सोमवार, 4 दिसंबर 2017

क्रौंचवध(प्रथम से तृतीय सर्ग तक) क्रमशः

क्रौच-वध
प्रथम-सर्ग
था भीषण वन प्रान्त,तुमुल तम शासन करता।
हिंस्त्र जन्तु-खघोर,सभी में मै था भरता।
कहीं-कहीं थे मार्ग,बने अटवी के भीतर।
भूले-भटके लोग, भयातुल चलते जिस पर ॥१॥
भूत प्रेत समुदाय,निराला वसा यहाँ था।
ऐसा भीषण दृश्य,दीखता अन्य कहाँ था।
थी चर्चा सर्वत्र,यही अतिशय भयकारी।
निशिचर करते नृत्य,रात कर लिये लुआरी ॥२॥
किसी मनुज को देख,वहाँ पर आते जाते।
उस पर टूट सवेग,हीन सर्वस्व रुलाते।
नही निकट के लोग,वहाँ कदापि जाते थे।
था ऐसा आतंक,नाम सुन थर्राते थे॥३॥
जगह-जगह बूटमार,घूमते थे निशि वासर।
थे उनके दुष्कर्म,दानवी,महा भयंकर।
उस अरण्य मे रात,था कि दिन भूल भटक कर।
आजाता असहाय,अभागा उसे मार कर ॥४॥
विकट दिखाकर वेश,भयावह शब्द बोलकर।
फिर वृतान्त से क्रूर ,टूट पड़ते बढ उस पर ।
निर्भय कर आघात,तथा सर्वस्व लूट कर।
मन मे अधिक प्रसन्न,देखते अन्य सुअवसर ॥५॥
एक बधिक अति उग्र,सभी बाधिको का स्वामी।
हो करके निर्भीक ,विचरता लम्पट कार्या।
नियत समय पर अन्य,बधिक आ चरण स्पर्श कर।
यथा भाग उपलब्ध,कराते ह्रदय खोलकर ॥६॥
मुस्क्यानों के साथ भेंट सब भी लेता था।
तब हार्दिक आशीष,पुन: उनको देता था।
यदि कोई दुर्भाग्य प्राप्त, नर सहसा आता।
सब कुछ उसका छीन,अभय कर राह दिखाता॥७॥
कर अद् भुत श्रृंगार,सुन्दरी मनो हरिणी।
अलंकृता तन दिव्य,स्वरुपा पंथ चारिणी।
एक दिवस स्वयमेव व फँस गयी माया पा कर।
आयी थी जो आज,फँसाने उसे गोद भर ॥८॥
जिस क्षण पहुँची आप,विपिन के निकट सुन्दरी।
मानो आयी भूल,अचानक काम सहचरी॥
धीरे-धीरे शान्त,पहुँच कर उस कानन में,
चलने लगी सलक्ष्य, लिये कौलूहल मन में॥९॥
दस्यु राज ने दीप,जला,आहट पाते ही।
सोचा मन मे आप,सुअवसर यह आते ही।
आज मिला आखेट, बिना कुछ किये प्रतीक्षा।
ठीक-ठीक अब भाग्य,की चलूँ करूँ प्रतीक्षा ॥१०॥
मुड़ उस पथ की ओर,देखने लगा ध्यान से।
समझ मानवी मूर्ति,उतर आया मचान से।
कुछ पग चल उस ओर,निकट रमणी के आया।
देख अलौलिक रुप,ढग सा रहा लुभाया॥११॥
कुछ क्षण रह कर मौन,कहा नारी से उसने।
कौन अभागा नीच,तुम्हे त्यागा है जिसने।
अथवा कोई और,तुम्हारे साथ यहाँ है?
बतलाओ वह भाग्य,हीन नर अभी कहाँ है ॥१२॥
आज एक अपराध,मुझे करना ही होगा।
और अंक मे आज,सुलाना तुमको होगा।
बोल सुन्देरी सत्य,यहाँ एकाकी आयी।
यदि ऐसा तो देवि!कोटिश:तुम्हे बधाई॥१३॥
या मेरे भुज शौर्य,की सुनी भरी प्रशंसा
हुई तुम्हारी आज,वरण की जिससे मनसा
या जीवन से ऊब प्राण देने हो आयी।
सच बतलाना देवी! यहाँ तुम कैसे आयी?१४॥
तुम्हें सहचरी प्राप्त,करूँ भाग्योदय मेरा।
मानो बीती रात,हो गया मधुर सवेरा।
देवि! न करो विलम्ब सुनाओ आत्म कहानी।
किस कुल की हो देवी!सुला किसकी हो रानी॥१५॥
सुने अपरिचित!क्रूर, नही कोई संग मेरे।
पूर्व जन्म का पाप,पड़ गयी हाथो तेरे।
करना क्या है और, हमारा परिचय लेकर?
जबकि नही है आस,बचूँगी सब कुछ देकर ॥१६॥
मेरा परिचय मात्र,समझ अब हूँ मै अबला।
भूल गयी हूँ राह,रही मै यद्पि सबला।
भटक रही मै आज,विवश इस भीषण वन में।
हाय मिले ये कष्ट,प्रथम ही इस जीवन में॥१७॥
यदि यहाँ त्याग कुमार्ग ,यहा मानव हो जाये।
कर के जीवन दान मुझे सत्पथ पर आये।
तजे पुरानी लीक,ग्रहण कर नयी सत्कला।
तो समझू गी आप,मनुज! मै अब भी सबला॥१८॥
अरी सुन्दरी विन्द, कर दो निज उपदेश को।
करना है स्वीकार,इस मेरे आदेश को।
अत:मधुर अभिसार,समय को व्यर्थ न खोओ।
भुज पाशो मे वद्ध,सहचरी मेरी होओ ॥१९॥
अपना भाग्य सराह है,पास जो मेरी आयी।
मुझसे अनुपम शक्ति,और किसने है पायी।
मीन-मेष को छोड़,चलो आवास हमारे।
ऐसा पति या देवि! जगे है भाग्य तुम्हारे॥२०॥
‘’ बने सदस्य कुछ देव ,लाज राखे नारी की।
शक्ति प्रशंसा योग्य,सदा जनमय हारी की।
दिखा मुझे सन्मार्ग,सुरक्षा मेरी कर दें।
पहुँचूं लक्ष्य समीप व्यवस्था ऐसी कर दें॥२१॥
‘’ दुष्टे!यह मत सोच,हो गया मै वश तेरे।
यह तेरा सौंदर्य ,चरण तल होगा मेरे।
बोल तुझे स्वीकार,कहा मैंने जो कुछ भी।
या ले चलूँ घसीट,तुझे मै बलपूर्वक ही॥२२॥
‘’ सब कुछ है स्वीकार,किन्तु जो नारि सम्पदा।
उसकी रक्षा प्राण,गँवा भी करूँगी सदा।
उस नारी का जन्म,व्यर्थ है इस भूतल।
जो मर्यादा-हीन,घृणित रहती जीवन भर॥२३॥
उस रमणी का हाथ,पकड़ खीचता ले चला।
करती विवश विलाप,जा रही थी वह अबला।
फिर भी रह-रह आप,विनय करती जाती थी।
दस्यु राज का कर्म,देख वह अकुलाती थी॥२४॥
सुन-सुन उसके शब्द ,और ही अधिक खीजता।
वधिक राज अति शीघ्र,वेग से उसे खींचता।
चलते-चलते एक,गुफा के पास पहुँच कर।
बोला,’’ यह आवास,हमारा चल प्रवेश कर ॥२५॥
बोली अबला देव! हमारे सब आभूषण-
ले कर रक्षालाज,की करे समुचित उस क्षण।
कोई भी अपराध,न हमने कभी किया है।
निर्दोषी को न्याय,ने नही दंड दिया है॥२६॥
यदि राजा स्वयमेव,स्वार्थ,वश अन्यायी हो।
तो उसके निकटस्थ,क्यो नही अनुयायी हों।
नृप तो नृप ही मान्य,रहे वे किसी भाँति के।
दस्यु राज हैं आप,नियंता है स्वजाति के॥२७॥
अत: करेंगे न्याय,यही करती है आशा।
निर्दोषी बच जाय,यही मन मे अभिलाषा।
यह कह दिये उतार,सभी आभूषण उसने।
‘’यह लें आप संभाल,जीविका-साधन अपने ॥२८॥
कामातुर को अन्य,लोभ कब मुग्ध कर सका।
इस क्षण वह उपदेश,मोह उसका न हर सका।
बोला’’ अवले!प्राप्त,रस को कौन तजेगा?
त्याग सुधा की धार,गरल को कौन भजेगा?२९॥
अत: न व्यर्थ प्रयास,करो मुझसे बचने का।
और न करो उपाय,जाल कोई रचने का।
दृढ. निश्चय यह जान,हो चुका आज हमारा।
अधर सुधा रस पान करुँगा सुमुखि!तुम्हारा॥३०॥
इस निश्चय से रोक,न सकता मुझको कोई।
स्वयं आगता वस्तु,अनूठी किसने खोई?
कहले चला सरोष,गुफा के भीतर उसको।
रंच न हो भयभीत,काम ने विद्या जिसको॥३१॥
चल कर पहुँचा शीघ्र,उग्र वटमार वहाँ पर ।
शयनागार अनूप,सजा था भव्य जहाँ पर।
घी का दीपक एक,सुगंधित वहाँ जल रहा।
मनो आसुरी यज्ञ,अनवरत वहाँ चल रहा॥३२॥
फैल रही थी गंध,मधुर मृगमद केशर की।
सुरभित शोभाधूप-धूम से थी उस घर की।
चमार एक मनोज,लटकता नागदन्त से।
सजा हुआ इस भाँति,कक्ष था आदि अन्त से॥३३॥
रखा हुआ था एक,सजल घट प्रस्तर ऊपर।
और उसी के पास,पात्र मे खाद्य मधुरतर॥
एक ओर मिष्टान,तथा कुछ मधुर-मधुरफल।
और सुशोभित सोम,चषक से एक शिला तल ॥३४॥
नागदन्त में कही,टँगा था धनु लचकीला।
कहीं विषैला बाण,भरा तरकस भड़कीला।
कहीं दिखी करवाल,कहीं पर दिखी तमंचा।
कहीं टँगी थी ताँत,विनिर्मित दृढ. प्रत्यंचा॥३५॥
देख व्यवस्था दस्युराज,की माया मन में-
करने लगी विचार,शक्ति अदभुत इस जन में।
यदि तज कर यह मार्ग,सुपथ पर यह आ जाये।
तो निश्चित ही नव्य,दिशा जग को दिखलाये॥३६॥
अत:इसे कुछ दिव्य रुप,अपना दिखलाऊँ।
कर के विस्मित आज,इसे सत्पथ पर लाऊँ॥
देख अलौकिक कर्म,सुनिश्चित मेरा, मन में-
सोचेगा अब व्यर्थ,विचरना है इस वन में॥३७॥
कहा,दस्यु ने देवि,यही मम शयन कक्ष है।
रमण हेतु अति भव्य सेज तेरे समक्ष है।
अत: त्याग कर तर्क,वितर्क प्रिय! आ जाओ।
स्वालिंग से आज,मुझे कृत कृत्य बनाओ॥३८॥
ऐसा कह तत्काल,उसे बाहो मे कसने-
बढा,सर्पिणी शीघ्र,बनी माया अब डसने।
पिछडा भय से दस्यु राज चिग्घाड़ मचाता।
देख कक्ष को शून्य ,मुडा, पर पुन: लजाता॥३९॥
निकल गुफा से भीत,उसी क्षण बाहर आया।
किन्तु लोभ वश लौट,गया भीतर घबराया।
निर्जन लख वह कक्ष,गिरा शैया के ऊपर।
मानो हार स्वराज्य,हाथ मलता हो नृपवर॥४०॥
किं कर्तब्य विमूढ, विचारो में निमग्न वह।
फिर से आयी याद,तुरत कामिनी कला वह।
सोचा मन में स्यात, नीद ने मुझे छला है।
जागृति में तो शक्ति नहीं मेरी विफला है।।४१॥
ठीक,नीद ने आज,छला है अब न छलाऊँ।
ऐसा करुँ उपाय,और भी ख्याति कमाऊँ।
तूने अबले आज,यहाँ आ मुझे जगाया।
दस्यु राज अब सत्य,अर्थ मे मुझे बनाया॥४२॥
मैंने अब तक हन्त! दया कर सब पथिकों पर।
किया घोर अन्याय, अभिन्न मित्र बधिको पर।
पर मित्रो! अपराध,क्षमा होर, अब न करुँगा।
अब से मै न दयालु,किसी पंथी पर हूँगा॥४३॥
नहीं दया का भाव,सुहाता बधिक जनो को।
हुआ कर्म च्युत हाय,बचाकर पथिक जनो को।
करता हूँ मै आज, यहाँ प्रतिज्ञा अब से जो भी-
आयेगा इस क्षेत्र, तजेगा प्राणो को भी॥४४॥
रह-रह कर के ध्यान,उसी नारी पर जाता।
हो कर दुख-संतप्त,खिन्न आँसू बरसाता।
दु:ख-सिन्धु में डूब ,रात भर रहा जागता।
प्रात स्वप्न के लोक, चला सब शोक त्यागता॥४५॥
स्वप्न के संसार में वह मुग्ध हो कर,
देखने फिर-फिर लगा वह दृष्ट छाया।
थी खडी ज्यों रुप के संसार से आ,
मोहती थी बधिक को वह गूढ माया॥४६॥
फिर सुरति की कामना से कर पसारे,
याचना करता प्रिये, भर अंक मेरा।
देख सम्मुख किन्तु भीषण सार्पिणी को,
उड़ चले ज्यों प्राण-पक्षी तज वसेरा॥४७॥
जग पडा सहसा समय चीत्कार करता,
स्वेद से लतपथ मलिन –मुख कान्ति खोयी।
देख साहस की विलखती आत्मा को,
आज मानो व्यक्त करुणा स्वयं रोयी ॥४८॥
बहुत समय तक उसी जगह पर,
जग कर बैठे बधिक चुपचाप।
तर्क-वितर्क अनेक कर रहा,
उसी स्वप्न पर अपने आप ॥४९॥
फिर कुछ क्षण में क्रोधाकुल हो,
उठा चला कानन की ओर
भीषणता का जहाँ राज्य था,
हिंसा जन्तुओ का था शोर ॥५०॥
इति प्रथम सर्ग 
द्वितीय सर्ग
अब प्रभात का समय सुरभि मय बीत चला था।
ऊषा का सौंदर्य ,तेज से गया छला था।
शीतल मन्द सुगन्ध पवन परिवर्तित होकर।
झंझानिल हो गया मधुरता सारी खो कर॥१॥
सभी दिशाओ में जैसे पर्वत अंजन के
निकल मही से नभ-रहस्य भेदन  को सनके।
थोडे ही क्षण बीच अवनि का कोना-कोना।
तमसावृत हो गया अभी जो रहा सलोना॥२॥
प्रलयंकारी मेघ नभोमण्डल में छापे।
विश्व-निगलने हेतु मनो निश्चय कर आये।
अति गम्भीर गर्जना से सब को डरवाते।
अदृहास करते मानव-प्रति नही अघाते॥३॥
उग्र प्रमंजन सभी दिशाओ से हर-हर कर।
चला ध्वस्त करता विनाश लीला मे तत्पर।
गिरते कही विशाल वृक्ष धरती के ऊपर।
गिरें छपाक-छपाक डालियाँ टूट-टूट कर॥४॥
इसी समय थी महा वृष्टि की हुई चढाई।
वह भी मानो प्रलय हेतु क्रोधित हो आयी।
मिल कर वृष्टि प्रभंजन से अति शक्ति प्राप्त कर।
करने लगी प्रहार कोप कर महा भयंकर॥५॥
सन-सन करता एक ओर चल रहा प्रभंजन।
और दूसरी ओर बाण सा जल का वर्षण।
इतना प्रबल प्रकोप प्रकृति का प्रलयकारी।
दिखा न इसके पूर्व कभी जल-थल-नभचारी॥६॥
रह-रह मेघावरण हटा चपला मुस्क्याती।
चका चौधं से किसे नही वह थी डरवाती
मेघ गड़ गडा अशनि पात भूतल पर करते।
किसी भाँति बच रहे जीव उससे थे मरते॥७॥
अभी-अभी जो भूमि रही अतिशय सुखदायी।
जल प्रावित हो गयी कही देती न दिखायी।
जितने पक्षी वृक्षों पर आश्रय थे पाये।
वात-वृष्टि से प्राण हीन जल मे उतराये॥८॥
भूमि विवर में जीव सभी जोन लिये शरण थे।
रुक न सके वे भीतर प्रावन के कारण थे।
प्राण सुरक्षा हेतु निकल ज्यों बाहर आये।
वात-वृष्टि के द्वारा वे सब प्राण गँवाये॥९॥
तीव्र विन्दुओ के आघातो ने तड़पा कर।
जल समाधि दे दिये उन्हे कुछ क्षण भरमाकर।
जल-प्रावन से बचे हुये टीलो के ऊपर ।
कुछ जीवों की हुई विजय आ वात वृष्टि पर ॥१०॥
दस्यु राज ने दुर्दिन के कष्टो को सहकर।
बचा लिये अपने प्राणो को बैठ वृक्ष पर ।
दैव-योग से वह पादप झंसा से बच कर।
खडा रहा वट वधिकराज बैठा था जिस पर ॥११॥
धीरे-धीरे शान्त हुआ जब महा प्रभंजन
दिये सुनाई वचे हुये जीवो के क्रन्दन।
उतर वृक्ष से राज दस्यु नीचे अब आया।
पर सागर सा लहराता जल लख घबराया॥१२॥
यद्पि थी प्रवलेच्छा मित्र –मिलन के मन में।
पर पावन के कारण था असमर्थ गगन में।
कुछ क्षण तो एकान्त वृक्ष लिये सहारा।
रहा निरखता जल प्रवित्र विपिन स्थल सारा॥१३॥
यद्पि शक्ति –विहीन हो चुका था वनचारी
पर मित्रो के जीवन की थी चिन्ता भारी।
चला वहाँ से अत: शीघ्र ही सहस धारे।
पर न जा सका अधिक दूर तक भय के मारे॥१४॥
एक धराशयी विशाल पादप के ऊपर।
जा बैठा चुपचाप खिन्न मन मारे थक कर।
बहुत समय तक उसी जगह चिन्ता मे रहकर।
बैठ बिताया प्रकृति  दत्त कष्टो को सहकर ॥१५॥
कई घरी के बाद हुये जब भू के दर्शन।
दस्यु राज फिर उतर वृक्ष से चला खिन्न मना।
कुछ पग तो अति:शीघ्र ही साहस धारे।
दलदल में फँस गया बढी  हार्दिक बिह्लता ॥१६॥  
त्राहि-त्राहि की मर्म गिरा से गुँजा कानन।
सहसा सुन कर एक दस्यु का हुओ आगमन।
बोला स्वामी क्या चिन्ता अब दास आ गया।
जीवित प्रभु के दर्शन कर मै धन्य हो गया॥१७॥
ऐसा कहता एक वल्तारी ला क्षण भर में।
पहुँचाया फिर दस्युराज के कम्पित कर में।
दे कर तत्क्षण वन –वल्ली का सहज सहारा।
बधिक वन्धु ने निज स्वामी को खींच उबारा॥१८॥
निकल पंक से दस्यु राज ने बाहर आकर।
कहा मित्र से आज बच गया तुमको पाकर।
यदि न मित्र !तुम आये होते इस अवसर पर ।
तो मै.........समाधि ले चुका था मैं प्रियवर ॥१९॥
यह कह बधिक राज ने उसको गले लगाया।
फूट-फूट कर रोदन करता दुख भार हटाया।
पुन: मित्र से पूछा उसने कुछ क्षण रुककर ।
कहाँ इस समय अन्य हमारे होंगे सहचर ।२०॥
उठो मित्र! अब पता लगायें उनका चलकर।
कैसी उन पर बीत रही होगी हे प्रियवर।
जब तक उनसे मिलन नहीं मेरा हो जाता।
तब तक प्यारे ! मन मेरा विश्राम न पाता॥२१॥
दोनो ही अति शीघ्र चल पडे इतना कहकर।
पहरों खोजा अति अशान्त मन भटक-भटक कर ।
किन्तु चिन्ह भी कोई उनका नही मिल सका।
जिसके कारण ह्रदय कमल उनका न खिल सका॥२२॥
प्राप्त विफलता बैठ गये दोनो ही थक कर।
कुछ क्षण कर विश्राम ,उठे  फिर आहे भर कर ।
एक ओर चल दिये आशा अवलम्बन।
किन्तु निराशा लगी हाथ, रुक गये खिन्न मन ॥२३॥
अंग शिथिल हो रहा क्षुधा से गया सताया।
दस्यु राज ने कहा ,आह भर हाथ न पाया।
कई दिनो से उदरपूर्ति का कोई सम्बल।
अत: प्राण रक्षा का कोई प्रिय! निकाल हल ॥२४॥
गया वनेचर एक ओर कुछ फल ले आया।
दोनो ने सप्रेम ग्रहण कर कुछ सुख पाया।
हो कर स्वस्थ शरीर,  तुरत फिर चले वहाँ से ।
चल कर पहुँचे शीघ्र ,चले थे प्रथम जहाँ से ॥२५॥
दैव योग से दस्यु जनो की मिली मण्डली।
दौड़ मिले सब लोग खिल गये ह्र्दय की कली।
सभी हर्ष से नाच उठे,स्वजनो को पा कर ।
बैठ गये फिर एक जगह सब सहचर आकर ॥२६॥
वार्ता में रत बहुत समय तक रहे परस्पर।
दस्यु राज ने कहा सुनो जो बीती मुझ पर ।
इस प्रकारउस मोहमयीकी कथा सुनायी।
रोमांचित सब हुये,अन्य फिर बात न भायी ॥२७॥
कहाँ किन्तु इससे न हमें विचलित होना है।
वह सुखकर व्यवसाय नही हमको खोना है।
चलकर अपना कर्म अधिक श्रम से करना है।
हमें नही अब महाकाल से भी डरना है॥२८॥
भर करके उत्साह,सभी बधिको के मन में।
दे कर के उपदेश ,हुआ तत्पर चिन्तन में।
बना योजना नव्य ,पुन: शीघ्र लुण्ठन की तत्क्षण ।
कहा,चलो अब शीघ्र ,करो निज कर्म विलक्षण॥२९॥
शक्ति समन्वित चले वहाँ से
नव उल्लास भरा मन में ।
तितर-वितर हो गये सभी इस-
महा भयंकर कानन में ॥३०॥
इति द्वितीय सर्ग

तृतीय सर्ग
माया ने कर यल हार करकर,किया तुरत प्रस्थान।
चली जा रही पगली जैसी,रहा न कुछ भी ध्यान।
कभी भटकती,कभी विचलती मन में विविध विचार।
जो थी आयी स्वयं दिलाने मानवता को न्याय।
किन्तु मार्ग मे दानवता का था भीषण अवरोध।
अत: नही दे पायी मानव को वह सम्य का बोध।।२॥
लख चौरासी में मानव को प्रभुता मिली महान।
पर स्वार्थन्ध मनुज के भीतर  का उमडा अभियान।
जिससे सृष्टि शिरोमणि भी वह घृणित कर्म मे लीन।
और शिखर पर भी पद पा कर पडा गर्व मे हीन॥३॥
भेजा गया जिसे धरती पर करने जन का उद्दार।
वही यहाँ भक्षक बन बैठा करता नर संहार।
किस प्रकार पथ भ्रष्ट मनुज का हो पाये कल्याण।
करती तर्क-वितर्क मार्ग में माया थी हैरान॥४॥
आह! मनुजता रोदन करती दूर खडी भयभीत।
दानवता मानव के सिर चढ गाती मंगल गीत।
कैसे हो कल्याण जीव का मिले विश्व को शान्ति।
किस प्रकार दिगभ्रान्त मनुज के मन की जाये भ्रान्ति॥५।
जैसे भी हो मानवता का करना है उद्धार ।
और रोकना है धरती पर दानवीय विस्तार।
करती विविध विचार आज माया खिन्न उदास।
कैसे सिद्ध कार्य हो माया चली ब्रह्म के पास॥६॥
माया के फन्दे में जकडा है सारा संसार।
पर शिकार से ही आखेटक स्वयं खा नया हार।
यह अनन्त की अद्भुत रचना और जादुई रंग।
जिसे देख कुछ समझ न पायी माया भी थी दंग॥७॥
धीरे-धीरे माया की ओर हुईं उलझने दूर ।
जो चाहूँगी होगा यदपि यह घमंड था चूर।
क्रिया सफलता की जननी है ऐसा था विश्वास।
अत: चल पडी कर्म रेख पर भरा ह्रदय उल्लास॥८॥
भूल चुकी थी जो पथ अब तक हुई पुन: पहचान।
जटिल समस्या का पायी हो जैसे सहज निदान।
मार्ग अकंटक बढी जा रही त्याग सकल जंजाल।
कौन जान सकता वेढंगी महा शक्ति की चाल॥९॥
भूतल से था महा शून्य तक माया का विस्तार।
डगमग-डगमग  डोली धरती था विस्मित संसार।
उडी हंसिनी पर फैलाये नम-लहरो को चीर।
करती पार अपार पंथ वह ज्यों बढता हो तीर॥१०॥
प्रस्तुत हुई ब्रह्म के सम्मुख ज्यों असफलता मूर्ति।
क्योकि  नही हो पायी उसके महालक्ष्य की पूर्ति।
दृष्टि डाल देखा विराटने माया वेवश मूक।
किं कर्तब्य विमूढ हुई हो जैसे कोई चूक॥११॥
माया बोले इससे पहले बोला ब्रह्म अजेय।
धारण कर नर देह करुँगा मै पूरा निज ध्येय।
चिन्ता त्यागो नारी वनकर साथ चलो तत्काल।
चलकर दस्यु राज के सम्मुख  फैलाओ निज जाल।।१२॥
ऐसा जाल किनिकल न पाये जिससे कभी शिकार।
फिरतो वशीभूत हो जायेगा, वह विगत विकार।
नाच-नाच पथ भ्रष्ट मनुजमी, राह पुरानी त्याग।
दुष्कर्मो से विरत दिखाये, गा सब पर अनुराग॥१४॥
अत: रुप नारी का धरकर, माया सहित हुलास।
चली रचाने मानवता, का एक नया इतिहास।
देख मनोहर रुप, ब्रह्म ने कहा सगर्व सहर्ष।
अब दुख दग्ध मनुजता का,होगा फिर से उत्कर्ष ॥१५॥
किन्तु प्राप्त के लिये लक्ष्य की,कार्य अभी कुछ शेष।
हम दोनो को धारण करना है, सात्विक मुनि वेश।
यह भी कार्य पूर्ण कर लो फिर करें अचूक उपाय।
वह उपाय जिससे भीषणता हो जाये असहाय॥१६॥
पा आदेश ब्रह्म का माया ने बदला निज रुप।
सात्विकता की मूर्ति सी दिखी मोहक मंजु अनूप।
अति आकर्षक सदगुण शंकुल ऋषि का वेश निहार।
हो संतुष्ट ब्रह्म ने धारण किया रुप साकार॥१७॥
सीमा मे वध गया आज वह जिसका आदि न अन्त।
फिर महर्षि का वेश ब्रह्म ने धारण किया तुरत।
चमक रहा था तेज-पुंज सा पावन दिव्य शरीर
आकर्षण का केन्द्र बना था सागर सा गम्भीर।।१८॥
छायावादी कविता जैसी शीश जटा छबिमान।
अथवा गूढ समस्या ही थी, जिसका नही निदान।
चपला त्याग चपलता मानो, बैठी मध्य ललाट।
अथवा त्याग उष्णता बैठा शीतल सूर्य विराट॥१९॥
निर्मल वाल –इन्दु लख शोभा,
मोह गगन मण्डल का छोड़।
वास हेतु मानो आया हो,
मृकुटि वक्र ज्यों कोष्टक मोड़ ॥२०॥
दुग्ध –फेन पर निकषा वर्तुल,
केन्दस्थित चपला की धार।
जगमग-जगमग प्रभा विखरती,
नयन सुशोभित त्रिसुराकार॥२१॥
शान्त सिन्धु में ज्वार उठा हो,
चन्द्र के लिये प्रेम विभोर।
नासापुट था दिव्य सुयश सा,
यथा शल्मली कोरक कोर॥२२॥
हों शिरीश के सुमन प्रफुल्लित,
अथवा पावस ऋतु रमणीय।
चिन्ताकर्षक वदन सुशोभित,
जैसे भव्य भाव ग्रहणीय॥२३॥
वैदिक मंत्रो के वैभव में,
ज्यों स्वर संगीत का अधिकार।
ग्रीवा कलाकार स्वप्नो की,
मानो दिव्य मूर्ति साकार॥२४॥
विधु  मण्डल से किरणें फैलीं,
जैसे भूतल पर अभिराम।
वैसे बहु विशाल सुविस्तृत,
करते कर्म सदा निष्काम॥२५॥
स्वच्छ स्फ टिका सा वक्ष्स्थल ,
जिस पर रुद्राक्षो का हार,
रोम सुशोभित यथा रजत के,
खिंचे हुये हो अति मृदु तार॥२६॥
शान्त सरोवर के जल में जब,
करता विषमघात समीर।
झलमल-झलमल लहरें उठती,
त्यों त्रिवली से युक्त शरीर॥२७॥
चंदन तरु से आवेष्टित ज्यों,अमरवेलि अति चक्ष्वविराम।
त्रिगुणणोपवीत सहज छबि शंकुल, जैसे शुद्ध हृदय निष्काम।
पंच दलो से युक्ति सुरभिमय,सुमन सत्य सुषमा की खान।
प्रतिदल ओस बिन्दु चमकीले,त्यों चरणो मेंनख भामान॥२८॥
लख महर्षि का रुप मनोहर,माया बोली वचन विनीत।
अब जन वैरी दानव होगा,निश्चित ही सब का प्रियभीत॥
अब महर्षि ने कहा मुदित मन,करना है हमको प्रस्थान,
लक्ष्य प्राप्ति तक जारी रखना,है यह प्रेरक शुभ अभियान॥२९॥
वल्कल वसन कमण्डक कर में,
नयनो में थी ज्योति अपार।
चले पथिक दो दानवता से,
करने मानव का उद्दार ॥३०॥

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