गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

कामायनी (जयशंकर प्रसाद)

                  चिंता सर्ग की व्याख्या 


हिमालय पर्वत की ऊँची चोटी पर एक शिला की शीतल छाया में बैठा हुआ एक पुरुष अश्रु पूर्ण नेत्रों से जल प्रलय के फलस्वरूप उत्पन्न हुई अपार जलराशि को देख रहा था।
वह पुरुष अपने चारों ओर जल तत्व की ही प्रधानता देखता था। शिला-खंड के पास से प्रवाहित होने वाला जल द्रव रूप में था, और बर्फ़ के रूप में ठोस था लेकिन जल या बर्फ़ वास्तव जल तत्व के ही दो रूप हैं। कवि का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जल तत्व एक होते हुए भी तरल और सघन रूपों में विद्यमान है, उसी प्रकार ईश्वर की सत्ता एक होने पर भी सृष्टि में विविध रूपों में प्रतिभासित होती है।


जिस प्रकार दूर-दूर तक फैली हुई बर्फ़ बिल्कुल जड़ जान पड़ती थी, उसी प्रकार उस व्यक्ति का हृदय भी स्पंदनहीन जान पड़ता था। जैसे पवन की नीरव चोटों से शिला की स्थिरता नहीं टूटती, वैसे ही मनु का हृदय चट्टान के ही सदृश्य था और उनकी शांति किसी भी प्रकार भंग नहीं हो रही थी।


वह तरुण पुरुष तपस्वी की भांति दैवीय शक्ति की साधना में लीन जान पड़ता था। इस प्रलय कालीन सागर की लहरें रह-रह शिलाखंड से आकर टकराती थीं और अत्यंत करुणा पूर्ण ध्वनि उत्पन्न कर वहीं समाप्त सी हो जाती थी।


पास में ही उस तरुण तपस्वी के सदृश्य लंबे-लंबे कुछ देवदारु के वृक्ष थे, जो कि हिमाच्छादित हो जाने के कारण न केवल बिल्कुल सफ़ेद जान पड़ते थे अपितु ऐसा प्रतीत होता था मानो शीत से ठिठुर जाने के कारण वे पत्थर के समान अड़कर रह गए हों।


उस व्यक्ति के शरीर का प्रत्येक अवयव सृदृढ़ था और मुख की कांति भी अपूर्व ओजमयी थी तथा वह स्वस्थ रक्त के संचार से परिपूर्ण नसों के कारण अत्यंत आकर्षक भी प्रतीत होता था।


उसके शरीर से अनुपम पौरुष झलक रहा था; पर साथ ही वह चिंता के कारण कुछ-कुछ व्याकुल भी जान पडता था। इसी प्रकार उस व्यक्ति की हृदय-स्थली में यौवनकालीन अनेक मधुर स्मृतियाँ भी विद्यमान थीं। प्रलय के शोक के सामने उसकी प्रेम भावनाएँ उपेक्षित जान पड़ती थी।


जिस नाव का सहारे मनु ने जल प्रलय में अपने प्राणों की रक्षा की थी, वह नाव सूखी ज़मीन पर एक विशाल बरगद के वृक्ष से बँधी हुई थी। क्षण-प्रतिक्षण जल की बाढ़ भी कम होती जा रही थी और पृथ्वी भी दिखाई पड़ने लगी थी।


उस व्यक्ति का हृदय वेदनापूर्ण था और अब वह अपनी करुण कहानी का वर्णन कर रहा था। उसकी इस दर्द भरी कहानी को श्रवण करने वाली और उसकी व्यथाओं की अनुभूति करने वाली मात्र प्रकृति ही उस कहानी को मुस्कराती हुई सुन रही थी और ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह पहले से ही उसकी कहानी से परिचित है।


मनु चिंता को संबोधित कर कहता है कि आज पहली बार उसके हृदय में चिंता प्रवेश कर सकी है। जिस प्रकार संसार रूपी उपवन में विचरण करने वाले प्राणियों को सर्पिणी पग-पग कर सशंकित कर देती है उसी प्रकार जिस मनुष्य का हृदय चिंताग्रस्त हो जाता है वह कुछ भी नहीं कर पाता। जिस प्रकार ज्वालामुखी पर्वत का प्रथम विस्फोट ही भीषण प्रभावकारी होता है तथा वह अपने समीपवर्ती सभी पर्दाथों को प्रभावित कर उन्हें नष्ट कर देता है उसी प्रकार चिंता का आगमन होते ही मन के अन्य समस्त क्रिया-व्यापार नष्ट हो जाते हैं।


चिंता अभाव की चंचल बालिका है क्योंकि वह अभाव से ही उत्पन्न होती है। चिंता मनुष्य के ललाट की वह रेखा है, जो उसकी नियति निर्धारित करती है। ज्यों ही मनुष्य के हृदय में चिंता उत्पन्न होती है, वह अस्थिर हो जाता है। वह उससे मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न करने लगता है। जिस तरह जल में अनेकानेक लहरें उठती रहती हैं उसी प्रकार चिंता भी इस माया-जगत में उठने वाली एक हलचल के समान है।


चिंता समस्त संसार में हलचल उत्पन्न करने वाली है जिस प्रकार विष की हल्की लहर मनुष्य के शरीर में व्याप्त होते ही उसे व्याकुल अवश्य कर देती है पर उसके जीवन का पूर्ण रूप से अंत नहीं कर देती, उसी प्रकार चिंता भी मनुष्य को केवल व्यथा ही पहुँचा पाती है। वह अपने जीवन को अमर समझने वाले देवताओं को भी वृद्ध बना देती है। चिंता इतनी स्वच्छंद और निष्ठुर है कि जब वह किसी मानव मन में प्रविष्ट होती है तब उसका रुदन (रोना) नहीं सुन सकती और बहरी बनकर स्वच्छंदता के साथ उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लेती है।


चिंता मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की व्यथाओं को उत्पन्न करने वाली है। चिंता के कारण मन हमेशा व्याकुल रहता है, वह शाप तो है ही, पर इसे एक मधुर अभिशाप ही समझना चाहिए क्योंकि यदि जीवन में चिंता न हो तो मनुष्य सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न ही नहीं करेगा और जीवन की मधुरता से वंचित रह जाएगा। चिंता का उदय ठीक उसी प्रकार विध्वंस का द्योतक है जिस प्रकार आकाश में पुच्छल नक्षत्र के उदय होने पर सृष्टि में बाह्य विनाश की आशंका होने लगती है।


हे चिंता! यद्यपि तू आज इतना अधिक सोच विचार करवाकर मुझे व्यथित कर रही है, पर मुझे इसकी तनिक भी परवाह नहीं है क्योंकि अमर जीवात्मा को नष्ट करने की शक्ति किसी में नहीं है। चिंता के कारण मुझे चाहे कितना दुख क्यों न हो परंतु इससे मेरे जीवन का अंत किसी भी प्रकार नहीं हो सकता।


जिस प्रकार ओलों से परिपूर्ण बादल हरी-भरी खेती को नष्ट कर देने की आशंका पैदा करते हैं, उसी प्रकार हृदय में चिंता के उदय होते ही मानव मन आशंकित हो उठता है। जिस प्रकार पृथ्वी मे छुपे हुए धन का पता उसी व्यक्ति को रहता है जो कि उसे वहाँ छिपाता है, चिंता भी मनुष्य के अंत करण में छिपी रहती है और उसका पता वही जान पाता है जो चिंताक्रांत होता है।


चिंता के न जाने कितने नाम हैं! चिंतन द्वारा ही मनुष्य सत-असत् का निर्णय कर पाता है, इसीलिए वह बुद्धि कहलाती है; वह हृदय में ज्ञान उत्पन्न करती है अतः उसे मनीषा भी कहा जाता है। चिंता ही मति भी कहलाती है क्योंकि मनुष्य उसी की सहायता से किसी विवाद ग्रस्त विषय के संबंध में अपनी कोई निश्चित धारणा बना सकता है और मनुष्य की शोकावस्था में चिंता ही आशा के रूप में सांत्वना प्रदान करती है। चिंता के इतने रूप होते हुए भी वह जिस रूप में मनु के हृदय में उदय हुई है, वह अत्यंत अशुभ है इसलिए मनु चिंता को संबोधित करते हुए कहता है कि उसका यहाँ पर कुछ भी काम नहीं है।


चिंतातुर मनु की चाहत है कि विस्मृति उसे घेर ले ताकि अतीत की स्मृति उसे पीड़ा न दे सके। मनु अपने शरीर में शिथिलता चाहता है ताकि उनमें तनिक भी सोचने-विचारने का उत्साह न रहे। इसी प्रकार मनु अपने हृदय में उठने वाली समस्त हलचलों को शांत करना चाहते हैं और अपनी समस्त चेतना को विलुप्त होती हुई भी देखना चाहते हैं जिससे कि उन्हें किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक व्यथा की अनुभूति न हो सके।


चिंता की अवसन्न स्थिति से मनु का ध्यान देवताओं के विलासी जीवन की ओर गया। अब मनु कहते हैं कि विगत दिनों की उन मनोहर स्मृतियों के संबंध में वे जितना ही अधिक सोचते हैं, उतना ही अधिक दुःख उन्हें होता है।


मनु कह रहे हैं कि जिन देवताओं का जन्म इस धरती पर सबसे पहले हुआ था और जिन्हें इस सृष्टि का अग्रदूत कहा जाता था, उन्हीं का आज अस्तित्व ही समाप्त हो गया और वे इस अपार जलराशि में विलीन हो गए। जिस प्रकार मछलियाँ अपनी जाति का विकास करती हैं, उसी प्रकार जिन देवताओं ने अपनी जाति का उत्थान किया था उन्होंने अब आठों पहर विलास में ही लीन रहकर स्वयं ही अपने आपको नष्ट कर डाला।


मनु कह रहे हैं कि जल प्रलय के पूर्व दिन-रात आँधियों और बिजलियों का भयंकर नृत्य होता रहा परंतु देवतागण भोग-विलास में ही लीन रहे। जब वे सचेत न हुए तब प्रकृति ने अपना भीषणतम रूप धारण कर उन्हें सर्वथा नष्ट कर दिया।


जिस देव जाति को अपनी तक इस बात का अहंकार था कि उसका विनाश कोई भी नहीं कर सकता वही अब इस जल प्रलय के कारण नष्ट हो गई। जिस प्रकार घोर अंधकार में रखा हुआ मणि का एक दीपक केवल अपने आसपास ही थोड़ा सा प्रकाश कर पाता है और अपने चारों और व्याप्त तिमिर-राशि को सर्वथा नष्ट कर देने की शक्ति उसमें नहीं रहती उसी प्रकार आज वह स्वयं भी अपने भविष्य के विषय में कुछ भी सोचने-विचारने में असमर्थ है।


आज तक जिन देवताओं का जयघोष चारों ओर गूँजा करता था, अब देव जाति का पतन हो जाने पर वे ही जय-ध्वनियाँ दीनता और दुःखपूर्ण स्वरों में प्रतिध्वनित हो रही है।


मनु कह रहे हैं कि अंत में प्रकृति की ही विजय हुई और घमंड में फूले देवताओं को पराजय स्वीकार करनी पड़ी। देवता यह भूल गए थे कि विलासिता की अधिकता से उनका नाश हो जाएगा। अज्ञानतावश वे हमेशा भोग-विलास की नदी में ही डूबे रहे।


मनु का कहना है कि न केवल वे सभी देवगण जो कि हमेशा भोग-विलास में ही लीन रहते थे, सब डूब गए। जल-प्लावन के कारण जो उमड़ता हुआ समुद्र ऐसा प्रतीत होता है मानो देवताओं का वैभव ही पानी बनकर इस अगाध सागर के रूप में चारों ओर फैला हुआ है और वह उनके समस्त सुखों को अपने में लीन कर दुःख को ध्वनित कर रहा है।


आख़िर देवताओं का वह निर्बाध, उच्छृंखल भोग विलास आज कहाँ चला गया? क्या यह सब केवल स्वप्न मात्र या भ्रम ही था? मनु का कहना है कि देवताओं के संसार की वह सुख-रात्रि ताराओं से परिपूर्ण थी और जिस प्रकार तारागणों की कोई गिनती ही नहीं ही पाती उसी प्रकार देवताओं के भोग-विलास की भी कोई सीमा न थी।


स्त्रियों के सुगंधित आँचलों की छाया से देवगण मादक साँसे लिया करते थे और विलास एवं वैभव के वातावरण में सुख तथा स्वच्छंदता के साथ अपना जीवन व्यतीत करना ही उनका लक्ष्य था।


वास्तव में देवताओं के जीवन का एकमात्र लक्ष्य सुखोपभोग ही था और उन्होंने विविध सुखों को अपने पास उसी प्रकार एकत्र कर लिया था जिस प्रकार नवीन बर्फ़ कणों की भाँति चमकने वाले अनेकानेक तारे आकाश गंगा में गुँथे हुए जान पड़ते है।


मनु कह रहे हैं कि संसार के समस्त बल-वैभव के स्वामी देवता थे इसी कारण उनका जीवन अपूर्व सुखमय और समृद्धिशाली हो गया था। जिस प्रकार आज समुद्र की लहरें उमड़-घुमड़ कर अपनी सत्त एवं व्यापकता का परिचय दे रही है उसी प्रकार देवता भी अपनी समृद्धि का परिचय देते थे।


मनु का कहना है कि देवताओं का यश, तेज़ और शोभा प्रातः कालीन सूर्य की किरणों के समान चारों ओर व्याप्त थी। इतना ही नहीं देवता सप्त सिंधु के तरल कणों और वृक्षों के झुंड में आनंद मग्न होकर घूमा करते थे।


मनु का कहना है कि देवताओं में अपूर्व शक्ति विद्यमान थी और प्रकृति भी पराजित होकर नम्रता के साथ उनके चरणों से झुक गई थी तथा धरती उनके चरणों से पद दलित होकर प्रतिदिन काँपती रहती थी।


मनु कह रहे हैं कि देवताओं ने यह समझ लिया कि अब वे स्वयं ही अपने कर्मों के नियामक है तथा जो कुछ चाहें करने को स्वतंत्र हैं तब स्वाभाविक ही उनकी संयमहीनता के कारण संसार की व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न होने लगी और उन्हें अनेक विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं।


मनु का कहना है कि देवताओं का समस्त ऐश्वर्य और आनंद विहार नष्ट हो गया तथा देवबालाओं का शृंगार और उषा-सा उनका यौवन, चाँदनी सी उनकी मुस्कानें तथा मतवाले भँवरे के समान उनका निश्चिंत भोग विलास आदि नष्ट हो गया।


देवताओं के जीवन में उमड़ती हुई वासना रूपी नदी तीव्र वेग के साथ प्रवाहित हुई और अंत में यह नदी विनाश के समुद्र में ही विलीन हो गई। उनके इस अंत से अब मनु का हृदय कराह उठता है।


जीवन के वे मधुर दिन जब युवावस्था की ही अनुभूति रहती थी, नित्य भोग-विलास और वासना में मग्न रहने के अवसर उपलब्ध थे तथा जीवन में हमेशा वसंत ऋतु रहती थी, न जाने कहाँ चले गए?


फूलों से लदे हुए लतामंडपों में होने वाले आलिंगनों के दृश्य भी अब कहीं नहीं दीख पड़ते और सुंदर सुरीली स्वर लहरी भी कहीं नहीं सुन पड़ती तथा वीणा भी अब शांत है।


अब इस जल प्रलय के कारण देवताओं और देवबालाओं को न तो चुंबन सुरा ही प्राप्त हो पाती है और न वे प्रमालिंगन ही कर पाते हैं। जब देवता रूपवती नारियों के कपोलों का चुंबन लेते थे तब उन्हें उनके शरीर से निकलने वाली फूलों की-सी मधुर सुगंध का आनंद प्राप्त होता था। साथ ही वासना के आवेग में जब देवबालाएँ उनका आलिंगन करती थीं तब उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त होकर बिखर जाते थे परंतु अब ये सभी दृश्य समाप्त हो चुके हैं।


मनु का कहना है कि देवबालाएँ जब देवताओं का आलिंगन करती थी तब उनके कंगन मधुर ध्वनि करते, घुँघरू बज उठते और उनके वक्षस्थल पर हार हिलने लगते तथा चारों और संगीत की मधुर ध्वनि गूँजने लगती जिसमें स्वर और लय परस्पर मिले रहते थे।


उन दिनों सभी दिशाएँ सुगंध से परिपूर्ण रहती थीं और आकाश में चारों और अपूर्व प्रकाश व्याप्त रहता था। साथ ही देवताओं में एक ऐसी गति विद्यमान थी जिसके समक्ष वायु का वेग भी तुच्छ जान पड़ता था। इस प्रकार वे प्रतिदिन अत्यंत तीव्र गति के साथ उत्कर्ष प्राप्त कर रहे थे और उनकी यह गति पवन से भी तेज़ थी।


विलासिनी देवबालाएँ जब अपने विविध अंगों को मोड़कर भाँति-भाँति के हाव-भाव प्रदर्शित करती थी तब यह स्पष्ट हो जाता था कि उन्हें काम पीड़ा की अनुभूति हो रही है और उनकी इन चेष्टाओं को देखकर देवता भँवरों के समान उनके यौवन रस का पान करने में रत हो जाते।


देवबालाओं के मुख से हमेशा शराब की सुगंध निकला करती थी और रात में अधिक देर तक जागने के कारण आलस्य और अनुराग से पूर्ण उनके नेत्र हमेशा लाल रहते थे। उनकी आलस्यपूर्ण पलकों से वासना छलकती प्रतीत होती थी। यद्यपि देवबालाओं के कपोलों की पीली आभा के सामने कल्पवृक्ष के फूलों का पीला पराग भी रंगहीन जान पड़ता था।


अतृप्त वासना के प्रतीक देवताओं का आज नाश हो गया है। वे अपनी ही लगाई आग में जल गए।


देवताओं ने यह समझकर कि वे अमर हैं अपने जीवन में सभी की उपेक्षा की और भोगविलास को ही जीवन का साध्य समझा परंतु उनकी तृष्णा शांत नहीं हुई। उन्हें किसी भी बात की चिंता न थी और काम-क्रीड़ा के अतिरिक्त उन्हें अन्य कोई कार्य भी न था। इस प्रकार वे हमेशा प्रेम की प्यास लिए वासना पूरित नेत्रों से देव बालाओं क दर्शनों की लिए उत्सुक रहते।


देवबालाओं का आलिंगन करते समय जो रोमांच उनके शरीर में हो जाता था वह अब समाप्त हो गया। देवबालाओं के अधरों का मधुर चुंबन लेने की छटपटाहट और कातरता अब देवताओं को नहीं सता रही।


जिन रत्न-जटित भवनों के झरोखों में से सदा सुगंधित पवन बहा करता था, आज उन्हीं में से तिमिंगल नामक अनेक समुद्री मछलियाँ टकरा रही होंगी।


उन सुंदर देवबालाओं के नेत्र नीले कमल के समान थे। वे जिस ओर भी दृष्टि फेरती थी, उधर अब उन नील कमलों के स्थान पर भीषण प्रलयकारी वर्षा हो रही है।


खिले हुए सुगंधित फूलों और मणियों की जो मनोहर मालाएँ अभी तक देवबालाओं के शरीर पर शृंगार सज्जा का काम देती थी वे ही आज शृंखलाओं के समान प्रतीत हो रही हैं और ऐसा जान पड़ता है कि उन पुष्पमालाओं में वे वे जकड़ दी गई हो।


जिस प्रकार यज्ञ की समाप्ति पर पशुओं की आहुति से यज्ञ की ज्वाला भभक उठती थी, उसी प्रकार अब ये सागर की भीषण लहरें ही आग की लपटों के समान जान पड़ती है।


उनकी यह दशा देख कर अंतरिक्ष में यह कौन रोया कि आसमान से आँसू बरसने लगे!


मनु कह रहे हैं कि जलप्लावन होते ही चारों और भयंकर हाहाकार मच गया और बिजलियों के टकराने से इतनी अधिक भीषण आवाज़ें होने लगीं कि अब प्रतिक्षण केवल कोलाहल ही सुनाई पड़ता है और इसके कारण सभी दिशाएँ भी बहरी सी हो गई हैं।


मनु कह रहे हैं कि दिशाओं में आग लग जान के कारण चारों ओर धुआँ ही धुआँ दिखाई पड़ता और कभी-कभी तो यह प्रतीत होता कि मानो आकाश में बादल ही घिर आए हैं। साथ ही तेज़ आँधी के भयंकर झोंकों से सारा आकाश ही रह-रहकर डोलने लगता।


सूर्य का प्रकाश पहले तो धुँधला-सा दीख पड़ने लगा पर कुछ ही क्षण पश्चात सूर्य उस अंधकार में ही अदृश्य सा हो गया और अब चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा गया। साथ ही जल देवता वरुण भी क्रुद्ध होकर भयंकर वर्षा करने लगे और चारों ओर धुँए से उत्पन्न कालिमा की एक मोटी तह सी जम गई।


जिन पंचभूतों (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि) के मिश्रण से यह संपूर्ण सृष्टि बनी है, आज उन्हीं का मिश्रण भयंकर प्रलयकारी दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। बिजलियाँ टूट-टूटकर गिर रही थीं और विद्युत खंड ऐसे प्रतीत होते थे मानो वास्तविक अमर शक्तियाँ अंधकार में छिपे हुए प्रातः काल को मशाल लेकर ढूँढ रही है।


लगातार होने वाले भयंकर कोलाहल के कारण धरती अब भी काँप उठती थी और चारों ओर जो नीला अंधकार दृष्टिगोचर होता था, उसे देखकर यही जान पड़ता था मानो काँपती हुई धरती को देखकर उसे छाती से लगा धीरज बँधाने के लिए नीला आकाश ही नीचे उतर आया हो।


उधर मृत्यु पाश के समान दिखाई देने वाली सागर की भीषण लहरें गरजती हुई इस प्रकार आगे बढ़ती थी मानो कि अपने-अपने फन फैलाकर अनेक ज़हरीले सर्प बढ़े चले आ रहे हों। लहरों की उपमा सर्प से देते हुए यहाँ यह कल्पना की गई है कि लहरों से उठने वाला फेन ऐसा प्रतीत होता था मानो कि वह उन सर्पों के मुख से निकला हुआ ज़हर हो।


धीरे-धीरे धरती नीचे की ओर धँसने लगी और उनके अंतर की आग ऊपर प्रकट हुई जो ज्वालामुखी पर्वत से स्फुटित होने वाली आग की भीषण लपटों के समान जान पड़ती थी। इस प्रकार पृथ्वी का भाग क्रमशः संकुचित होने लगा।


समुद्र की शक्तिशाली तरंगों के भीषण थपेड़ों के कारण पृथ्वी अत्यधिक विचलित जान पड़ने लगी तथा ऐसा प्रतीत हुआ मानो कि दीर्घकाय कछुए के समान धरती लहरों के थपेड़ों से घबराकर ऊपर की ओर सरक आई हो।


जिस तरह देवताओं की वासना अत्यंत तीव्र गति से बढ़ती चली गई थी, उसी प्रकार अब जलप्रलय भी अत्यंत वेगपूर्वक बढ़ने लगा और चारों ओर भयंकर जलराशि एकत्र होने लगी। चारों ओर फैले हुए अंधकार की सघन परतों पर भयंकर पवन बार-बार आकर टकराता था और ऐसा प्रतीत होता था कि उन दोनों में भीषण घात-प्रतिघात चल रहा है।


धीरे-धीरे सागर का किनारा क्षण-प्रतिक्षण समीप जाने लगा और सुदूर क्षितिज के पास की पृथ्वी के भी जलमग्न हो जाने के कारण अब जल और आकाश मिले हुए दीख पड़ने लगे। समुद्र की यह मर्यादा है कि वह अपने तट को नहीं डुबाता परंतु प्रलयकालीन सागर ने अपनी मर्यादा का परित्याग कर समस्त धरती को डुबो दिया और वह सीमाहीन हो गया।


चारों ओर से भयंकर आवाज़ें करते हुए शोले बरसने लगे और उनके नीचे सब कुछ दबने लगा तथा पंचभूतों का यह भीषण तांडव न जाने कब तक चलता रहा।


मनु अपने जीवित बच जाने की कथा सुनाते हुए कह रहे हैं कि जल प्लावन में सारे ऐश्वर्य समाप्त हो गए और मनु को एक ऐसी नौका मिली जिसमें बाढ़ के समय डाँट और पतवार भी नहीं लगा सकते थे, वह नौका पगली की भाँति इधर-उधर चक्कर काटती हुई आगे की ओर बढ़ रही थी।


उस नाव पर रह-रहकर बार-बार लहरें भीषण आघात करती थीं और समुद्र के धूमिल तट का कहीं पता भी न चलता था। मनु का कहना है कि मेरे हृदय में घोर निराशा सी व्याप्त होने लगी और मुख से व्याकुलता भी झलकने लगी परंतु यह सोचकर कि अब तो मैं भाग्य के ही अधीन हूँ, शांत बैठा रहा और विश्व की वह नियामिका शक्ति ही पथ-प्रदर्शिका बनी।


समुद्र में ऊँची-ऊँची





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