आशा सर्ग की व्याख्या
प्रलय के कारण प्रकृति का जो मुखड़ा भयातुर और कांतिहीन जान पड़ता था, आज वह पुनः उसी प्रकार मुस्करा उठा जिस प्रकार वर्षा के समाप्त होने पर शरद ऋतु के आते ही संसार में चारों ओर आनंद छा जाता है।
उषा का आगमन होने पर उस बर्फ़ीले प्रदेश पर सूर्य रश्मियों का नवीन प्रकाश प्रेमपूर्वक इस प्रकार फैलने लगा मानो कि सफ़ेद कमल पर मकरंदपूर्ण पीला पराग बिखर गया हो।
पृथ्वी पर जो बर्फ़ की तहें जमी हुई थीं, वे भी अब धीरे-धीरे लुप्त होने लगी और उनके नीचे दबे हुए पेड़-पौधे पुनः स्पष्ट होने लगे तथा कुछ जल से भीगी हुई वनस्पतियों को देखकर यही प्रतीत होता था मानो वे जागने पर अब शीतल जल से अपना मुख धोकर आलस्य दूर कर रही हों।
जिस प्रकार पूर्ण रूप से जागने से पहले कामिनी अपनी सुकुमार पलकें खोलती और बंद करती है, उसी प्रकार प्राकृतिक वस्तुएँ पहले तो धीरे-धीरे उत्पन्न हुई और तत्पश्चात् पूर्णतः विकसित होने लगी। अतएव प्रकृति में भी अब चेतनता-सी आ गई और समुद्र की लहर अब आलस्य पूर्ण अंगड़ाई लेकर सोने लगी अर्थात् सागर की लहरें अब शांत हो गईं।
उस भीषण जल राशि से अब पृथ्वी भी थोड़ी सी बाहर निकल आई थी और वह ऐसी प्रतीत होती थी मानो समुद्र रूपी सेज पर पृथ्वी रूपी नववधू सिकुड़ी हुई बैठी हो। साथ ही जिस प्रकार कोई नवविवाहिता पूर्व रात्रि में प्रियतम द्वारा किए किसी व्यवहार के कारण स्वाभाविक ही लज्जा-वश ऐंठ में आकर मान करने लगती है, उसी प्रकार पृथ्वी रूपी वधू भी प्रलयकालीन रात्रि की हलचलों को स्मरण कर रूठी हुई सी जान पड़ती है।
मनु ने उस जन हीन, नवीन, मनोहर, एकांत स्थान को देखा और वहाँ की नीरवता देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो सारा कोलाहल ही शीतल बर्फ़ से ठिठुर कर जड़ हो गया हो तथा वहीं कहीं थककर सो रहा हो।
प्रातकालीन चंद्रमा-रहित नीला आकाश ऐसा जान पड़ता था। जैसे किसी ने नीलम के किसी बहुत बड़े प्याले को, जिसका कि सोम रस ख़ाली कर दिया गया हो, उल्टा लटका दिया है। प्रलयकालीन भयानक वातावरण के समाप्त हो जाने के कारण पवन भी निश्चिंतता के साथ साँस लेने लगा अर्थात वायु मंथर गति से चारों ओर बहने लगी।
महान शक्ति ने पृथ्वी को नवीन रंग से अनुरंजित करने के लिए उषा के रूप में सुनहरा रंग घोलना प्रारंभ किया। इसका अभिप्राय यह है कि संपूर्ण सृष्टि सूर्य के प्रकाश से जगमगा उठी। मनु ने जब यह दृश्य देखा तो अचानक उनके हृदय में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि प्रकृति में इतनी नवीनता और मादकता लाने वाली यह कौन सी विराट सत्ता है? इस प्रश्न के उठते ही उनके हृदय में कुतूहल की वृद्धि होने लगी।
मनु सोच रहे हैं कि आख़िर वह कौन सी शक्ति है जिसके कभी भंग न होने वाले शासन में विश्वदेव, सूर्य पूषा, पवन, आँधी और वरुण आदि सभी देवता बिना विश्राम किए ही निरंतर चक्कर काट रहे हैं अर्थात् अपना सारा कार्य कर रहे हैं।
आख़िर वह कौन-सी शक्ति है जिसके ज़रा सी भौंह टेढ़ी करने पर प्रलय मच गई और सभी घबरा उठे। अभी तक तो ये देवता प्राकृतिक शक्ति कहे जाते थे, लेकिन अब ये ही उस विराट शक्ति के सामने असहाय और दुर्बल सिद्ध हो चुके हैं।
मनु कह रहे हैं कि इस भयंकर प्रलय के समय क्या जड़ और क्या चेतन—
सभी विकल होकर काँप उठे तथा उनकी दशा अत्यधिक शोचनीय हो गई और वे विवश एवं निरुपाय से हो गए।
न तो ये सूर्य, चंद्र और वरुण आदि प्राकृतिक शक्तियाँ ही देवता थीं और न वे स्वयं और उनके पूर्वज ही देवता थे बल्कि वे सभी परिवर्तन के पुतले थे। रथ में जुते हुए घोड़ो को जिस तरह चाबुक चलाता है, उसी तरह उन सबको भी वह विराट् शक्ति चला रही थी। वास्तव में तो वह महान् शक्ति ही देवता है क्योंकि उसी के इच्छानुसार कार्य करना पड़ता है।
मनु सोच रहे हैं कि वह कौन-सी ऐसी विराट् शक्ति है जिसकी खोज करने के लिए महाकाश और अंतरिक्ष में सूर्य, चंद्र आदि ग्रह और अन्य असंख्य तारे तथा अणु-परमाणु आदि प्रकाश से युक्त होकर घूमते रहते हैं।
मनु कह रहा है कि न जाने वह कौन-सी विराट् शक्ति है जिसके आकर्षण के कारण ये ग्रह और नक्षत्र आदि कभी तो छिप जाते हैं और कभी निकलकर चमकने लगते हैं। वह कौन-सी शक्ति है जिसके रस से सिंचित होकर ये पेड़ पौधे लहलहा रहे हैं और इस प्रकृति को हरी-भरी करने का श्रेय किसे है?
वह कौन-सी विराट् शक्ति है जिसकी आधीनता सभी ने स्वीकार कर ली है और मूक भाव से उसकी महिमा का गुण-गान किया है। मनु कह रहे हैं कि उस सत्ता का अस्तित्व कहाँ है जिसकी महिमा का गुण-गान संसार के सभी पदार्थ हमेशा मौन होकर निरंतर किया करते हैं?
मनु का कहना है कि उनमें स्वयं इतनी शक्ति नहीं है कि वे यह बता सकें कि वास्तव में वह अत्यंत मनोहर शक्ति कौन है और वे यह भी नहीं जानते कि आख़िर उस विराट् शक्ति का स्वरूप कैसा है।
मनु कह रहे हैं कि इस संपूर्ण सृष्टि पर शासन करने वाली हे विराट् शक्ति, तुम कुछ अवश्य हो और इस चराचर जगत में तुम्हारा अस्तित्व अवश्य है क्योंकि सागर भी अपनी धैर्यपूर्ण मंद और गंभीर ध्वनि में तुम्हारे अस्तित्व की सूचना देता हुआ तुम्हारा गुणगान कर रहा है।
मनु अपने आपसे प्रश्न करता है कि उनके कोमल हृदय में सुमधुर स्वप्न के समान मादकता एवं अधीरता उत्पन्न करने वाली यह कौन सी शक्ति है। संभवत यह आशा ही है जो कि प्राणों की पोषिका सी बनकर उनके हृदय में व्याकुलता सी उत्पन्न कर रही है।
जिस प्रकार सुख की रातों में जागना अत्यधिक प्रिय लगता है और सभी यह चाहते हैं कि वह सर्वदा ही हृदय में निवास करती रहे। साथ ही हृदय में आशा का उदय ठीक उसी प्रकार धीरे-धीरे होता है जिस प्रकार अधरों पर मुस्कान की लहरें उठती हैं और जिस तरह कोई सुरीली तान नृत्य करती हुई प्रतीत होती है; ठीक उसी तरह आशा हृदय स्थली में प्रविष्ट होती है।
पहले जहाँ प्रलय और मृत्यु का भयंकर दृश्य उपस्थित था, वहाँ अब चारों ओर से जीवन की पुकार सुनाई पड़ रही है। यह नव प्रभात का शुभ उत्साह किसके चरणों में नत हो रहा है।
मनु में आशा के उदय होते ही जीवित रहने की इच्छा भी बलवती हो उठी उन्हें प्रतीत होने लगा कि अब उनकी भी सत्ता है। जिस प्रकार भक्त के कर्ण कुहरो में आराध्य द्वारा दिए गए वरदान की अनुपम ध्वनि गूँज उठती है उसी प्रकार मनु के हृदय में भी ईश्वर के अस्तित्व की पुकार गूँज रही है और उनके हृदय में इच्छा उत्पन्न हो रही है कि उनका यश भी हमेशा इस सृष्टि के इतिहास में गूँजता रहे।
मनु सोचने लगे कि किसकी सरल विकासमयी सत्ता इस तरह के संकेत कर रही है और क्या कारण है कि आज पुनः उन्हें जीवित रहने की तथा विलासमय जीवन व्यतीत करने की इच्छा हो रही है।
वस्तुत मनु को अभी तक अत्यधिक पीड़ा सहन करनी पड़ी थी अतः वे रह-रह कर यह भी सोचने लगते हैं कि आख़िर उनके जीवित रहने से क्या लाभ है और उन्हें जीवित रहकर क्या करना होगा? इस प्रकार मनु कभी-कभी ईश्वर से यह प्रार्थना भी करने लगते थे कि उन्हें यह बता दिया जाए कि इस अमर वेदना को लिए हुए कब उनकी मृत्यु होगी!
वह अंधकार का पर्दा हटा तो मनु ने देखा कि चारों ओर हरियाली फैली हुई है।
सामने सोने के समान चमकते हुए धान के पौधे फैले हुए थे और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह शारदीय लक्ष्मी का कोई मार्ग हो।
कवि हिमालय का वर्णन करते हुए कहता है कि सृष्टि की रचना की कल्पना जितनी उत्कृष्ट होगी उतना ही ऊँचा हिमालय पर्वत है अर्थात हिमालय विश्व-सृष्टि कल्पना के समान ही ऊँचा व महान है और वह सुख, शीतलता तथा संतोष का कारण भी है। जैसे जल प्रवाह में डूबने वाला व्यक्ति किसी न किसी वस्तु का सहारा लेकर ही डूबने से बच जाता है उसी प्रकार भीषण जल प्रलय में डूबती हुई पृथ्वी के लिए हिमालय ही सहारा देने वाला सिद्ध हुआ और वह उसी का मणि-रत्न-जटित आँचल पकड़कर डूबने से बच गई।
हिमालय पर्वत का शरीर सुदृढ़, पवित्र एवं अत्यधिक सुंदर और उसकी चोटियाँ भी हिमाच्छादित थीं तथा उस पर लताएँ फैली हुई थीं जिन्हें देखकर प्रतीत होता था मानो यह पर्वत निद्रा में मग्न हो और किसी मधुर स्वप्न को देखकर रोमाचिंत हो उठा हो।
हिमालय की तलहटी में नीरवता का निर्मल ऐश्वर्य उमड़ रहा था और शीतल झरनों की जो धाराएँ फूट रही थीं, वे मानो जीवन की अनुभूतियाँ बिखेर रही थीं और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो गिरिराज हिमालय ने अपने जीवन भर के संचित अनुभव को ही दूसरो के लिए बिखेर दिया है।
झरनों की उन शुभ्र धाराओं को बहता हुआ देखकर, कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता था मानो उसी असीम अंचल में किसी को मंद-मंद मुस्कराते हुए देखकर स्वयं हिमालय ही हँस पड़ा हो और वह हँसी ही इन अगणित धाराओं का रूप धारण कर कल-कल ध्वनि करती हुई बह रही हो।
हिमालय पर्वत की चट्टानों के बीच में जो रिक्त स्थान था, उसमें से जब सन-सन करता हुआ पवन बहता था उससे एक अपूर्व मधुर ध्वनि निकलती थी और उस ध्वनि को सुनकर जान पड़ता था कि मानो वह पवन एक प्रशस्ति गायक के रूप में हिमालय रूपी राजा का गुणगान करता हुआ कह रहा है कि इस पर्वत राज को कोई भेद नहीं सकता और यह अडिग है।
हिमालय पर्वत की चोटियाँ आकाश को स्पर्श कर रही थीं और उन पर घिरे हुए संध्याकालीन रंगीन बादल ऐसे जान पड़ते थे मानो उन चोटियों ने रंग-बिरंगी छींट की चादर ओढ़ ली है तथा उनके ऊपर बर्फ़ ऐसी लगती थी मानो हिमालय ने मुकुट पहन लिया हो।
बर्फ़ में ढँकी हिमालय की पर्वत श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे समस्त संसार के मान, गौरव और महत्व की प्रतिमूर्तियाँ हों तथा हिमालय के इस विस्तृत प्रांगण में एक होकर चुपचाप कोई सभा कर रही हो।
अनंत नीलाकाश इतना शांत जान पड़ता था मानो उनमें जड़ता-सी आ गई हो। पृथ्वी से अत्यधिक ऊँचा होने के कारण उसकी व्यापकता की कोई सीमा न थी। उसे देखकर यही आभास होता था कि उसे कोई न कोई अभाव अवश्य खटक रहा है और भ्रांति के कारण वह भटकता हुआ इतनी ऊँचाई पर पहुँच गया है।
हिमालय की सुंदर पर्वत श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे समस्त सृष्टि से व्याप्त आनंद की ऊँची-ऊँची लहरें ही हों जो अभावमय आकाश को यह दिखाना चाहती हों कि इस पृथ्वीतल में कितना सुख, कितनी हँसी कितना उल्लास है, जबकि उसमें (आकाश में) जड़ता और अभाव ही है।
हिमालय पर्वत में पास ही में एक सुंदर और विशाल गुफ़ा थी जो कि उस विशाल पर्वत की गोद के समान जान पड़ती थी। मनु ने उसमें अपने रहने के लिए सुंदर एवं स्वच्छ स्थान बनाया तथा वहीं रहने लगे।
उस गुफ़ा में पहले से एकत्र की गई अग्नि मंद-मंद जल रही थी जिसका प्रकाश सूर्य की धुँधली किरणों के समान था। मनु ने उस अग्नि को पुनः प्रज्वलित किया और अब वह सुलागाई जाने पर बड़ी तेज़ी के साथ धधकने लगी मानो शक्ति और जागृति की सूचक हो।
मनु द्वारा किए यज्ञों से देव संस्कृति पुनः सजग हो उठी अर्थात् मनु के दैवी संस्कार फिर जाग्रत हो उठे तथा ज्यों ही उन्होंने यज्ञ प्रारंभ किया, त्यों ही देव यज्ञों का सात्विक आकर्षण उन पर कर्म की मधुर छाया डालने लगा अर्थात मनु के हृदय में कर्म करने की भावना उत्पन्न हुई।
जिस प्रकार क्षितिज में बाल सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार मनु भी अब स्वस्थ और स्फूर्तियुक्त होकर उठे तथा लालसा पूर्ण दृष्टि से प्रकृति के मनोहर और शांत सौंदर्य को देखने लगे।
मनु ने निश्चय किया कि वे पाक यज्ञ करेंगे और वे धान चुनने लगे। उन्होंने आग को तेज़ किया जिसके फलस्वरूप अग्निकुंड से जो लपटें उठने लगीं उन पर धुएँ की एक सघन तह-सी जम गई।
मनु ने सूखी डालियों को यज्ञकुंड में डालना शुरू किया और इन डालियों के कारण आग की लपटें और भी अधिक तेज़ हो उठीं। इस प्रकार आहुतियाँ देने पर जो धुआँ उठा, उसकी नवीन सुगंध आकाश और वन में चारों ओर व्याप्त हो गई।
मनु ने अपने मन में सोचा कि इस भयंकर जल प्रलय से जिस प्रकार मैं बच गया हूँ, उसी प्रकार कोई आश्चर्य नहीं कि कोई दूसरा प्राणी भी जीवित बच रहा हो।
मनु के मन में यह विचार उत्पन्न होते ही यज्ञ की समाप्ति के पश्चात जो भी अन्न बचता, उसमें से कुछ अंश कहीं दूर रखने लगे। यह सोचकर कि इस अन्न से कोई अपरिचित प्राणी संतुष्ट होगा, मनु को स्वाभाविक ही सुख की अनुभूति होती थी।
मनु को इस बात से अपूर्व संतोष हो रहा था कि वे पाकयज्ञ के पश्चात अन्न का कुछ अंश कहीं दूर रख आते हैं। जो स्वयं भारी दुःख उठाता है उसकी मनोवृत्तियाँ भी कोमल हो जाती हैं और उसमें सहानुभूति की मात्रा भी अधिक रहती है। अतएव किसी अपरिचित के प्रति मनु की सहानुभूति का मूल कारण यही था और वे उस शांतमय वातावरण में अकेले ही प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।
प्रज्ज्वलित यज्ञकुंड के समीप बैठकर मनु विचित्र विचारों में लीन रहते थे। इसी प्रकार उस शून्य स्थान पर बैठे हुए मनु ऐसे प्रतीत होते थे मानो कि स्वयं तप ही शरीर धारण कर उस पतझड़ अर्थात् सूने एवं निर्जीव प्रदेश में निवास कर रहा हो।
परंतु कभी-कभी उनके हृदय में इच्छाएँ जाग उठती और नवीन चिंताओं के उत्पन्न होने पर उनका चित विचलित होने लगता। इस प्रकार मनु का अभावपूर्ण एवं अस्थिर जीवन धीरे-धीरे दिन-प्रतिदिन व्यतीत होने लगे।
मनु का भावी जीवन अनिश्चित एवं अंधकारमय ही था अतः उनके मन में नए-नए प्रश्न उठते रहते थे तथा जब वे हृदय में उन पर विचार करते तो उनका रूप थोड़ी ही देर में कुछ हो जाता। कहने का अभिप्राय यह है कि मनु के सामने समस्याएँ तो कई थीं परंतु वे उन पर ठीक से विचार नहीं पाते थे।
मनु को अपनी समस्याओं को कोई भी स्पष्ट समाधान न दीख पड़ रहा था पर समस्त प्रकृति तो क्रियाशील ही थी अर्थात् प्रत्येक मौसम अपने निश्चित समय पर ही आता था। अतएव ऐसी दशा में मनु के समक्ष केवल यही एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि अपने जीवन की रक्षा किसी न किसी प्रकार की जाए।
मनु तप में लीन हो गए और अपने नियमित कर्म करने लगे। जिस प्रकार आकाश में अनेक बादल एकत्र हो जाते हैं उसी प्रकार सांसारिक रंग में रँगे हुए उनके कर्मजाल के सूत्र घने होकर घिरने लगे अर्थात् अब उन्हें अनेक सांसारिक कर्मों में रत हो जाना पड़ा।
मनु अब अपने नियमित कार्यों में लीन रहते। जिस प्रकार समुद्र के किनारे पवन से प्रेरित होकर लहरें धीरे-धीरे नृत्य किया करती हैं, उसी प्रकार मनु भी उस एकांत नीरव प्रदेश में नियति को ही सब कुछ मानकर अपना जीवन व्यतीत करने लगे।
उस निर्जन में निश्चेशष्ट व्यक्ति की भाँति मनु अपना जीवन व्यतीत करते हुए असफ़ल कल्पनाएँ कर रहे थे। उधर सूर्य, चंद्र आदि नक्षत्र अपने-अपने पथ पर बढ़े चले जा रहे थे। कहने का अभिप्राय यह है कि मनु का समय धीरे-धीरे बीतता जा रहा था।
प्रहर, दिन और रात बीतते चले गए लेकिन उनमें मनु को किसी प्रकार की प्रेरणा न हुई। जैसे मन उत्साहीन हो जाता है तब कोई भी नवीन कार्य करने की इच्छा नहीं होती और चारों ओर निष्क्रियता ही निष्क्रियता दीख पड़ती है, इस प्रकार मनु की यह दशा स्वाभाविक ही थी।
यद्यपि मनु के हृदय में उदासीनता छाई हुई थी पर प्रकृति-सौंदर्य को देखकर उनकी मनोदशा में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। उस समय सुंदर रात्रि स्वच्छ चाँदनी से युक्त होने के कारण बड़ी ही मनोहर जान पड़ती थी और शीतल पवन जब सन-सन ध्वनि करता था तब ऐसा प्रतीत होता था मानो वायु पुलकित होकर पवित्र सामवेद के गीतों को गा रही है।
नीचे की ओर दूर तक लहरों से युक्त व्याकुल और अधीर समुद्र फैला हुआ था। साथ ही ऊपर की ओर आकाश में भी वैसा ही गंभीर अथाह सागर लहरा रहा था।
प्रकृति के इस सुंदर दृश्य को देखकर मनु के मन का आलस्य जाता रहा और उनकी जो चेतना अभी तक सुप्त थी, वह जाग उठी। इस दृश्य को देखते ही मनु के हृदय रूपी कुसुम की कली अचानक खिल उठी और उनके हृदय में विभिन्न प्रकार की सरस भावनाएँ सजीव होने लगी।
विस्तृत नीले आकाश से आने वाली चंद्रमा की सुंदर और चंचल किरणें मनु के शरीर को स्पर्श कर एक प्रकार की सिहरन भी उत्पन्न करती थी तथा उनका मन एक अलौकिक, मधुर एवं रहस्यपूर्ण प्रेम के स्वप्न लोक में पहुँच जाता था।
हृदय में स्थायी रूप में रहने वाली अनादि वासना भी मनु के हृदय में पुनः जाग्रत हो उठी और वे यही सोचने लगे कि यदि कोई दूसरा प्राणी भी उनके साथ इस गुफ़ा में रहता तो निश्चय ही उन्हें अपूर्व सुख मिलता।
मनु दिन में उषा और रात्रि में चंद्रमा के अनंत सौंदर्य को अभिलाषित नेत्रों से देखते और यही सोचने लगते कि जीवन का उर्मिल समुद्र पार करते ही उन्हें मिलन-सुख प्राप्त होगा।
मनु द्वारा अपना जीवन तपस्या से व्यतीत करने के कारण उनमें शारीरिक बल की वृद्धि भी हुई और उनकी प्रेम तृष्णा तथा तज्जन्य व्याकुलता भी बढ़ गई। वस्तुतः उनका मन किसी प्रेमिका के अभाव को अनुभव कर रहा था इसलिए उनकी अधीरता दिन-प्रतिदिन और अधिक बढ़ने लगी।
मनु के स्फूर्तिहीन थके हुए शरीर से ज्यों ही मंद-मंद सुगंध का स्पर्श हुआ तो वह रोमाचिंत सा हो उठा और वे एक प्रकार की व्याकुलता का अनुभव करने लगा। कवि कहता है कि अब मनु के मन में आशा का संचार होने और सुख की लहरें सी उठने लगीं।
मनु इसलिए व्याकुल थे कि उन्हें भी कोई ऐसा साथी मिलता जो कि दुःख में उनसे महानुभूति प्रकट करता। इस प्रकार प्रकृति के सुखद दृश्य को देखकर मनु अपने अभाव को स्मरण कर अत्यंत व्याकुल हो उठे और सहानुभूति प्राप्त करने की यह लालसा उनके हृदय को अत्यधिक व्यथित करने लगी।
मनु सोचने लगे कि यदि उनकी मधुर कल्पना पूर्ण हो जाती तो निस्संदेह उनका संसार सुखमय हो जाता और सुख स्वप्नों के इस साम्राज्य के स्थापित होने पर उनका हृदय प्रसन्नता से फूला न समाता।
मनु सोचते हैं कि यदि उनकी कल्पनाओं का सुखद साम्राज्य वास्तविक ही होता तो फिर संवेदनामय हृदय में इस प्रकार का विरोध न हो पाता ते धरती पर कहीं भी कौन अपने अभावों एवं असफलताओं की कहानियाँ सुनाता!
मनु अत्यधिक व्यथित हो कहने लगे कि हे मेरे जीवन, मुझे अभी कितने दिनों तक अकेले रहना पड़ेगा और मैं अपनी कथा किसे सुनाऊँ या फिर मुझे किसी साथी के न मिलने पर चुप ही रहना पड़ेगा? मनु यह भी कहते हैं कि जब उनकी इस व्यथा को कोई सुनने वाला ही नहीं है तब यही अच्छा होगा कि वे अपने हृदय के रहस्य को किसी के भी सामने न व्यक्त करे?
मनु आकाश में स्थित एक तारे को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे आभा और प्रकाश से युक्त तारे! तुम इस अंधकार के सुंदरतम रहस्य हो। तुम नव रस से पूर्ण उस बूँद के समान हो जो कि इस संतप्त संसार को शांति और शीतलता प्रदान करने में सक्षम हो।
मनु कह रहे हैं कि तारों की शीतल छाया में प्राणी अपने कष्टमय जीवन को भूलकर अपूर्व सुख शांति पाता है। मनु यह भी कहते हैं कि तारे उदय होते ही समस्त प्राणियों को सुखद संदेश प्रदान करते हैं। जिस प्रकार सघन अंधकार में भी वे चमकते रहते हैं उनसे
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