गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

कामायनी (जयशंकर प्रसाद)

चिंता सर्ग


हिम गिरि के उत्तुंग शिखर पर, 

बैठ शिला की शीतल छाँह। 

एक पुरुष, भीगे नयनों से, 

देख रहा था प्रलय प्रवाह। 

नीचे जल था, ऊपर हिम था, 

एक तरल था, एक सघन। 

एक तत्व की ही प्रधानता 

कहो उसे जड़ या चेतन। 

दूर-दूर तक विस्तृत था हिम, 

स्तब्ध उसी के हृदय समान। 

नीरवता-सी शिला-चरण से 

टकराता फिरता पवमान। 

तरुण तपस्वी-सा वह बैठा, 

साधन करता सुर-श्मशान। 

नीचे प्रलय सिंधु लहरों का 

होता था सकरुण अवसान। 

उसी तपस्वी-से लंबे, थे 

देवदारु दो चार खड़े। 

हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर 

बनकर ठिठुरे रहे अड़े। 

अवयव की दृढ़ मांस-पेशियाँ, 

ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार। 

स्फीत शिराएँ, स्वस्थ रक्त का, 

होता था जिनमें संचार। 

चिंता-कातर बदन हो रहा, 

पौरुष जिसमें ओत-प्रोत। 

उधर उपेक्षामय यौवन का 

बहता भीतर मधुमय स्रोत। 

बँधी महा-बट से नौका थी, 

सूखे में अब पड़ी रही। 

उतर चला था वह जल-प्लावन, 

और निकलने लगी मही। 

निकल रही थी मर्म वेदना, 

करुणा विकल कहानी-सी। 

वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, 

हँसती-सी पहचानी-सी। 

ओ चिंता की पहली रेखा, 

अरी विश्व-वन की व्याली; 

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, 

प्रथम कंप-सी मतवाली! 

हे अभाव की चपल बालिके, 

री ललाट की खल लेखा! 

हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ 

जल-माया की चल-रेखा! 

इस ग्रहकक्षा की हलचल! री 

तरल गरल की लघु-लहरी; 

जरा अमर-जीवन की, और न 

कुछ सुनने वाली, बहरी! 

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी! 

अरी आधि, मधुमय अभिशाप! 

हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, 

पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप। 

मनन करावेगी तू कितना! 

उस निश्चित जाति का जीव; 

अमर मरेगा क्या? तू कितनी 

गहरी डाल रही है नींव। 

आह! घिरेगी हृदय-लहलहे 

खेतों पर करका-घन-सी; 

छिपी रहेगी अंतरतम में, 

सब के तू निगूढ़ धन-सी! 

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता 

तेरे हैं कितने नाम! 

अरी पाप है तू, जा, चल, जा, 

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, 

नीरवते! बस चुप कर दे; 

चेतनता चल जा, जड़ता से 

आज शून्य मेरा भर दे। 

चिंता करता हूँ मैं जितनी, 

उस अतीत की, उस सुख की; 

उतनी ही अनंत में बनतीं 

जाती रेखाएँ दु:ख की। 

आह सर्ग के अग्रदूत! तुम 

असफल हुए, विलीन हुए; 

भक्षक या रक्षक, जो समझो, 

केवल अपने मीन हुए। 

अरी आँधियो! ओ बिजली की 

दिवा-रात्रि तेरा नत्तर्न, 

उसी वासना की उपासना, 

वह तेरा प्रत्यावत्तर्न। 

मणि-दीपों के अंधकारमय 

अरे निराशा पूर्ण भविष्य! 

देव-दंभ के महा मेघ में 

सब कुछ ही बन गया हविष्य। 

अरे अमरता के चमकीले 

पुतलो! तेरे ये जय नाद; 

काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि 

बन कर मानो दीन विषाद। 

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित 

हम सब थे भूले मद में; 

भोले थे, हाँ तिरते केवल, 

सब विलासिता के नद में। 

वे सब डूबे; डूबा उनका 

विभव, बन गया पारावार; 

उमड़ रहा था देव-सुखों पर 

दु:ख-जलधि का नाद अपार। 

वह उन्मत्त विलास हुआ क्या? 

स्वप्न रहा या छलना थी! 

देव सृष्टि की सुख-विभावरी 

ताराओं की कलना थी। 

चलते थे सुरभित अंचल से, 

जीवन के मधुमय निश्वास; 

कोलाहल में मुखरित होता, 

देव जाति का सुख-विश्वास। 

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, 

केंद्रीभूत हुआ इतना; 

छाया पथ में नव तुषार का, 

सघन मिलन होता जितना। 

सब कुछ थे स्वायत्त, विश्व के 

बल, वैभव, आनंद अपार; 

उद्वेलित लहरों-सा होता, उस 

समृद्धि का सुख-संचार। 

कीर्ति, दीप्ति, शोभा थी नचती, 

अरुण किरण-सी चारों ओर, 

सप्त सिंधु के तरल कणों में, 

द्रुम-दल में, आनंद-विभोर। 

शक्ति रही हाँ शक्ति; प्रकृति थी 

पद-तल में विनम्र विश्रांत; 

कँपती धरणी उन चरणों से 

होकर प्रतिदिन ही आक्रांत! 

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर, 

क्यों न विशृंखल होती सृष्टि; 

अरे अचानक हुई इसी से, 

कड़ी आपदाओं की वृष्टि। 

गया, सभी कुछ गया, मधुर तम 

सुर बालाओं का शृंगार; 

उषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, 

मधुप-सदृश निश्चिंत विहार। 

भरी वासना-सरिता का वह 

कैसा था मदमत्त प्रवाह, 

प्रलय-जलधि में संगम जिसका 

देख हृदय था उठा कराह। 

चिर किशोर-वय, नित्य विलासी, 

सुरभित जिससे रहा दिगंत; 

आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, 

मधु से पूर्ण अनंत वसंत? 

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित 

प्रेमालिंगन हुए विलीन; 

मौन हुई हैं मूर्छित तानें, 

और न सुन पड़ती अब बीन। 

अब न कपोलों पर छाया-सी, 

पड़ती मुख की सुरभित भाप; 

भुज-मूलों में, शिथिल वसन की, 

व्यस्त न होती है अब माप। 

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, 

हिलते थे छाती पर हार; 

मुखरित था कलरव, गीतों में, 

स्वर लय का होता अभिसार। 

सौरभ से दिगंत पूरित था, 

अंतरिक्ष आलोक-अधीर; 

सब में एक अचेतन गति थी, 

जिससे पिछड़ा रहे समीर! 

वह अनंग पीड़ा अनुभव-सा 

अंग भंगियों का नर्त्तन, 

मधुकर के मकरंद उत्सव-सा, 

मदिर भाव से आवर्त्तन। 

सुरा सुरभिमय बदन अरुण वे, 

नयन भरे आलस अनुराग; 

कल कपोल था जहाँ बिछलता, 

कल्पवृक्ष का पीत पराग। 

विकल वासना के प्रतिनिधि वे, 

सब मुरझाए चले गए; 

आह! जले अपनी ज्वाला से, 

फिर वे जल में गले, गए!” 

अरी उपेक्षा भरी अमरते! 

री अतृप्ति! निबार्ध विलास! 

द्विधा-रहित अपलक नयनों की, 

भूख-भरी दर्शन की प्यास! 

बिछुड़े तेरे सब आलिंगन, 

पुलक स्पर्श का पता नहीं; 

मधुमय चुंबन कातरताएँ 

आज न मुख को सता रहीं। 

रत्न-सौध के वातायन, जिनमें 

आता मधु-मदिर समीर; 

टकराती होगी अब उनमें, 

तिमिंगिलों की भीड़ अधीर। 


यहाँ नहीं कुछ तेरा काम! 

चिर किशोर-वय, नित्य विलासी, 

सुरभित जिससे रहा दिगंत; 

आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, 

मधु से पूर्ण अनंत वसंत? 

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित 

प्रेमालिंगन हुए विलीन; 

मौन हुई हैं मूर्छित तानें, 

और न सुन पड़ती अब बीन। 

अब न कपोलों पर छाया-सी, 

पड़ती मुख की सुरभित भाप; 

भुज-मूलों में, शिथिल वसन की, 

व्यस्त न होती है अब माप। 

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, 

हिलते थे छाती पर हार; 

मुखरित था कलरव, गीतों में, 

स्वर लय का होता अभिसार। 

सौरभ से दिगंत पूरित था, 

अंतरिक्ष आलोक-अधीर; 

सब में एक अचेतन गति थी, 

जिससे पिछड़ा रहे समीर! 

वह अनंग पीड़ा अनुभव-सा 

अंग भंगियों का नर्त्तन, 

मधुकर के मकरंद उत्सव-सा, 

मदिर भाव से आवर्त्तन। 

सुरा सुरभिमय बदन अरुण वे, 

नयन भरे आलस अनुराग; 

कल कपोल था जहाँ बिछलता, 

कल्पवृक्ष का पीत पराग। 

विकल वासना के प्रतिनिधि वे, 

सब मुरझाए चले गए; 

आह! जले अपनी ज्वाला से, 

फिर वे जल में गले, गए!” 

अरी उपेक्षा भरी अमरते! 

री अतृप्ति! निबार्ध विलास! 

द्विधा-रहित अपलक नयनों की, 

भूख-भरी दर्शन की प्यास! 

बिछुड़े तेरे सब आलिंगन, 

पुलक स्पर्श का पता नहीं; 

मधुमय चुंबन कातरताएँ 

आज न मुख को सता रहीं। 

रत्न-सौध के वातायन, जिनमें 

आता मधु-मदिर समीर; 

टकराती होगी अब उनमें, 

तिमिंगिलों की भीड़ अधीर। 

उधर गरजतीं सिंधु लहरियाँ, 

कुटिल काल के जालों-सी; 

चली आ रहीं फेन उगलती, 

फन फैलाए व्यालों-सी। 

धसँती धरा, धधकती ज्वाला, 

ज्वाला-मुखियों के निश्वास; 

और संकुचित क्रमश: उसके, 

अवयव का होता था ह्रास। 

सबल तरंगाघातों से उस, 

क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी। 

व्यस्त महा कच्छप सी धरणी, 

ऊभ-चूम थी विकलित-सी। 

बढ़ने लगा विलास वेग-सा, 

वह अति भैरव जल संघात; 

तरल तिमिर से प्रलय-पवन का, 

होता आलिंगन प्रतिघात। 

बेला क्षण-क्षण निकट आ रही, 

क्षितिज क्षीण फिर लीन हुआ; 

उदधि डुबाकर अखिल धरा को, 

बस मर्यादा-हीन हुआ। 

करका क्रंदन करती गिरती, 

और कुचलना था सब का; 

पंचभूत का यह तांडवमय, 

नृत्य हो रहा था कब का। 

एक नाव थी, और न उसमें, 

डाँड़े लगते, या पतवार; 

तरल तरंगों में उठ गिर कर, 

बहती पगली बारंबार! 

लगते प्रबल थपेडे़, धुँधले, 

तट का था कुछ पता नहीं; 

कातरता से भरी निराशा, 

देख नियति पथ बनी वहीं। 

लहरें व्योम चूमती उठतीं, 

चपलाएँ असंख्य नचतीं; 

गरल जलद की खड़ी झड़ी में 

बूँदें निज संसृति रचतीं। 

चपलाएँ उस जलधि, विश्व में, 

स्वयं चमत्कृत होती थीं, 

ज्यों विराट बाड़व ज्वालाएँ, 

खंड-खंड हो रोती थीं। 

जलनिधि के तल वासी जलचर, 

विकल निकलते उतराते, 

हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी, 

कौन! कहाँ! कब! सुख पाते? 

घनीभूत हो उठे पवन, फिर 

श्वासों की गति होती रूद्ध; 

और चेतना थी बिलखाती, 

दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध। 

उस विराट आलोड़न में, ग्रह 

तारा बुद-बुद-से लगते। 

प्रखर प्रलय पावस में जगमग, 

ज्योतिरिंगणों से जगते। 

प्रहर दिवस कितने बीते, अब 

इसको कौन बता सकता! 

इनके सूचक उपकरणों का, 

चिह्न न कोई पा सकता। 

काला शासन-चक्र मृत्यु का, 

कब तक चला, न स्मरण रहा। 

महामत्स्य का एक चपेटा, 

दीन पोत का मरण रहा। 

किंतु उसी ने ला टकराया, 

इस उत्तर-गिरि के शिर से। 

देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक, 

श्वास लगा लेने फिर से। 

आज अमरता का जीवित हूँ मैं, 

वह भीषण जर्जर दंभ, 

आह सर्ग के प्रथम अंक का, 

अधम-पात्रमय-सा विष्कंभ! 

ओ जीवन की मरु-मरीचिका, 

कायरता के अलस विषाद! 

अरे! पुरातन अमृत! अगतिमय 

मोहमुग्ध जर्जर अवसाद! 

मौन! नाश! विध्वंस! अँधेरा! 

शून्य बना जो प्रकट अभाव, 

वही सत्य है, अरी अमरते! 

तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव। 

मृत्यु, अरी चिर-निद्रे! तेरा, 

अंक हिमानी-सा शीतल। 

तू अनंत में लहर बनाती, 

काल-जलधि की-सी हलचल। 

महा नृत्य का विषम सम, अरी, 

अखिल स्पंदनों की तू माप। 

तेरी ही विभूति बनती है, 

सृष्टि सदा होकर अभिशाप। 
अंधकार के अट्टहास-सी, 

मुखरित सतत् चिरंतन सत्य। 

छिपी सृष्टि के कण-कण में तू, 

यह सुंदर रहस्य है नित्य। 

जीवन तेरा क्षुद्र अंश है, 

व्यक्त नील घन-माला में। 

सौदामिनी-संधि-सा सुंदर, 

क्षण भर रहा उजाला में। 

पवन पी रहा था शब्दों को, 

निर्जनता की उखड़ी साँस। 

टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि, 

बनी हिम-शिलाओं के पास। 

धू-धू करता नाच रहा था, 

अनस्तित्व का तांडव नृत्य। 

आकर्षण-विहीन विद्युत्कण, 

बने भारवाही थे भृत्य। 

मृत्यु सदृश शीतल निराश ही, 

आलिंगन पाती थी दृष्टि। 

परम व्योम से भौतिक कण-सी, 

घने कुहासों की थी वृष्टि। 

वाष्प बना उड़ता जाता था, 

या वह भीषण जल-संघात। 

सौर चक्र में आवर्तन था, 

प्रलय निशा का होता प्रात!


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