥
भेदा भेद वाद का कोई चिन्तक भारी।
कोई शुद्धा द्दैत वाद का परम पुजारी।
शैव विशिष्टा द्दैत वाद का कर प्रतिपादन।
कोई कहता परम ब्रह्म सुख का आस्वादन॥३६॥
‘’ शून्य ब्रह्मा सत् चित् चेतन,
आनन्द मयी है उसकी सृष्टि।
इधर-उधर सर्वत्र व्याप्त है,
जहाँ-जहाँ जाती है वृष्टि॥३७॥
अति परिचय के कारण मानव,
करता हुआ अवज्ञा भ्रांत।
दौड़ लगाता है निशि वासर,
कस्तूरी मृग सरिस अशान्त॥३८॥
अभी न जाने कितने ही वादों का जाल विछा है।
जिनसे उलझी ब्रह्म प्रतिष्ठा था मुनि-शाप छिपा है।
अत: चलें उस देश जहाँ व्याकुल क्रौंची के लोचन।
अश्रु-पात कर रहे निरन्तर जैसे पावस के धन॥३९॥
प्रियतम वियोग में मर्माहत,
जीवन की पूर्व कथाओं को।
कहती विलास करती मानो,
शब्दो में व्यक्त व्यथाओं को ॥४०॥
हे नाथ! कहाँ तुम चले गये,
दे दु:ख छीन मेरा सुहाग।
हा! प्रात काल में अकस्मात,
यह गूँज उठा कैसा विहाग?॥४१॥
हा प्रियतम साथ तुम्हारे रह,
माना स्वलेकि उवर आया।
जो वहाँ सुरों को भी दुर्लभ,
वह सब कुछ सहज यहाँ पाया॥४२॥
पर हा! मेरी सुख सुविधाएँ,
वह बधिक छीन कर ले भागा।
जिसकी न कल्पना कभी रही,
वह विरह काल हो कर जागा॥४३॥
हे नाथ कहीं बैठे होते,
विधु से अपकी किरणे पसार।
तो हाय! चकोरी सी इक-टक,
जी लेती मैं तुमको निहार॥४४॥
हे प्राण नाथ मेरी नैया-
को छोड़ गये तुम मध्य धार।
हा! किन अपराधो का कठोर,
यह दण्ड दे गये उदार॥४५॥
हे प्रियतम! मेरे सपनों की,
थी सरस लहलही फुलवारी।
जिसको तुम नाली पोषक थे,
पर छीट चल दिये चिनगारी॥४६॥
अब किससे साथ प्रयाण करुँ,
मै महा अभागिन हूँ अवला।
हा! एकाकिनी कहाँ जाऊँ?
कोई तो आकर कहे भला॥४७॥
आधार शिलाएँ खिसक गयी,
मेरा स्वनिल संसार ढहा।
मेरे प्रलयंकर आँसू में,
उसका सारा अवशेष बहा॥४८॥
चक्रवाकी है फिर भी धन्य।
हुआ निशि विरह प्रात संयोग।
अभागिन मैं कैसे संतोष?
करुँ, सह निशि-दिन विषम वियोग॥४९॥
मुझे सानंद स्नेह से देख,
परो के बीच चंचु को डाल।
कण्डु कण्डन करते जब नाथ,
आ! वे क्षण करते वेहाल॥५०॥
सहचरी मात्र निराशा एक,
विलखतीसाथ-साथ निरुपाय।
मुझे कर देने को निश्चिन्त,
विविध विधि करती नेक उपाय ॥५१॥
दिवस तो रो-धो किसी प्रकार।
बीत जायेगा दुख के साथ।
उगलती रजनी तम विकराल,
बीत पायेगी कैसे नाथ?॥५२॥
जहाँ रहा किसी वृक्ष की डाल,
निपिड़ तम में भी था आह्राद।
वहीं किस भाँति अकेली हाय,
रह सकूँगी सह विषम विषाद॥५३॥
शर्वरी का सन्नाटा घोर,
व्याप्त होगा जब चारों ओर।
अकेली सिमट स्वयं में आप,
श्रवण कर तम का भैरव शेर॥५४॥
‘’ नही है क्षमा योग्य अपराध ,
तुम्हारा अधम निर्दयी पाप।
उजाडा मेरा मृदु संसार,
आह!यह असहनीय संताप॥५५॥
किन्तु करती मै अनुनय एक,
मुझे भी पहुँचा प्रिय के पास।
भूल जाऊँगी सब अपराध,
मान लो विषय न करो हताश॥५६॥
क्रौंची के क्रन्दन से आहत,
वन पात गिरे पिघले पाहन।
सरिता का सहज प्रभाव रुका,
हो द्रवित श्रवण कर करुण रुदन॥५७॥
रुक गयी पवन की गति चंचल।
सुन ह्रदय विदारक आर्त नाद।
मानो आगे का पथ रोके,
था खडा हुआ भीषण विषाद॥५८॥
आहत नभ ह्रदय कराह उठा
बढ गयी मलिनता धन छाये।
विदुत नेत्रों से झाँक-झाँक,
दुर्दिन के आँसू बरसाये।।५९॥
रवि-रथ आगे को बढ न सका,
विह्ल क्रौंची का सुन विलाप।
जो प्रखर अलौकिक तेज रहा,
पड़ गया अचानक मंद आप ॥६०॥
डगमगी धरित्री अकस्मात।
घबराये सब सचर अचर।
कोई कहता है एक अधी,
ले डूब नैया बीच भंवर ॥६१॥
भू पलट न जाय प्रलय आये,
यह सृष्टि विलीन न हो जाये।
यह चहल-पहल आनंद मयी,
युग-युग के लिये न सो जाये ॥६२॥
॥इति सप्तम सर्ग॥
अष्टम सर्ग
मिथ्या जग प्रपंच में फँस कर,
मैंने झंझट मिल लिया।
जैसे कोई मान न भरता,
करता, पर हित विविध क्रिया॥१॥
बदले में है यह क्या पाता?
जन जीवन से मूढ उपाधि,
यथा तिक्त कड़वी कहलाती
औषधि हरने वाली व्याधि॥२॥
सृष्टि खिलौना मेरे कर का,
जैसे चंग बाज की चंग।
उसके संचालन हित रहते,
सक्रिय उसके सारे अंग॥३॥
रहें सुरक्षित सृष्टि-खिलौने,
मैंने किये अनेक उपाय।
किन्तु देख अपनी असफलता,
हुआ इस समय अधिक हताश॥४॥
किया प्रयत्न सुरक्षा के हित,
पर न सफलता प्राप्त हुई।
मानवता के प्रहरी की ज्यों।
ओजस्विता समाप्त हुई॥५॥
अब भी निष्क्रिय भटक रहा वह,
जैसे अब कुछ शेष नहीं।
जीवन लक्ष्य न ज्ञात हो सका,
जो हो रहा विशेष वही॥६॥
फिर भी पुन: प्रयास करुँगा,
मानवता का हो उपकार।
जिसके सिर दायित्व बोझ है,
हो सुसृष्टि पर अधिक उदार॥७॥
विविध विचारो सें निमग्न थी,
ब्रह्म चेतना सत्य गयी।
जो न विफलताओ से विचलित-
होता वही निश्चित विजयी॥८॥
सोचा एक उपाय ब्रह्म ने,
नारद का आहान किया।
वीणा झंकृत हुई तुरत ही,
मुनिवर ने प्रस्थान किया॥९॥
नारायण ध्वनि ध्वनित विपंची,
पहुँचे मुनिवर ब्रह्म समीप।
देखा सर्वेश्वर ने मुनि को
यथा तिमिर में जलता दीप॥१०॥
नत मस्तक संकुचि भाव से,
पूछा मुनि ने,`` क्या आदेश?
‘’ मर्त्यलोक मे जा कर कवि को,
देना है सम्यक उपदेश॥११॥
राम कथा पावन सुर सरिता,
हो प्रवाहिता भूतल पर
जिसमें अवगाहन कर मानव,
तर जाये भवाब्धि दुस्तर॥१२॥
एवमस्तु कह सिर घर आज्ञा,
मुनिवर चले भूमि की ओर।
यद्पि पंथ अपार दीखता,
लगता जैसे ओर न छोर॥१३॥
किन्तु तपस्या के विमान पर,
बैठे मुनीश्वर शुद्ध विचार।
मर्त्य लोक के लिये चल पडे,
जैसे ज्योति पुंज साकार॥१४॥
देह-चतुर्दिक प्रभा फूटती,
जिसके मध्य मनीश महान।
चले जा रहे अति प्रशन्न मन।
करते नारायण का ध्यान॥१५॥
इधर तपोधन वाल्मीकि-
आश्रम से ऋषियो ने देखा।
चली आ रही अन्तरिक्ष से,
जैसे स्वयं चन्द्र-लेखा॥१६॥
कुछ क्षण में ही कहा किसी ने,
इन्द्र धनुष का मर्दित चूर्ण
धनीभूत हो चला आ रहा,
अपनी विभा दिखाता पूर्ण ॥१७॥
नहीं-नहीं यह वाडग्नि जो,
मुक्त उदधि से चढी गगन।
देख वहाँ से भूमि कलुष को,
चली जलाने उसे मगन ॥१८॥
अथवा धूम केतु उत्तेजित,
देख धरा का वैभव मान।
ईर्ष्या जनित भाव से प्रेरित,
चला आ रहा काल समान॥१९॥
कुछ क्षण में ही अन्य किसी ने,
कहा सुमेर पिघल कर के।
चला आ रहा मर्त्यलोक में,
सुर सरि का अभिनय कर के॥२०॥
कहा एक ने यह अद्भुत फल,
मेघ वाटिका का श्रृन्गार।
लता चंचल समुदभूत यह,
चला आ रहा नभ के पार॥२१॥
दिया दिखायी किसी-किसी को,
यह कृशानु सरि लहराती।
चली आ रही बेगवती शुभ,
कल-कल करती इठलाती॥२२॥
कोई कहता सूर्य-सारथी,
अरुण भूल कर अपनी राह।
हाँका अश्वों को मनमाने,
अहा! वही दिखते दिननाह॥२३॥
धीरे-धीरे सब ने देखा,
आमा वेष्टित मनुज शरीर।
कोमल कान्त मनोहर सुन्दर,
शान्ति समान्वित धीर गम्भीर॥२४॥
क्रमश: और निकट आने पर,
सब को हुई सत्य पहचान।
तीन काल के द्रष्टा नारद,
चले आ रहे ज्ञान विधान॥२५॥
ब्रह्म लोक से चल कर नारद,
पहुँच गये ऋषियों के बीच।
की प्रफुल्लित तपी वाटिका,
पावन ह्र्दय सुधा से सींच॥२६॥
जिसने सुना देव ऋषि आये,
ब्रह्म लोक से भू पर धीर।
सब के मन में जगी लालसा,
कब हो दर्शन हुये अधीर॥२७॥
लगा बीतने युग सा क्षण-क्षण,
अत: चल दिये बिना बिलम्ब।
जैसे व्यथित अनाथ पा गया,
अकस्मात कोई अवलम्ब॥२८॥
लगे पहुँचने एक-एक कर,
मुनि-समीप था हर्ष अपार।
हुये समर्पित मुनि चरणों में,
जड़ चेतन शुचि विगत विकार॥२९॥
फिर स्वागत सेवा मे तत्पर,
हुये सश्रध्दा भक्ति समेत,
स्नेहिल दृष्टि डालकर सब पर,
हुये तुष्ट मुनि कृपा निकेत॥३०॥
दर्शनेच्छ सब धन्य हो गये,
कर नारद के शुभ दर्शन।
सब में शक्ति शौर्य था अद्भुत ,
अति हर्षित थे जड़-चेतन॥३१।।
जन्म सफल निज सब ने माना,
आज समस्या हुई समाप्त।
मानो सिद्धि साथ नारद के,
आयी हुई चतुर्दिक व्याप्त॥३२॥
सब थे मग्न विविध भावों मे,
बाह्याभ्यन्तर पुलकित अंग।
पर न बुझी थी प्यास चाह थी,
रहें सर्वदा सुर-मुनि संग॥३३॥
देखा नारद ने प्रसन्न मन,
है सब मोह ग्रस्त पथ हीन।
हो जायेंगे ये आगंतुक,
निश्चित ही कर्तब्य विहीन॥३४॥
मात्र विदा अति शीघ्र समस्या का निदान है।
क्योकि मोह कर्तब्य हीनता का प्रमाण है।
दे कर शुभ संदेश, और आशीष ह्रदय से।
विदा किया सब को सुर मुनि ने शुचि आशय से॥३५॥
विदा सुन खिन्न हुये सब लोग।
दुखद था वह देवर्षि वियोग।
पर आज्ञा धर शिर पर मौन।
किया मन छोड़ देह से गौन ॥३६॥
॥इति अष्टम सर्ग॥
नवम सर्ग
बीती विभावरी हुआ प्रात,
पुलकित सर सीरुह ह्र्दय जात।
मतवाले मधुपो का गुंजन,
थिरकें मधु परियाँ मुग्ध मगन॥१॥
शीतल सुरक्षित चल मंद पवन,
करता आह्र्दित तपो सदन।
आलोक अलौकिक था बिखरा,
सौंदर्य प्रकृति का था निखरा॥२॥
था वातावरण सरस मधुमय।
मानो सुकाल का हुआ उदय।
सब में आशा विश्वास जगा।
आहत हताश तम तोम भगा॥३॥
था सर्वत्र शान्ति का शासन।
बैर त्याग सब जीव मुदित मन।
एक साथ करते थे विचरण।
सत्य अर्थ में आज तपोवन॥४॥
देख अलौकिक दृश्य मनोहर,
शान्ति समन्वित सभी चराचर।
शुभ मुहूर्त है यही सुअवसर,
अत:आदि कवि को प्रेरित कर॥५॥
पूरा करुँ लक्ष्य मनगलमय
जिसका पाकर मानव आश्रय।
निज जीवन को सफल बनायें।
सुख संतोष शान्ति सब पायें॥६॥
मृदु कल्याणी वाणी में, बोले देवर्षि महान।
कविवर जागो देखो होने वाला सुखद विहान।
सुप्ति मरण, जागरण सजीवन करता नव निर्माण।
आये हो तुम धरा धाम में,करने जन कल्याण॥७॥
गत रजनी अब ऊषा सुन्दरी कंचन थाल सजाकर।
थिरक रही है आज चतुर्दिक हेम कलवा छलका कर।
प्रमुदित प्रकृति मानती उत्सव अनुपम ललित ललाम।
फैला धरती पर मनमोहक नवल दृश्य अविराम॥८॥
विविध विहंगम कलरव करते बजी रागिनी साम।
गुंजित मधुकर निकर मनोहर सरसिज पर अभिराम।
मलय समीरण मंद-मंद चल करता सौरभ दान।
मधुमय वातावरण ह्र्दय हर सुषमा स्वर्ग समान॥९॥
सिद्धि समुत्सुक स्वागतार्थ ले ज्ञान विभव उपहार।
अब न गवाओ यह शुभ अवसर ग्रहण करो साभार।
बोलो कविवर कुछ तो बोलो क्यों बैठे हो मौन।
यदि न अकिंचन दान नृपति का ले तो दोषी कौन ॥१०।।
तुम समर्थ हो कर सकते हो सुखकारी सत्कर्म।
फिर प्रमाद क्यों करते मुनिवर!पालन करो स्वधर्म।
नयी सृष्टि के अपूर्व कर्ता उठो करो निर्माण।
जैसे सफल बधिक होता है चला लक्ष्य पर वाण॥११॥
`` आह देवर्षि चला कर बाण,
सृजन कैसा कैसा निर्माण।
आह क्रौंची का वह रोदन,
कर रहा ह्र्दय घाव नूतन॥१२॥
हुआ जिससे अनिष्टकर पाप,
त्याग वैदिक पथ अपने आप,
चल पडा अन्य राह अनजान।
समस्या का दिखता न निदान॥१३॥
हो गया सारा जीवन व्यर्थ,
ढो रहा देह-भार असमर्थ।
सुझाये भगवन सहज उपाय,
कि जिससे पाप पुण्य हो जाय ॥१४।
जिसे पाप तु समझ रहे हो,
वह वाणी का शुभ वरदान।
सूत्र पात्र कर नयी सृष्टि का,
विचल रहे हो क्यो मतियान॥१५॥
जीवन धन्य उसी का जग को-
नयी दिशा जो देता।
और भूल कर भी सुकर्म से,
जो विश्राम न लेता ॥१६॥
पहले तो मानव शरीर पा,
जगती मे तुम धन्य हो गये।
और दूसरे ताप प्रभाव से,
प्रभु के भक्त अनन्य हो गये॥१७॥
तिस पर भी माँ सरस्वती को-
मंगलमय वरदान पा गये।
जिसको पाप समझ कर भ्रम वश ,
कितना समय अमूल्य खा गये॥१८।।
शेष तुम्हारे जीवन का वह-
मूल्य समय अधिकांश पडा है।
कविवर व्रत लो नव रचना का,
अभी नही कुछ भी बिगडा है॥१९॥
अकस्मात संस्कृत भाषा में,
आदि छंद का जो अवतार-
हुआ श्रेय तुमको ही कविवर,
अत: करो उसका विस्तार॥२०॥
दृढ निश्चय कर उठो कवीश्वर,
करो लोक हित में वह कार्य।
जिसके लिये धरा पर आये,
और तुम्हें करना अनिवार्य॥२१॥
ऐसा चरित लिखो कविवर जो,
मानवता की परिभाषा हो।
वह इतिहास लोक मन रंजन,
जिसमें काब्यमयी भाषा हो॥२२॥
यदि कोई हो जटिल समस्या,
तो उसका भी समाधान है।
सुनो कवीश्वर! मनुज के लिये,
कुछ न कठिन सब का निदान है॥२३॥
`` जिसे समझा था मैने पाप।
बताते पुण्य उसी को आप।
मिल गयी देव! मुझे अब शान्ति।
मिट गयी आज ह्रदय की भ्रान्ति॥२४॥
आप का सिर माथे आदेश,
सुनाये गुरुवर! कथा विशेष।
लेखनी का जो हो आधार,
और जन जीवन का सुखसार॥२५॥
कौन इस समय लोक विख्यात,
यशस्वी अति पावन गुणवान।
भक्त वत्सल दीनों का बंधु,
सुधर्म धुरी सर्वज्ञ महान॥२६॥
जगत में जिसका चरित पवित्र,
अनूपम अति प्रसिद्ध महनीय।
प्रजा जन हो जिसके अनुकूल,
त्याग की मूर्ति, करे करणीय ॥२७॥
शान्त सुर से करता जो कर्म ,
स्वार्थ से विरत दया की मूर्ति।
दु:ख सबका जो समझ विशेष,
करे उनकी इच्छा की पूर्ति॥२८॥
जिसे दुखियों की चिन्ता नित्य,
रहा करती हो अपने आप।
स्वकष्टो का कर कभी न ध्यान,
दूर करता हो दुख-ताप॥२९॥
सज्जनो का जो वैरी घोर,
मिटा दे जो उसका अस्तित्व।
और जो आतंतिक भयभीत,
बचा ले उसका नर-व्यक्तितव॥३०॥
हे महर्षि! सर्वज्ञ सुजान,
जिसकी यशो कौमुदी व्याप्त।
कर के उस नर का गुण गान,
प्राप्त हो जिससे सुख पर्याप्त॥३१॥
॥इति नवम सर्ग ॥
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